'कबीर कला मंच' के कलाकारों की रिहाई के लिए संस्कृतिकर्मियों-बुद्धिजीवियों
का
प्रतिवाद मार्च
2 मई 2013, 2 बजे दिन, श्रीराम सेंटर (मंडी हाउस) से महाराष्ट्र सदन
शीतल साठे और सचिन माली को रिहा करो!
संस्कृतिकर्मियों पर राज्य दमन बंद करो!!
साथियो,
पुणे
(महाराष्ट्र) की चर्चित सांस्कृतिक संस्था ‘कबीर कला मंच’ के संस्कृतिकर्मियों पर पिछले दो वर्षों
से राज्य दमन जारी है। मई 2011 में एटीएस (आतंकवाद निरोधक दस्ता) ने
कबीर कला मंच के सदस्य दीपक डेंगले और सिद्धार्थ भोसले को दमनकारी कानून यूएपीए के
तहत गिरफ्तार किया था। दीपक डांगले और सिद्धार्थ भोसले पर आरोप लगाया गया कि वे
माओवादी हैं और जाति उत्पीड़न और सामाजिक-आर्थिक विषमता के मुद्दे उठाते हैं। इस
आरोप को साबित करने के लिए उनके द्वारा कुछ किताबें पेश की गईं और यह कहा गया कि
कबीर कला मंच के कलाकार समाज की खामियों को दर्शाते हैं और अपने गीत-संगीत और
नाटकों के जरिए उसे बदलने की जरूरत बताते हैं। राज्य के इस दमनकारी रुख के खिलाफ
प्रगतिशील-लोकतांत्रिक लोगों की ओर से दबाव बनाने के बाद गिरफ्तार कलाकारों को जमानत
मिली। लेकिन प्रशासन के दमनकारी रुख के कारण कबीर कला मंच के अन्य सदस्यों को छिपने
के लिए विवश होना पड़ा था, जिन्हें ‘फरार’ घोषित कर दिया गया था। विगत 2 अप्रैल को कबीर कला मंच की मुख्य कलाकार शीतल साठे और सचिन माली को
महाराष्ट्र विधानसभा के समक्ष सत्याग्रह करते हुए गिरफ्तार कर लिया गया। उसके बाद
गर्भवती शीतल साठे को न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया और सचिन माली को पहले एटीएस
के सौंपा गया, बाद में न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। उन पर भी वही आरोप हैं, जिन आरापों के मामले में दीपक डेंगले और सिद्धार्थ
भोसले को जमानत मिल चुकी है।
साथियो, इस देश में साम्राज्यवादी एजेंसियां और सरकारी
एजेंसियां संस्कृतिकर्म के नाम पर जनविरोधी तमाशे करती हैं। वे संस्कृतिकर्मियों
को खैरात बांटकर उन्हें शासकवर्ग का चारण बनाने की कोशिश करती हैं। ऐसे में गरीब-मेहनतकशों
के बीच से उभरे कलाकार जब सामाजिक भेदभाव, उत्पीड़न, आर्थिक शोषण, भ्रष्टाचार, प्राकृतिक संसाधनों की लूट और राज्य-दमन
के खिलाफ जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों के पक्ष में प्रतिरोध की संस्कृति रचते हैं, तो उन्हें अपराधी करार दिया जाता है। कबीर कला मंच के
कलाकार भी इसीलिए गुनाहगार ठहराए गए हैं।
शीतल और
सचिन ने एटीएस के आरोपों से इनकार किया है कि वे छिपकर माओवादियों की बैठकों में
शामिल होते हैं या आदिवासियों को माओवादी बनने के लिए प्रेरित करते हैं। दोनों का
कहना है कि वे डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर, अण्णा भाऊ साठे और ज्योतिबा फुले के
विचारों को लोकगीतों के माध्यम से लोगों तक पहुंचाते हैं। सवाल यह है कि क्या इस
देश में अंबेडकर या फुले के विचारों को लोगों तक पहुंचाना गुनाह है? क्या भगतसिंह के सपनों को साकार करने वाला गीत गाना
गुनाह है?
संभव है
शीतल साठे और सचिन माली को भी जमानत मिल जाए, पर हम सिर्फ जमानत से संतुष्ट नहीं है, हम मांग करते हैं कि कबीर कला मंच के कलाकारों पर लादे गए फर्जी मुकदमे
अविलंब खत्म किए जाएं और उन्हें तुरंत रिहा किया जाए, संस्कृतिकर्मियों पर आतंकवादी या माओवादी होने का आरोप लगाकर उनकी
सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों को बाधित न किया जाए तथा उनके परिजनों के रोजगार और
सामाजिक सुरक्षा की गारंटी की जाए।
महाराष्ट्र
में इसके पहले भी भगतसिंह की किताबें बेचने के कारण बुद्धिजीवियों को पुलिस द्वारा
परेशान करने की घटनाएं घटी हैं। 2011 में मराठी पत्रिका ‘विद्रोही’ के संपादक सुधीर ढवले को भी कबीर कला मंच
के कलाकारों की तरह ‘अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रेवेंशन एक्ट’ के तहत गिरफ्तार किया गया। इसी तरह झारखंड में जीतन
मरांडी लगातार राज्य और पुलिस प्रशासन के निशाने पर हैं। हम पूरे देश में
संस्कृतिकर्मियों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हिमायती हैं और मांग करते हैं कि
उन पर राज्य दमन अविलंब बंद किया जाए।
साथियो, बुद्धिजीवियों-संस्कृतिकर्मियों-छात्रों ने अपने
आंदोलनों के बल विनायक सेन से लेकर सीमा आजाद तक को रिहा करने के लिए सरकारों और
अदालतों पर जन-दबाव बनाने में सफलता हासिल की। जसम-आइसा ने पटना, इलाहाबाद, गोरखपुर, रांची समेत देश के विभिन्न हिस्सों में शीतल साठे और सचिन माली तथा सुधीर
ढवले व जीतन मरांडी की गिरफ्तारी के खिलाफ आवाज उठायी है। महाराष्ट्र सरकार और
पुलिस-प्रशासन के जनविरोधी रुख के खिलाफ आइए हम एक मजबूत प्रतिवाद दर्ज करें और
अपने संस्कृतिकर्मी-बुद्धिजीवी साथियों के अविलंब रिहाई के आंदोलन को तेज करें।
निवेदक
संगवारी, संगठन, द ग्रुप (जन संस्कृति मंच)
ऑल इंडिया स्टूडेण्ट्स एसोसिएशन (आइसा)
Shukriya Ashok bhai.
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