मार्कण्डेय
काटजू
मार्कण्डेय काटजू द्वारा भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलोर में 09 में दिया गया एक महत्वपूर्ण
व्याख्यान है, जिसे काटजू ने कुछ माह पहले अपने ब्लॉग पर प्रकाशित किया. जिसका अनुवाद
राकेश अंश ने किया है.
मित्रों
मेरे
लिए यह अत्यंत सम्मान की बात है कि आपने मुझे ‘भारतीय विज्ञान संस्थान बैंगलोर में बोलने के लिए आमंत्रित
किया है। यह संस्थान विश्वभर में वैज्ञानिक क्रिया-कलापों का एक महत्त्वपूर्ण
केन्द्र है। इस संस्थान ने अंतरराष्ट्रीय स्तर के कई महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक दिए
हैं।
आज बोलने के लिए मैंने जिस विषय का चुनाव किया है, वो है ‘विज्ञान की भाषा के रूप में संस्कृत’ इस विषय का चुनाव मैंने दो कारणों से किया हैः-
1. आप सभी वैज्ञानिक हैं, अतः स्वभाविक रूप से आप अपने वैज्ञानिक विरासत को जानना
चाहेंगे और साथ ही अपने पूर्वजों के महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों के बारे में भी जानना
चाहेगें।
2. आज भारत कई बड़ी समस्याओं का सामना कर रहा है और मेरी राय में यह सिर्फ विज्ञान के द्वारा ही सुलझाई जा सकती है। अगर हमें विकास करना है तो
हमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण को देश के कोने-कोने तक पहुंचाना होगा। यहाँ विज्ञान से
मेरा आशय भौतिकी, रसायन और जीव विज्ञान से नही है बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण
से है। हमें लोगों को तार्किक व प्रश्नाकूल बनाना होगा और अंधविश्वासों व खोखले रीती-रिवाजों को खत्म करना होगा। भारतीय संस्कृति के आधार
में संस्कृत भाषा रही है। संस्कृत भाषा के बारें में एक बड़ी भ्रान्ति ये है कि
यह केवल मंदिरों या धार्मिक आयोजनों में मंत्रोच्चार के लिए है। जबकि यह हिस्सा
संपूर्ण संस्कृत साहित्य के 5 प्रतिशत से भी कम है।
संस्कृत साहित्य के 95 प्रतिशत से अधिक हिस्से का
धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। बल्कि इसका
संबंध दर्शन, न्याय, विज्ञान, साहित्य
व्याकरण, ध्वनि-विज्ञान
निर्वचन आदि से है।
यहाँ तक कि संस्कृत स्वतंत्र चिन्तकों कि भाषा थी जिन्होंने अपने समय में कई
महत्त्वपूर्ण प्रश्न खड़े किए और जिन्होंने विभिन्न विषयों पर अपने भिन्न विचार
व्यक्त किए। वास्तव में प्राचीन भारत में संस्कृत हमारे वैज्ञानिकों की भाषा थी।
निःसंदेह आज हम विज्ञान के क्षेत्र में दूसरे देशों कि तुलना में पीछे है, लेकिन एक समय
था जब भारत पूरे विश्व में अग्रणी भूमिका अदा कर रहा था।
‘‘संस्कृत’’ शब्द का अर्थ होता है- पूर्ण, संपूर्ण, शुद्ध और परिष्कृत। इसे ‘‘देववाणी’’ (देवताओं की भाषा) भी कहा गया है। संस्कृत हमारे दार्शनिकों, वैज्ञानिकों, गणितज्ञों, कवियों, नाटककारों, व्याकरण आचार्यो आदि की भाषा थी। व्याकरण के क्षेत्र में
पाणिनी और पंतजलि (अष्टाध्यायी और महाभाष्य के लेखक) के समतुल्य पूरे विश्वभर में
कोई दूसरा नहीं है। खगोलशास्त्र और गणित के क्षेत्र में आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त
और भास्कर के कार्यो ने मानव जगत को नवीन मार्ग दिखाया। वहीं औषधी के क्षेत्र में
चरक और सुश्रुत ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया। दर्शन के क्षेत्र में गौतम (न्याय
व्यवस्था के जन्मदाता), शंकराचार्य, बृहस्पति आदि ने पूरे विश्वभर में विस्तृत दार्शनिक व्यवस्था को प्रतिपादित
किया है।
साहित्य में संस्कृत का योगदान सबसे महत्त्वपूर्ण है।
कालिदास का लेखन (शकुन्तला, मेघदूत आदि), भवभूती (मालती माधव, उत्तर रामचरित आदि) और वाल्मीकी, व्यास आदि के महाकाव्य जिन्हें पूरे विश्वभर में जाना जाता
है। अपने इस बातचीत मे मैं संस्कृत के साहित्यक पक्ष की चर्चा करूंगा जो विज्ञान से जुड़ा हुआ है।
आगे बढ़ने से पहले, इस बातचीत के दौरान मैं विषय से विषयान्तर करना चाहूँगा।
असल में इस पूरी बातचीत के दौरान मैं कई विषयान्तर लूँगा और शायद शुरू में आपको
लगे कि इसका विषय से कोई संबंध नहीं है, लेकिन अंत में आप पायेंगे कि विषय से इसका गहरा संबंध है।
पहला विषयान्तर ये कि- भारत क्या है? हालंकि हम
भारतीय हैं और
अधिकतर लोग अपने देश के बारे में नहीं जानते हैं, फिर भी मैं कोशिश करता हूं।
भारत: मुख्य रूप से अप्रवासियों का देश
हालांकि उत्तर अमेरिका (यू.एस.ए. और कनाडा) नवीन अप्रवासियों का देश है, जहां पिछले 10 हजार सालों में लोग आये और बसे हैं। भारत में रहने वाले लगभग 95 प्रतिशत लोग अप्रवासियों
के वंशज है, जो मुख्य रूप
से उत्तर-पश्चिम से आये थे और कुछ उत्तर-पूर्व से। यह हमारे देश को समझने के लिए
महत्त्वपूर्ण बिन्दु है। लोग असुरक्षित जगहों से सुरक्षित जगहों कि ओर पलायन करते
हैं. यह बहुत
स्वभाविक है क्योंकि हर आदमी आरामदायक स्थिति में रहना चाहता है। भारत में आधुनिक
उद्योगों के आने से पहले यहाँ चारों तरफ खेतिहर समाज था और भारत इन सबके लिए
स्वर्ग कि तरह था क्योंकि खेती के लिए जरूरी सारी आवश्यकताएँ यहाँ थी- समतल जमीन, उपजाऊ मिट्टी, सिंचाई के लिए पर्याप्त जल, समजलवायु आदि।अफगानिस्तान का उदाहरण दिया जा सकता है जहाँ कठिन परिस्थितियाँ हैं, जहां के पहाड़ साल में कई महीनें वर्फ से ढ़के रहते हैं। जहां
कोई एक फसल भी नहीं उगा सकता इसलिए लगभग सारे अप्रवासी व हमलावर भारत में बाहर से
आये।
तभी उर्दू के महान शायर
फिराक गोरखपुरी ने लिखा भी है-
‘‘सर जमीने-ए-हिन्द पर एक अवाम-ए-आलम कि
फिराक काफिले
गुजरते गए हिन्दुस्तान बनता गया’’
अर्थात
इस हिन्दुस्तान की जमीन से लोगों के कई काफिलें गुजरे हैं और धीरे-धीरे भारत आकार
लेता रहा है। अब सवाल ये उठता है कि भारत के मूलनिवासी कौन है? एक समय में
विश्वास किया जाता था कि द्रविड़ भारत के मूल निवासी हैं. हालांकि, सामान्यतः यह स्वीकार किया जाता है कि भारत के वास्तविक
मूलनिवासी पूर्व-द्रविड़ वंशज थे, जिनके बंशज मुण्डा भाषा बोलने वाले थे। जो वर्तमान में छोटा
नागपुर, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल
आदि नवीन क्षेत्रों में रहते हैं। भारत के संपूर्ण जनसंख्या में इनकी जनसंख्या
मात्र 5 से 7 प्रतिशत है। बाकी बचे 95 प्रतिशत लोग भारत में आज अप्रवासियों के पूर्वज है, जो मुख्य रूप
से उत्तर-पश्चिम से आये थे। ये भी माना जाता है कि द्रविड़ भी बाहर से आये थे, सम्भवतः
वर्तमान पाकिस्तान और अफगानिस्तान के इलाकों से।
हम भारत की तुलना चीन से कर सकते है, जो जनसंख्या
और क्षेत्रफल दोनों ही मामलों में भारत से बड़ा है। चीन कि जनसंख्या 1.3 अरब है, वहीं हमारी जनसंख्या 1.15 अरब है। चीनियों में
मंगोलो वाले लक्षण देखें जा सकते हैं जिनकी अपनी एक सामान्य लिखित लिपी है। 95 प्रतिशत चीनी एक खास समूह से जुड़े हैं जिन्हें ह्वांन चीनी
कहते है। हालांकि, चीनियों में व्यापक रूप से एक रूपता देखी जा सकती है।
वहीं दूसरी तरफ जैसा कि पहले कहा जा चुका है, भारत में बड़े
तौर पर विविधता है और इसका सबसे बड़ा कारण पिछले, हजारों सालों में बड़े पैमाने पर हुए पलायन व हमले हैं।
विभिन्न अप्रवासी जो भारत में आये वो अपने साथ विभिन्न संस्कृति, भाषाए, धर्म आदि लेकर
आये। जो भारत में बड़े विविधता का कारण बने।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि भारत कृषि के लिए हर तरह से
उपयुक्त था। सिर्फ कृषक समाज में हीं कोई संस्कृति, कला और विज्ञान पनप सकता है। मनुष्य जब तक शिकारी था, तब तक ये संभव
नहीं हो पाया क्योंकि मनुष्य अपना पूरा समय भोजन के लिए शिकार करते हुए गुजार देता
था। जीने के लिए संघर्षपूर्ण बाध्यता ने उसे सुबह से शाम तक इसी काम में व्यस्त
रखा, ऐसे में उसके
पास बिल्कुल समय नहीं था कि वह कुछ और सोच सके। ऐसे में कृषक जीवन के साथ ही उसके पास कुछ सोचने का समय मिल पाता था। प्राचीन भारत
में ढेर सारे बौद्धिक क्रियाकलाप होते थे। हम हमारे साहित्य में
सैकड़ों साश्त्रार्थ के संदर्भ देखते हैं। जिसमें एक बड़ी सभा कर बौद्धिक-चिंतक विभिन्न विषयों पर विचार विमर्श करते थे।
संस्कृत में हजारों किताबें लिखी गयी थीं, लेकिन इतने लंबे समय बाद मात्र 10 प्रतिशत किताबें ही बची
हैं।
मेरे विषयान्तरण का कारण यह बताना था कि यह भारत की भौगालिक स्थितियॉ ही थी जिसने हमारे पूर्वजों को विज्ञान
और संस्कृत के क्षेत्र में ढेरों प्रगति
करने के योग्य बनाया। गणित खगोलशास्त्र, औषधी, अभियांत्रिकी आदि क्षेत्रों में हम पूर्वजों के विशिष्ट
उपलब्धियों पर चर्चा करने से पहले यहां प्राचीन भारत में संस्कृत का विज्ञान के
विकास क्रम
में दो महत्त्वपूर्ण योगदान की चर्चा करना जरूरी है।
1. इस भाषा के जन्मदाता व्याकरण आचार्य पाणिनी माने जाते हैं
जिन्होंने संस्कृत को इतना सक्षम बनाया कि इसमें तकनीकि विचारों को पूरे विशुद्धता, तार्किकता और
सुस्पष्टता के साथ व्यक्त किया जा सके। विज्ञान में परिशुद्धता की आवश्यकता होती है साथ ही विज्ञान को एक लिखित भाषा की भी जरूरत होती है जिसमें विचारों को पूरे स्पष्टता और
तार्किकता के साथ व्यक्त किया जा सके।
2. असल में संस्कृत सिर्फ एक
भाषा नहीं है, बल्कि संस्कृत
के कई रूप हैं। वर्तमान में जो संस्कृत प्रचलित है वो पाणिनी संस्कृत है। जो
शास्त्रीय संस्कृत के नाम से भी जाना जाता है और जिसे हमारे स्कूलों और
विश्वविद्यालयों में आज पढ़ाया जाता है। साथ ही ये नई भाषा है जिसमें हमारे वैज्ञानिकों
ने महत्वूपर्ण लेखन किया है।
ऋग्वेद का लेखन प्राचीन संस्कृत में हुआ है और यह लेखन 2000 ई. पू. के आस-पास हुआ हैं. इसका लेखन एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के मौखिक परम्परा पर
आधारित है। ऋग्वेद हिन्दू समाज का सबसे पवित्र ग्रन्थ है। जिसमें 1028 ऋचाएं हैं, जो विभिन्न
प्राकृतिक देवताओं को संबोधित किए गए हैं, जैसे- इन्द्र, अग्नि, सूर्य, सोम, वरूण आदि कहा जाता है।
समय के साथ भाषा भी बदलती है। बिना अच्छे स्पष्टीकरण के आज शेक्सपीयर के नाटकों को
समझना कठिन है क्योंकि शेक्सपीयर ने इनका लेखन 16वीं सदी में किया था और तब से आज तक अंग्रेजी भाषा बहुत बदल
गई है। शेक्सपीयर के लेखन के ढ़ेरों व अभिव्यक्तियाँ आज उतनी प्रचलन में नहीं हैं जितना शेक्सपियर के समय थी।
संस्कृत में बदलाव 2000 ई. पू. से ही शुरू हो गया
था। जब ऋग्वेद का लेखन 500 ई.पू. के आस-पास हुआ। 5वीं सदी ई.पू.
में महान बौद्धिक पाणिनी जो विश्वभर में अब तक वे सबसे बड़े व्याकरण आचार्य हैं, उन्होंने इसी समय एक
पुस्तक लिखी थी “अष्टाध्यायी’’। इस पुस्तक में पाणिनी ने संस्कृत के निश्चित नियमों का
उल्लेख किया है।
पाणिनी ने जो सबसे महत्वपूर्ण काम किया वो यह था कि उन्होने अपने समय में प्रचलित संस्कृत भाषा का गहराई
से अध्ययन किया और उसके बाद उसे परिष्कृत परिशुद्ध और व्यवस्थित किया। जिसके कारण वह एक तार्किक, परिशुद्ध और परिष्कृत भाषा बन सकी। इस तरह से पाणिनी ने
संस्कृत को एक ऐसा विकसित व सशक्त वाहक बना दिया जिसमें तकनीकि विचारों को अत्यंत
शुद्धता व स्पष्टता के साथ व्यक्त किया जा सके। ‘अष्टाध्यायी’ के गहराई में मैं नहीं जा रहा हूं, लेकिन इसके संबंध में
यहाँ एक छोटा उदाहरण दिया जा सकता है:-
अंग्रेजी के ‘A’ से ‘Z’ तक के वर्णो को किसी तार्किक आधार पर व्यवस्थित नहीं किया
गया है, इसके पीछे कोई विशेष कारण नहीं है कि F, G से पहले क्यों आता है या P, Q से पहले क्यों आता है? अंग्रेजी के
वर्णो को यादृच्छता के आधार पर व्यवस्थित किया गया है। जबकि दूसरी तरफ, पाणिनी ने
अपने पहले 14 सूत्रों में संस्कृत भाषा को अत्यंत वैज्ञानिक व तार्किक
आधार पर व्यवस्थित किया है। जिसके क्रमबद्धता में ध्वनियों का गहरा अवलोकन किया
गया है।
उदाहरण के तौर पर स्वर-
जैसे- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ को मुख (मुंह) के आकार के आधार पर व्यवस्थित किया गया है।
जैसे कि- अ और आ का उच्चारण गले से इ और ई का उच्चारण तालु से व उ और ऊ का उच्चरण
होठों से होता है। ठीक इसी तरह से व्यंजनों को भी वैज्ञानिक तरीके से जमाया गया
है। क वर्ग का उच्चारण गले से च वर्ग का उच्चारण तालु से त वर्ग का उच्चारण दांतों
और प वर्ग का उच्चारण होठों से होता है।
मैं पूरी निर्भीकता के साथ कहना चाहता हूँ कि संस्कृत के अलावा विश्व के किसी और
भाषा के वर्णो को इस तरह से तार्किक व वैज्ञानिक रूप से नहीं जमाया गया है। इस तरह
से हम देखते है कि हमारे पूर्वज छोटे-छोटे मुद्दों का कितनी गंभीरता से लेते थे।
साथ ही हम ये महसूस कर सकते हें कि बो बड़े मुद्दों पर कितनी गहराई से सोचते होगे।
पाणिनी संस्कृत को शास्त्रीय संस्कृत या परम्परागत संस्कृत भी कहा जाता है। जैसा
कि मैं पहले कह चुका हूँ, वैदिक संस्कृत के संदर्भ में कि ये वही भाषा है जिसमें
हमारे वेद लिखे गए है। आगे मैं वेद शब्द के अर्थ पर बात करना चाहता हूँ। ये हमें
पाणिनी के काम को समझने में मदद करेगा।
वेदों (जिन्हें श्रुति भी कहा जाता है) को चार भागों में बांटा गया हैः-
1.समहिता (या मंत्र)- इनमें चार वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अर्थववेद) को शामिल किया गया है। ‘संहिता’ का अर्थ होता
है- संग्रह। पहले भी कहा जा चुका है- ऋग्वेद प्रार्थनाओं का संग्रह है। सबसे
प्रमुख वेद ऋग्वेद है, जो छंदों में लिखा गया है, जिन्हें ‘ऋचा’ कहते हैं, सामवेद संगीत पर आधारित है। यजुर्वेद कि दो तिहाई ऋचाएं
ऋग्वेद से ली गई है।
2. ब्राह्मण- जो गद्य में
लिखे गए है. जिनमें विभिन्न यज्ञों को करने के तरीके दिए गए है। हर
ब्राह्मण का संबंध कुछ संहिताओं से है।
3. अरण्यक- ये असल में ‘अरण्य वेद’ हैं। जो
बौद्धिक व दार्शनिक विचारों का खजाना है।
4. उपनिषद- ये हमारे
दार्शनिक विचारों के विकास से जुड़े है।
उल्लेखित ऊपर सारे जिन्हें संहिता, ब्राह्मण, अरण्यक, उपनिषद के नाम
से जाना जाता है, उन्हे सामूहिक रूप से वेद या श्रुति कहा जाता है। ब्राह्मण
जो संहिताओं के बाद लिखे गए है, उनकी भाषा संहिताओं से कुछ भिन्न भी है। जिस समय ये लिखे गए उस समय संस्कृत का रूप दूसरा
था। इसी प्रकार से, अरण्यक, ब्राह्मण ग्रंथों से थोड़े भिन्न है। वेदों का अंतिम हिस्सा उपनिषद है और इनकी भाषा
संस्कृत के शुरूआती वेदों से एकदम अलग है। उपनिषदों के लेखन में प्रयुक्त किया गया
संस्कृत पाणिनी संस्कृत के बहुत करीब है। पाणिनी के अध्टाध्यायी के लेखन के बाद से
गैर-वैदिक संस्कृत साहित्य का लेखन भी पाणिनी व्याकरण के
अनुसार होने लगा। वैदिक साहित्य संपूर्ण संस्कृत साहित्य का 1 प्रतिशत ही है। संस्कृत का 99 प्रतिशत साहित्य गैर-वैदिक
संस्कृत साहित्य है।
महाभारत के कुछ हिस्सों का लेखन पाणिनी से पहले हुआ है क्योंकि पाणिनी ने
अष्टाध्यायी में महाभारत का उल्लेख किया है बाद में महाभारत के इन हिस्सों को
पाणिनी व्याकरण के अनुसार बदल दिया गया। अब संस्कृत के गैर-वैदिक साहित्य का लेखन
पाणिनी व्याकरण के अनुसार हो रहा है। कुछ शब्दों व अभिव्यक्तियों को छोड़कर जिन्हें
अपभ्रंश कहा जाता है, जो कुछ कारणों से पाणिनी व्यवस्था में फिट नहीं बैठते।
यहां तक कि यह स्वीकार्य नहीं है कि ऋग्वेद की भाषा बदली जाए और इसे पाणिनी व्याकरण के अनुसार किया जाय। पाणिनी या कोई भी
ऋग्वेद को नहीं छू सकता था क्योंकि यह सबसे पवित्र ग्रंथ है, जिसके भाषा को
बदलना स्वीकार्य नहीं है। 2000 ई. पू. के आस-पास निर्माण
के बावजूद ऋग्वेद का लेखन ठीक से कैसे हुआ
कहा नहीं जा सकता क्योंकि इसका लेखन गुरू-शिष्यों के मौखिक परंपरा के आधार पर हुआ
है।
वैदिक साहित्य का निर्माण पाणिनी व्याकरण के अनुसार नहीं हुआ है। जबकि गैर-वैदिक
संस्कृत साहित्य का निर्माण पाणिनी व्याकरण के अनुसार हुआ है, जिसमें हमारे
सारे बौद्धिकों ने अपना वैज्ञानिक कार्य किया है इसकी एकरूपता और व्यवस्थित रूप ने
बड़े बौद्धिकों को अपनी बात आसानी से व्यक्ति करने का मौका दिया और यह विज्ञान के
विकास के लिए महत्त्वपूर्ण आवश्यकता थी।
आगे मैं ये कहना चाहता हूं कि मौखिक भाषा बहुत महत्त्वपूर्ण है लेकिन मौखिक
बोलियां हर 50 से 100 किलोमीटर पर बदल जाती हैं
जिनमें कोई एकरूपता देखने को नहीं मिलती। परंपरागत संस्कृत जैसी लिखित भाषा जिसमें
उस समय के बौद्धिक अपनी बात दूसरों से कह सकते थे। यह विज्ञान के विकास के लिए
महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ, जो पाणिनी की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी। प्राचीन भारत में विज्ञान के विकास के बाद मैं अब भरतीय दर्शन पर बात करना चाहता हूँ। सामान्यतः माना
जाता है कि परम्परागत भारतीय दर्शन के छः वर्ग और गैर-परंपरागत भारतीय दर्शन के
तीन स्कूल है। छः परम्परागत वर्ग है- न्याय वैशेषिक, सांख्य, योग वर्ग पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा। गैर-परम्परागत वर्ग है: बौद्ध धर्म, जैनधर्म और
चार्वाक। परंपरागत भारतीय दर्शन को शष्टदर्शन के
नाम से भी जाना जाता है। शष्टदर्शन पर संक्षिप्त चर्चा इस प्रकार से है।
1. न्याय- ये एक
वैज्ञानिक दृष्टिकोण को प्रतिपादित करता है. इसके अनुसार बिना तर्क व अनुभव के कुछ भी स्वीकार नहीं किया जा सकता। जिसे बाद में न्याय वर्ग के दार्शनिकों ने
खण्डित कर दिया।
2. वैशेषिक- इसमें परमाणु
सिद्धांत को प्रस्तुत किया गया है।
3. सांख्य- यह न्याय
वैशेषिक व्यवस्था की सत्तामीमांसा को प्रस्तुत करता है। सांख्य दर्शन पर बहुत
ही कम साहित्य बचा है और इसके मूलभूत सिद्धांतों पर विवाद भी है। कुछ कहते है कि
यह द्विअर्थी है और जबकि कुछ इसे एकार्थी मानते हैं इसके दो मुख्य
प्रतीक है- एक-पुरूष, दूसरी-प्रकृति।
4.योग- यह शारीरिक व
मानसिक अवस्था को प्रस्तुत करता है।
5. पूर्व मीमांसा (जिसे
संक्षिप्त में मीमांसा कहा जाता है)- यह आध्यात्मिक व सांसारिक लाभ के लिए योग पर
जोर देता है।
6. उत्तर मीमांसा- यह
ब्राह्मण पर जोड़ देता है।
ऐसा कहा जाता है कि परंपरागत और गैर-परम्परागत दर्शन व्यवस्था इस मामलें में एक
दूसरे से अलग है कि परम्परागत दर्शन व्यवस्था वेदों के आधिपत्य को स्वीकार करता है
जबकि गैर-परम्परागत दर्शन व्यवस्था वेदों के आधिपत्य को स्वीकार नहीं करता।
इन सारी दर्शन व्यवस्थाओं पर विस्तृत चर्चा करने के बजाए मैं मुख्य रूप से न्याय और वैशेषिक पर चर्चा करना चाहता हूँ, जो एक
वैज्ञानिक दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हैं न्याय, दर्शन के अनुसार कुछ भी तर्क और अनुभव के बिना स्वीकार्य
नहीं है और यह स्पष्ट रूप से एक वैज्ञानिक सोच है। वहीं वैशेषिक परमाणु सिद्धांत
को प्रस्तुत करता है जो प्राचीन भारत का भौतिकी था। शुरू में न्याय और वैशेषिक को
एक ही व्यवस्था के रूप में देखा जाता था लेकिन भौतिकी सभी विज्ञानों के आधार में
था। आगे जाकर वैशेषिक न्याय दर्शन व्यवस्था के अलग हो गया और एक स्वतंत्र दर्शन
व्यवस्था के रूप में स्थापित हुआ। आगे कहा जा सकता है कि सांख्य दर्शन व्यवस्था, न्याय और
वैशेषिक व्यवस्था से पुरानी है लेकिन इस संदर्भ में बहुत कम साहित्य ही बचा है. हालांकि यह कहा जा सकता
है कि सांख्य दर्शन ने न्याय-वैशेषिक वैज्ञानिक दर्शन के लिए एक भौतिक आधार का काम
किया था। न्याय-वैशेषिक व्यवस्था को दो भागों में बांटा गया है-
1. यथार्थवाद 2. द्वैतवाद (या बहुलवाद)
यह शंकराचार्य के अद्वेत वेदान्त का विरोधी है जो एकत्ववादी है और जिसके अनुसार
संपूर्ण संसार एक भ्रम है, ऐसा माना है। ‘अनेकवाद’ और ‘एकत्ववाद’ एक दूसरे के विरोधी है। ‘एकत्व’ का अर्थ है- संपूर्ण संसार में एक ही तत्व एक ही सत्ता हैं
शंकराचार्य का दर्शन भी यही कहता है कि - संपूर्ण संसार में एक ही सत्ता है। इस
ब्रह्माण्ड की चीजें- टेबल, ग्लास, पेन, कमरा आदि असल में ये सब एक ही हैं इनका अलग दिखना एक भ्रम
कि स्थिति है। जबकि दूसरी तरफ न्याय-वैशेषिक दर्शन व्यवस्था के अनुसार इस संसार
में कई वास्वतिक सत्ताएँ या तत्व हैं और यह संसार किसी एक सता के कारण नहीं चल रहा
बल्कि उन तमाम विभिन्न तत्वों के संयोजन से चल रहा है। जैसे- टेबल, किताब, कमरा, मानव आदि। अतः
न्याय व्यवस्था बहुलवादी है, ना कि एकत्ववादी।
आगे मै भारतीय दर्शन के बारे में कुछ और भी बताना चाहता हूँ। भारतीय दर्शन की दो प्रमुख शाखाएँ हैः- सत्तामीमांसा और ज्ञान-भीमांसा।
सत्तामीमांसा अस्तित्व का अध्ययन है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो सत्तामीमांसा इन
प्रश्नों का उत्तर खोजता है कि असल में किसका अस्तितत्व है? क्या ईश्वर का अस्तित्व है? क्या संसार का अस्तित्व है या ये सिर्फ माया है? वास्तविक क्या
है? ज्ञानमीमांसा
में ज्ञान स्त्रोतों का अध्ययन किया जाता है। जैसे कि सामने जो वस्तु है
क्यों उसका अस्तित्व भी है? यहां प्रत्यक्ष ज्ञान कि चर्चा जरूरी है। प्रत्यक्ष ज्ञान
वो ज्ञान है जो हम अपने पाँच ज्ञाननेन्द्रियों से प्राप्त करते है। प्रत्यक्ष प्रमाण
को प्रधान प्रमाण भी कहते हैं ये सभी ज्ञान स्त्रोतों का आधर भी हैं। हालांकि दूसरे प्रमाण भी है जैसे- अनुमान, शब्द आदि। अतः
ढ़ेरों वैज्ञानिक जानकारियाँ हम तक अनुमान-प्रमाण से पहुंचती हैं जैसे कि रैदरफोर्ड ने अपनी आंखों से परमाणु को नहीं देखा
था लेकिन बिखरे किरणों के अध्ययन व अपने अनुमान-प्रमाण के द्वारा वह इस निर्णय पर
पहुंचा कि धनात्मक अणुओं के चारों ओर ऋणात्मक अणु चक्कर लगाते हैं इसी तरह से हम
ब्लैक होल को भी अपने प्रत्यक्ष आंखों से नहीं देख सकते लेकिन हम इनके अस्तित्व को
कुछ खगोल पिण्डों के गतिशीलता से जान सकते है।
ज्ञान मीमांसा का तीसरा प्रमाण है- शब्द-प्रमाण। जो कि किसी विशेषज्ञ या व्यक्ति
का किसी विशिष्ट क्षेत्र में दिया गया सिद्धांत होता है। हम ऐसे कथनों या
सिद्धांतों को सही मानकर स्वीकार भी कर लेते है, जबकि इसे समझने के लिए हमारे पास कोई प्रमाण नहीं होता
क्योंकि सिद्धांत देने वाला अपने विषय का विशेषज्ञ होता है। जैसे कि e=mc2 को हम स्वीकार कर लेते है। इसलिए भी क्योंकि आईन्सटीन का
सैद्धांतिक भौतिकी में बड़ा नाम था, जबकि हम ये समझने में असमर्थ होते हैं कि वो इस समीकरण तक
कैसे पहुचे और इसे समझने के लिए हमें गणित व भौतिकी की गहरी जानकारी चाहिए, जो हमारे पास
नहीं होती। ठीक इसी तरह, हम अपने डॉ. के द्वारा बताए गए
रोग को मान लेते है क्योंकि वह विशेषज्ञ होता है।
जैसे कि पहले ही कहा जा चुका है कि न्याय दर्शन वैज्ञानिक दृष्टिकोण को प्रस्तुत
करता है और ये प्रत्यक्ष प्रमाण पर विशेष जोर देता है। यह स्थिति विज्ञान के साथ भी है क्योंकि विज्ञान
विस्तृत रूप से अवलोकन प्रयोग और तार्किक अवयवों पर आधारित है यहाँ यह कहा जा सकता
है कि प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा हमेशा ही सही ज्ञान मिले ये जरूरी नहीं। जैसा कि हम देखते हैं कि सुबह सूरज पूरब से निकलता है, दिन के मध्य में ठीक ऊपर होता है और शाम को पश्चिम में अस्त
होता हैं अगर हम प्रत्यक्ष प्रमाण का उपयोग करें तो पायेंगे कि समय पृथ्वी के
चारों ओर घूम रहा है जैसा कि महान गणितज्ञ और खगोलशास्त्री आर्यभट्ट ने ‘आर्यभट्टीय’ में लिखा है। ठीक इसी तरह का दृश्य हमारे मन में उभरता है जब हम ये सोचते हैं
कि पृथ्वी अपने ध्रुव पर घूम रही हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो अगर पृथ्वी अपने ध्रुव पर घूम रही है तो ये मानना
होगा कि सूर्य पूर्व से उगता है और पश्चिम में डूबता है। ऐसे में हमें प्रत्यक्ष
प्रमाण के साथ कारण के बारें में भी सोचना होगा क्योंकि सिर्फ इसके द्वारा हम
वास्तविक ज्ञान तक नहीं पहुंच सकते।
अतः न्याय दर्शन ने प्राचीन भारत में विज्ञान को बहुत प्रोत्साहित व संबर्द्धित
किया था। यहां इसका उल्लेख करना जरूरी है कि न्याय दर्शन षष्ट दर्शनों में से एक
है। यह छः परम्परागत भारतीय दर्शन में से एक हैं चाणकि कि तरह यह गैर-परंपरागत
दर्शन व्यवस्था नहीं है। हालांकि उस समय के लोगों द्वारा परंपरागत दर्शन पर भरोसा
होने के बावजूद उस दौर के लोगों ने अपने समय के वैज्ञानिकों को उत्पीड़ित नही किया।
जबकि दूसरी तरफ यूरोप के कुछ वैज्ञानिकों को जैसे- गैलेलियों को बाईबिल का खण्डन
करने पर चर्च द्वारा प्रताणित किया गया।
प्राचीन भारत में हर जगह पर विमर्श या शास्त्रार्थ होते थे, जिनमें मुक्त
रूप से नए विचारों पर चर्चा होती थी। तथा जिसमें एक बड़ी विचारधारा का बड़ी सभा में
खण्डन किया जाता था। उस समय, विचारों व अभिव्यक्तियों की स्वतंत्रता ने विज्ञान के विकास में अहम भूमिका अदा की। यहां तक कि विज्ञान
भी स्वतंत्रता की मांग करता है। सोचने की स्वतंत्रता और विरोध करने की स्वतंत्रता।
महान वैज्ञानिक चरक ने अपनी पुस्तक ‘चरक समहिता’ में कहा भी है कि ‘‘विज्ञान के विकास के लिए वाद-विवाद व विमर्श अति-आवश्यक है।’’
प्राचीनतम न्याय पाठों में
जिनमें मुख्य रूप से गौतम के न्याय सूत्र हैं। इनमें विभिन्न वर्गो के विमर्शों का
उल्लेख किया गया है, जैसे- वाद, जाप, वेदान्त आदि। आगे मैं उन वैज्ञानिक विषयों की चर्चा करना चाहूँगा जिसमें हमारे वैज्ञानिकों ने महत्त्वपूर्ण
योगदान दिया है।
गणित- दशमलव गणना की खोज प्राचीन गणित के क्षेत्र में एक बड़ी वह महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी। दशमलव
गणना में संख्याओं को यूरोपियों द्वारा अरबी
संख्या कहा गया है, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से अरब दार्शनिक इसे हिंदू संख्या
कहते है। वास्तव में ये अरबी या हिन्दू है। इस संदर्भ में इसका उल्लेख किया जा सकता है कि उर्दू, फारसी और अरबी दाहिने से
बांए के तरफ लिखी जाती हैं लेकिन अगर आप इन भाषाओं के किसी भाषी से कोई संख्या लिखने
के लिए कहें तो जैसे- 257 तो वह इस संख्या को बांए से दाहिने कि ओर ही लिखेगा। यह दिखाता
है कि ये संख्याएँ उस भाषा से है, जो बाएं से दाहिने की ओर लिखी जाती हैं न कि दाहिने से बांए की ओर। अब ये स्वीकार कर लिया गया है कि ये संख्याएं भारत से आई थी और इनकी नकल
अरबियों ने बाद में की।
मैं यहां दशमलव संख्याओं के अत्यंत महत्त्वपूर्ण रूप को प्रस्तुत करना चाहता हूँ।
जैसे कि आप सभी जानते हैं कि चीन रोम एक महान सभ्यता थी। सीजर और अगस्तस की सभ्यता। अगर हम किसी रोमवासी को एक मिलियन लिखने के लिए कहें तो वो खुश हो
जायेगा और इसके लिए वह M लिखेगा। M का अर्थ होता
है मिलेनियम। रोमन संख्या में M से बड़ी कोई
संख्या नहीं है। जबकि हमें अपनी संख्या व्यवस्था में एक मिलियन लिखने के लिए एक के
बाद छः जीरों लगाता पड़ता है। रोमन संख्याओं में जीरों नही पाया जाता। शून्य
प्राचीन भारत कि खोज थी और इस खोज के बिना कोई विकास संभव नही था।
1,000,00 कि संख्या को भारतीय
संख्या व्यवस्था में एक लाख कहते है। सौ लाख को एक करोड़, 100 करोड़ को एक अरब, 100 अरब को एक खरब,
100 खरब को एक नील, 100 नील को 1 पदम, 100 पदम को एक शंख,
100 शंख को महाशंख कहते है।
अतः महाशंख वह संख्या है जिसमें 1 के बाद 19 शून्य लगाया जाता है। जबकि रोमन संख्याओं में एक मिलियन से
अधिक कि संख्याओं को व्यक्त नहीं किया जा सकता।
आगे एक दूसरा उदाहरण मैं देना चाहूँगा। अग्नि पुराण के अनुसार- कलियुग जिसमें हम
रह रहे है वो 4,32,000 सालों का होता है। उसके पहले के युग को द्वापर युग कहते है
जो कलयुग से दुगुना होता है। द्वापर युग के पहले के युग को त्रेता युग कहते हैं
जिसकी अवधी कलयुग से तिगुनी मानी गई है। त्रेता युग के पहले से युग को सतयुग कहा
जाता है और ये कलयुग से 4 गुना लंबा माना गया है।
कलयुग, द्वापर, त्रेता और
सतयुग को सामूहिक रूप से ‘चतुर भुज’ कहा जाता है। 56 चतुरयुगों को ‘मनोवन्तार’ कहा जाता है।
पन्द्रह मनोवन्तारों को एक कल्प कहा गया है।
हमारे परंपरागत लोगों द्वारा जब आज भी ‘संकल्प’ किया जाता है तो वो कलयुग के निश्चित दिन, महीने व वर्ष
का उल्लेख करते हैं यहां तक कि चतुरयुग मनोवन्तर और कल्प का भी उल्लेख करते हैं
जिसमें हम रह रहे है। ऐसा कहा जाता है कि हम 28 वें चतुरयुग में रह रहे
हैं बहुत संभव है कि हम ऊपर के समय व्यवस्था को ना माने, लेकिन इस बात का अंदाजा हम लगा सकते है कि कैसे हमारे
पूर्वजों ने अरबों-खरबों सालों के समय की गणना की थी।
आर्यभट्ट ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘आर्यभट्टीय’ में बीजगणित, अंकगणित, प्रमेय, समीकरण आदि पर
लिखा है। आर्यभट्ट ने एक पाई का मान 3.14159 बताया है , जो वास्तविक
मान 3.14159 के बहुत करीब है। आर्यभट्ट के इस खोज को पहले ग्रीक यूनानियों
ने, फिर अरबियों ने अपनाया।
खगोलशास्त्र - प्राचीन भारत में आर्यभट्ट ने अपनी किताब ‘आर्यभट्टीय’ में गणितीय
गणना द्वारा ये प्रतिपादित किया है कि पृथ्वी अपने धुरी पर घूमती है। उन्होंने
अपनी पुस्तक में दूसरे ग्रहों के गति के सूर्य की गति पर भी चर्चा की है। उस समय
के एक दूसरे खगोलशास्त्री थे- ब्रह्मगुप्त जो खौगोलिक अवलोकन संस्थान उज्जैन के
अध्यक्ष थे। उस समय वरहमिहिर ने बताया कि गुरूत्वाकर्षण के कारण ही पृथ्वी अपने
तरफ वस्तुओं को खींचती है। इसके कारण ही तमाम खगोलीय पिण्ड अपनी जगह स्थिर है।
समयाभाव के कारण मै इन सभी खगोलशास्त्रियों के सिद्धांतों व योगदानों पर चर्चा
करने कि स्थिति में नहीं हूँ। लेकिन यहां पर कहना जरूरी है कि उस समय जब टेलीस्कोप
जैसे आधुनिक यंत्र नही थे तब भी हमारे पूर्वजों ने नंगे आंखों से ये खगोलीय अध्ययन कैसे किए होंगे ?
औषधी- प्राचीन भारतीय औषधी क्षेत्र में चरक और सुश्रुंत का नाम
बहुत प्रसिद्ध है। सुश्रुत को भारतीय शल्यचिकित्सा का पिता कहा जाता है। जो
प्लास्टिक सर्जरी के आविष्कारक माने जाते है। अपनी किताब सुश्रुत समहिता में
सुश्रुत ने औषधियों व शल्यक्रियाओं पर विस्तृत चर्चा की हैं साथ ही शल्यचिकित्सा में उपयोग किए जाने वाले यंत्रों
पर व्यापक चर्चा की है जिसे गूगल पर आसानी
से देखा जा सकता है। सुश्रुत के अनुसार- एक अच्छा शल्यचिकित्सक बनने के लिए
शारीरिक संरचना का ज्ञान होना बेहद जरूरी
है। चरक द्वारा लिखित चरक संहिता भी बहुत प्रसिद्ध है। जो प्राचीन भारतीय आयुर्वेदिक
पुस्तक है जिसमें औषधियों के आंतरकि प्रभाव पर चर्चा की गई है। सुश्रुत संहिता और चरक संहिता, दोनों ही
संस्कृत में लिखी गई हैं। यहां उल्लेख करना जरूरी है कि ‘‘लंदन विज्ञान संग्रहालय का एक फ्लोर जो औषधी से जुड़ा है।
इसमें प्राचीन भारत में औषधी क्षेत्र में हुए विकास व उपलब्धियों का प्रदर्शन किया
गया है जिसमें सुश्रुत द्वारा उपयोग किए गए प्राचीन शल्य चिकित्सकीय यंत्रों का भी
उल्लेख है।
अभियांत्रिकी- अभियांत्रिकी के क्षेत्र में भी हमारे पूर्वजों ने अनेक
उपलब्धियां हासिल की थी। इसका प्रमाण हमें दक्षिण भारतीय मंदिरों को देखकर आसानी
से मिल जाता है। तनजोर, त्रिची, मदुरई, उड़ीसा के खजुराहो से हम खूब परिचित हैं। ऐसा कहा भी जाता है कि 6 वीं सदी में कर्नाटक के
आईहोल में एक संस्थान था, जहां कई तकनीक विकसित किए गए थे।
आगे मैं ये चर्चा करना
चाहता हूँ कि अंग्रेजों का भारतीय संस्कृति को लेकर क्या नज़रिया था, जो तीन-चरणों से होकर गुज़रता है। पहला चरण है 1600 सदी का समय जब
अंग्रेज भारत आये तब
से 1757 में प्लासी युद्ध होने तक, जब उन्होंने बांबे, मद्रास और कलकत्ता में अपने आप को व्यापारियों के रूप में प्रतिष्ठित किया।
इस दौरान अंग्रेजों का नज़रिया भारतीय संस्कृति को लेकर एकदम अलग था। उस समय तक
उनकी रूचि भारतीय संस्कृति में नहीं थी क्योंकि तब तक वो सिर्फ व्यापारी थे और
सिर्फ व्यापार और धन में रूचि ले रहे थे।
दूसरा चरण 1757 से 1857 तक का है। सन 1757 में प्लासी युद्ध के बाद बंगाल की दीवानी मुगल शासकों द्वारा अंग्रेजों को दे दी गई। इसने
अंग्रजों को व्यापारियों से शासकों में बदल दिया। इसके बाद पूरा बंगाल का क्षेत्र
(जिसमें बिहार और उड़ीसा भी आता था) उनके साशन के अंदर आ गया। तब 1757 से 1857 तक अंग्रेजों ने भारतीय संस्कृति का गहरा अध्ययन किया और कई
महत्त्वपूर्ण योगदान भी किए। विशेषतौर पर भारतीय संस्कृति के ज्ञान को पश्चिम में
फैलाया।
तीसरा चरण भारतीयों द्वारा अंग्रेजों के विरोध और अंग्रेजों द्वारा भारतीयों के
दमन का चरण है। सन् 1857 के बाद अंग्रेजों ने ये
मान लिया कि उनके शासन को कोई हिला नहीं सकता। बाद में उन्होंने दो चीजें की-
1. उन्होंने भारत में अपने सेना कि संख्या बढ़ा दी, विशेषतौर से
यूरोपियों की संख्या भारतीय सेना में बढ़ा दी और साथ ही आर्टिलरी (तोपखाना) को
पूर्णतः यूरोपिय आर्टिलरी (तोपखाना) के हाथों में सौप दिया।
2. दूसरी थी भारतीयों को निरूत्साहित व ध्वस्त करने कि नीति जिसके तहत उन्होंने ये प्रचारित करना शुरू किया कि भारतीय
मूर्खो व नालायकों की नस्ल हैं और यह कि अंग्रेजों के आने से पहले भारत में कुछ भी बेहतर नहीं था। उन्होंने ऐसा
प्रचार इसलिए किया ताकि भारतीय ये मानना शुरू कर दें कि भारतीयों की नस्ल एक कमजोंर नस्ल है और वे अंग्रेजों को अपने शासक के
रूप में स्वीकार कर लें। इस तीसरे चरण के कारण ही (असल में अंग्रेजों के कारण है)
हम अपने पूर्वजों के महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों को भूल गए है। यहां तक कि अपने
पूर्वजों की वैज्ञानिक उपलब्धियों को भी।
दूसरा चरण जिसमें अंग्रेजों ने भारतीय संस्कृति का गहरा अध्ययन किया, उस चरण से एक
संदर्भ की मै चर्चा करना चाहूँगा। ऐसे ही अंग्रेजों में से एक थे, सर विलियम
जोन्स। जो सन् 1783 में कलकत्ता उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश बनकर भारत आए। सर
विलियम जोन्स का जन्म सन् 1746 में हुआ था। उन्होंने बचपन
में ही ग्रीक, लैटिन, पर्शियन, अरबी, हिब्रू आदि भाषाओं पर महारत हासिल कर ली थी। वो ऑक्सफोर्ड
विश्वविद्यालय से पढ़े थे और वहीं से वकीली की परीक्षा पास किया था। वो भारत आए तो उन्हें बताया गया कि भारत में एक संस्कृत
नाम कि प्राचीन भाषा हैं इससे उनकी जिज्ञासा संस्कृत को
जानने की तरफ बढ़ी और उन्होंने इस भाषा को सीखने की ठानी। उसके बाद उन्होंने
पूछताछ शुरू की और उन्हें एक अच्छे शिक्षक मिले। जिनका नाम था- राम लोचन कवि भूषण। जो एक गरीब बंगाली ब्राह्मण थे और कलकत्ता के
एक भीड़भाड़ वाले इलाके में रहते थे। सर विलिमय जोन्स उस व्यक्ति के पास संस्कृत
सीखने जाने लगे। सर विलियम जोन्स ने अपने स्मृतियों में लिखा है कि- ‘‘राज का पाठ
खत्म होने पर जब सर जोन्स पीछे देखते तो प. बंगाली ब्राह्मण शिक्षक अपने फर्श को
साफ कर रहा होता, जहां वो बैठे थे क्योंकि उस ब्राह्मण के लिए वे ‘मलेक्ष’ थे। फिर भी सर
विलियम जोन्स ने अपने को अपमानित महसूस नहीं किया क्योंकि वो बौद्धिक थे और इसे इस रूप में लिया कि ये तो एक शिक्षक का
रिवाज़ है। संस्कृत भाषा में महारत हासिल करने के बाद, सर विलियम जोन्स ने कलकत्ता में एशिएटिक सोसाईटी की स्थापना
की और संस्कृति की
कई महान कृतियों का जैसे- अभिज्ञान शकुन्तलम को अंग्रेजी में अनुदित किया। उनके कार्यो की प्रशंसा गोएथे जैसे महान जर्मन विद्वान ने की है। सर जोन्स
ने ये भी सिद्ध किया कि संस्कृत लैटिन और ग्रीक के बहुत करीब है क्योंकि संस्कृत
में तीन वचन होते है। जैसे- एकवचन, द्विवचन और बहुवचन ठीक ग्रीक की तरह। जबकि लैटिन में सिर्फ़
दो ही वचन होते है- एकवचन व बहुवचन जैसे कि अंग्रेजी में या हिंदी में या दूसरे
भाषाओं में और भी कई ब्रिटिश विद्वान हुए हैं जिन्होंने भारतीय संस्कृति में
महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। लेकिन उन सभी कि चर्चा समयाभाव के कारण यहां नहीं की
जा सकती।
आधुनिक भारत में विज्ञान
की स्थिति -
जैसा कि मैंने पहले कहा कि एक समय भारत विश्वभर में विज्ञान
में अग्रणी था। प्राचीन भारत में तक्षशिला, नालन्दा, उज्जैन जैसे विश्वविद्यालयों में अरब और चीन से विद्यार्थी
पढ़ने के लिए आते थे।
हालांकि आज हमें ये झिझ़क के साथ स्वीकार करना पड़ता है कि
पश्चिम की तुलना में हम आधुनिक विज्ञान में हम पीछे है। इसमें कोई शक नहीं कि हमने
दुनिया को कई महान वैज्ञानिक व गणितज्ञ दिए है। जैसे- सी.वी.रमन, चंद्रशेखर, रामानुजन, एस.एन.बोस, जे.सी.बोस, मेघनाद शाह
आदि लेकिन अब ये सभी इतिहास हो गए है।
हालांकि आज भी सिलिकॉन वैली (कैलीफॉर्निया) में कई भारतीय
वैज्ञानिक कार्यरत है, विशेषतौर से आईटी में। अमेरिकी विश्वविद्यालयों में विज्ञान व गणित विभाग में कई भारतीय प्रोफेसर हैं। हमारे मन में इसको लेकर कोई हीनता नहीं होनी चाहिए कि
भारत आधुनिक समय में विज्ञान के क्षेत्र में पश्चिम देशों से पिछड़ा हुआ है। बल्कि
इसके पीछे और कई कारण है। हमारे पास एक मजबूत वैज्ञानिक सभ्यता है और ऐसा ज्ञान जो
हमें आगे भी नैतिक साहस देता रहेगा और भविष्य में भारत को आगे ले जायेगा। यहां पर
एक सवाल ये भी उठता है कि जब बहुत पहले हम विज्ञान के क्षेत्र में इतने आगे थे तो
अचानक से हम इतने पीछे कैसे हो गए? इसे नीधम प्रश्न भी कहते है। इंग्लैण्ड के प्रो. नीधम प्रखर
जैव-रसायन शास्त्री थे। जिन्होंने बाद में चीनी सभ्यता का गहरा अध्ययन किया और चीन
में विज्ञान का इतिहास विषय पर उन्होंने कई संस्करणों में किताबें लिखी है।
उन्होंने अपने एक खण्ड में यह सवाल उठाया है कि एक समय में जब चीन विश्वभर में
विज्ञान के क्षेत्र में बहुत आगे थे। जहां प्रिंटिंग प्रेस, कागज़ आदि का
सबसे पहले आविष्कार हुआ था, वो अचानक से विज्ञान के क्षेत्र में पिछड़ कैसे गया और जहां
पर कोई तीव्र औद्योगिक विकास देखने को क्यों नही मिला। ठीक यही सवाल भारत के
संदर्भ में भी उठता है। मेरे दिमाग में इस सवाल का जवाब ये है कि - ‘‘आवश्यकता
आविष्कार की जननी है।’’ हम वैज्ञानिक विकास में उस स्थिति तक पहूँच गए है, जहां हमें
अपने जीवन को चलाने के लिए किसी अतिरिक्त अविष्कार कि आवश्यकता नहीं है। वहीं
यूरोप की विपरीत भौगोलिक परिस्थितियां उसे लगातार ये प्रेरित करती
है कि वह विज्ञान के क्षेत्र में कुछ नया करे।
भारत में संतुलित तापमान पाया जाता है और सिर्फ गर्मी में ही फसले। जिन्हें खरीफ
फसलें कहते हैं नही उगाई जाती बल्कि यहां सर्दी में भी फसले (जिन्हें रबी फसले
कहते हैं) उगाई जाती है। वहीं दूसरी तरफ यूरोप में विपरीत जलवायु पाई जाती है।
जहां की जमीन साल में 4 से 5 महीने तक वर्फ से ढ़की रहती है। अतः यूरोप जीवन जीने के मूलभूत
आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए, लगातार विज्ञान के क्षेत्र में प्रयोग कर रहा है।
अंत में कहना चाहूँगा कि अपनी व्यापक समस्याओं के समाधान के लिए हमें विज्ञान के
क्षेत्र में पश्चिम की बराबरी करनी होगी। सिर्फ विज्ञान की सहायता से ही हम गरीबी, बेरोजगारी
जैसी बड़ी सामाजिक समस्याओं
को खत्म कर सकते है।