21 मार्च 2014

गुजरात का विकास मॉडल : खून और राख में लिपटी विकास की कहानी

नए सन्दर्भ-पुरानी बात  
रेयाज-उल-हक
राज्य की 10 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि दर के बावजूद गुजरात में एक तीखा सांप्रदायिक धु्रवीकरण रहा है. सवाल यह है कि इतने तेज विकास और ऐसी समृद्धि के बावजूद राज्य में बार-बार दंगे क्यों होते रहे हैं? क्यों राज्य के मुख्यमंत्री को झूठी मुठभेडों में हुई हत्याओं पर गर्व होता है? तथा क्यों वे ऐसी और हत्याओं की चेतावनी देते हैं? क्यों गुजरातियों को अचानक उनकी अस्मिता की इस कदर तीव्र जरूरत पड जाती है? सबसे बडी बात तो यह कि क्यों देश का पूरा तंत्र-सभी लोकतांत्रिक संस्थाएं, संसद, न्यायपालिका, प्रेस-इस पूरे घटनाक्रम को तटस्थ भाव से देखते हैं?

नहीं, शायद हम गलती पर हैं. कोई भी तटस्थ नहीं है. ये सभी संस्थाएं संसद, न्यायपालिका, प्रेस- सब मिल कर मुख्यमंत्री को दोबारा सत्ता में आने में मदद करती हैं.एक पूरी तारतम्यता है, पूरा सामंजस्य है. विंग्स के पीछे हम ऑर्केस्ट्रा की पूरी टीम देखते हैं, जिसका हर सदस्य अपने काम पर मुस्तैद है. हां कभी-कभी कोई नौसिखिया किसी गलत बटन को दबा देता है, जिससे संगीत गडबडा जाता है और दर्शक कुछ देर के लिए इस बेसुरेपन का भी मजा उठाते हैं, जायका बदलने के लिए.

केवल गुजरात ही नहीं, पूरे देश भर में जो घटनाएं घट रही हैं, उन सबमें एक जैसी बातें दिखायी देंगी. देश की 9 प्रतिशत आर्थिक वृद्धि दर और तीन दर्जन अरबपतियों के बावजूद असम, सिंगूर-नंदीग्राम, गोहाना, ओडिशा, लोहंडीगुडा, गुर्जर-मीणा विवाद और सिख-सौदा विवाद जैसी घटनाएं क्यों घट रही हैं? इन तेजी से विकसित होते महानगरों, साइबर सिटीज, 16 लेन की विशाल सडकों, सुपर मॉल्स, मल्टीप्लेक्सेज और विशाल औद्योगिक इकाइयों का लाभ आखिरकार कहां जा रहा है? लोगों तक संपन्नता, जैसे कि हमें शुरू में बताया गया था, रिसते हुए भी क्यों नहीं पहुंच रही? लोगों में इतना असुरक्षा बोध क्यों है?

अगर इन सभी घटनाओं में एक समान चीज को ढूंढने की कोशिश करें तो हम पायेंगे कि प्रायः इन सभी जगहों पर भारी पूंजी निवेश हुआ है या होनेवाला है या फिर आर्थिक संकट ने समाज को तोड दिया है, जैसे कि असम. इनमें से अधिकतर जगहों पर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के प्रस्ताव मंजूर किये गये हैं. इनके लिए बडी मात्रा में किसानों से जमीनें ली गयी हैं, ली जा रही हैं. प्रायः सभी जगहों पर उनके मुखर विरोध खडे हुए हैं. प बंगाल और ओडिशा के अलावा दादरी एवं गोवा में हम इसके उदाहरण देख सकते हैं.

मगर साथ ही इनमें से अधिकतर जगहों पर हम एक उद्धत भीड को, हत्यारे गिरोहों को, जनता के ही एक हिस्से को पाते हैं, जो लोगों की हत्याएं करती, बस्तियां और दुकानें जलाती और संपत्तियां लूटती फिरती है. इस भीड को हमेशा ही सत्ता का समर्थन होता है. नंदीग्राम में इस हत्यारी भीड के पीछे सीपीएम होती है और गुजरात में बीजेपी. ओडिशा में इसी भीड को जदयू-बीजेपी का समर्थन होता है तो छत्तीसगढ में कांग्रेस-बीजेपी दोनों का.
ऊपर से एकदम असंबद्ध लगनेवाली वित्तीय पूंजी और इस हत्यारी (दंगाई) भीड के बीच बेहद आत्मीय अंतर्संबंध हैं. मुख्यतः यह संगठित भीड या गिरोह इन जगहों पर किसानों अथवा संघर्षरत समूहों को विभाजित करने की कोशिशों का हिस्सा हैं. ये उनके प्रतिरोध को तोड कर रखे देते हैं और वहां की आबादियों में सरकारी और अधिकतर जनविरोधी नीतियों के प्रति व्यापक आक्रोश को प्रायः धुंधला कर देते हैं.

प बंगाल में नंदीग्राम के ताजा कत्लेआम के ठीक बाद तसलीमा नसरीन के मुे को हवा दी गयी. यह सिर्फ ध्यान बंटाने भर का मामला नहीं था, बल्कि प बंगाल में, विशेष कर नंदीग्राम की मुसलिम आबादी के प्रतिरोध को बांटने की कार्रवाई भी थी. ओडिशा में, जहां पोस्को के खिलाफ आदिवासी संघर्षरत हैं, वहां हिंदू-ईसाई विभाजन को तेज किया जा रहा है. सत्ता प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जनता में से ही ऐसे गिरोह निर्मित करती है, जो कि प्रायः उन समुदायों के खिलाफ हिंसात्मक कार्रवाइयां करते हैं, जो शासन की नीतियों का विरोध कर रहे हों या जिनकी तरफ से ऐसी आशंका हो. छत्तीसगढ में तो इसे और अधिक व्यवस्थित रूप दिया गया है. वहां बहुराष्ट्रीय कंपनियों और निगमों को जमीन देने से मना कर रहे आदिवासियों के खिलाफ उन्हीं के एक हिस्से को खडा कर दिया गया. सलवा जुडूम नाम के इस हत्यारे अभियान के दौरान सैकडों आदिवासी मारे गये और लाखों लोग अपनी जमीनों से उजाड दिये गये. अब वे सडकों के किनारे बनी झोंपडियों में रह रहे हैं. सरकार ने चुपचाप इन राहत शिविरों को राजस्व ग्राम में तबदील कर दिया है. मतलब यह कि वे आदिवासी अब अपनी जमीन पर कभी नहीं लौट पायेंगे. उस जमीन को अब जिंदल, एस्सार आदि कंपनियों के हवाले करने की तैयारियां चल रही हैं.
ठीक यही वह जगह है, जहां हमें भारत में लगातार बढ रही सांप्रदायिक, फासिस्ट (सामाजिक-सांप्रदायिक दोनों) व क्षेत्रीय हिंसा के सूत्र मिलते हैं. गुजरात में पहले से ही छोटे-छोटे उद्योगों की श्रृंखला रही है, जहां प्रायः अकुशल श्रम के जरिये उत्पादन होता रहा है. 1980 के बाद से, जब से पूरे भारत में वित्तीय पूंजी का आगमन शुरू हुआ, गुजरात में सांप्रदायिक दंगों की आवृत्ति में बढोतरी हुई. ज्यादातर अकुशल श्रमिक मुसलमान थे और छोटे उद्योगों में उनकी अच्छी-खासी हिस्सेदारी थी. मगर जब विदेशी पूंजी आने लगी, वह इस अकुशल श्रम को, छोटे-छोटे उद्योगों को बरदाश्त नहीं कर सकती थी. उसे बाजार पर अपने उत्पादों के लिए एकाधिपत्य चाहिए था और अपने उद्योगों के लिए श्रमिक, जो कि इन छोटे उद्योगों में लगे हुए थे. अतः इन छोटे उद्योगों के रहते उसके लिए अपना विस्तार संभव नहीं रह गया था. इनका उन्मूलन जरूरी हो गया.

से में हिंदुत्व बडे काम की चीज साबित हुई. उसके पास न सिर्फ एक पहले से ही ऐसी विचारधारा मौजूद थी जो देश के प्रमुख धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपना शत्रु मानती थी, बल्कि देश भर में उसका विशाल संगठन, विभिन्न छोटे-छोटे गिरोह, एक राजनीतिक पार्टी और विभिन्न भूमिकाओं में कार्यरत उसके लाखों कार्यकर्ता मौजूद थे. फिर गुजरात ने अपनी इस तथाकथित आर्थिक विकास की शुरुआत खून और राख से की. गुजरात में पहले से ही एक सांप्रदायिक विभाजन था. 1969 के दंगों ने राज्य के दोनों प्रमुख समुदायों में बडी दरार डाल दी थी. 1981 के दंगे हुए. और फिर छह माह तक चलनेवाले 1985 के कुख्यात दंगे, जिनमें सरकारी तौर पर 275 लोग मारे गये, लाखों बेघर हुए और लगभग 2200 करोड रुपये मूल्य के संपत्ति और व्यापार की क्षति (अनुमानित) हुई. इसके बाद भी 1990, 92, 93 में दंगे होते रहे. 1960 से 1993 के बीच राज्य में 43 सांप्रदायिक दंगे हुए. 1990 के दशक में गुजरात में भारी पैमाने पर छोटे उद्योग बंद हुए. इसके बाद से गुजरात में भाजपा का एकछत्र राज रहा है. साथ ही बीजेपी की नजदीकी बडे व्यापारिक घरानों और कंपनियों से बढी. यहां एक दिलचस्प तथ्य हम यह भी पाते हैं कि गुजरात में हुई अब तक की अंतिम औद्योगिक हडताल ब्रिटिश शासनकाल में, 1941 में हुई थी. इसके बाद इस औद्योगिक राज्य में कोई औद्योगिक हडताल नहीं हुई.
एक पूरे समुदाय को शत्रु के रूप में चिह्नित करने और उसके खिलाफ प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष हिंसा को बढावा देने के पीछे एक और वजह है. वित्तीय पूंजी के लिए अधिक-से-अधिक मुनाफा बटोरने को सुगम बनाने के लिए राज्य को डब्ल्यूटीओ और वर्ल्ड बैंक की साम्राज्यवादी नीतियों को लागू करना जरूरी था. इसके लिए उसे श्रम कानूनों में ढील देनी थी, जिससे मजदूरों के पास कोई अधिकार नहीं रह जाते. उसे बडी मात्रा में जमीनों का अधिग्रहण करना था, जिससे किसान बरबाद होते. राज्य के दूसरे संसाधनों को वित्तीय पूंजी की सेवा में लगाना था, जिससे राज्य के लोग अपने स्वाभाविक संसाधनों से वंचित हो जाते. इन सबका भारी प्रतिरोध होनेवाला था.
इन सबसे निबटने के लिए ऐसी सरकार चाहिए थी जो ऊपर से मजबूत ही न दिखे, उसे पास जनसमूह को जुटा लेने और अपने साथ रखने की काबीलियत भी हो. इसके लिए सरकारों को ऐसे नारे गढने जरूरी थे, जो ऊपर से जनता की आर्थिक जरूरतों को पूरा करते दिखें, हालांकि जनता को उन नारों से कभी कुछ फायदा न हुआ. व्यापक जनसमूह को उसकी जातीय अस्मिता का हवाला देकर अपने साथ एकजुट करना जरूरी था. इन सबकी वजह से प्रतिरोध की संभावनाएं कम हो जातीं और जो प्रतिरोध करने का साहस जुटाते उन पर इस जन समूह को छोडा जा सकता था. वैसे भी गुजरात में ऐसा कोई विकल्प नहीं रहा जो इस प्रतिरोध का नेतृत्व कर सके और उसको रचनात्मक दिशा देकर राज्य को इस दुष्चक्र से छुटकारा दिला सके.

हिंदुत्व ने वित्तीय पूंजी की मदद से उत्पीडक और उत्पीडित वर्गों की पृथक पहचान और चेतना को धुंधला करके सभी को एक साथ खडा किया. चूंकि इसका नेतृत्व शासन में बैठी पार्टी कर रही थी, लोग शासन के साथ एकजुट होते गये. सारे मामले में धर्म का इतना बेहतर उपयोग किया गया कि लोग इस मकडजाल में और अधिक फंसते चले गये. उनमें तीव्र असुरक्षाबोध पैदा करके उनकी सुरक्षा करने के बहाने उन्हीं के तमाम लोकतांत्रिक अधिकारों को खत्म कर दिया. अधिक क्रूर और दमनकारी कानून लाये गये और मानवाधिकारों को हिकारत की वस्तु बना दिया गया. लोग यह अब तक नहीं समझ पाये हैं कि उन्हें डरा कर खुद उनकी सरकार ने उनके नीचे से उनकी जमीन खिसका दी है और वे अंधी खाई में गिरे जा रहे हैं.

गुजरात दंगे स्वतःस्फूर्त नहीं थे और न उनके संदर्भ तात्कालिक थे. हम पाते हैं कि इन दंगों के पहले राज्य की अर्थव्यवस्था 1994 के बाद से गिरावट का शिकार थी. मगर दंगों के बाद 2004 से इसमें बेहतरी आयी है. 2004 में गुजरात में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद शेष भारत के मुकाबले 20 प्रतिशत अधिक था. इसके अलावा राज्य में प्रति व्यक्ति आय वृद्धि दर, जो कि 1994 के बाद से लगातार घट रही थी, 2004 के बाद पुनः बढने लगी.

हम यहां एक और विरोधाभास पाते हैं. अक्सर यह कहा जाता है कि निवेश के लिए राज्य में शांति और कानून-व्यवस्था बनी रहनी जरूरी है. मगर गुजरात का उदाहरण हमे इसकी एक उलटी बात दिखाता है. वहां विदेशी पूंजी निवेश की शुरुआत ही दंगों के साथ होती है और उनके तीव्र होते जाने के क्रम में ही निवेश में भी उछाल आता गया है. 2002 के दंगों के कुछ ही समय बाद, 2004 में गुजरात ने कुल 12 हजार 437 करोड रुपयों के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी दी. दरअसल वित्तीय पूंजी क्षेत्र विशेष की आर्थिक, सामाजिक विशिष्टताओं को नजरअंदाज नहीं कर सकती. गुजरात के अकुशल श्रम और कारीगरों को नष्ट किये बगैर उसका मुनाफा संभव नहीं है, तो वह वहां दंगों का आयोजन करवाती है. मगर जहां पहले से ही साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्षरत शक्तियां मौजूद हैं, वहां वह कानून-व्यवस्था और शांति के नाम पर दमनात्मक कानूनों की जगह बनाती है और उन संघर्षों पर सत्ता के जरिये कठोर दमन करती है.

तो हम पृष्ठभूमि में एक ऐसे लोकतंत्र को पाते हैं जो वित्तीय पूंजी के प्रवाह को विकास का पर्याय मानता है, उसके लिए हत्याएं और नरसंहार कराये जाते हैं, हत्यारे गिरोहों और भीड को प्रोत्साहन दिया जाता है और सरकारी नीतियों के खिलाफ प्रतिरोध को कुचलने के लिए समाज को अंधी आस्थाओं से लैस किया जाता है. यह कुल मिला कर समाधान को हमसे और दूर कर देता है.

और ऐसे में हमसे कहा जाता है कि गुजरात को विकास के एक मॉडल के रूप में स्वीकार किया जाये, क्या हुआ जो वहां अब भी एक पूरे समुदाय का आर्थिक बहिष्कार जारी है, क्या हुआ जो वहां अब भी दंगे के शिकार लोगों का पुनर्वास नहीं हुआ, क्या हुआ जो वहां फिल्मों पर अघोषित प्रतिबंध लगा दिये जाते हैं और पेंटिंग्स जलायी जाती हैं. इन सबके बावजूद हमें इस विकास को स्वीकार कर लेना चाहिए, क्योंकि मुख्यमंत्री फिर से चुनाव जीत गये हैं.

चुनाव. विकास. नवउदारवादी शब्दकोश के सबसे खनखनाते शब्द.

मगर एक ऐसी व्यवस्था में, जहां खुद चुनाव और पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं वित्तीय पूंजी और साम्राज्यवादी संस्थाओं की सेवा में लगी हुई हों, हम लोकतांत्रिक मूल्यों की गारंटी कैसे कर सकते हैं? भारत में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं की मदद से ही फासीवाद सत्ता पर काबिज हुआ है. क्या 1975 में आपातकाल का अनुमोदन किसी दूसरे देश की संसद ने किया था? क्या 1984 के सिख विरोधी दंगों में शामिल पार्टी विशेष के लोग इसी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा नहीं थे? क्या बाबरी मसजिद इसी लोकतंत्र और इसके सभी स्तंभों के रहते नहीं तोड दी गयी? गुजरात नरसंहार के समय भी क्या यही लोकतंत्र नहीं था और नंदीग्राम के लोगों को उन्हीं की भाषा में जवाब देने की बात कहनेवाले मुख्यमंत्री इसी लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ही नहीं चुने गये हैं?

जहां संसद, न्यायपालिका और प्रेस, पूरा तंत्र ही, वित्त पूंजी के हिरावल दस्ते के रूप में काम करने लगे हों, हम इस बात की गारंटी नहीं कर सकते कि संसद ही जनता का वास्तविक प्रतिनिधित्व कर रही है और जनता के अधिकार भंग नहीं कर दिये गये हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो जनता के तमाम प्रतिरोधों के बावजूद संसद सेज प्रस्तावों को मंजूरी कैसे देती और अदालतें हडताल, बंद, आरक्षण और मजदूर विरोधी फैसले कैसे देतीं? अकेले गुजरात का उदाहरण ही इस बात के लिए काफी है कि लोकतंत्र वास्तव में जनवादी मूल्यों, समानता और आजादी की गारंटी नहीं दे सकता.

हत्यारे गिरोह खडा करने और उन्हें समर्थन देने के संदर्भ में हम देख चुके हैं कि चुनाव लडनेवाली प्रायः सभी पार्टियां अपनी-अपनी स्थितियों में ऐसे गिरोहों को संरक्षण-समर्थन देती रही हैं. इनमें कोई अंतर नहीं होता, सिवाय इसके लिए वे एक दूसरे के खिलाफ वोट मांगती हैं. उनकी आर्थिक और विदेशी नीतियां तथा आंतरिक नीतियां भी लगभग समान हैं. असल में चुनाव में हमारे पास चुनने को इसके सिवा कुछ भी नहीं रह जाता कि कौन-सी पार्टी इस बार वित्तीय पूंजी की सेवा करेगी व इसके लिए जनता के अधिकारों को र करेगी. इस तरह हम यह भी देखते हैं कि चुनाव अंततः सांप्रदायिकता आदि का समाधान नहीं हो सकते.

और विकास के नाम पर जो आंकडे दिखाये जा रहे हैैं, उनसे बहुत प्रभावित होने की जरूरत नहीं है. यह वित्त पूंजी का दबाव है, जो नरेंद्र मोदी को राज्य में बुनियादी संरचना में सुधार करने पर विवश कर रहा है.

राज्य में भारी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश ने प्रकटतः बडे उद्योगों की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है. मगर जो लोग प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की प्रकृति के बारे में जानते हैं, यह उनके लिए बहुत उत्साहजनक तथ्य नहीं है. उल्टे यह चिंताजनक स्थिति ही है, क्योंकि एफडीआइ किसी भी तरह देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत नहीं करता. प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में निवेशक को सारा मुनाफा अपने देश ले जाने का अधिकार होता है. एफडीआइ देश के संसाधनों और इसकी संरचना का उपयोग अपने मुनाफे के लिए करता है और बदले में वह देश के लिए उसकी सदियों की जहालत छोड देता है. चूंकि सारा मुनाफा देश के बाहर चला जाता है, देश में आगे के औद्योगिक विकास के लिए उससे कोई पूंजी नहीं बचती. अधिक से अधिक उद्योगों की स्थापना के पीछे जो रोजगार निर्मित करने का तर्क दिया जाता है, वह भी मुनाफे की व्यवस्था के तहत तकनीकआधारित उद्योगों के दौर में बेमानी हो गये हैं. उनसे बहुत रोजगार उत्पन्न होने की आशा नहीं रखनी चाहिए. इसके अलावा एफडीआइ कभी टिकाऊ औद्योगिक विकास का माध्यम नहीं हो सकता. यह दरअसल अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों और पूंजीवाद के संकट से उत्पन्न आवारा पूंजी का हिस्सा है. यह हर समय और अधिक मुनाफे की तलाश में अपनी जगह बदलती रहती है. यह आज यहां है, कल कहीं और होगी. और फिर हम अंदाजा लगा सकते हैं कि तब हमारी अर्थव्यवस्था का क्या होगा जो इस आवारा पूंजी पर अधिकाधिक निर्भर है.

गुजरात में जो बुनियादी सुविधाएं मुहैया करायी गयी हैं, वे प्रायः उन वर्गों की सुविधा के लिए हैं जो पहले से ही संपन्न हैं. उपभोक्ता बाजार के लिए गांवों तक पहुंच सुलभ बनाने और उसके लिए गांवों के दरवाजे खोलने के लिए जरूरी हो गया था कि वहां तक सडकें जायें और बिजली रहे.

मगर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के आंकडे राज्य में लोगों की बेहतरी को मापने के लिए एक बदतरीन उदाहरण हैं. राज्य अपने शासकों के चकाचौंध कर देनेवाले दावों के बावजूद , भूख, बदहाली और बीमारी से मुक्त नहीं है. गुजरात मानव विकास रिपोर्ट, 2004 बताती है कि गुजरात में निर्माण और कृषि क्षेत्रों, विकसित और अविकसित क्षेत्रों, ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों तथा आर्थिक विकास और लोगों की बेहतर जीवनशैली के बीच का अंतर तीखा हुआ है. 2005 में गुजरात में शिशु मृत्यु दर प्रति एक हजार बच्चों में 54 थी, जो कि राष्ट्रीय औसत से 1.07 गुणा ज्यादा है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे के मुताबिक 2005-06 के दौरान गुजरात में पांच वर्ष तक के आधे से कुछ कम (47 प्रतिशत) बच्चे कुपोषण और कम वजन के शिकार हैं. गुजरात में सामाजिक सेक्टर में खर्च नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में घटा है. वहां की 74.3 प्रतिशत महिलाएं और 46.3 प्रतिशत बच्चे एनीमिक हैं.

और अब हमारे सामने एक ऐसा राज्य है जो एफडीआइ की आयातित रोशनी में चमचमाता हुआ मंच पर खडा है और नेपथ्य में आत्महत्या किये 500 किसानों की लाशें सड रही हैं. जहां दलितों और अल्पसंख्यकों के साथ तीव्र भेदभाव है और जहां तीन वर्षों में 100 से अधिक दलितों की हत्या कर दी गयी.

क्या अब भी यह बताने की जरूरत है कि यह विकास कैसे हुआ और इसकी कीमत अंततः कौन चुका रहा है? क्या इस अबाध विकास के पीछे हत्याओं, नरसंहारों, घेटोकरण और संसदीय ढांचे के भीतर, उसी से उपजी तानाशाही की भूमिका को नजरअंदाज किया जा सकता है? और इसकी कीमत कौन चुका रहा है? उन पांच करोड गुजरातियों में से वे लोग जो कामगार हैं, वंचित हैं और गरीब हैं, अल्पसंख्यक हैं. जिनसे न सिर्फ उनके संसाधन और लोकतांत्रिक अधिकार ही छीन लिये गये हैं बल्कि इसका प्रतिरोध करने की उनकी संभावनाएं भी. जो कुछ राज्य ने उनके लिए छोडा है, वह है वापी में दुनिया का सबसे खतरनाक केमिकल हब, कपडा रंगाई उद्योग, जहाज तोडने और हीरे की पॉलिशिंग के रोजगार, जो उन्हें उनके जीवन के 30 वें साल में ही अंधा बना देंगे.

तो क्या वास्तव में हम अपने लिए ऐसे ही विकास को पसंद करेंगे?

13 मार्च 2014

इतिहास बता नहीं छुपा रही है भाजपा

अनिल यादव


दर्शनशास्त्र में एक बेहद प्रसिद्ध तर्क है जिसके आधार पर अनुमान को ज्ञान का साधन माना जाता है-जहां-जहां धुआ है वहाँ-वहाँ आग है। दर्शनशास्त्र के इस लाजिक को यदि मोदी और उनके इतिहास बोध पर लागू किया जाए तो हम आसानी से समझ सकते हैं कि नरेन्द्र मोदी जब भी इतिहास के सन्दर्भ में मुँह खोलेगें, गलत ही बोलेगें। इस परिपेक्ष्य में हमारे पास उदाहरणों की पूरी खेप है जब मोदी ने अपने इतिहास-बोध का परिचय दिया। चाहे वह सिकन्दर के गंगा तट पर आने का सन्दर्भ रहा हो या फिर, तक्षशिला को बिहार में बताना। एक बार फिर से नरेन्द्र मोदी ने अपने इतिहास बोध का परिचय देते हुए प्रेरणादायी क्रान्तिकारी भगत सिंह को अण्डमान की जेल में अधिकतम समय बीताने का हवाला दिया।
चुनाव आने पर मोदी को स्वतन्त्रता सेनानियों की बहुत याद आने लगी है। कलकत्ता की एक रैली में मोदी को नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की याद आ गयी और उन्होंने सुभाष चन्द्र बोस के नारे को तोड़-मरोड़ कर कहा-तुम मुझे साथ दो, मैं तुम्हें स्वराज दूँगा। जिस सुभाष चन्द्र बोस के नारे को मोदी अपने रंग में रंगकर बोल रहे हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि जिस संघ परिवार की शाखाओं में वह खेल-कूदकर आज पीएम पद का दावेदार बने हैं, उस संघ का नेता जी से क्या सम्बन्ध था? एक ओर जब नेता जी देश को आज़ाद कराने के लिए जर्मन और जपानी फौजों की सहायता लेने की रणनीति पर काम कर रहे थे तो दूसरी ओर, संघ के मार्गदर्शक सावकर अंग्रेजों का साथ देने में व्यस्त थे। यह नेता जी के लक्ष्य के साथ गद्दारी नहीं तो और क्या थी? मदुरा में अपने अनुयायियों से सावकर ने कहा था-चूंकि जापान एशिया को यूरोपीय प्रभाव से मुक्त करने के लिए सेना के साथ आगे बढ़ रहा है, ऐसी स्थिति में ब्रिटिश सेना को भारतीयों की जरुरत है, (सावरकर: मिथक और सच, शम्सुल इस्लाम पृष्ठ-34)। इसी सन्दर्भ में सावरकर ने प्रतिनिधियों को बताया कि हिन्दू महासभा की कोशिशों से लगभग एक लाख हिन्दुओं को सेना में भर्ती करवाया गया है। ऐसे में मोदी को क्या यह अधिकार मिलना चाहिए कि वह नेताजी के नारे के साथ खिलवाड़ करें।
अभी हाल में अहमदाबाद के एक कार्यक्रम मे ंनरेन्द्र मोदी ने भगत सिंह के बारे में बताते हुए कहा कि उनका अधिकतम समय अण्डमान की जेल में बीता। आजादी की लड़ाई में शामिल तमाम नेताओं में भगत सिंह आज भारत के युवाओं में स्थापित आदर्श हैं। खुद को युवा बताने वाले मोदी को ‘युवाओं के आदर्श’ भगत सिंह के बारे में की गयी टिप्पणी हस्यापद ही नहीं बल्कि शर्मनाक है। खैर, जिस मोदी के शासन काल में गुजरात में इतना बड़ा दंगा हुआ सैकड़ों लोग मारे गये, हजारों घर बर्बाद हुए, वही मोदी आज भगत सिंह का नाम ले रहे है। अहमदाबाद के वार रूम में बैठे रिजवान कादरी और विष्णु पांड्या को भगत सिंह के बारे में बोलने से पहले मोदी को यह सलाह जरुर देनी चाहिए थी कि वह भगत सिंह द्वारा लिखे लेख को जरुर पढ़ लें, भगत सिंह ने जून 1928 में ‘किरती’ पत्रिका में साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज’ नामक एक ऐतिहासिक लेख लिखा था। मोदी जैसे नेताओं को तो इसे जरुर पढ़ना चाहिए और अपना आकलन करना चाहिए कि यदि भगत सिंह आज होते तो उनका रवैया मोदी के प्रति क्या होता? निसन्देह भगत सिंह ने मोदी जैसे नेताओं के बारे में ही लिखा था कि ‘वे नेता जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज के दमगजे मारते नहीं थकते, वही आज अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे है या धर्मान्धता के बहाव में बह रहे हैं।’ खैर मोदी चुप मार कर बैठने वाले भी साबित नहीं हुए बल्कि, उन्होंने दंगे की आग में घी डालने का काम किया। आज मोदी के कारिन्दे जिस सुप्रीम कोर्ट का तमगा हिला-हिलाकर उन्हें पाक साफ बता रहे हैं। उसी सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार को ‘आधुनिक नीरो’ की संज्ञा दी थी।
रोचक प्रश्न यह है कि मोदी को अचानक भगत सिंह और सुभाष चन्द्र बोस जैसे क्रान्तिकारी नेताओं की याद क्यों आ रही है? वस्तुतः आजादी के एक लम्बे संघर्ष में संघ की राजनीति का कोई अपना गौरवशाली इतिहास शामिल नहीं है, आज भारतीय राजनीति में सक्रिय तमाम राजनैतिक पार्टियों के पास प्रतीक के तौर पर ही सही, कोई ना कोई स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़ा नेता जरुर है, जिसको वे अपना आदर्श मानते हैं। इसका नमूना हम तमाम पार्टियो के होर्डिंग, पोस्टर पर देख सकते हैं। परन्तु भाजपा के पास एक बड़ी समस्या रही है कि वह किसी भी महापुरुष को अपना आदर्श बनाने में असफल रही है। भारत के आजादी के गौरवशाली इतिहास में इनको एक भी महापुरुष ऐसा नही मिला जिसको ये अपने ‘आईकान’ के तौर पर स्थापित कर सके। छह महान हिन्दू युगों का बयान करने वाले सावरकर और उनके चेलों की यह विवशता देखते ही बनती है।

अपने  सत्ता के छह सालों में एनडीए ने कई बार संघ के नेताओं की राष्ट्रीय छवि बनाने की कोशिश जरुर की। इसके लिए इतिहास के पुनर्लेखन तक का सहारा लिया गया। इसका प्रमुख उद्देश्य अपने साम्प्रदायिक चेहरों को ऐतिहासिक वैधता प्रदान करना है। इस सन्दर्भ में बहुत ही रोचक तथ्य है कि उत्तर प्रदेश की तत्कालीन भाजपा सरकार ने प्रस्तावित एक पुस्तक में स्वाधीनता के नाम पर दिये गये बीस पृष्ठों में तीन पृष्ठ आरएसएस के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार के नाम पर भर दिया। इसी क्रम में, सावरकर का भी उल्लेख किया जाना चाहिए। 26 फरवरी 2003 को सावरकर के चित्र को संसद के केन्द्रीय कक्ष में महात्मा गाँधी के बगल में लगाकर उनकी राष्ट्रीय छवि बनाने की कोशिश की गयी। सावरकर के चित्र को गाँधी के समतुल्य लगाकर उनके कुकृत्यों पर धूल डालने की साजिश की गयी। वस्तुतः ऐतिहासिक तथ्य यह है कि सावरकर ने अंग्रेजी हुकूमत के समक्ष घुटने टेक दिये थे। यदि कोई भी स्वाभिमानी व्याक्ति सावरकर के माफीनामे को पढ़ेगा तो शर्म से सिर झुका लेगा। अक्टूबर 1939 में लार्ड लिनलिथगो से मुलाकात के दौरान सावकर ने कहा- चूंकि हमारे हित एक दूसरे से इस कदर जुड़े हुए हैं कि जरूरत इस बात की है कि हिन्दुत्ववाद और ग्रेट ब्रिटेन मित्र बन जाएं और अब पुरानी दुश्मनी की जरूरत नहीं रह गयी है (रविशंकर, दी रियल सावरकर, फ्रंटलाइन, 2 अगस्त 2002, पृष्ठ - 117)।
राष्ट्र और राष्ट्रीयता का दम भरने वाली भाजपा अक्सर कहती है कि संघ परिवार के नेता स्वतन्त्रता आन्दोलन के सक्रिय सेनानी हों। अपने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी तक को भारत छोड़ो आन्दोलन का योद्धा करार देती है। परन्तु सत्य कुछ दूसरा ही है, जानी-मानी स्तम्भ लेखिका मानिनी चटर्जी ने फ्रंटलाइन में एक लेख ‘अटल बिहारी और भारत छोड़ो आन्दोलन’ में साबित कर दिया है कि अटल बिहारी ने उस समय कोर्ट के सामने खुद स्वीकार किया था कि वे बटेश्वर विद्रोह में शामिल नहीं थे, साथ ही साथ अटल बिहारी की गवाही के चलते एक आन्दोलनकारी को सजा तक हो गयी थी। (www.frontline.in/static/ html/fl1503/15031150 htm) इस पूरी प्रक्रिया में अटल बिहारी को क्या समझा जाना चाहिए?
एक दौर में लाल कृष्ण आडवानी जो पूरे भारत में स्वतन्त्रता सेनानियों को सम्मानित करने के लिए निकले थे लेकिन, उनको संघ से जुड़े सेनानियों के लिए मोहताज ही होना पड़ा था। यह कटु सत्य है कि संघ परिवार उपनिवेशवादियो के षड्यन्त्र में सक्रिय सहयोगी रहा है। भारत के प्राचीन इतिहास के कसीदे पढ़ने वालों के पास इतिहास छुपाने के लिए है, बताने के लिए नहीं।                                                                      

                                                                        

08 मार्च 2014

हिंदुत्व के नए सेवक

अनिल चमड़िया

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े संगठनों और संस्थाओं और उनकी बनाई पार्टी भारतीय जनता पार्टी (पूर्व में जनसंघ) के इतिहास की जो थोड़ी भी जानकारी रखते हैं, वे जानते हैं कि उनकी दलितों समेत पिछड़ी जातियों को दिए जाने वाले संवैधानिक अधिकारों के खिलाफ उन्मादी कार्रवाइयां हर मौके पर देखी गई हैं। अस्सी के दशक में गुजरात में दो बार आरक्षण-विरोधी उग्र आंदोलन हुए और मतदाताओं द्वारा चुनी गई सरकार को दो बार आसानी से पराजित किया गया।

बिहार में कर्पूरी ठाकुर के शासनकाल में 1978 में मुंगेरीलाल आयोग की अनुशंसाओं के आधार पर पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग को दिए गए आरक्षण का जबर्दस्त विरोध जनता पार्टी के घटक के रूप में जनसंघ ने किया और सरकार गिरा दी। उत्तर प्रदेश में भी इसे दोहराया गया। कर्पूरी ठाकुर को हटा कर एक दलित जाति के रामसुंदर दास को मुख्यमंत्री बना कर आरक्षण-विरोधी सरकार बनाई गई। संसदीय राजनीति का इतिहास बताता है कि पिछड़ों के बीच जातिवाद और पिछड़ा बनाम दलित की एक रेखा खींचने में मुख्यत: सवर्ण आधार वाली पार्टियों को महारत हासिल रही है।

पचास प्रतिशत से ज्यादा आबादी वाली पिछड़ी जातियों को विशेष अवसर देने का जब कभी प्रयास किया गया तो उसके विरोध के लिए हिंदुत्व का ही सहारा लिया गया और मुसलमानों के खिलाफ हिंदुत्ववाद के हमले तेज हुए। अस्सी के दशक में गुजरात से लेकर बिहार के जमशेदपुर दंगे को इस सिलसिले में याद किया जा सकता है। पिछड़ों को आरक्षण देने के फैसलों और अल्पसंख्यक-विरोधीहमलों का एक सीधा संबंध है। 1990 के दशक में भी केंद्रीय सेवाओं में वीपी मंडल आयोग की अनुंशसाओं के अनुसार पिछड़ी जातियों को सत्ताईस प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला हुआ तो लालकृष्ण आडवाणी ने अयोध्या तक की रथयात्रा निकाली और विश्वनाथ प्रताप सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार से समर्थन वापस ले लिया।

आरक्षण-विरोध के दौरान जो उग्रता पैदा हुई उसे 1980 के दशक में राम मंदिर अभियान की तरफ मोड़ा गया और उसे संचालित करने के लिए संघ ने कई नए संगठन बनाए। 1990 के दशक के शुरुआती वर्षों में हिंसक आरक्षण-विरोध और रथयात्रा के उन्मादी माहौल में मुसलमानों के खिलाफ देश भर में हमले हुए। संघ के निर्माण के इतिहास पर नजर डालें तो वह दलितों के राजनीतिक उभार की प्रतिक्रिया में ही बना था। महाराष्ट्र में डॉ भीमराव आंबेडकर के नेतृत्व में हुए दलित आंदोलन की प्रतिक्रिया में महाराष्ट्र के कट्टरपंथी ब्राह्मणों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी।

1990 के बाद पिछड़ी जातियों के लिए विशेष अवसर के खिलाफ हिंदुत्ववादी विरोध से एक स्थिति यह पैदा हुई कि पिछड़ी और दलित जातियों में विशेष अवसर का समर्थन करते हुए सत्ता का नेतृत्व करने का एक तरह का भरोसा विकसित हुआ। तब भाजपा ने अपनी रणनीति बदल ली, जो बाद में संघ के विचारक गोविंदाचार्य के सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले के रूप में लोकप्रिय हुई। संघ की यह स्पष्ट राय बन रही थी कि पिछड़ी जातियों के भीतर ही एक उग्र हिंदुत्ववाद को विकसित किया जाए और दूसरी तरफ उनके भीतर सत्ता का नेतृत्व करने की जिस महत्त्वाकांक्षा को सामाजिक न्याय के नेताओं द्वारा लगातार विकसित किया जा रहा है उसे एक पड़ाव पर हिंदुत्व से मिलाने की रणनीति अख्यितार की जाए।

अगर नब्बे के दशक के बाद की प्रमुख घटनाओं को याद करें तो एक पिछड़ी जाति से आए कल्याण सिंह के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश सरकार के वायदे के बावजूद अयोध्या में बाबरी मस्जिद को सुरक्षा नहीं मिल सकी।
इसी कड़ी में पिछड़ी जातियों के नेताओं में विनय कटियार से लेकर उमा भारती की गतिविधियों और बयानों का अध्ययन करें तो पाते हैं कि वे कैसे उग्र हिंदुत्ववाद के सबसे बड़े प्रतिनिधि के तौर पर सामने आए। इस उग्रता का सिरा गुजरात में मिलता है जब नरेंद्र मोदी की सरपरस्ती में 2002 में मुसलिम विरोधी हमले हुए। उग्र हिंदुत्ववाद का एक नया खूंखार चेहरा सामने आया।

यहां इन तथ्यों को भी देख लेना चाहिए कि नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्रित्व-काल में जिन हमलों की शुरुआत हुई उनमें मारे गए और गिरफ्तार हुए लोगों की सामाजिक पृष्ठभूमि क्या रही है? एक शोध से ये तथ्य सामने आए हैं कि गुजरात में 1 मार्च 2002 से 4 जून 2002 के दौरान हुई गिरफ्तारियों में 2,945 लोग अमदाबाद के तैंतीस थाना क्षेत्रों से थे। इनमें जिन 1577 हिंदुओं को गिरफ्तार बताया गया उनमें 747 केवल अनुसूचित जाति के थे और पिछड़ों की तादाद 797 थी। ब्राह्मण और बनिया केवल दो-दो और पटेल जाति के उन्नीस लोग थे।

गुजरात प्रयोग के बाद संघ को लगा कि कल्याण सिंह, उमा भारती, लालकृष्ण आडवाणी से भी ज्यादा उग्र एक पिछड़ी जाति का नेतृत्व उसके सपनों को साकार करने के लिए उसके हाथों में आ गया है। इसीलिए यह हैरानी नहीं होनी चाहिए कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने वैचारिक संगठन होने का जो परदा डाल रखा था, नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने के लिए उसे उठा दिया।

संघ अपने वैचारिक धरालत पर निर्वाचित प्रतिनिधियों की सत्ता और संसद को दोयम दर्जे का समझता है। उसके सांगठनिक ढांचे में भी लोकतांत्रिक चुनाव की कोई परंपरा नहीं रही है। कोई भी राजनीतिक संगठन अपने ढांचागत चरित्र के अनुरूप ही शासन व्यवस्था का ढांचा विकसित करना चाहता है और संघ भी एक राजनीतिक संगठन है। भले वह खुद के सांस्कृतिक-सामाजिक संगठन होने के दावे को तकनीकी स्तर पर सही ठहरा लेता है क्योंकि संघ के नाम से चुनाव नहीं लड़ा जाता है।

संसदीय राजनीति में किसी वर्ग, धर्म या जाति के प्रतिनिधित्व का विश्लेषण संख्या के आधार पर तो किया जा सकता है लेकिन संख्या को आधार बना कर विचारधारात्मक विकास के विश्लेषण का तरीका सही नहीं हो सकता। 1984 में हुए सिख-विरोधी हमलों के बाद भाजपा को लोकसभा की महज दो सीटों पर जीत मिलीं। लेकिन संसदीय इतिहास में हिंदुत्ववादी राजनीति का वह चरम रूप था जब कांग्रेस को दो तिहाई से ज्यादा सीटों पर कामयाबी मिली। हिंदुत्ववादी राजनीति का प्रतिनिधित्व पार्टी के रूप में बदलता रहा है और संघ उसके साथ रहा है। 1984 का विश्लेषण यह होना चाहिए कि उसने संसदीय राजनीति में हमले और उग्र हिंदुत्ववाद का एक रिश्ता विकसित कर लिया। मंडल आयोग की सिफारिशों से आए राजनीतिक उभार ने यह चेतना जगाई कि देश की सत्ता की बागडोर पिछड़ों को मिलनी चाहिए। यह राजनीति तो चलाई पिछड़ी और दलित जातियों के खंडों में बंटे नेतृत्व ने, लेकिन उसे भुनाने की योजना संघ ने तैयार की।

जो एजेंडा संसदीय राजनीति में तात्कालिक फायदे के लिए तैयार किया जाता है उसका दूरगामी इस्तेमाल बराबर विचारधारात्मक संगठन ही कर सकते हैं। मंडल और कमंडल का नरेंद्र मोदी के रूप में मिश्रण संघ के हाथों में देखा जा रहा है। एक महत्त्वपूर्ण बात समझने की है कि मंडल आयोग के बाद संघ की सोशल इंजीनियरिंग में यह नीति समाहित है कि पूरे विचारधारात्मक ढांचे में बिना किसी छेड़छाड़ के प्रतिनिधित्व की गुंजाइश बनाना क्योंकि उसे विचारधारा के विस्तार के लिए जरूरी माना गया। प्रतिनिधित्व महज प्रतिनिधित्व होता है और वह उस जमात के काम तभी आ सकता है जब विचारधारात्मक ढांचे में उसकी पर्याप्त जगह हो।

नरेंद्र मोदी भाजपा में बतौर पिछड़े वर्ग सत्ता-शीर्ष पर भी जा सकते हैं लेकिन वे विचारधारा के स्तर पर हिंदुत्ववादी हैं। गुजरात में मोदी के शासनकाल का अध्ययन क्या बताता है? गुजरात में दंगों के लिए दलितों-पिछड़ों की गिरफ्तारी तो इसका एक उदाहरण है। दूसरा उदाहरण यह भी है कि देश में सबसे कम न्यूनतम मजदूरी गुजरात में ही दी जाती है।

दलित और पिछड़ी जातियों में जाति आधारित राजनीति करने वाले नेताओं के भाजपा की तरफ जाने के कई उदाहरण मिल रहे हैं। मंडल आयोग के बहाने पूरे उभार को समानता के विचार विकसित करने के लिए नहीं बल्कि एक दूसरे के मुकाबले जातियों के भीतर वर्चस्व स्थापित करने की होड़ दिखाई देती है। जिन जातियों ने मंडल उभार में राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक ताकत हासिल की, उन्हें हिंदुत्व के रूप में वर्चस्व में हिस्सा चाहिए। जिन जातियों की सत्ता-शीर्ष पर पहुंच नहीं हो पाई है उन जातियों के प्रतिनिधियों द्वारा भी यह संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि हिंदुत्व के रास्ते सत्ता पर वर्चस्व में हिस्सेदारी हासिल की जा सकती है।

सन 1990 के बाद वर्चस्ववादियों की राजनीति ही मुख्यधारा के रूप में उपस्थित होती चली गई। इसका एक कारण सोवियत संघ का विघटन भी है। उसे समाजवाद की विचारधारा का मनोबल समझा जाता था। विचारधाराएं ही मुख्य होती हैं। समाजवादी और वामपंथी विचारों से प्रभावित पार्टियां और आंदोलन कमजोर पड़ते चले गए। ऐसे ही समय में भूमंडलीकरण की परियोजना के जरिए समाज पर वर्चस्व रखने वाली ताकतों का एक आक्रामक अभियान शुरू हुआ। देशों, सामाजिक समूहों, लोकतांत्रिक संस्थाओं आदि पर बेफ्रिक होकर हमलों के अभियान चले।

भारत में भी यह दौर चला। उस दौर में संघ को वर्चस्ववादियों को आक्रामक रूप में संगठित करने का अनुकूल समय मिला। भूमंडलीकरण की पूरी परियोजना सामाजिक स्तर पर भी वर्चस्ववाद को विस्तार देने में सहायक हुई। दुर्घटना यह हुई कि समाजवादी और वामपंथी विचारधारा के प्रभाव में सक्रिय पार्टियों और संगठनों ने भी उस परियोजना को अपरिहार्य मान लिया। संसदीय राजनीति का मुख्य स्वर वर्चस्ववाद और उसकी विचारधारा की तरफ मुड़ गया। इसीलिए कल की दमित और पिछड़ी जातियों के बीच का महत्त्वाकांक्षी नेतृत्व अपने सामने किसी किस्म की चुनौती और खतरा महसूस नहीं कर रहा है और धड़ल्ले से वर्चस्ववादी विचारधारा पर आधारित पार्टियों के नेतृत्व को स्वीकार कर रहा है।

अगर विश्लेषण करें तो तमाम स्तरों पर जो वंचित थे, गैर-बराबरी के शिकार थे और समानता की बात करते थे उनके बीच में वर्चस्ववादी विचारधारा के प्रभाव के कारण आक्रामकता दिखती है। यह राजनीति वंचितों को अधिकार देने के बजाय राहत और लालच देने को अपनी उपलब्धि के तौर पर प्रचारित करती है।
                                                                    (मूल रूप से जनसत्ता में प्रकाशित)

06 मार्च 2014

. मीडिया का फांसी-वाद

बलात्कार के मामले और फांसी का विकल्प

[बलात्कार की मीडिया कवरेज को लेकर दुनिया भर में कई अहम शोध और अध्ययन हो चुके हैं। इस लेख में हम दक्षिणी दिल्ली में 16 दिसंबर 2012 को पैरामेडिकल छात्रा के साथ हुए सामूहिक बलात्कार के बाद के हफ़्ते में हुई मीडिया कवरेज के सबसे प्रमुख पक्ष पर सैद्धांतिक बात करेंगे।] 

समाजशास्त्र और मीडिया स्टडीज़ में हुए कुछ अध्ययन हमें बताते हैं कि बलात्कार और महिला सुरक्षा के मसले पर मीडिया के तेवर काफ़ी हद तक महिला आज़ादी के पक्ष में नहीं रहे हैं। ये बात भी काफ़ी प्रमुखता से स्पष्ट हुई है कि रिपोर्टिंग में वीभत्सता, रोमांच और हिंसा के अलावा महिलाओं को लेकर मौजूद सामाजिक धारणाओं को प्राथमिक तौर पर उभारा जाता रहा है।1  इससे पहले कि हम 16 दिसंबर 2012 को दिल्ली में हुए बलात्कार की मीडिया कवरेज पर बात करें, हम दूसरे देश की एक घटना का मिसाल लेते हैं। 6 मार्च 1983 को अमेरिका के न्यू बेडफोर्ड, मैसाचुसेट्स शहर में रात के 9 बजे एक युवती 'बिग डैन्स' नामक बार में सिगरेट और ड्रिंक के लिए अंदर गई। 

लेकिन, कई घंटों बाद उसे किसी राहगीर ने अर्धनग्न हालात में रोते हुए सड़क पर पाया। उसके साथ बार में सामूहिक बलात्कार हुआ था और वहां से किसी तरह भागकर वो बाहर निकलने में कामयाब रही। बार में पूल टेबल के पास लड़कों के समूह ने उसके साथ बलात्कार किया और बाकी लोग उसे देखकर जाम टकराते रहे। किसी ने पुलिस को फोन नहीं किया। 14 मार्च 1983 को 12 महिला संगठनों ने मिलकर विरोधस्वरूप एक जुलूस निकाला, जिसकी संख्या न्यूयॉर्क टाइम्स ने 2,500 और न्यू ब्रेडफोर्ड स्टैंडर्ड टाइम्स ने 4,000 बताई। 

इसके बाद महीनों तक छपने वाली मीडिया सामग्रियों को लेकर कई अध्ययन हुए। एक अध्ययन में ये पाया गया कि शुरुआत में तो मीडिया का ज़ोर हमलावरों और तमाशबीनों पर था, लेकिन जैसे ही मामला अदालत में पहुंचा अख़बारों का फोकस भी शिफ़्ट होने लगा। अख़बारों की रिपोर्ट इस पर ज़्यादा तवज्जो देने लगी कि देर रात को महिला बार में क्यों गई थी, क्या वो वहां जाकर शराब पीती थी और वह अपने बच्चों को घर में छोड़कर बार कैसे जा सकती है? 3 
हिंसा मीडिया का पसंदीदा उत्पाद है

रिपोर्टिंग के यह नज़रिया कई सवाल उठाता है। क्या किसी राष्ट्र-राज्य के भीतर महिलाओं को सिर्फ़ इस आधार पर घूमने की आज़ादी नहीं होनी चाहिए कि उसके साथ बलात्कार हो सकता है? क्या बार जैसी जगह पर महिलाओं के जाने पर पाबंदी होनी चाहिए? क्या पारिवारिक ज़िम्मेदारी को बलात्कार के पक्ष में ढाल के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है? किसी देश के भीतर लोकतांत्रिक दायरे को मजबूत करने के लिए मीडिया को पहल करनी चाहिए या फिर महिलाओं को लेकर समाज में बनी यथास्थितिवादी धारणाओं को पुष्ट करना चाहिए? एकबारगी ऐसी रिपोर्टिंग ये एहसास दिलाती हैं कि बलात्कार जैसे संवेदनशील विषय को लेकर प्रचलित पुरुषवादी धारणा मीडिया के भीतर भी मौजूद है। 

क्या मीडिया अपनी संरचना में पुरुषवादी है और समाज के जिस वर्ग को वो लक्ष्य कर रहा है उनकी मानसिकता भी रिपोर्टिंग की भाषा और कथ्य के दायरे में फिट बैठती है? ज़्यादातर माध्यम अपने कार्यक्रम को पुरुष दर्शकों को ध्यान में रखकर बनाते और पेश करते हैं। कई दफ़ा ये नियोजित होते हैं और कई दफ़ा अवचेतन में दर्शकों को लेकर बनी पुरुष छवि के चलते ऐसा होता है। इसके अलावा एक प्रमुख कारण ये भी है कि कार्यक्रम निर्माण से जुड़े लोगों में पुरुष बहुसंख्यक है, लिहाजा अपनी पूरी सामाजिकता और संस्कृति के साथ पुरुषवादी मानसिकता ऐसे कार्यक्रमों के जरिए उभरकर सामने आता है। 

मीडिया स्टडीज़ ग्रुप के एक सर्वे में जाहिर हुआ है कि देश में जिला स्तर पर महिला पत्रकारों की भागीदारी महज 2.7 फ़ीसदी है। देश के छह राज्यों और दो केंद्रशासित प्रदेशों में ज़िला स्तर पर महिला पत्रकारों की भागीदारी शून्य है। 4  किसी तबके को लेकर रिपोर्टिंग की भाषा और कथ्य में संवेदनशीलता के अभाव का बड़ा कारण उसकी हिस्सेदारी भी है। जिस मीडिया में महिलाओं की भागीदारी ही बेहद कम हो, उसमें महिलाओं को लेकर पुरुषवादी नज़रिए का हावी होना बहुत चौंकाता नहीं है। बलात्कार की रिपोर्टिंग पर अगर हम सतही नज़र दौड़ाए तो कई दफ़ा जो तस्वीर हमारे बीच उभरकर सामने आती है उसमें पीड़िता 'गंदी लड़की', "सामाजिक मान्यताओं को नकारने वाली', "बदचलन' और 'इस अंजाम के लायक' नज़र आती है। 

दिल्ली सामूहिक बलात्कार कांड में हालांकि ये धारणा प्रमुखता से नहीं उभरी, लेकिन मीडिया का एक हिस्सा ये सवाल पूछने में पीछे नहीं रहा कि लड़की देर रात अपने ब्वायफ्रेंड के साथ सिनेमा देखने क्यों जा रही थी? ऐसे मामलों की रिपोर्टिंग में शहर, समाज और समय की संस्कृति को देखते हुए मीडिया अपना स्टैंड चुनता है। दिल्ली जैसे महानगर में मीडिया के लिए ब्वायफ्रेंड के साथ रात को सिनेमा देखने जाना इसलिए सबसे प्रमुख सवाल नहीं बना क्योंकि यहां के समाज के लिए वो बहुत असहज करने वाला मसला नहीं है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि भारतीय और ख़ासकर दिल्ली का मीडिया महिला मुद्दों को लेकर ज़्यादा उदार है। 

हां, देश के बाकी शहरों से ये अलग हो सकता है लेकिन ऐसे कई मामले हैं जब पीड़िता पर मीडिया ने उसी तरह के प्रहार किए जैसे उदाहरण ऊपर दिए गए हैं। आरुषि तलवार हत्याकांड में बलात्कार होने और न होने की कहानी के साथ-साथ आरुषि के चरित्र को लेकर मीडिया ने जिस तरह कयासों के आधार पर रिपोर्टिंग की वो तकरीबन न्यू बेडफोर्ड मामले में पीड़िता पर लगाए गए तमाम तरह के लांछणों से कम नहीं था। साल दर साल आरुषि का मामला मीडिया की सुर्खियां बटोरता रहा। रोज़ाना घटना में रोमांच, हिंसा, सेक्स और नैतिकता के अलग-अलग मसालों के ज़रिए रिपोर्टिंग के एंगल बनते रहे। 

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16 दिसंबर 2012 को दिल्ली में पैरामेडिकल छात्रा के साथ हुआ सामूहिक बलात्कार का मसला निश्चित तौर पर बेहद अमानवीय और क्रूर घटना थी और इसके खिलाफ़ लोगों ने जिस तरह का प्रदर्शन किया उसके बाद मीडिया के लिए विस्तृत कवरेज ज़रूरी था। लेकिन पूरी घटना के बाद दो-तीन अहम सवाल उभरते हैं। पहला, किसी घटना को मीडिया पहले बड़ा बनाता है या फिर लोग आकर उससे पहले जुटते हैं और फिर मीडिया उसको फॉलो करता है? दूसरा, स्वत:स्फूर्त विरोध-प्रदर्शन में मीडिया किस आधार पर जनता की मांग को एक रंग में रंग देता है? तीसरा, यौन हिंसा और बलात्कार की कवरेज के दौरान मीडिया देश-समाज के सामने लोकतांत्रिक चेतना को बढ़ाता है या फिर लोगों के गुस्से को हवा देकर हिंसक फौरी निपटारे के पक्ष में मुहिम को समर्थन देता है? एल रॉवेल ह्यूसमैन और लैरामी डी टेलर ने अपने शोध अध्ययन द रोल ऑफ मीडिया वायलेंस इन वायलेंट बिहैवियर में ये बताया है कि टीवी समाचार चैनलों में हिंसक घटनाओं की ख़बरों के प्रसारण से समाज में हिंसा की मानसिकता और ज़्यादा फैलती है। 5  

भारतीय राजनीतिक परिदृश्य को देखे तो बीते कुछ वर्षों के अनुभव हमें साफ बताते हैं कि संगठनात्मक ढांचे के बगैर कोई आंदोलन स्वत:स्फूर्त तरीके से बिना मीडिया कवरेज के नहीं चल सकता। अण्णा आंदोलन का मीडिया ने जिस तरह मिशनरी भूमिका में साथ दिया, उसको लेकर विश्लेषकों के बीच कई तरह के पक्ष उभरकर सामने आए, लेकिन इस बात पर तकरीबन सहमति है कि मीडिया ने अण्णा आंदोलन को प्रोत्साहित करने में योगदान दिया। कई टीवी चैनलों के लिए यह टीआरपी का मामला था। 6   इस लेख में बलात्कार के खिलाफ़ होने वाले प्रदर्शनों के मीडिया कवरेज पर आपत्ति नहीं जताई जा रही है, बल्कि लेखक का मानना है कि ऐसे हर प्रदर्शन को अनिवार्य तौर पर मीडिया में जगह मिलनी चाहिए, ताकि लोकतांत्रिक चेतना का विकास हो। लेकिन, 16 दिसंबर के बाद मीडिया ने विरोध प्रदर्शन को जिस रंग में रंगा उसमें आरोपितों को फांसी देने की मांग सबसे प्रमुख हो गई।7  
16 दिसंबर 2012 की घटना के बाद फांसी के पक्ष में नारे

फांसी के पक्ष में लगातार मीडिया ने रिपोर्टिंग की। कई टीवी चैनलों के पत्रकार बार-बार इंडिया गेट पर प्रदर्शन कर रहे लोगों के बीच जाकर ये सवाल उछालते कि ‘आप फांसी चाहते हैं कि नहीं?’ लिहाजा प्रदर्शन के माहौल के बीच लोगों का गुस्सा ज़्यादातर मामलों में नकार के रूप में सामने नहीं आया और तक़रीबन हर सवाल के जवाब में ‘हां’ का उत्तर टीवी स्क्रीन पर सामने आता रहा। इंडिया टीवी के एक पत्रकार ने तो यहां तक पूछ दिया कि ‘आप तालिबानी अंदाज़ में सज़ा चाहते हैं कि नहीं?’ प्रदर्शन में जिस तरह सनसनी और फांसी के तत्व पर ज़ोर देकर टीवी हमारे ड्रॉइंग रूम में पहुंच रहा था, उसमें ये अंतर स्पष्ट करना मुश्किल था कि ये रिपोर्टिंग और स्टूडियो कमेंट्री क्राइम रिपोर्टिंग और क्राइम शो से किस तरह अलग है? 

मिसाल के तौर पर हिंदी में दूसरा सबसे ज़्यादा पढ़े जाने वाले अख़बार दैनिक भास्कर की रिपोर्टिंग पर ग़ौर करे तो ये साफ़ हो जाएगा कि फांसी अख़बार की आधिकारिक लाइन थी। भास्कर ने पीड़िता के पक्ष में ‘महाअभियान” की शुरुआत की। दैनिक भास्कर ने अगले दिन से इस महाअभियान का स्लग रखा- ‘देश को इस ग़ुस्से का अंजाम चाहिए’। अंजाम के तौर पर दैनिक भास्कर ने फांसी को विकल्प बनाया। जगह-जगह से भास्कर की रिपोर्टिंग में ये बातें स्पष्ट हो रही थीं। इंदौर में विरोध प्रदर्शन पर भास्कर ने शीर्षक रखा- “फांसी से कम बर्दाश्त नहीं, देश को गुस्से का अंजाम चाहिए!- युवाओं ने लगाए भारत सरकार हाय-हाय के नारे” 8  

23 दिसंबर को दैनिक भास्कर ने रविवार को छपने वाले जैकेट पेज की पहली स्टोरी का उपशीर्षक दिया : सबकी बस एक ही मांग- आरोपियो को फांसी दे सरकार। नीचे ख़बर में लिखा था- यह प्रदर्शन पूरी तरह अप्रत्याशित और स्वत:स्फूर्त था। कई मायनों में अभूतपूर्व भी। जत्थों में सुबह 7 बजे से इंडिया गेट पर एकत्र हो रहे इन नौजवानों का न कोई नेता था, न ही वे अपनी मांगों को लेकर एकमत और स्पष्ट थे। यानी रिपोर्टिंग ये कह रही है कि आंदोलन कर रही जनता के बीच सज़ा को लेकर आम-सहमति नहीं है, लेकिन शीर्षक में भास्कर ये बता रहा है कि सारे लोग फांसी मांग रहे हैं! जाहिर है ये विरोधाभास इसलिए पैदा हो रहा था क्योंकि सज़ा के तौर पर फांसी की मुहिम को दैनिक भास्कर ने सांस्थानिक तौर पर स्वीकृत कर लिया था। उसी दिन पहले पन्ने पर दैनिक भास्कर के राष्ट्रीय संपादक कल्पेश याज्ञनिक ने ‘धोखा’ शीर्षक से विशेष संपादकीय लिखा। इस संपादकीय का निचोड़ ये है कि जब तक आरोपितों को फांसी नहीं दी जाती, तब तक कोई भी वादा या दावा जनता के साथ विश्वासघात है। 

23 दिसंबर को ही पहले पन्ने पर भास्कर में गृहमंत्री के बयान के हवाले से जो ख़बर छापी है, उसका शीर्षक है- कड़े क़ानून की बात कही, पर फांसी का ज़िक्र नहीं। 9वें पेज पर एक फोटो छपी है। हिंदू सिख जागृति सेना से जुड़ी महिलाओं की ये फोटो है जो सामूहिक बलात्कार मामले के विरोध सड़क पर प्रदर्शन कर रही हैं। अख़बर ने फोटो का कैप्शन लगाया है- महिलाओं ने आरोपियों को जल्द से जल्द फांसी देने की मांग की। फोटो में कोई प्लेकार्ड नहीं, कोई पोस्टर नहीं है और न ही कोई बैनर है जिसमें इस तरह की एक भी मांग हो, लेकिन अख़बार ने फांसी को कैप्शन बनाया। फोटो में महिलाओं के हाथ में सैंडिल है और सैंडिल को किस तरह अख़बार ने फांसी के रूप में डिकोड किया इसपर संचार के दृष्टिकोण से शोध किया जाना चाहिए। 
प्रदर्शनकारियों का बड़ा हिस्सा अपराधियों को सज़ा दिलाने के पक्ष में था। मीडिया ने पढ़ा- फांसी दिलाने के पक्ष में।

इससे पहले इसी अख़बार ने 109 सांसदों और 9 मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखा था जिसमें फांसी की वकालत की गई थी। बाद में अख़बार ने आह्वान किया है कि वो अपने पाठकों से सांसदों को चिट्ठी लिखवाएगा जो फांसी के समर्थन में होंगी और सांसदों पर दबाव बनाने का काम करेगी। वाकई, कई नेताओं ने इसके बाद फांसी की पुरज़ोर वकालत की। लोक सभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने खुलकर फांसी के पक्ष में बयान दिया।9  भास्कर के साथ-साथ और भी कई हिंदी अख़बारों ने इस पूरी मुहिम को हवा दी। पंजाब केसरी, नवभारत टाइम्स के साथ-साथ 'दुनिया में सबसे ज़्यादा पढ़ा जाने वाला अख़बार' दैनिक जागरण भी ख़बर की पूरी एंगल को इसी तरफ़ मोड़ रहे थे। जागरण ने ख़बर चलाई – रेप के सभी आरोपियों को मिलेगी फांसी। यह ख़बर फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने की मांग पर आधारित थी। यानी फास्ट ट्रैक कोर्ट के गठन का अनुवाद फांसी में हो रहा था। इस मुहिम में तकरीबन हर बड़ा अख़बार शामिल था। नवभारत टाइम्स ने नारे की शक्ल में शीर्षक लगाया- रेप के आरोपियों को फांसी दो10  

सवाल ये है कि ऐसे मामलों को कवर कर रहा मीडिया ख़बरों के बीच अपना नज़रिया यदि पैबस्त करता है तो उसकी दिशा क्या होनी चाहिए? समाज के भीतर भी यदि ‘लिंग काट लेने’, ‘चौराहे पर फ़ांसी देने’, ‘सामूहिक रूप से पीट-पीट कर मार डालने’ की बात उठती है तो क्या मीडिया को उन्हें लगातार उछालते रहना चाहिए? दूसरा सवाल ये है कि बलात्कार और महिला सुरक्षा के मसले को मीडिया घटना के तौर पर रिपोर्ट क्यों करता है? 16 दिसंबर से कुछ हफ़्ते पहल ही अंग्रेज़ी अख़बार द हिंदू ने दिल्ली में छेड़छाड़ और यौन शोषण के मुद्दे पर श्रृंखला में स्टोरी की। इनमें पत्रकारों के निजी अनुभवों को भी शामिल किया गया। लेकिन ज़्यादातर अख़बारों में सामाजिक विश्लेषण और यौनिकता को बड़े संदर्भ में देखने की कोशिश नज़र नहीं आती। फांसी को लेकर हुए कुछ अध्ययन बताते हैं कि सामाजिक विकास के पायदान के साथ इसका गहरा संबंध है। अमेरिका में वक़्त के साथ-साथ समाज और मीडिया, दोनों में मृत्युदंड को लेकर अस्वीकृति का भाव बढ़ा है। 

दुनिया के कई देशों में मृत्युदंड के प्रावधान को ख़त्म कर दिया गया है। पश्चिमी यूरोप के ज़्यादातर देशों का अनुभव यह बताता है कि मृत्युदंड के प्रावधान ख़त्म होने के बाद वहां अपराधों की संख्या में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है। अलबत्ता दुनिया के सबसे शांत और मानव विकास सूचकांक में हमेशा शीर्ष स्थान हासिल करने वाले स्कैंडेनेवियन देशों में मृत्युदंड के प्रावधान नहीं है। अमेरिका में मृत्युदंड और टेलीविज़न पर इसके तीव्र कवरेज के दौरान कई लोगों की ये दलील थी कि वहां हत्या जैसे अपराधों पर ये लगाम कसने में कारगर साबित होगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। अपराध के लिए मृत्युदंड और टीवी पर इसके पक्ष में अभियान साथ-साथ चलता रहा लेकिन अपराध कम नहीं हुए।11   कहने का मतलब ये कि जिस तरह मृत्युदंड को अपराध ख़त्म करने के लिए ज़रूरी कदम के तौर पर भारतीय मीडिया पेश कर रहा है उसे सामाजिक और राजनीतिक विज्ञान के अलावा मीडिया स्टडीज़ में भी सैद्धांतिक तौर पर नकारा जा चुका है। अगर बलात्कारियों को फांसी देने से इस अपराध में कमी आती तो धनंजय चटर्जी की फांसी के बाद दिल्ली में इतनी बड़ी घटना न घटी होती और न ही उस दौरान दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में बलात्कार के और मामले सामने आते जब 16 दिसंबर की घटना को लेकर दिल्ली की सड़कों पर मीडिया में उबाल मचा हुआ था। 

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हिंसा और रोमांच के प्रति मीडिया के लगाव के चलते ही ये मुमकिन होता है कि मृत्युदंड को मीडिया अभियान के तौर पर चलाता है। मृत्युदंड के हर मामले की पृष्ठभूमि में या तो हत्या होती है या फिर अन्य जघन्यतम अपराध। जाहिर है मीडिया मृत्युदंड पर बात करते वक्त मामले को उस पृष्ठभूमि से काटकर नहीं देखता, इसलिए मृत्युदंड की कवरेज का मतलब है उस हिंसा की कवरेज। फांसी जैसी सज़ा में मीडिया दोहरे स्तर पर हिंसा को लोगों के सामने पेश करता है। पहला, आरोपी द्वारा अंजाम दी गई वास्तविक घटना की रिपोर्टिंग और उसका कथ्य और दूसरा, फांसी की हिंसक घटना की उम्मीद और उसके विवरण। इसलिए फांसी कवरेज में ज़्यादातर दो-तीन बातों पर ज़ोर दिया जाता है। अपराध का अलहदापन, अपराधी की आख़िरी भंगिमा, आख़िरी रात, आख़िरी मुलाकात, आख़िरी चाहत और फांसी की प्रक्रिया की नाटकीयता के साथ-साथ अपराधी के मूल कृत्य का विवरण मीडिया में प्रमुखता पाते हैं। दूसरी तरफ़ मृत्युदंड की कतार में खड़े आरोपितों की दलील तक को मीडिया उचित जगह नहीं देता। अगर किसी की क्षमा याचना को मंजूरी मिल जाए या फिर मृत्युदंड को आजीवन कारावास में बदल दिया जाए तो मीडिया में रोष का स्तर काफी बढ़ जाता है। 
जितनी हिंसा, उतना हिट वीडियो गेम

असल में हिंसा और यौनिकता मीडिया के टिकाऊपन और लोकप्रियता की बड़ी धुरी है और किसी भी तरह मीडिया इन मामलों को लंबे समय तक स्पेस देना चाहता है। मीडिया के जरिए जब हिंसा लोगों तक पहुंचती है तो मीडिया और हिंसा, दोनों टिकाऊ हो जाते हैं। डगलस ए जेंटिल और क्रेग ए एंडरसन ने बच्चों पर मीडिया हिंसा को रेखांकित करते हुए ‘वायलेंट वीडियो गेम्स: द न्यूएस्ट मीडिया वायलेंस हजार्ड’ में ये बताया कि समाज में मीडिया और नई तकनीक लोगों के भीतर हिंसा का पुट पैबस्त कराने में मदद कर रहे हैं।12   ख़ासकर बच्चों पर किए गए अध्ययन में उन्होंने पाया कि हिंसक वीडियो का उनके ऊपर ज़्यादा गहरा असर पड़ता है। इसी किताब में सिल्वर्न और विलियमसन के हवाले से उन्होंने ये बात भी बताई कि हिंसक वीडियो गेम के मुकाबले टीवी के हिंसक दृश्य लोगों पर टिकाऊ और गहरा प्रभाव छोड़ते हैं। 

तर्क ये है कि ज़्यादातर वीडियोगेम के ग्राफिक्स गुणवत्ता के मामले में बहुत सजीव नहीं होते। लिहाजा, उनके पात्रों के भीतर लोग वास्तविक दुनिया के पात्रों के अक्स नहीं देख पाते। इसके अलावा वीडियो गेम में कई दफ़ा काल्पनिक चरित्र और काल्पनिक हमलों को अंजाम दिया जाता है। मिसाल के लिए दानवाकार चरित्र पर गोली बरसाना या फिर अंतरिक्ष से आ रहे हमलावरों को मिसाइल से उड़ाना। टेलीविजन के मामले में परिदृश्य बिल्कुल अलहदा हो जाता है। हिंसक फ़िल्मों और धारावाहिकों में किए जाने वाले स्टंट कहीं ज़्यादा सजीव और वास्तविक होते हैं। ये हमारे आस-पास के वातावरण की कहानियां समेटे होते हैं, लिहाजा हिंसा और हिंसा के कारणों के साथ लोगों को तादात्म्य बैठाने में असहजता नहीं होती। 

असल में यह माध्यम की विश्वसनीयता से जुड़ा मसला भी है। जिस माध्यम की कहानियां दर्शकों को जितनी वास्तविक लगेगी वो उसी शिद्दत के साथ उससे निकलने वाले संदेश को स्वीकार करेगा। इस कड़ी को विस्तार दें तो जिस आधार पर वीडियो गेम से ज़्यादा विश्वसनीयता फ़िल्मों और धारावाहिकों को हासिल है, ठीक उसी तर्ज पर फ़िल्मों और धारावाहिकों से ज़्यादा विश्वसनीय समाचार चैनल हैं। समाचार चैनलों में रोज़ाना दिखने वाले दृश्यों को लोग एकबारगी चुनौती देने के पक्ष में नहीं होते। वो मानकर चलते हैं कि जो टीवी पर दिख रहा है वो सच है और उसी मात्रा और नज़रिए से सच है जैसा कि दिखाया जा रहा है। समाचार चैनलों को ये विश्वसनीयता देश-दुनिया में मीडिया की अब तक की लंबी विरासत से हासिल हुई है। ऐसे में अगर मीडिया के जरिए फांसी की पुरज़ोर मांग अगर श्रोताओं तक पहुंचती है तो वो उसे उसी रूप में आत्मसात करने की स्थिति में होते हैं। 

फांसी और बलात्कार के बीच मीडिया के लिए जो साझी चीज़ है वो हिंसा और यौनिकता का मिश्रण। मीडिया में जब बलात्कार जैसे मसले पर बात होती है तो उसे महज एक घटना के तौर पर पेश करना और अपराध रिपोर्टिंग की तर्ज पर उसके निपटारे का आग्रह कई सवाल छोड़ते हैं। आज से तीन दशक पहले, 1981 में, महिलाओं के खिलाफ़ होने वाले हिंसात्मक फ़िल्मी दृश्यों को लेकर नील एम मलामथ और जेम्स वीपी चेक ने अपने शोध में दिखाया कि पुरुष दर्शकों को उनमें ज़्यादातर दृश्यों पर कोई ख़ास आपत्ति नहीं थी। कई दृश्यों पर उन्होंने बेहद सकारात्मक करार दिया। यौन हिंसा में उन्हें कोई ग़लती नज़र नहीं आई।13   यानी ऐसे दृश्य और ख़बरों को दर्शक-पाठक अपने मुताबिक़ डिकोड करता है और उसका किसी रूप में दर्शकों पर असर पड़ेगा, ये उनके डिकोड करने की दिशा पर निर्भर करता है। 
फांसी और 'अपराध में कमी' का कोई संबंध नहीं

नील एम मलामथ ने ही बलात्कार को लेकर एक दूसरा शोध किया- ‘रेप प्रोक्लिविटी एमंग मेल्स’14   इसमें शोध में कॉलेज के छात्रों को लक्ष्य बनाया गया। शोधकर्ता ने छात्रों से पूछा कि अगर नहीं पकड़े जाने की गारंटी हो तो बलात्कार के बारे में उनका क्या रुझान होगा? 35 फ़ीसदी छात्रों ने ये जवाब में कहा कि ऐसी स्थिति में वो बलात्कार की कोशिश करेंगे। जाहिर है बलात्कार को एक बड़े तबके के बीच जिस तरह की सामाजिक या यों कहे कि मनोवैज्ञानिक स्वीकृति मिली हुई है उसे हमलावर तरीके से फांसी की मांग के जरिए मिटाया नहीं जा सकता। इसे हमारे सामाजिक संरचना में जेंडर मुद्दों पर लोगों को संवेदनशील बनाने के दीर्घकालीन लेकिन सतत कार्यक्रम के जरिए दूर किया जा सकता है। 24x7 मीडिया के दौर में समाज में गति और रोमांच को जिस तरह पेश किया गया है उसमें किसी भी दीर्घकालीन कार्यक्रम को उबाऊ और बासी की श्रेणी में डाल दिया गया है। सबकुछ फास्ट मोड में है। दो मिनट में नास्ता तैयार हो रहा है और चार घंटे में क्रिकेट मैच ख़त्म हो जा रहा है। नतीजों की हड़बड़ी का ये दौर है। लिहाजा गंभीर और संवेदनशील मुद्दे भी जल्दबाज़ी के शिकार में ग़लत अंजाम हासिल कर रहे हैं। 

आख़िरकार 16 दिसंबर बलात्कार कांड के बाद मीडिया ने क्यों फांसी को ही समाधान के तौर पर पेश किया? क्या फांसी और बलात्कार के बीच कोई सैद्धांतिक जुड़ाव भारतीय मीडिया स्थापित करना चाहता है? मृत्युदंड और अपराध की कमी वाला सिद्धांत बहुत कारगर नहीं रह गया है।15   लिहाजा पश्चिम के कई देशों में इस मुद्दे पर मीडिया का स्टैंड बदला है। साल 2000 में न्यूयॉर्क टाइम्स में मृत्युदंड पर 235 सामग्रियां छपीं और इनमें से ज़्यादातर मृत्युदंड की आलोचना में थीं। 16 

1990 के दशक के आखिर और 21वीं सदी की शुरुआत में अमेरिकी मीडिया में मृत्युदंड को लेकर आलोचनात्मक स्वर मुखरता से उठने लगे। 1960 से लेकर 2000 के बीच मीडिया के बड़े हिस्से की रिपोर्टिंग का न सिर्फ़ स्टैंड बदला बल्कि मृत्युदंड संबंधी ख़बरों को लेकर चौकसी, निगरानी और विमर्श भी तेज हुए। 1960 में न्यूयॉर्क टाइम्स के पहले पेज पर मृत्युदंड को लेकर सिर्फ़ 1 ख़बर, 1970 में दो, 1980 में चार, 1990 में 8 और 2000 में 19 ख़बरें छपीं।17  जाहिर है मृत्युदंड को लेकर आलोचनात्मक होने के बावजूद इस मसले को बड़ी ख़बर के तौर पर अख़बार ने जगह दी। 

मोटे तौर पर अमेरिका में पिछले 50 साल की बहस मृत्युदंड के जिन आयामों पर केंद्रित रही उनमें दंड के कौशल, नैतिकता, वस्तुनिष्ठता, संवैधानिकता, लागत, मृत्युदंड के तरीके और अंतरराष्ट्रीय मानदंड के अलावा इसके बाद अपराध की तादाद में होने वाली कमी-बेसी प्रमुख हैं। 1960 से लेकर 2005 के बीच मृत्युदंड के पक्ष में सबसे ज़्यादा 48 फीसदी लेखों और समाचारों में नैतिकता को सबसे मजबूत आधार माना गया जबकि 52 फीसदी लेखों/समाचारों में माना मृत्युदंड के तरीके बदलकर इसे कायम रखने की वकालत की गई। इसी दौरान 84 फीसदी सामग्रियों में अंतरराष्ट्रीय क़ानून और 81 फीसदी स्टोरीज़ में वस्तुनिष्ठता के आधार पर मृत्युदंड को चुनौती दी गई। 18  

स्कैंडिनेविया के देश दुनिया के सबसे शांत इलाकों में से हैं।
अब सवाल ये है कि बलात्कार मामले की रिपोर्टिंग में मीडिया की दिशा क्या होती है? कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसी ख़बरों में यौनिकता के पहलू को जानने की पाठकों की जिज्ञासा बेहद तेज़ होती है। लिहाजा बलात्कार के तरीकों का विवरण मीडिया में प्रमुखता पाते हैं। इसे सैक्सुअलिटी और कई दफ़ा सैक्सुअल प्लेज़र तक खींच दिया जाता है। डब्लू विल्सन की ये स्थापना है कि मीडिया उद्योग का मनोरंजन पक्ष सेक्स और हिंसा की बदौलत ही स्थायित्व हासिल कर रहा है।19  बलात्कार और फांसी के एक साथ मीडिया में पेश होते ही दोनों लक्ष्य हासिल होते दिखते हैं। टीवी एक बड़े माध्यम के तौर पर दुनिया भर में उभरा है। 

एल स्टॉसेल ने 1997 में अपने शोध में पाया कि अमेरिकी व्यक्ति अपने खाली समय का एक तिहाई हिस्सा टीवी देखने में ख़र्च करता है। दुनिया भर में खाली समय में टीवी देखने की मात्रा को लेकर इसके बाद भी कई शोध और सर्वेक्षण हुए हैं। भारत में टीवी की बढ़ती संख्या के कारण इसकी शक्ति भी लगातार मज़बूत होती जा रही है। लिहाजा इससे निकलने वाले संदेश जिस संस्कृति को बढ़ावा देते हैं उसको नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। फ्रैंकफर्ट स्कूल से जुड़े नवमार्क्सवादी थियोडोर एडर्नों ने संस्कृति उद्योग की अवधारणा में ये जाहिर किया कि पॉपुलर माध्यमों में दिखनी वाली चीज़ों ने संरचनागत उद्योग की शक्ल ले ली है और ये एक ख़ास तरह की संस्कृति निर्मित करने की क्षमता रखने लगी हैं।20  इस लिहाज से देखें तो मीडिया से जो आउटपुट बाहर निकल रहा है वो फांसी को सामाजिक बदलाव के टूल्स के तौर पर हमारे बीच स्थापित कर रहा है, जबकि सामाजिक बदलाव और फांसी के बीच के संबंध हमें बताते हैं कि इनमें सच्चाई नहीं है। 
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 1. Sarah N Keller and Jane D Brown, Media Interventions to Promote Responsible Sexual Behavior, The Journal of Sex Research, Vol, 39, No.-1. Page 67-72 और Jana Bufkin and Sarah Eschholz, Images of Sex and Rape: A Content Analysis of Popular Film, http://www.d.umn.edu/cla/faculty/jhamlin/3925/4925HomeComputer/Rape%20myths/Images%20of%20Sex%20and%20Rape.pdf (आख़िरी बार 10-02-2014 को देखा गया)

 2.  New Bedford, Massachusetts, March 6, 1983- March 22, 1984: The "Before and after" of a Group Rape Author(s): Lynn S. Chancer,  Gender and Society, Vol. 1, No. 3 (Sep., 1987), pp. 239-260

 3. k bumiller, 1990, fallen angels: the representation of violence against women in legal culture, International Journal of the sociology of low, 18, page- 125-142

 4.   Conspicuous by her absence, 13 november 2013, Media Studies group, Web link- http://mediastudiesgroup.org.in/msginnews/detailmsginnews.aspx?TID=15 (आख़िरी बार 10-02-2014 को देखा गया)
 5.     वेब लिंक- http://www.thepci.org/articles/The%20Role%20of%20Media%20Violence%20in%20Violent%20Behavior.pdf (आख़िरी बार 10-02-2014 को देखा गया)

 6.   Rahul Bhatia, Fast and furious, 1 December 2012, The Caravan, Web link- http://www.caravanmagazine.in/reportage/fast-and-furious (आख़िरी बार 10-02-2014 को देखा गया)

 7.   Arnika Thakur, Delhi Gang rape: A case for the death penalty, December 21, 2013, India insight, Web link- http://blogs.reuters.com/india/2012/12/22/delhi-gang-rape-a-case-for-the-death-penalty/ (आख़िरी बार 10-02-2014 को देखा गया)

 8.   वेब लिंक- http://www.bhaskar.com/article/MP-OTH-c-8-747892-NOR.html (आखिरी बार 10-02-2014 को देखा गया)

 9.   http://www.dnaindia.com/india/report-delhi-gang-rape-sushma-swaraj-demands-capital-punishment-for-all-four-rapists-1886961 (आखिरी बार 10-02-2014 को देखा गया)

 10.   वेब लिंक- http://navbharattimes.indiatimes.com/condemning-accused-of-rape/articleshow/17722458.cms (आख़िरी बार 10-02-2014 को देखा गया)

 11.   William C Bailey:  Murder, Capital Punishmenta and Television: Execution Publicity and Homicide Rates, American Sociological Review, Vol. 55, No. 5, PP. 628-633

 12.   Douglas A Gentile and Craig A Anderson, Violent video games: The newest media violence hazard, 2003, वेब लिंक- http://www.psychology.iastate.edu/faculty/caa/abstracts/2000-2004/03GA.pdf (आखिरी बार 10-02-2014 को देखा गया)

 13.   Neil M. Malamuth and James V P Check, The Effects f Mass Media exposure on acceptance of violence against women: A field Experiment, Journal of Research in Personlaity, 1981, page- 15

 14.   Neil M Malamuth, Rape proclivity among males, journal of social issues, vol- 37, 4 November, 1981 

 15.   http://dakhalkiduniya.blogspot.in/2013/03/20.html (आखिरी बार 10-02-2014 को देखा गया)

 16.   Frank R Baumgartner, Suzanna Linn, Amber E Boydstun, वेब लिंक- http://www.unc.edu/~fbaum/Innocence/Winning_with_words_ch9.pdf (आखिरी बार 10-02-2014 को देखा गया)

 17.   वही

 18.   वही

 19.   W Wilson, 1994, Sexuality in the Land of Oz : searching for safer sex at the movies, university press of America, page-3 

 20.   Theodor W. Adorno, The Culture industry: Selected essays on mass culture, 1991, Routledge publication

(दिसंबर 2012 में लिखे गए लेख को रोहित जोशी के कहने पर सुधारा गया।)

05 मार्च 2014

मोदी का कच्चा चिट्ठा

रुद्रभानु प्रताप सिंह 

गुजरात के विकास की दुहाई पूरे देश में दी जा रही है और इस राज्य को मॉडल राज्य के रूप में पेश किया जा रहा है। लेकिन पहले से विकसित इस राज्य की तस्वीर हाल के वर्षों में क्या सचमुच बदल गई है? क्या सचमुच वहां सर्वांगीण विकास हुआ है? या फिर विकास की आड़ में राज्य की कीमत पर किसी खास वर्ग को फायदा पहुंचाया गया है? रुद्रभानु प्रताप सिंह एक लंबी रपट:

‘तुम्हारी फाइलों में गांवों का मौसम गुलाबी है, मगर ये आंकड़े झूठे हैं, ये दावे किताबी हैं. प्रख्यात आंचलिक कवि अदम गोंडवी की ये पंक्तियां गुजरात के विकास की असली तस्वीर पर सटीक बैठती हैं। गुजरात का हाल यह है कि मोदी के राज में विकास के नामत करीबन डेढ़ दर्जन औद्योगिक घरानों को हजारों एकड़ गोचर और बंजर भूमि कौड़ी के भाव में दी गई है जिससे राज्य सरकार को एक लाख करोड़ से अधिक नुकसान हुआ है। नरेंद्र मोदी का विकास मॉडल अकसर मीडिया की सुर्खियों में रहता है, मगर विकास के इन खोखले दावों की कुछ ऐसी तस्वीरें हमारे पास हैं, जिन पर आज तक राष्ट्रीय मीडिया में कोई खास चर्चा नहीं हुई। ‘लोकस्वामी, को कुछ ऐसे दस्तावेज और आंकड़े मिले हैं जो बताते हैं कि गुजरात में विकास के नाम पर किस तरह कॉरपोरेट समूहों को लाभ पहुंचाया गया। जमीन छिन जाने के बाद  अपने परंपरागत पेशे से हकाले गये किसान और मछुआरे बदहाली, बेरोजगारी की जिंदगी जीने को मजबूर हैं। आखिर कॉरपोरेट समूहों पर इतनी मेहरबानी क्यों? यह सवाल प्रधानमंत्री की दौड़ में सबसे आगे खड़े गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से है, जिनके राज्य में यह खेल चल रहा है। यह कोई छोटा-मोटा मामला नहीं है, बल्कि पूरे एक लाख करोड़ रु. राजस्व हनि से जुड़ा ऐसा महत्वपूर्ण मामला है जिसे लंबी छानबीन, शोध तथा संबंधित लोगों से बातचीत के बाद, आंकड़ों और दस्तावेजों के साथ हम अपने पाठकों के सामने रख रहे हैं।
    सारी दुनिया में एक मसल मशहूरसिर्फ मशहूर ही नहींबल्कि इसका बखान लोकोक्तियों की तरह सर्वत्र किया; या करायाद्ध जाता है.राष्ट्रीय.अंतरराष्ट्रीय जगत की बड़ी.बड़ी कंपनियां भारत में अपने पांव जमाने के लिए सबसे पहले गुजरात की धरती की तरफ निहारती हैंबाद में दूसरे राज्यों के शहरों की तरफ रुख करती हैं। आप अमरीका, यूरोप या किसी भी देश में बैठे हों, वहां के भारतीय घरों, दफ्तरों व पार्टियों, जन समारोहों में इस बात की चर्चा आम बात है। इस तरह की चर्चाओं को कुछ वर्ष पूर्व उस समय भारी बल मिल गया जब टाटा ने नैनो की फैक्टरी; सिंगूर से हकाले जाने परद्ध के लिए गुजरात को चुना जबकि उस समय दूसरे कई राज्य बड़ी शिद्दत से निगाहें जमाए टाटा को तरह.तरह के लुभावने डोज.आमंत्रण दे रहे थे।
   ऊपर से देखने में यह सारी बातें रुपहरे-सुनहरे वर्कों में लिपटे वालायन की तरह दिख और मोह रहे थेए लेकिन तब किसी ने यह सोचने की जरूरत नहीं समझी कि गुजरात की ये जमीनें तथा सुविधाएं किन-किन की जेबों में सेंध लगा कर इन कॉरपोरेट घरानों, उनकी कंपनियों को माले-मुफ्त रेवडि़यों क तरह बांटी जा रही है। ये जमीनें किसी किसी किसान या मामूली लोगों की होंगी जहां वह खेती व दूसरे छोटे-छोटे धंधे कर अपना हजारों लोगों का पेट भरता है। खाद्यान्न गोदामों को तरह-तरह की फसलें आदि से भरता है। लेकिन उसके पेट पर लात मार कर उनकी जमीनों को औने-पौने दामों ले कर उससे भी कम-बहुत कम दर पर कॉरपोरेट कंपनियों में बांट दिया जाता रहा, ताकि वे वहां पर फैक्टरियां लगा कर दोनों हाथों अंधाधंुध कमाई करें और जिनकी जमीन हो वे बेचारे बदहाली की जिंदगी जीयें। तभी से यह यक्ष-प्रश्न उठता रहा कि बड़े व्यापक पैमाने पर हुई जमीनों की इस बंदरबांट के प्रति राज्य प्रशासन आंख मूंदे बैठा क्यों रहा। इसकी जांच के लिए बड़े स्तर पर कदम क्यों नहीं उठाया गया और गुनहगारों को भले ही वे कितने बड़े क्यों न हों, सजा क्यों नहीं दी गई।
       कहते हैं कि गुजरात में पहली बार जब यह मुद्दा राज्य स्तर पर उठा तो मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने आनन-फानन में पूर्व न्यायाधीश एमबी शाह की अध्यक्षता में एक-सदस्यीय आयोग बनाकर उसे इस मामले की जांच का जिम्मा सौंप दिया। आयोग ने अनियमितता के 15 मामलों में से 9 मामलों में मोदी सरकार को क्लीन चिट दे दी। गौरतलब है कि आयोग ने अपना यह फैसला उस समय सुनाया जब गुजरात में विधानसभा चुनाव आसन्न था। आयोग के निर्णय से मोदी कैंप की बांछें खिल गईं और इस मुद्दे को तब हुए चुनाव में जोर-शोर से प्रचारित किया गया। लेकिन आयोग का यह फैसला तब विपक्ष और कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं के  गले नहीं उतर रहा था।
  
राजकोट से निर्वाचित लोकसभा सदस्य कुंवर जी भाई बावलिया और एक अन्य सांसद मुकेश भाई गडवी ने तब इस फैसले के विरुद्ध पुख्ता दस्तावेजों के साथ केंद्रीय सतर्कता आयोग से शिकायत की। आयोग ने इस मामले को जांच के लिए राज्य सतर्कता आयोग के पास भेज दिया, लेकिन आयोग की रिपोर्ट अभी तक नहीं आई है। कुछ लोगों ने मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की नेकनीयती पर सवाल भी उठाया कि इतने बड़े घोटाले का पर्दाफाश होने के बावजूद उन्होंने मामले को सीबीआई को सौंपने की बजाय एक सदस्यीय आयोग से ही जांच क्यों कराना चाहा? कहा जाता है कि चूंकि इतने बड़े पैमाने पर जमीन आवंटन सीएमओ की स्वीकृति के बिना नहीं हो सकता था, इसलिए संभव है, उन्होंने अपना दामन साफ रखने और पूरे प्रकरण की लीपापोती के लिए यह राह चुनी होगी।
  नरेंद्र मोदी इन दिनों लोकसभा के चुनावी जंग में मतदाताओं क ो लुभाने के लिए जिस तरह से देश भर में घूम-घूम कर गुजरात के विकास की जो तस्वीर पेश कर रहें हैं, उससे ऐसा लगता है मानों सूबे में राम राज्य है और यह राज्य पूरे देश के लिए एक मॉडल है। इसी के बल पर वह पीएम इन वेटिंग हैं, संभवतरू भाजपा में इस समय सर्वाधिक कद्दावर नेता। मजेदार बात है कि  वे जहां-जहां भी जाते हैं वहां की स्थानीय समस्याओं को उठाते हैं, साथ ही यह भी कहने से नहीं चूकते कि उनकी सरकार बनेगी तो ये समस्याएं तुरंत दूर हो जाएंगी। वह यह भी कहते नहीं थकते कि जो काम कांग्रेस पिछले 67 वर्षों में नहीं कर पाईए उसे वे पांच वर्षों में करके दिखाएंगे। उनके इन दावों-वादों का असर भी साफ-साफ दिख रहा है। पूरे देश में नमो-नमो की गूंज हो रही है।
      यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि इस नमो-नमो के पीछे मुख्य रूप से दो शक्तियां ;आरएसएस और कॉरपोरेटद्ध काम कर रही हैं। दोनों के अपने-अपने स्वार्थ हैं, इसलिए योजनबद्ध ढंग से देश भर में मोदी की विजय का तानाबाना बुना जा रहा है। ऐसा करना भी उनके लिए लाजिमी है, क्योंकि संघ-आरएसएस के लिए जहां मोदी सत्ता के गलियारे में तुरुप का पत्ता हैं, वहीं कॉरपोरेट जगत के लिए कामधेनु। मोदी की पृष्ठभूमि को देखते हुए ही संघ ने उन पर काफी सोच-विचार कर दांव लगाया है। फिर सबसे बड़ी बात यह कि मोदी पिछड़ा वर्ग से हैं और देश के करीब पचास प्रतिशत मतदाता पिछड़ा वर्ग के हैं। इसलिए संघ को लगता है कि मोदी हिन्दुत्व के नाम पर अगड़ी और पिछड़ी-दोनों के ही वोट बटोरने में सफल होंगे और भाजपा 2014 की चुनावी वैतरणी पार कर जाएगी। साथ ही देश की राजनीति बहु-ध्रुवीय होने की बजाय दो-ध्रुवीय हो जाएगी।

जहां तक कॉरपोरेट जगत का सवाल है, इन औद्योगिक घरानों ने मोदी को शीशे में उतार रखा है। अकसर उन पर यह सवाल उठाया जाता रहा कि उन्होंने अपने 15-साल; 15 वर्षीय,  मुख्यमंत्रित्व काल में आंखें मूंद कर उनकी पूरी मदद करने के चक्कर में गरीबों एवं किसानों के हितों की हमेशा अवहेलना की। यहां तक कि कॉरपोरेट जगत को बसाने के लिए उन्होंने नियम कानून को भी ताक पर रख दिया। विकास के नाम पर गरीब और किसान भले ही उजड़ जाएं, लेकिन औद्योगिक घरानों को कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए और इसका उन्होंने भरपूर ख्याल रखा। उन्होंने उद्योग, व्यवसाय और औद्योगिक घरानों को स्थापित करने की कवायद में लोकहित और राष्ट्रहित की हमेशा अनदेखी की है, इसलिए तमाम बाहरी विरोधों और भीतरी तौर पर अनियमितताओं के बावजूद अब तक उनका बाल बांका नहीं हुआ है। हम गुजरात सरकार और औद्योगिक घरानों की साठगांठ के कुछ ऐसे आंकड़े पेश कर रहें हैं जो यह साबित करते हैं कि गुजरात में विकास के नाम पर कितना बड़ा खेल चल रहा है।
 अदानी पर मेहरबानी! क्यों?
        अदानी समूह के मुद्रा विशेष आर्थिक क्षेत्र के लिए 30 विभिन्न आदेशों के माध्यम से 2005 से 2007 के बीच 5,46,56,819 वर्ग मीटर ;5465 हेक्टेयरद्ध जमीन बेची गई थी और इसके लिए सभी नियमों को ताक पर रख दिया गया। अदानी को 2.5 से 25 रुपये प्रति वर्ग मीटर की दर से जो जमीनें बेची गईं, उनकी बाजार कीमत 1000 से 1500 रुपये प्रति वर्ग मीटर थी। लोगों की आंखों में धूल झोंकने के लिए गुजरात सरकार ने कच्छ और भुज जिले में मूल्यांकन समिति का गठन भी किया, लेकिन समिति ने जमीन की बहुत कम कीमत तय की, ताकि उन्हें जमीन सस्ते दरों पर बेची जा सके। इस जमीन.बांट के सिलसिले में तो  जिला प्रशासन ने तो सारी लक्ष्मण रेखाएं ही लांघ दीं। उसने अधिकांश मामलों में मूल्यांकन समिति द्वारा निर्धारित दरों से भी कम कीमत पर जमीन बेची दी। गौरतलब है कि ये जमीनें जिला कलेक्टर के आदेश से आवंटित की गइंर्ए जबकि नियमतरू कोई भी कलेक्टर इतने बड़े पैमाने पर जमीन का आवंटन कर ही नहीं सकता है। नियमतरू इतनी जमीन बेचने के लिए उसे सार्वजनिक नीलामी का सहारा लेना पड़ेगा। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया और नियमों को धता बताने के लिए नया फार्मूला इजाद कर लिया।
     बता दें कि 6 जून, 2006 को जारी गुजरात सरकार के राजस्व विभाग के संकल्प संख्या JMN/392003/454 (जो कि 1 अगस्त, 2001 से ही प्रभावी माना जाता है) के अनुसार कलेक्टर अपने अधिकार के तहत केवल 2 हेक्टेयर और 15 लाख रुपये मूल्य तक की जमीन बेचने की मंजूरी दे सकता है। इस आदेश के पहले कलेक्टर का अधिकार-क्षेत्र 2 हेक्टेयर और 6 लाख तक ही सीमित था। 15 लाख से ज्यादा और 25 लाख से कम मूल्य या 2.1 हेक्टेयर से 5 हेक्टेयर तक की जमीन के आवंटन का अधिकार केवल मुख्य सचिव/ अपर मुख्य सचिवध्सचिव के पास हैं। ऐसे में कच्छ के कलेक्टर ने जमीन के आवंटन के लिए सबसे पहले विशाल भू-खंड़ को तीस टुकड़ों में बांटा ताकि उसकी कीमत कम की जा सके और बेचने का अधिकार भी उसे मिल जाए। बावजूद इस कवायद के कलेक्टर के पास जमीन बेचने या आवंटित करने का अधिकार नहीं था, क्योंकि 2005 में जमीन के हर एक टुकड़े की समिति द्वारा तय कीमत 25 लाख से अधिक थी। अब सवाल उठता है कि क्या यह अनियमितता सिर्फ कलेक्टर के स्तर पर हुई या उसके  लिए आदेश ऊपर से आए। ऐसे में यह शंका उठना स्वाभाविक ही है कि उस जमीनी बंदर-बांट में कहीं कलेक्टर सिर्फ मोहरा भर तो नहीं था, जो ऊपरी आदेश को लागू भर कर रहा था! इस आशंका की पुष्टि कलेक्टर द्वारा दिए गए आदेशों से होती है। कच्छ के कलेक्टर के 28 आदेशों की प्रतिलिपि हमारे पास हैं जिनमें उसने राजस्व विभाग द्वारा 27 जून, 2005 को जारी एक ही संकल्पना आदेश संख्या लैंड/industry/5604/1534 के आधार पर 15 जुलाई, 2005 को 23 अलग-अलग आदेश जारी कर एक ही कंपनी को जमीन बाजार मूल्य से काफी कम दर पर बेच दी। 
     
  जिला प्रशासन की दरियादिली का यह खेल यहीं खत्म नहीं हुआ। आदेश संख्या लैंड/industry/ vashi/2313/2005 के अनुसार अदानी समूह ने कुल 8,33,885 वर्ग मीटर जमीन की मांग की थी, जबकि उसे सर्वेक्षण संख्या 183, 184 के जरिए 8,53,917 वर्ग मीटर गोचर भूमि एलॉट की गईए वह भी 2 रुपये प्रति वर्ग मीटर की दर से।  ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी  है कि अदानी को 20,032 वर्ग मीटर अधिक जमीन देने की उदारता क्यों दिखाई गई, जबकि यह जमीन पशुओं के चारागाह के लिए सुरक्षित की गई थी। यह मामला छिपा नहीं रहा। चूंकि यह गोचर भूमि थी इसलिए हायतौबा मचना स्वाभाविक ही था और मचा भी। तब इस मामले को दबाने के लिए मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाइकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश एमबी शाह की अध्यक्षता में एक सदस्यीय आयोग का गठन कर दिया। आयोग में सरकार और प्रशासन के खिलाफ 15 आरोप लगाए गए।
      एमबी शाह आयोग के समक्ष कच्छ के एक स्थानीय जनप्रतिनिधि ने कहा कि 2005 में वाणिज्यिक उद्देश्य के लिए जंत्री में भूमि की दर 1000 रुपये प्रति वर्ग मीटर निर्धारित थी, लेकिन राज्य सरकार की ‘दर समीक्षा समिति, ने 30 प्रतिशत प्रीमियम दर पर विचार करते हुए 300 रुपये प्रति मीटर की दर की बजाय केवल 7.5 रुपए प्रति मीटर की दर ही निर्धारित की। चूंकि जमीन गोचर भूमि थी, इसलिए नियमतरू सरकार को 1300 रु. प्रति मीटर की दर से कीमत वसूल करनी चाहिए थी, लेकिन इसकी जगह उसने केवल 7.50 रु. प्रति मीटर की दर ही तय की। 49.17 लाख वर्ग मीटर गोचर भूमि की कीमत सरकार द्वारा 147.46 करोड़ रु. तय की जानी चाहिए थी, लेकिन राज्य सरकार की समिति ने इसकी कीमत मात्र 3.68 करोड़ ही तय की। यह जानकारी भुज कलेक्ट्रेट के सूचना अधिकारी द्वारा 30 अगस्त, 2011 को  उपलब्ध कराई गई, जिसकी पत्र संख्या लैंड/5/आरटीआई/जि. नं. 166/2011 है। 
      गौरतलब है कि बेची गई जमीन का एक बड़ा हिस्सा चारागाह भूमि है, लेकिन क्षेत्र की पशुपालन संबंधी जरूरतों की अनदेखी करते हुए अदानी समूह को जमीन बेच दी गई। परियोजना क्षेत्र के 14 गांवों में रबारियों ;पशुपालन पर पूरी तरह आश्रित एक पारंपरिक समुदायद्ध की बड़ी आबादी है। गुजरात सरकार के सन् 2002 के एक आदेश के अनुसार हर गांव में 100 पशुओं के लिए 40 एकड़ गोचर भूमि होनी चाहिए। इन गावों में पहले से ही पशुओं के लिए गोचर भूमि कम थी। ऐसे में अदानी को गोचर जमीन की बिक्री किए जाने से रबारियों की मुख्य आजीविका पूरी तरह से नष्ट हो गई।
      यही नहीं मुद्रा विशेष आर्थिक क्षेत्र ;सेजद्ध से अब तक मछुआरों के  56 गांव और 126 बस्तियां विस्थापित हो चुकी हैं। गौरतलब है कि कॉरपोरेट के विकास की कीमत बेचारे मछुआरों को भी चुकानी पड़ी है। इसकी वजह से उन्हें न सिर्फ अपने परंपरागत अधिकारों व धंधे से महरूम होना पड़ा, बल्कि क्षेत्र के किसानों की आजीविका भी छिन गई है। लेकिन इस महत्वपूर्ण मसले पर भी गुजरात सरकार ने चुप्पी साध रखी है। ऐसे में यह सवाल उठना जायज है कि सरकार के विकास का दायरा क्या केवल कॉरपोरेट समूहों तक ही सीमित है। आम आदमी के लिए इसमें कोई जगह नहीं है। ये ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब नरेंद्र मोदी सरकार को देना है और अपने तथाकथित विकास के समृद्ध मॉडल को स्पष्ट करना है कि यह मॉडल किसके लिए बन रहा है- कॉरपोरेट के लिए या आम जनता के लिए। 
गांधीनगर में जमीन की बंदरबांट
गांधीनगर बनाने के लिए जब लोगों से जमीन ली गई थी तब यह तय किया गया था कि यहां सिर्फ सरकारी दफ्तरों, कर्मचारियों के आवास और सामाजिक क्षेत्र की प्राथमिक संस्थाओं के कार्यालयों के लिए ही इन जमीनों का उपयोग किया जाएगा। इसलिए निजी लोगों या कंपनियों के हाथों राजधानी की जमीनें नहीं बेची गई थीं। अगर किन्हीं विशेष कारणों से किसी निजी व्यक्ति या संस्था को जमीन बेची भी गई तो वह सार्वजनिक नीलामी के जरिए। कहा जाता है कि नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में यह व्यवस्था उलट-पलट हो गई एक नहीं सात कंपनियों को औन-पौने दाम पर 17,67,441 वर्गमीटर जमीन दे दी गई जिससे सरकार को 51,97,16,22,317 करोड़ रु. का नुकसान हुआ। जिन कंपनियों को मोदी सरकार से गांधीनगर में जमीनें मिली उनमें रहेजा, डीएलएफ, टीसीएस, सत्यम कंप्यूटर, आईसीआईसीआई बैंक, टॉरेंट पावर और पुरी फाउंडेशन शामिल हैं। सबसे दिलचस्प बात यह है कि निजी कंपनियों को जमीन देने में मोदी सरकार ने तनिक भी देर नहीं लगाई, जबकि वायु सेना को पश्चिमी कमान का  मुख्यालय खोलने के लिए सरकार से जमीन लेने में नाकों चने चबाने पड़े। यह रोचक बात है कि कंपनियों को जिस दर पर जमीन एलॉट की गई थी, वायुसेना द्वारा उससे सात गुना अधिक दर पर जमीन खरीदने का ऑफर देने पर भी सरकार उसे जमीन एलॉट करने में हीला-हवाला कर रही थी। जमीन के अधिग्रहण के लिए वायुसेना  अधिकारियों को सात साल तक सचिवालय के चक्कर लगाने पड़े, पर गुजरात सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। थक-हार कर वायुसेना को प्रधानमंत्री की शरण में जाना पड़ा। प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप के बाद ही वायुसेना को उसी दर पर जमीन मिली जिस दर पर कंपनियों को जमीन दी गई थी।
टाटा को किया मालामाल
टाटा नैनो की फैक्टरी जब सिंगुर से उठ कर सानंद ;गुजरातद्ध आई तो मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी समाचार चैनलों पर सीना ठोंक कर दावा कर रहे थे कि हमारे यहां कोई समस्या नहीं है। लेकिन  यह कहना भूल गए कि टाटा नैनो को बसाने के लिए गुजरात की जनता को कितनी कुर्बानी देनी पड़ी है और भविष्य में कितनी देनी पड़ेगी। एक अनुमान के मुताबिक प्रत्येक नैनो के लिए गुजरात की जनता को साठ हजार रुपये जाया करने पड़ रहे हैं। नैनो की फैक्टरी लगाने के लिए गुजरात सरकार ने रातोंरात वह जमीन टाटा को हस्तांतरित कर दी जो पशु चिकित्सा विश्वविद्यालय के लिए आरक्षित थी। उस समय इस जमीन की बाजार में कीमत दस हजार रुपये प्रति वर्ग मीटर थी, लेकिन गुजरात सरकार ने मात्र 900 रुपये प्रति वर्गमीटर की दर से 1100 एकड़ जमीन हंसते-हंसते टाटा को मुहैया करा दी। इस डील से गुजरात सरकार को करीब 33 हजार करोड़ का नुकसान हुआ। 
      इसके अलावा टाटा मोटर्स नगर बनाने के लिए सरकार ने अतिरिक्त सौ एकड़ जमीन अधिगृहीत कराने का आश्वासन दियाए साथ ही नैनो फैक्टरी को रेल मार्ग और स्टेट हाइ-वे से जोड़ने की जिम्मेवारी भी सरकार ने अपने ऊपर ले ली।  सरकार ने देश के उद्योगपतियों को यह संदेश देने के लिए कि गुजरात में उद्योग लगाने के लिए माहौल बहुत ही अच्छा और फायदेमंद है, टाटा नैनो पर सुविधाओं की वर्षा कर दी। सरकार ने कंपनी को रजिस्ट्री शुल्क और स्टांप ड्यूटी से मुक्त करने के साथ-साथ बिजली और 1400 क्यूबिक लीटर पानी प्रतिदिन उपलब्ध कराने का भी वादा किया। बता दें कि सानंद का वह इलाका, जहां नैनो की फैक्टरी स्थित है, डार्क जोन में पड़ता है और इस इलाके में भूमिगत जल के दोहन पर रोक लगी हुई है। लेकिन गुजरात सरकार ने टाटा को भूमिगत जल के दोहन की छूट भी दे रखी है।
      इस संदर्भ में सर्वाधिक दिलचस्प बात यह है कि किसी भी प्रोजेक्ट के लिए बैंक या स्टेट फाइनेंशियल कॉरपोरेशन कुल लागत का 70 से 80 प्रतिशत तक ही लोन देता है, लेकिन बतलाया जाता है, टाटा के मामले में सभी नियमों को ताक पर रख दिया गया। टाटा की नैनो कार परियोजना 2200 करोड़ रुपये की थी। सिंगुर से सानंद लाने पर उसकी लागत 700 करोड़ और बढ़ गई थी। अतरू कायदे से उसे 2500 करोड़ रुपये का ही लोन मिल सकता था, लेकिन गुजरात राज्य वित्त निगम ने सभी नियमों को धता बताते हुए टाटा नैनो को 9570 करोड़ रुपये का लोन मात्र 0.10 प्रतिशत की दर से 20 वर्षों के लिए मंजूर कर दिया। कहा जाता है कि इस सौदे को मूर्त रूप दिलाने में नीरा राडिया की भूमिका अहम भूमिका थी। बता दें कि यह वही नीरा राडिया हैं जो 2 जी मामले में फंसी हुई हैं। अब सवाल उठता है कि गुजरात सरकार ने जितनी दरियादिली टाटा के लिए दिखाई, क्या वही अन्य उद्यमियों के लिए भी दिखाएगी! अगर नहीं तो फिर राज्य को इतनी क्षति पहुंचा कर एक औद्योगिक घराने को इतने बड़े पैमाने पर लाभ पहुंचाने का क्या अर्थ है?    
बेच दी सीड फार्म की भी जमीन!
सूरत के किसानों ने बीज उत्पादन के लिए, 108 साल, पहले अपनी जमीन मुहैया कराई थी। इस जमीन पर नवसारी कृषि विश्वविद्यालय के अधीन बीज उत्पादन की कई परियोजनाएं भी चल रही हैं। यह जमीन विश्वविद्यालय की संपत्ति थी, लेकिन कालांतर में सूरत के विकास के साथ-साथ इस जमीन का मूल्य भी बढ़ गया। अब इसके चारों तरफ कॉलोनियां बस गईं हैं। फलतरू इस जमीन पर कई सरकारी निकायों और निजी कंपनियों की नजर पहले से ही गड़ी रहीं, लेकिन 2005-06 में इस जमीन पर कब्जा पाने में सफल हुआ सिर्फ छतराला होटल समूह। दूसरी कार्पोरेट कंपनियो की ही तरह इस होटल समूह को भी बाजार भाव से काफी कम कीमत पर यह प्राइम लैंड मिला, जिससे सरकार को पूरे चार सौ करोड़ रुपये का चूना लग गया।
      बता दें कि इस जमीन पर सूरत नगर निगम वाटर प्लांट लगाना चाहती थी और उसने विश्वविद्यालय को 44 हजार प्रति वर्गमीटर की दर से कीमत देने का प्रस्ताव भी दिया था, लेकिन उस समय विश्वविद्यालय ने यह कह कर प्रस्ताव ठुकरा दिया था कि यह जमीन अन्य कार्य के लिए हस्तांतरित नहीं की जा सकती है। इस बीच छतराला होटल समूह की नजर इस जमीन पर पड़ी तो उसने सीधे मुख्यमंत्री से संपर्क साधा।
    कहते हैं कि मुख्यमंत्री कार्यालय से सूरत के कलेक्टर को फरमान भेजा गया, लेकिन कलेक्टर ने यह कह कर हाथ खड़े कर दिए कि जमीन विश्वविद्यालय की है जो कृषि विभाग के अधीन है। इसके बाद छतराला समूह ने पुनरू मुख्यमंत्री कार्यालय से संपर्क साधा। कृषि विभाग ने त्वरित कार्रवाई करते हुए जमीन राजस्व विभाग को सौंप दी। राजस्व विभाग ने भी द्रुत गति से कार्रवाई करते हुए उक्त जमीन को 15 हजार प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से छतराला होटल समूह को देने की स्वीकृति प्रदान कर दी। लेकिन किसानों को यह बात नागवार गुजरी। उन्होंने यह कह कर विरोध किया कि उनकी दी हुई जमीन निजी कंपनियों को नहीं बेची जा सकती है। अगर सरकार बेचती है तो एक लाख रुपये प्रति वर्ग मीटर के हिसाब उन्हें मुआवजा दे। मामला जब सुप्रीम कोर्ट में गया तो उसने गुजरात सरकार से इस बारे में जवाब-तलब किया। सुप्रीम कोर्ट में गुजरात सरकार ने उक्त जमीन की संशोधित दर पेश कर दी जो 35 हजार रु. प्रति वर्ग मीटर थीए जबकि जमीन की कीमत एक लाख रुपये प्रति वर्ग मीटर थी। इस तरह सरकार को सैकड़ों करोड़ रुपये का घाटा हुआ।

राष्ट्रीय हित से समझौता-


कंपनियों को फायदा पहुंचाने और अपनी राजनीतिक गोटी लाल करने के क्रम में नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय हित को भी ताक पर रख दिया। सन् 2004.05 में नरेंद्र मोदी को अपनी पार्टी के दिग्गजों से कुछ ज्यादा ही खतरा महसूस हो रहा था। उस समय भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष वेंकैया नायडू थे। उसी समय दो कंपनियां अर्चियन केमिकल्स और सोलेरिस केम-टेक ने पाकिस्तान सीमा से सटे कच्छ में नमक और नमक आधारित केमिकल्स बनाने के लिए प्लांट लगाने हेतु गुजरात सरकार से जमीन की मांग की। नरेंद्र मोदी की नेतृत्व वाली गुजरात सरकार ने हंसते-हंसते अंतरराष्ट्रीय सीमा के निकट अर्चियन को 24021 हेक्टेयर और सोलेरिस को 26746 एकड़ जमीन 150 रुपये प्रति वर्ष की दर से किराये पर दे दी। कहा जाता है कि सुरक्षा एजेंसियों ने आपत्ति भी जताई थी, लेकिन उसे यह कह कर खारिज कर दिया गया कि ये कंपनियां वैसी नमक आधारित केमिकल्स बनाएंगी जिनका अभी तक आयात किया जाता था। इस संदर्भ में कुछ लोगों का कहना था कि यह सारा कुछ तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष वेंकैया नायडू को खुश करने के लिए किया गया, क्योंकि इन दोनों कंपनियों को नायडू का वरदहस्त प्राप्त है।
लार्सन एंड टूब्रो भी पीछे नहीं रही 
गुजरात में जब जमीन की बंदर-बांट हो रही थी तो भला लार्सन टूब्रो कैसे पीछे रह सकती थी। इसने भी बहती गंगा में जम कर हाथ धोये। दरअसल एलएंडटी की नजर हजीरा औद्योगिक क्षेत्र पर थी। इसके लिए उसने मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यालय से संपर्क साधा। सीएमओ ने कंपनी के प्रस्ताव को स्वीकार कर एक रुपये प्रति वर्ग मीटर की दर से 8 लाख वर्ग मीटर जमीन एलएंडटी को आवंटित कर दिया। लेकिन कंपनी का मन नहीं भरा। उसने और जमीन की मांग की। इसके बाद मूल्य निर्धारण समिति ने सात सौ रुपये प्रति वर्ग मीटर की दर से कंपनी को 2 लाख 57 हजार वर्गमीटर जमीन देने की स्वीकृति प्रदान कर दी जो बाजार मूल्य से पांच गुना कम थी। सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि एलएंडटी को 2008 से पहले इसी खसरा नं.446 में एक हजार रुपये प्रति वर्ग मीटर की दर पर जमीन मिली थी। अब अगर कम दर पर जमीन दी गई तो इसके पीछे वजह क्या थी?  
जीएसपीसी को बनाया मालिक से हिस्सेदार
गुजरात राज्य पेट्रोलियम निगम राज्य की नवरत्न कंपनी है। गैस और तेल के उत्पादन के लिए घरेलू जोन में निगम को 51 ब्लॉक्स आवंटित किए गए जिनमें 13 ब्लॉक्स में पर्याप्त मात्रा में तेल और गैस पाए गए। निगम ने कई स्त्रोतों से ऋण लेकर  4933.50 करोड़ रुपये का निवेश भी किया। उस समय कहा जा रहा था कि निगम को आवंटित ब्लॉक्स में हजारों करोड़ क्यूबिक मीटर गैस हैं जिससे गुजरात की सूरत बदल जाएगी और जीएसपीसी देश की प्रमुख कंपनियों में शुमार हो जाएगी। 31 मार्च, 2009 तक निगम ने तेल और गैस का उत्पादन भी किया और उसे 290 करोड़ रुपये की आय भी हुई। लेकिन अचानक निगम ने बहुराष्ट्रीय कंपनी जियो ग्लोबल के साथ समझौता कर लिया है। लोगों को यह भी पता नहीं है कि किन परिस्थितियों में जीएसपीसी को एक बहुराष्ट्रीय कंपनी से हाथ मिलाना पड़ा है। इसलिए शंका हो रही है कि कहीं निगम को बीमार कर उसे औने-पौने दाम पर बेचने की साजिश तो नहीं हो रही है। 
मोदी का सामंती अंदाज-
मोदी भले ही यह कह कर कि उनका जन्म एक गरीब परिवार में हुआ, वह आम लोगों की सहानुभूति बटोरने में सफल हो जांय, लेकिन मुख्यमंत्री के रूप में उनका जो अंदाज है उससे उनकी पृष्ठभूमि नहीं झलकती है। बता दें कि गुजरात सरकार के पास अपना बारह सीटों वाला जेट एयर क्राफ्ट और सुविधा संपन्न हेलीकॉप्टर है जिसका उपयोग राज्यपाल और मुख्यमंत्री उन जगहों के लिए करते हैं जहां कॉमर्शियल फ्लाइट उपलब्ध नहीं हैं। सन् 2003 तक राज्य के सभी मुख्यमंत्री दिल्ली आने के लिए कॉमर्शियल फ्लाइट का ही उपयोग करते थे, पर मोदी ने पुरानी परंपरा को तोड़ कर नई परंपरा कायम की है। वह देश में कहीं भी जाने या विदेश यात्रा के लिए अकसर औद्योगिक घरानों के सुपर लग्जरियस विमानों का ही इस्तेमाल करते हैं। इस संबंध में सूचना के अधिकार के तहत जब गुजरात सरकार से जानकारी मांगी गई तो असमर्थता जता दी गई। लेकिन डीजीसीए ने विस्तार से बताया कि मोदी ने दो सौ से अधिक बार औद्योगिक घरानों के विमानों की सेवाएं ली हंै। अब यह प्रश्न सहसा उठता है कि आखिर कॉरपोरेट हाऊस मोदी पर इतना मेहरबान क्यों है? वैसेकोई भी बिजनेस हाऊस बिना फायदा  किसी पर एक पैसा भी जया नहीं करता है इसलिए यह जांच का विषय है।
विकास का सच
गुजरात के विकास मॉडल की चर्चा देश भर में हो रही है। मोदी जहां भी रैली करते हैं अपने राज्य के विकास मॉडल की चर्चा जरूर करते हैं और यह कहने से नहीं चूकते कि केंद्र में उनकी सरकार बनी तो सारी समस्याएं छूमंतर हो जाएंगी। लेकिन गुजरात का विकास मॉडल क्या है यह न तो गुजरात और न ही देश के लोगों को ही समझ में आ रहा है। यह मोदी की दिमागी उपज है और वे ही इसे भलीभंति जानते, क्योंकि उनके मुख्यमंत्रित्व काल में गुजरात किसी भी क्षेत्र में अव्वल नहीं हो पाया है। आंकड़ों पर गौर करें तो मोदी के राज में गुजरात विकास मामले में पिछड़ ही गया है।
मोदी हर वर्ष भारी तामझाम के साथ ‘वायबे्रंट गुजरात, का नारा देकर निवेशक सम्मेलन का आयोजन करते हैं, लेकिन जितने निवेश का दावा किया जाता। उसके अनुपात में वास्तविक निवेश करीब दस फीसदी ही होता है। नतीजतन प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मामले में गुजरात पांचवें स्थान पर महाराष्ट्र, कर्नाटक, दिल्ली और तमिलनाडु के बाद है। विकास को समग्र रूप में देखा जाता है न कि एकांगी रूप में। अगर सचमुच गुजरात में विकास की गाड़ी तीव्र गति से चलती होती तो आज राज्य में करीब 40 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर नहीं कर रहे होते। गरीबी दूर करने के मामले में भी गुजरात पांचवें स्थान पर है, जबकि राजस्थान पहले पायदान पर है। इतना ही नहीं बच्चों के कुपोषण, नवजात शिशु मृत्यु दर और जच्चा मृत्यु दर के मामले में भी गुजरात कई छोटे राज्यों से आगे है।
जहां तक गुजरात के विकास की बात है तो इस मामले में इसकी तस्वीर कुछ अच्छी नहीं दिख रही है। प्रति व्यक्ति आय की दृष्टि से गुजरात पांचवंे स्थान पर है जबकि दिल्ली पहले नम्बर पर है। प्रतिव्क्ति आय मामले में महाराष्ट्र, गोवा, पुडुचेरी भी गुजरात से आगे है। विकास दर मामले में भी गुजरात आठवें नम्बर पर है जबकि बिहार पहले स्थान पर है। मध्य प्रदेश, और उत्तर प्रदेश भी इससे आगे है। इतना ही नहीं सॉफ्टवेयर निर्यात के मामले में गुजरात कहीं नहीं ठहरता है। मैन्युफैक्चरिंग और सेवा क्षेत्र में गुजरात क्रमशरू दसवें और ग्यारहवें स्थान पर है, जबकि इन क्षेत्रों में मेघालय अव्वल है। बिहार और गोवा भी उससे आगे है। वैसे तो गुजरात के छोटे-छोटे शहरों में भी बड़ी संख्या में छोटे और मझोले उद्योग हैं, लेकिन इस सच्चाई से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि पिछले एक दशक में इस राज्य के साठ हजार छोटे उद्योग बंद हो गए हैं। यही वजह है कि गुजरात में दस लाख शिक्षित लोग बेरोजगार हैं।
अकसर इस बात की दुहाई दी जाती है कि  गुजरात में उद्योग और व्यवसाय के लिए अनुकूल माहौल है। लेकिन हकीकत कुछ और ही है। डीजल और पेट्रोल पर 26 फीसदी, सीएनजी पर 15 फीसदी, ऊर्वरक पर 5 फीसदी वैट लागू है। इसके अलावा बिजली पर भी 20 प्रतिशत शुल्क लिया जाता है। कहा जाता है कि गुजरात शांतिप्रिय राज्य है। 2002 के दंगों को छोड़ दिया जाए तो राज्य में शांति का माहौल रहा। लेकिन क्राइम ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक गुजरात अपराध के लिए बदनाम राज्यों बिहार और यूपी से भी आगे है। कुल मिला कर देखा जाए तो नमो के राज अगर सचमुच में कोई पल्लवित और पुष्पित हुआ है तो वह है कॉरपोरेट जगत। राज्य के अधिकांश स्थानीय उद्यमी और व्यवसायी विभिन्न प्रकार की समस्याओं से जूझ रहे हैं। ऐसे में गुजरात को देश का विकास मॉडल कैसे बनाया जा सकता है! 
साक्षात्कार
तानाशाह हैं मोदी
मोदी के राज में बड़े पैमाने पर हुईं अनियमितताओं के बारे में राजकोट से लोकसभा सदस्यए कुंवर जी भाई बावलिया ने  लोकस्वामी से विस्तार से बातचीत की। प्रस्तुत है कुछ अंश-

गुजरात में नरेंद्र मोदी सरकार के कथित भ्रष्टाचार के खिलाफ आपने केंद्रीय सतर्कता आयोग में शिकायत दर्ज कराई ये शिकायतें क्या हैं?
मैंने और सांसद मुकेश भाई गडवी ने पुख्ता दस्तावेजों के साथ केंद्रीय सतर्कता आयोग से शिकायत की थी। कुल 15 ऐसे मामले हैं जिनमें साफ तौर पर कॉरपोरेट समूहों को लाभ पहुंचाया गया है। इससे राज्य को लाखों करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। केंद्रीय सतर्कता आयोग ने इस मामले को जांच के लिए राज्य सतर्कता आयोग के पास भेज दिया है, लेकिन आयोग की रिपोर्ट अभी तक नहीं आई है।
मोदी अपनी रैलियों में राज्य के विकास के संदर्भ में जो दावे करते हैं, उनमें कितनी सच्चाई है?
अपनी रैलियों में वे विकास के जो भी दावे वे करते हैं, आप उनकी एक लिस्ट बना लीजिए और मुद्देवार जांच कीजिए, सच्चाई सामने आ जाएगी।
जब मामला इतना बड़ा है तो इसे आप मुद्दा क्यों नहीं बना पाए?
हमने राज्य में इस मामले को जोर-शोर से उठाया, लेकिन मीडिया ने कभी साथ नहीं दिया। सूबे की मीडिया भी नरेंद्र मोदी के हिसाब से चलती है। कॉरपोरेट जब मोदी के हमदर्द हैं तो फिर सवाल ही नहीं उठता कि इसे कोई मुद्दा बना पाएगा। आज देश भर में जहां कहीं भी मोदी की रैली होती है उसकी व्यवस्था कोई न कोई कॉरपोरेट घराना ही करता है। आप मोदी से पूछिए कि अदानी, अंबानी और टाटा से उनके कैसे और किस तरह के संबंध हैं?
लेकिन जनता के प्रतिनिधि होने के नाते क्या आपने नरेंद्र मोदी से यह सवाल पूछा?
प्रदेश में नरेंद्र मोदी का रवैया बिलकुल तानाशाहों जैसा है। उनके पास इतना समय ही नहीं रहता कि वह विपक्ष के नेताओं की बात सुन सकें। पार्टी के नेताओं ने कई बार उनसे मिलने की कोशिशें कीं, लेकिन कोई फयदा नहीं हुआ। उनके लोगों की सलाहें न सुनने के इसी रवैये का नतीजा है कि प्रदेश में छोटे उद्योग धंधे दम तोड़ रहे हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण मोरवी का सेरामिक उद्योग है। जब सेरामिक उद्योग से जुड़े लोगों ने मोदी से गैस पर से वैट को कम करने की मांग की तो मुख्यमंत्री ने न केवल साफ मना कर दिया, बल्कि यह चेतावनी दे डाली कि ‘बंद करना है तो कर दो, पर टैक्स कम नहीं होगा।, वहीं दूसरी तरफ कॉरपोरेट समूहों को वह हर प्रकार के टैक्स माफ करने या छूट देने से पीछे नहीं हटते।

 कुछ अन्य मामले जहां पहुंचाया गया अवैध लाभ
1.     एस्सार समूह नरेंद्र मोदी के पसंदीदा समूहों में से एक है। इस समूह को गुजरात सरकार ने सर्वे संख्या 434 ; हजिरा-के आधार पर 2,07,60,000 वर्ग मीटर जमीन का आवंटन अत्यंत कम कीमत पर किया। गौरतलब है कि यह जमीन तटीय विनियमन क्षेत्र और वन भूमि के अंतर्गत आती है। सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार इस तरह की जमीन का आवंटन औद्योगिक उपयोग के लिए नहीं किया जा सकता। इस संदर्भ में वयारा के वन उप संरक्षक ने भारतीय वन अधिनियम के तहत शिकायत भी दर्ज कराई है।
2.     गुजरात सरकार ने अहमदाबाद के सरखेज-गांधीनगर हाइवे पर स्थित 21,300 वर्ग मीटर बेशकीमती जमीन भारत होटल लिमिटेड को पंच सितारा होटल बनाने के लिए महज 4,424 रुपये वर्ग मीटर की दर पर बिना सार्वजनिक नीलामी के ही बेच दी। सूत्रों के अनुसार इस जमीन की बाजार कीमत उस समय एक लाख रु. प्रति वर्ग मीटर थी। यदि सरकार इस जमीन की नीलामी करती तो कम से कम 213 करोड़ रुपये सरकार की तिजोरी में जमा होते।
3.     यह मामला 2008 का है। गुजरात के कृषि एवं मत्स्य पालन मंत्री पुरुषोत्तम सोलंकी के आदेश से सूबे के 38 डैमों में मछली मारने का ठेका-.अधिकार बिना सार्वजनिक नीलामी के कुछ विशेष लोगों को दे दिया गया वह भी केवल 3,53,780 रुपये में। तब इस फैसले से नाराज लोगों ने गुजरात हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। हाईकोर्ट ने मंत्री के आदेश को निरस्त कर, नीलामी के द्वारा मछली मारने का ठेका आवंटन करने का आदेश दिया। नीलामी से पहले जो अधिकार महज साढ़े तीन लाखों रुपये में दे दिया गया था, नीलामी के बाद सरकार को 15 करोड़ रुपये की आय हुई। इतना बड़ा मामला होने के बाद भी मुख्यमंत्री ने संबंधित मंत्री के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की।
4.     पशुचारा घोटाला गुजरात में 2010 में हुआ, लेकिन उसकी कहीं कोई भी चर्चा नहीं हुई। सरकार ने उन कंपनियों से पशुओं के लिए चारे खरीदे, जो पहले से ही सरकारी एजेंसियों द्वारा ब्लैक लिस्टेड थे। इस मामले में भी सरकारी निर्णय के खिलाफ गुजरात हाई कोर्ट में याचिका दायर की गई। सुनवाई के दौरान सरकार ने माना कि टेंडर देते समय आवश्यक पारदर्शिता नहीं बरती गई। सरकार ने कोर्ट को आश्वासन दिया कि वह दोषियों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई करेगी, लेकिन आज तक किसी के भी विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं हुई। 
5.     गुजरात सरकार के जल संसाधन मंत्रालय संचालित महत्वाकांक्षी परियोजना ह्यसुजलम सुफलम योजना, के हिसाब-किताब व काम-काज में भी विधानसभा की लोकलेखा समिति और नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने करोड़ों रुपये के भ्रष्टाचार का मामला उजागर किया।

जयनारायण व्यास
पूर्व मंत्री और प्रवक्ता गुजरात भाजपा
राज्य सरकार एक नीति के तहत कॉरपोरेट जगत को जमीन देती है। इसका मुख्य मकसद होता है औद्योगिक और व्यावसायिक गतिविधियों को गति देना ताकि भविष्य में राज्य का राजस्व बढ़े। नरेंद्र मोदी के काल में मंत्रिमंडल के निर्णय के बाद ही कॉरपोरेट जगत को जमीन दी गई है। यह कोई नई बात नहीं है। हर राज्य में सरकार उद्योग लगाने के लिए जमीन देती है। गुजरात में तो कांग्रेस के शासन में मोदी के काल से ज्यादा जमीन बांटी गई थी। जहां तक अदानी समूह का सवाल है तो इस समूह को केशूभाई पटेल और कांग्रेस के शासन में अधिक लाभ मिला था। वैसे भी अगर उद्योग लगाने के लिए उद्यामियों को रियायतें नहीं दी जाएंगी तो वे क्यों अपना पैसा लगाएंगे। विपक्ष का आरोप बेबुनियाद है। मोदी सरकार ने जो भी निर्णय लिया है वह राज्य के हित में है।

कॉरपोरेट के बल पर गरजते हैं मोदी
गुजरात में उजागर हुए घोटालों और नरेंद्र मोदी की कार्य शैली पर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अर्जुन मोदवाडिया ने लोकस्वामी संवाददाता कुबूल अहमद से खुल कर बातचीत की। पेश हैं अंश- 
नरेंद्र मोदी सरकार पर कॉरपोरेट घरानों को अवैध लाभ पहुंचाने के आरोप लगते रहे हैं, इनमें कितनी सच्चाई है?
नेरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री बनने के बाद से केवल कॉरपोरेट घरानों को ही लाभ पहुंचाने का काम किया है। करोड़ों की कीमत वाली जमीन उन्होंने एक रु पये से लेकर बत्तीस रु पये प्रति मीटर तक में बेच दी है। टाटा कंपनी को उन्होंने तंैतीस हजार करोड़ का लाभ दिया है। सुजूकी और फोर्ड को 20-20 हजार करोड़ के लाभ पहुंचाए हैं। मोदी के समय में 17 बड़े भ्रष्टाचार के मामले हैं, जिनमें 1लाख  करोड़ का भ्रष्टाचार हुआ। सिर्फ कैग ने 32 हजार करोड़ का घोटाला उजागर किया है।
उद्योगपतियों को इतना बड़ा लाभ पहुंचाने की वजह क्या है?
जिन उद्योगपतियों को उन्होंने लाभ पहुंचाया है, आज वही कॉरपोरेट घराने उनकी रैलियों में फंडिंग कर रहे हैं। गुजरात विधानसभा चुनाव में भी मोदी ने काफी धन खर्च किया था। ये पैसे कहां से आए?
इतने बड़े भ्रष्टाचार के मुद्दे को आप और आपकी पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर उठाने में असफल रहीए क्यों ?
यह बात सही है कि इसे हम राष्ट्रीय स्तर पर उठाने में असफल रहे हैं। लेकिन शुरुआती स्तर पर यह मुद्दा राज्य स्तर का था। इसलिए हमलोगों ने इसे स्टेट लेबल पर काफी बेहतर ढंग से उठाया। इससे हमारे वोट बैंक में भी इजाफा हुआ और हमारी सीटें भी बढ़ी हैं। भले ही हम जीत नहीं पाए, लेकिन गुजरात में यह मुद्दा हमने बेहतर ढंग से उठाया है। मीडिया मोदी के भ्रष्टाचार के मामले को ज्यादा नहीं उठा रही है और गुजरात में खोजी पत्रकारिता नहीं हो रही है, वरना मोदी की सारी सच्चाई सबके सामने होती।  हिंदुस्तान में कहीं भी कोई भी ऐसा मंत्रालय नहीं देखा होगा जिसका मंत्री सजायाफ्ता हो। लेकिन बाबू गोपीलिया जो कैबिनेट मिनिस्टर हैं, उन्हें मंत्री रहते हुए तीन साल की सजा हुई।

कहा जा रहा है कि कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं का हित मोदी और कॉरपोरेट घराने से जुड़ा हुआ है। इसी वजह से इसे मुद्दा नहीं बनाया गया?
यह सरासर गलत बात है। काफी बड़ी संख्या में कांग्रेस के नेता मेरे नेतृत्व में राष्ट्रपति से मिले और उनसे शिकायत की। हमने सुप्रीम कोर्ट तक लड़ाई लड़ी। लोकायुक्त की नियुक्ति के मामले में राज्य सरकार ने अड़ंगा लगाया। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के दबाव के बाद लोकायुक्त नियुक्त करना ही पड़ा। इसके अलावा जो 17 बड़े घोटाले के मामले हैं उसकी लड़ाई भी हमलोग लड़ रहे हैं और इन मामलों में से 3 में कोर्ट से आदेश भी लाए हैं जो सरकार के खिलाफ हैं।
इतने बड़े मामले उजागर होने पर भी सिर्फ सीवीसी तक क्यों सीमति रहे?
ऐसा नहीं है कि सिर्फ सीवीसी तक ही सीमित रहे हैं। गुजरात हाईकोर्ट में पीआईएल दायर है और उनमें से कई पीआईएल ऐसी हुईं जिनमें जजमेंट भी आए।  पुरु षोत्तम सोलंकी जो मोदी के कैबिनेट में मंत्री हंै उनके खिलाफ एफआईआर भी दर्ज हुआ है। उन पर चार सौ करोड़ के घेटाले के आरोप हैं। इसके अलावा आनंदीबेन पटेल पर भी कई मामले दायर किए गए हैं।
नरेंद्र मोदी गुजरात के विकास का ढिढोरा पूरे देश में पीट रहे हैं उसमें कितनी सच्चाई है?
 यहां गुड गवर्नेंस नाम की कोई चीज  नहीं है। मोदी खुद मानते हैं कि राज्य की एक तिहाई जनसंख्या बीपीएल वाले हैं। यानी गुजरात में एक तिहाई लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन जी रहे हैं। इनमें शहरी लोग 16 रुपये से कम और ग्रामीण 11 रुपये से कम प्रतिदिन कमाते हैं। यही गुजरात का विकास मॉडल है। इतना ही नहीं यहां 55 प्रतिशत महिला और 45 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और गुजरात  शिक्षा मामले में 28वें नंबर पर है। फिर कैसे कहा जा सकता है कि यह एक अच्छा मॉडल है। इस मुद्दे पर कभी डिबेट तो होता नहीं है, वरना दूध का दूध और पानी का पानी हो जाए। मोदी एकतरफा बातें करते हैं।
अदानी और मोदी का जो संबंध है इसकी वजह क्या है?
अदानी ग्रुप 2003 में तंैतीस सौ करोड़ की कंपनी थी । आज नब्बे हजार करोड़ की बन गई है। कौन सा चमत्कार हुआ कि कम समय में इतनी बड़ी कंपनी बन गई। मोदी के अदानी से निजी संबंध हैं।  मोदी की मेहरबानी के चलते ही इतना बड़ा कारोबार खड़ा किया है।   
(लोकस्वामी पत्रिका में प्रकाशित)