25 अप्रैल 2013

फारबिसगंज की पुलिस क्रूरता और जनसंघर्ष के बीच नीतीश का छ्द्म सेकुलरवाद


सरोज कुमार
बिहार का राजनैतिक खेल देश की राजनीति को प्रभावित करने की कोशिश कर रही है। भाजपा के साथ जदयू गठबंधन की गहरी दोस्ती में चल रही उठापटक ने माहौल गरमा दिया। मोदी के रथ पर सवार होने की कोशिश कर रही भाजपा को अपने सहयोगियों के ही विरोध का सामना करना पड़ रहा है। इसी में शामिल है सुशासन बाबू की जदयू। कहा तो ये भी जा रहा है कि नीतीश को आगे करने में भाजपा का ही एक धड़ा सक्रिय है। लेकिन फिलहाल इस ओर ना भी जाएं और पूरे घटनाक्रम को सामान्य तरीके से देखें तो भी नीतीश के सेकुलर तिकड़म और सुशासन का खेल साफ नजर आ जाएगा। नीतीश कुमार जिस सेकुलर छवि व मुसलमानों के प्रति प्रेम को जाहिर कर रहे हैं वह फारबिसगंज जैसे मामले में हवा हो जाती है। पिछले दो सालों से अररिया जिले के फारबिसगंज गोलीकांड के पीड़ित इंसाफ व अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन सुशासन बाबू की पुलिस-प्रशासन ने दोषियों की बजाय पीडि़तों के दमन में ही लगातार जुटी हुई है। अब पुलिस ने गोलीकांड में पुलिस की गोली से मारे गए 3 लोगों और मर चुके 3 अन्य लोगों समेत 50 ग्रामीणों पर ही वारंट जारी कर दिया है। हाल ये है कि फारबिसगंज के भजनपुरा गांव के सारे पुरुष भागे फिर रहे हैं। और ये सारे गरीब मुसलमान ग्रामीण हैं। मुसलमानों की बड़ी आबादी वाला जिला अररिया  बिहार के सबसे पिछड़े जिलों में है जहां गरीबी बहुत ही ज्यादा है। लोगों को मूलभूत सुविधाएं भी नहीं मिल पाती।

कैसे भूला जा सकता है मर रहे नौजवान पर कूदती सुशासन की पुलिस को...

अररिया जिले के फारबिसगंज के भजनपुरा गांव में 3 जून 2011 को लोकतंत्र के उस क्रूर प्रदर्शन को कैसे भूला सकता है। कैसे भूल सकते हैं हम कि पुलिस की गोलियों का शिकार हो घायल मुसलिम नौजवान पर नीतीश कुमार की पुलिस का जवान कूद-कूद कर उसे पैरों से रौंद रहा था? आखिर जिसपर जनता की सुरक्षा की जिम्मा हो वह कैसे इतना क्रूर अट्टाहस कर सकता है। इस दर्दनाक वीडियो देख साफ जाहिर होता है कि बिहार पुलिस का वह जवान किस तरह घृणा के वशीभूत अट्टाहस करते हुए गालियां बक रहा था और युवक को रौंद रहा था। यह उसी सामंती , सांप्रदायिक घृणा व हिंसा का ही नमूना था।
हम कैसे भूल सकते हैं कि अपने पति के लिए खाना  लेकर जा रही यासमीन को भी पुलिस की छह गोलियां      लगी थीं। वह सात महीने की गर्भवती थी। और उस आठ महीने के मासूम नौशाद का भी क्या कसूर था जिसे पुलिस ने गोलियों से भून दिया था। इनके अलावा एक और युवक यानि की कुल चार मुसलमान ग्रामीणों को पुलिस ने मार डाला था। मरने वाले दो यवुकों में एक 18 साल का मुख्तार अंसारी व 20 साल का मुश्ताक अंसारी थे।
और पुलिस ने ये घोर दमनकारी कार्रवाई केवल इसलिए की क्योंकि भजनपुरा गांव के ग्रामीण अपने आम रास्ता को बंद किए जाने का विरोध कर रहे थे जिसका प्रयोग वे शहर जाने के लिए करते थे। उस सड़क की जमीन को ऑरो सुंदरम इंटरनेशनल कंपनी को दे दिया गया था जिसके शेयर हॉल्डरों में सत्तासीन भाजपा के नेता भी हैं। साफ है कि सत्ता व शासन के इशारे पर यह लोमहर्षक कार्रवाई की गई थी। यह पूरी कार्रवाई एसपी गरिमा मल्लिक व अन्य उच्चाधिकारियों की मौजूदगी में हुई। पर किसी ने इसे नियंत्रित करने की कोशिश नहीं की। वह तो किसी ने इस घटना के वीडियो को इंटरनेट पर डाल दिया जिससे की पूरी दुनिया में यह कार्रवाई पता चल गई।

अब पीड़ितों समेत शिकायत करने वाले 50 ग्रामीणों पर ही जारी कर दिया गया वारंट...

इस पूरे वाकये को याद करना इसलिए जरुरी है कि इसके बावजूद नीतीश की पुलिस ने ग्रामीण गरीब मुसलमानों का दमन जारी रखा है। पिछले करीब दो हफ्ते पहले पुलिस ने दो साल पहले हुई इस घटना में मारे गए 3 लोगों, मर चुके 3 अन्य लोगों, पीड़ित परिवार के 14 लोगों और जांच आयोग में गवाही व कोर्ट में हुई शिकायत में हस्ताक्षर करने वाले 23 प्रत्यक्षदर्शियों को मिला कर कुल 50 ग्रामीणओं पर ही वारंट जारी कर दिया है। हाल ये है कि भजनपुरा गांव के सारे पुरुष घर छोड़ कर भागे फिर रहे हैं। पुलिस लगातार गांव में जाकर घर की महिलाओं व बच्चों को परेशान कर रही है। वह रात को भी गांव में छापेमारी करने आ जाती है। साफ है कि सुशासन की पुलिस का रवैया वैसा ही बना हुआ है।

दो साल पहल घटना के बाद पुलिस ने ग्रामीणों पर ही तीन एफआईआर दर्ज कर दिया था कि उन्होंने पुलिस पर हथियारों से लैस होकर हमला बोल दिया था और इसी कारण गोली चलानी पड़ी। पुलिस ने 4000 लोगों पर एफआईआर दर्ज किया था। पुलिस ने 28 पुलिसकर्मियों के घायल होने की बात कही थी। अब यह समझा जा सकता है कि मारा गया 8 माह का नौशाद या 7 महीने पेट से यासमीन कैसे हथियारो से पुलिस पर हमला बोल सकती थी? फारिबसगंज थाना में कांड संख्या 268/11, 273/11 और 273/11 में ग्रामीणों पर 307, 120, 427, 452, 436,379,149,148 व 147 जैसी धाराएं लगाई गई हैं। साफ है कि पुलिस कानून का उपयोग पीड़ितों के दमन में ही कैसे करती है।

जिनसे दूरी है मज़बूरी
वहीं दूसरी ओर देश-दुनिया में इसकी खबर फैल जाने से विरोध सामने आए थे। नीतीश कुमार पर बहुत दबाव बनाने की कोशिश हुई फिर भी केवल मर रहे ग्रामीण युवक पर कूदने वाले पुलिस के जवान सुनील कुमार यादव को छोड़ किसी पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। केवल सुनील कुमार को गिरफ्तार किया गया था जिसे फिलहाल बेल मिल जाने की खबर है। वहीं घटना में शामिल एसपी व अन्य अधिकारियों पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। बाद में एसपी का प्रोमोशन भी कर दिया गया।

इसके अलावा ग्रामीणों की ओर से कोई एफआईआर दर्ज करने से पुलिस ने इंकार कर दिया। इसके बाद वे अररिया कोर्ट में चार शिकायत दर्ज कराई पर उसका कोई संज्ञान नहीं लिया गया। बाद में सुप्रीम कोर्ट में इसकी सीबीआई जांच के लिए जनहित याचिका डाली गई जिसपर अभी सुनवाई ही चल रही है। जिसपर पिछले 4 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार से 4 हफ्ते में पुलिस इंक्वायरी रिपोर्ट पेश करने कहा है।

जांच आयोग का बढ़ता कार्यकाल, न्याय की वही देरी और पीड़ितों-गवाहों को मिल रही धमकियां...

ग्रामीणों पर पुलिसिया वारंट तब जारी कर दिया गया है जबकि अभी इस गोलीकांड की न्यायिक जांच को बने आयोग ने रिपोर्ट सौंपी भी नहीं है। भारी दबाव के बीच नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सरकार ने अपना दमनकारी चेहरा छिपाने के लिए एक सदस्यीय न्यायिक जांच आयोग का गठन  कर दिया था। इसका गठन 22 जून 2011 को 6 माह के कार्यकाल के लिए किया गया था। इसकी सुनवाई भी अभी चल ही रही है। देखने वाली बात है कि इसने 6 महीने में कोई रिपोर्ट नहीं दिया फिर 22 दिसंबर 2011 को 6 माह की अवधि खत्म होने पर एक साल के लिए इसका कार्यकाल और बढ़ा दिया गया। उसके बाद फिर 22 दिसंबर 2012 को एक साल पूरा होने के कुछ ही दिन पहले इसका कार्यकाल तीसरी बार एक साल के लिए और बढा दिया गया। जाहिर है कि न्याय के लिए पड़ितों को पता नहीं कितना लंबा इंतजार करना पड़ेगा और उन्हें क्या न्याय हासिल होगा ये भी समझ नहीं आ रहा। फिलहाल जांच आयोग अररिया में इसकी सुनवाई कर रही है, जिसमें ग्रामीण व पीड़ित अपना बयान दर्ज करा रहे हैं।
वहीं दूसरी ओर स्थानीय पुलिस-प्रशासन, सत्तासीन सरकार के नुमाइंदों-नेताओं और कंपनी की ओर से लगातार ग्रामीणों को डराया धमकाया जा रहा है। ऐसा ही एक मामला बताते हुए सामाजिक कार्यकर्ता महेंद्र ने बताया कि एक गवाह युवती तालमुन खातून को स्थानीय जदयू नेता व प्रशासन ने इतना डराया कि वह सुनवाई नहीं दे सकी। बाद में ग्रामीणों की शिकायत व विरोध के बाद दुबारा उसकी गवाही हुई। इसी तरह की धमिकयों का सिलिसला जारी है।
वहीं जांच आयोग को लेकर सामाजिक कार्यकर्ता महेंद्र एक बात और बताते है कि आयोग में कंपनी की ओर से ही ज्यादा शपथपत्र दाखिल किए गए हैं यानि इनके पक्ष से कहीं ज्यादा गवाहियां होनी है। करीब 189 शपथपत्र दिए गए हैं जिनमें करीब 20 ही शपथपत्र पीड़ित पक्ष की ओर से हैं। वैसे एक थपथपत्र में कई लोगों के हस्ताक्षर हैं। वे ये भी बताते हैं कि सारे शपथपत्र एक ही फॉर्मेट में हैं।

पुलिस की झूठ पे झूठ....सारी कवायद ग्रामीणों को समझौता के लिए मजबूर करने की है....

पुलिस की ओर से जारी किया गया वारंट हो या गवाहों को लगातार मिल रही धमकियां, ये सारी कवायद ग्रामीणों पर समझौता करने का दवाब बनाने के लिए की जा रही है। न्यायिक आयोग में चल रही सुनवाई हो या सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका पर सुनवाई सत्ता-प्रशासन व कंपनी ग्रामीणों के संघर्ष व लड़ाई को दबाना चाहते हैं। वहीं दूसरी ओर ग्रामीण लगातार इसके खिलाफ खड़े हैं। ग्रामीणों पर गवाही न देने का दबाव बनाया जाता रहा है। बिना नाम के दर्ज हुए एफआईआर में गिरफ्तार करने की धमकियां दी जाती रही हैं।
इससे पहले भी पुलिस ने लगातार झूठ पे झूठ का सहारा लिया है। तत्कालीन एसपी गरिमा मल्लिक ने ग्रामीणों को हिंसा पर उतारु व हथियारों से लैस हमलावर बताते हुए 28 पुलिसकर्मियों के घायल होने की बात कही थी। लेकिन बाद में एक सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई सूचना में यह झूठ निकल आया। गरिमा मल्लिक ने स्वयं समेत सारे घायलों का इलाज फारबिसगंज के रेफरल अस्पताल में होने की बात कही थी। लेकिन अस्पताल से बाद में मांगी गई सूचना में अस्पताल ने बताया कि वहां केवल दो लोगों (एसपी और एसडीओ) का इलाज करवाया गया था। जबकि एसपी की ओर से घायलों की दी गई सूची में एसडीओ का नाम ही नहीं था। वहीं सुप्रीम कोर्ट में मांगी गई स्टेटेस रिपोर्ट व जांच आयोग में दिए गए प्रतिवेदन में पुलिस की ओर से दी गई घायलों की सूची में घायल पुलिसकर्मियों का नाम अलग-अलग है। इतना ही नहीं बल्कि सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई सूचना में कहा गया कि घटना के तीन दिन पहले से डीएम के कंट्रोल रुम के वायरलेस सेट से कोई बातचीत नहीं हुई। वहीं एसपी कार्यालय में वायरलेस सेट न होने की बात कही गई।

बिहार की मीडिया ने नीतीश का अफीम सूंघ लिया है....

वहीं इस पूरे घटनाक्रम में भी बिहार की मीडिया का वहीं सरकारी भोंपू  के साथ विकास के नाम पर बरगलाने वाला चेहरा ही सामने आया है। गोलीकांड के बाद भी उस दौरान बिहार के अखबारों ने इसे जरुरी खबर तो क्या ठीक-ठाक छापी जाने लायक खबर तक नहीं समझा था। इसे बिल्कुल ही नजरअंदाज कर दिया था। इसे मुद्दा बनने ही नहीं दिया। जैसे कि बिहार से सबसे बड़ा अखबार दैनिक हिन्दुस्तान  ने इस पूरी तरह ब्लैक आउट कर दिया। दैनिक जागरण व प्रभात खबर का रुख भी इसी के जैसा रहा। दिलीप मंडल ने अपने एक अध्ययन व रिपोर्ट में जो कि मोहल्ला लाइव व कथादेश में छपी थी दिखाया कि मीडिया ने बिहार में लोगों के लिए इस मुद्दे को मुद्दा नहीं बनने दिया। 5 जून से 11 जून तक की पटना संस्करण के पहले पन्ने की खबरों के अध्ययन में देखें तो दैनिक हिन्दुस्तान ने इसे पूरी तरह नहीं छापा। जबकि दिल्ली में बाबा राम देव मसले की खबरें, 'बचना है तो पेड़ लगाएं', 'संदेश बढाने फिर नीतीश पहुंचे धरहरा' या 'समंदर से निकला शुगर का रामबाण इलाज' जैसी खबरें पहले पन्ने पर प्रमुखता से छपती रहीं। वहीं दैनिक जागरण ने फारबिसगंज पर इसी दौरान पहले पन्ने पर केवल दो दिन खबरें चलाई जिनका फ्लेवर सरकार के पक्ष में ही जाता था। 6 जून को एक कॉलम की खबर 'आरोपी होमगार्ड पर चलेगा हत्या का मुकदमा' और 11 जून को दो कॉलम की खबर 'मारे गए बच्चे परिजन को तीन लाख' की खबरें छपीं। वहीं प्रभात खबर का भी हाल ऐसा ही रहा। साफ था कि अगर बिहार के तीनों प्रमुख अखबारे फारबिसगंज को मुद्दा न बनने देने पर तुल गए थे तो इसका मुद्दा बन पाना आसान नहीं था। और ये सारा तिकड़म सरकार के इशारे पर ही चल रहा था। जिसमें विज्ञापन से लेकर कंपनी में सत्ताधारी नेताओं की भागीदारी व सांप्रदायिक व गरीब विरोधी रंग मिला-जुला था।

मोमबत्ती जलाकर सेक्युलर बने
इस बार भी अखबारों का हाल बिल्कुल वैसा ही रहा। दैनिक हिन्दुस्तान ने जहां इस 8 अप्रैल 2013 को ग्रामीणों पर वारंट की खबर को एक कॉलम, करीब 50 शब्दों में 15वें पन्ने पर छापा। तो 11अप्रैल को 15वें पन्ने पर ही दो कॉमल की खबर करीब 100 शब्दों में छापी। वहीं दैनिक ने भी 11 अप्रैल को अंदर के पन्ने पर ही करीब सौ-सवा सौ शब्दों की खबर छापी। 11 अप्रैल को ये खबर इसकारण भी छप भी गईं कि फारबिसगंज की पीड़ित परिवारों के परिजनों ने सामाजिक संगठनों क मदद से 10 अप्रैल को राजधानी पटना आकर संवाददाता सम्मेलन आयोजित किया और अपनी आपबीती सुनाई। वरना यह माजरा पूरी तरह दबाया गया। संवाददाता सम्मेलन को एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट(एपीसीआर), फारबिसगंज एक्शन कमिटी, मोमिन कांफ्रेंस और नेशनल एलॉयंस फॉर पीपुल्स मूवमेंट(एनएपीएम) ने आयोजित करने में पीड़ितों की मदद की।  फिर बाद में मीडिया नीतीश व मोदी के खेल में शामिल हो गई। बिहार की मीडिया का यह रुप लगातार देखने को मिला चाहे वह मधुबनी कांड हो, छठ हादसा हो या फिर शिक्षकों का सरकार की ओर से चलाया जा रहा दमनकारी अभियान। ये अखबार स्पष्ट रुप से सरकार के प्रवक्ता की तरह सामने आते रहते हैं। खासकर हिन्दुस्तान व प्रभात खबर की खबरों पर लगातार हम नजर रखें तो। संपादकीय लेख, टिप्पणियां व राजनीतिक संपादकों, ब्यूरों की खबरें सरकार के पक्ष में ही लिखी जाती रहती हैं और विरोधी खबरों को दबाया जाता है।

गैर-सेकुलर नीतीश का सेकुलरवाद.... कहां चला गया नीतीश का मुसलमान प्रेम व सुशासन....

इस पूरे मामले में नीतीश की पुलिस-प्रशासन व सत्ताधारी नेता, कहें तो नीतीश शासन फारबिसगंज के पीड़ितों के खिलाफ खड़ा है। स्थानीय पुलिस-प्रशासन व सरकारी नेता लगातार गरीब मुसलमानों पर दबाव बनाते रह रहे हैं। ठीक इसी समय नीतीश कुमार की नजर पीएम की कुर्सी पर है। जो इनके सहयोगी भी स्वीकार कर रहे हैं। इसके लिए नीतीश कुमार सांप्रदायिकता के खिलाफ बताते हुए मोदी के विरोध का स्वांग रच रहे हैं। जबकि वे भाजपा के रथ पर ही बिहार में सत्तासुख का भोग करते आ रहे हैं। वे मुसलमानों के प्रति प्रेम प्रदर्शित कर रहे हैं। नजर इस वोटबैकं पर है। वहीं उत्तरी बिहार में आतंकवाद के नाम पर एनआईए की टीम लगातार मुस्लिम युवकों को पकड़ रही है और अभी भी उनकी छापामारी लगातार पूरे जोर-शोर से जारी है। दूसरी ओर देखें तो फारबिसगंज के गरीब मुसलमानों के दमन में इसी नीतीश सरकार के  पुलिस-प्रशासन व नेता कोई कसर नहीं छोड़ रहे। दो साल बीत जाने पर भी इन गरीब मुसलमानों को न्याय के लिए भटकना ही नहीं पड़ रहा बल्कि उल्टे पुलिस ने अब इनपर ही वारंट जारी कर धड़-पकड़ कर रही है। रात को इनकी महिलाओं व बच्चों को पूछताछ के बहाने परेशान कर रही है। अब ये सब सरकार की शह पर नहीं हो रहा कैसे मान लिया जाए? अब ऐसे हाल में नीतीश किस मुंह के असांप्रदियक होकर मुसलमानों के हितैषी होने का दावा करते फिर रहे हैं। उस मारे गए आठ माह के नौशाद, सात माह की पेट से यासिमन व उन दो मुसलिम नौजवानों का हिसाब कौन देगा। भजनपुरा गांव में 90 प्रतिशत आबादी मुसलमानों की है। गुजरात में मोदी की शह पर पुलिस-प्रशासन-नेता की मिलीभगत से जिन मुसलमानों को मारा गया, इसे भी हम वैसे क्यों ना देखें? इस तथाकथित सेकुलर नीतीश के पास न्याय कहां हैं? बहरहाल नीतीश के सेकुलर नारों व मोदी विरोध के बीच भजनपुरा के ग्रामीण सत्ता की शह पर दमन जारी है।

1 टिप्पणी:

  1. ये दमनकारी पुलिसियाँ कार्रवाईयाँ और सरकारी नीतियों का मिलीभगत बिहार के सुशासन की पोल खोलकर रख देती हैं। सार्थक और वस्तुनिष्ठ अन्तर्वस्तु विश्लेषण को साथी सरोज को ढेरों शुभकामनाएँ।

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