-दिलीप खान
मीडिया
के समाजशास्त्र और राजनीति पर जब बात होती है तो विश्लेषण का नज़रिया तीन स्पष्ट
भागों में बंट जाता है। पहला नज़रिया मीडिया के काम-काज के मौजूदा तरीके को बेहतरीन
करार देता है। तर्क देने वालों का मानना होता है कि मीडिया पर आग्रह-पूर्वाग्रह के
जो आरोप लगाए जाते हैं वो लगभग आधारहीन हैं। मीडिया को लेकर जो तस्वीर इनके भीतर
होती है वो एडमंड बर्क द्वारा कथित लोकतंत्र के मज़बूत चौथे खंभे वाली होती है।
दूसरे नज़रिए वाले लोग यह मानते हैं कि ख़बरों के चयन और प्रकाशन/प्रसारण के जरिए मीडिया एक ख़ास राजनीतिक
विचारधारा को प्रश्रय देने के साथ-साथ एक विशेष क़िस्म का जनमत तैयार तो करता है,
लेकिन यह किसी निर्धारित योजना के तहत हो रहा हो, ऐसा नहीं है। माध्यम की गति,
पुष्टिकरण की सीमा, ख़बरों तक आसान पहुंच या फिर पत्रकारों की उन्मुखता जैसे
कारणों को मीडिया के राजनीतिक और समाजशास्त्रीय असर का इंजन बताया जाता है। तीसरी
श्रेणी के लोगों का मानना है कि मीडिया जिस तरह की वैचारिकी हमारे समाज में पैबस्त
कर रहा है और जिस निश्चित ढब-ढांचे में समाज को आकार दे रहा है वो किसी लंबी और
निर्धारित योजना का हिस्सा है। चूंकि दुनिया भर में मीडिया को नियंत्रित करने वाले
लोगों का हित एक खास खूंटी के साथ नत्थी है इसलिए उस खूंटी को बचाने और उसे मज़बूत
करने के उपक्रम के बतौर मीडिया काम करता है। सरोकार और आम जनता के सवाल को उसी हद
तक तवज्जो दी जाती है जहां से उस ख़ास खूंटी को कमज़ोर करने का दायरा शुरू होता
है। इस तीसरी श्रेणी के विचारकों पर पहली और दूसरी श्रेणी के विचारक यह आरोप लगाते
हैं कि दरअसल ये लोग अकादमिक समाजशास्त्री या राजनीतिशास्त्री या जो कुछ भी होते
हों, लेकिन होते हैं मूल रूप से अकादमिक। यानी सैद्धांतिक निरुपण तो दे देते हैं,
लेकिन मीडिया की मौजूदा व्यवहारगत सीमाओं और काम-काज के सूक्ष्म तरीकों से वो नावाकिफ़
होते हैं।
जिन
सूक्ष्म तरीकों की बात कही जाती है उसके कई रूप हैं, लेकिन विश्लेषण से जाहिर होता
है कि आग्रह-पूर्वाग्रह की बहस में मीडिया जिस चलताऊ तरीके का इस्तेमाल करके इसे
माध्यम की सीमा करार देता है, असल में वैसा है नहीं। मीडिया की जो गति है, खासकर
टीवी चैनलों की, वह एक तरह से आपाधापी जैसी है। हर चैनल को दूसरे चैनलों से 10
सेकेंड पहले विजुअल्स चाहिए ताकि एक्सक्लूसिव की पट्टी चिपकाई जा सके। हालांकि
एक्सक्लूसिव बैंड चलाने के लिए ऐसा नहीं है कि चैनल इस शर्त का पालन करते ही हों,
चलाने को तो जब मर्जी तब चला सकते हैं और चलाते भी हैं, लेकिन विजुअल्स यदि 10
सेकेंड पहले आ जाए तो एंकर को ‘सबसे पहले हमारे
चैनल पर’ जैसे जुमले उछालने का शानदार मौका मिल जाता है।
इस पूरी संरचना का रिपोर्टर के ऊपर भारी दबाव होता है। अगर ग़लती होती है तो चैनल
यह तर्क देता है कि जल्दबाज़ी से हुई यह मानवीय भूल थी, गोया मिनट भर की देरी से
ख़बर बासी हो जाती! जल्दबाज़ी के तर्क का इस्तेमाल सिर्फ
रिपोर्टिंग तक सीमित नहीं है बल्कि पैनल में बुलाए जाने वाले लोगों के चयन में भी
इसका सहारा लिया जाता है। खगोलीय घटनाओं पर हिंदी में वैज्ञानिक व्याख्या पेश करने
वाले खगोलविद् नहीं मिलने की वजह से भविष्यवक्ताओं को बुलाने की बात कही जाती है। क्या
हिंदी पट्टी में समाजशास्त्री या फिर वैज्ञानिक चेतना वाले लोगों की सचमुच कमी है
कि उनकी जगह को ज्योतिषियों और भविष्यवक्ताओं से भरना पड़ता है? ज्योतिषियों वाले इस ‘औचक शो’ पर सेट और
ग्राफिक्स की जो तैयारी होती है वह जल्दबाज़ी वाले तर्क को सिरे से खारिज करती
दिखती है।
टीवी
मीडिया में कार्यक्रम बंद करने का आधार कम लोकप्रियता नहीं है। अगर कार्यक्रम बंद
होते हैं तो इसकी कुछ ठोस आर्थिक और सामाजिक वजहे हैं। बीते कुछ दिनों में हिंदी
समाचार चैनलों पर कुछ ऐसे कार्यक्रम बंद हुए जो न सिर्फ दर्शकों के बीच काफ़ी
लोकप्रिय थे बल्कि उनकी टीआरपी भी अच्छी थी। उनमें से एक के बंद होने से क्षुब्ध
दर्शकों ने तो इंटरनेट मीडिया पर मनुहार के साथ-साथ काफी नाराज़गी भी जाहिर की। कार्यक्रम
बंद करने के लिए चैनल के पास सिर्फ एक ही कारण था कि जो रिपोर्टर हफ़्ते में आधे
घंटे की सामग्री तैयार कर रहा है और जिसे दोहराने से भी हफ्ते में सिर्फ़ एक घंटे
का ही एयर टाइम भर रहा है, उसके बदले रिपोर्टर से रोज़-रोज़ घंटे-दो घंटे की
एंकरिंग कराई जाय। इस तरह चैनल एक मानव संसाधन से आधे घंटे की बजाय हफ्ते में कम
से कम 7-10 घंटे की सामग्री तैयार करवा रहा है। कम लागत पर ज़्यादा उत्पादन। टीआरपी
की वजह से बाज़ार में कोई कार्यक्रम टिकेगा यह ज़रूरी नहीं है। कई समाचार चैनल
बीते कुछ महीनों से एक एंकर को चार से पांच घंटे तक ऑन एयर रख रहा है। एक ही एंकर
क्रिकेट और बॉलीवुड पर भी बहस कर रहा/रही है और अगले घंटे
चरमराती अर्थव्यवस्था पर भी। अंतहीन बहस का सिलसिला चलता रहता है। सार यह कि कम
लागत पर ख़बरें तैयार की जा रही है। मीडिया में सामग्री चयन के वास्ते दूसरी
श्रेणी के विचारक इसे मज़बूत तर्क के तौर पर पेश करते हैं।
अब इन
दोनों तर्कों को पलटाने वाला एक उदाहरण लेते हैं। बीते दिनों दो-तीन ऐसी घटनाएं
घटीं जो भारतीय मुस्लिम समुदाय से संबंधित थीं। पहला मामला था पुणे के जेल में
आतंकवाद के आरोप में बंद क़तील सिद्दकी की जेल के भीतर की गई हत्या, दूसरे और
तीसरे मामले के तहत क्रमश: सऊदी अरब से फसीह महमूद
का अपहरण और एटीएस द्वारा उत्तर प्रदेश और बिहार से कुछ मुस्लिम नवयुवकों को
हिरासत में लिया जाना शामिल है। ख़बरों को कितनी प्रमुखता दी गई और ख़बरों का
नज़रिया क्या था यह एक अलग विषय है लेकिन अख़बारों और चैनलों में इन तीनों मामलों
का ज़िक्र आया। घटना के बाद देश में कई हिस्सों में विरोध प्रदर्शन भी किए गए।
उत्तर प्रदेश के सीतापुर में हज़ारों लोगों ने सम्मेलन किया, लेकिन दिल्ली में 15
से ज़्यादा संगठन ने इन घटनाओं के बारे में स्थिति स्पष्ट करने की मांग के साथ गृह
मंत्री पी. चिदंबरम के घर के सामने शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया। पुलिस ने 50 से
ज़्यादा लोगों को हिरासत में लेकर चाणक्यपुरी थाने में बंद कर दिया। एजेंसी को
छोड़ दे, तो भी मामले को कवर करने लगभग 10 राष्ट्रीय-क्षेत्रीय चैनल पहुंचे थे।
टीवी चैनलों के नजरिए से देखें तो हर रिपोर्टर ने कम से कम 3-4 घंटे वहां पर खर्च
किए, लेकिन ज़्यादातर चैनलों पर ख़बर नहीं चली। मामले में सबकुछ था। गृहमंत्री के
घर पर प्रदर्शन था, 50 से ज़्यादा लोग गिरफ़्तार हुए थे, रिपोर्टरों के पास फुटेज
थी और रिपोर्टर ख़बर लिखने को तैयार थे, लेकिन कई रिपोर्टरों ने शिकायत की कि उनके
चैनल ने वह ख़बर नहीं चलाई। जिन चैनलों ने यह ख़बर नहीं चलाई, उनमें से एक ने अपने
बुलेटिन में यह दिखाया कि गर्मी की वजह से किस तरह चिड़ियाघर में जानवर पानी के
गड्ढे तलाश रहे हैं। हर चैनल के पास इस तरह की ‘सॉफ्ट स्टोरी’ थी। इसका मतलब चैनलों के पास उससे ज़्यादा
महत्वपूर्ण ख़बरों का अंबार लगा हो, ऐसा नहीं था, बल्कि कुछ ऐसा ज़रूर था जिसके
साथ सारे चैनल एक सूत्र में बंधे थे। 17 डॉक्टर और 19 पायलट प्रदर्शन करें तो ख़बर
है, लेकिन गृहमंत्री के निवास के सामने 50-60 लोगों को इकट्ठे गिरफ़्तार किए जाएं,
यह ख़बर नहीं है। इसे तय कौन करता है कि क्या ख़बर बनेगी, क्या नहीं। यदि चैनलों
की मंशा कम लागत पर ज़्यादा ख़बरें दिखाने की है तो रिपोर्टर और कैमरापर्सन के
जाने-आने से लेकर घंटों वहां टिके रहने की लागत क्यों नहीं वसूली गई? जाहिर है कुछ मामलों में जिस तरह टीआरपी से
समझौता हो रहा है उसी तरह कुछ मामलों में लागत से भी हो रहा है। असल में ये ‘मामले’ ही निर्णायक होते
हैं। इस ख़बर को उन चैनलों ने प्रसारित होने से रोका जो अन्ना उभार के बाद से
यूपीए के दो मंत्री, पी. चिदंबरम और कपिल सिब्बल पर हमले का हर संभव अवसर तलाशते
रहे हैं। इन दोनों मंत्रियों को लेकर टीवी चैनलों और अख़बार-पत्रिकाओं में जिस तरह
की स्टोरी हुई और जिस तरह इंटरनेट पर कार्टून बनाए गए, उनमें से कुछ को तो
आपत्तिजनक तक कहा जा सकता है। लेकिन तमाम माकूल परिस्थितियों के बावजूद यदि विरोध
प्रदर्शन वाली ख़बर नहीं चली, तो कुछ तो वजह होगी! एक सपाट समानता जो
मीडिया में देखी जा रही है वह विरोध प्रदर्शन वाली ख़बरों का ब्लैकआउट है। एक
अंग्रेज़ी अख़बार ने नया प्रचलन शुरू किया है, वह ऐसी ख़बरों की सिर्फ तस्वीर छाप
देता है, स्टोरी नहीं करता।
भारतीय
मीडिया और समाज के ग़ैर-मुस्लिम समुदायों के भीतर मुसलमानों को लेकर जिस तरह की
धारणा है वह अवचेतन तौर पर ही सही लेकिन बहुत सकारात्मक नहीं है। किसी पांच लोगों
के साथ हुई बैठक-मुलाकात के बाद यदि किसी को चार का नाम याद रहता है और पांचवे को
याद करते हुए वो कहता है कि ‘एक कोई मुस्लिम नाम
था’, तो इसे किस रूप में लिया जाना चाहिए? क्या ग़ैर-मुस्लिम समुदाय को मुसलमानों का नाम
याद करने में परेशानी होती है? क्या मुस्लिम इतने
मिलनसार नहीं होते कि बैठक के दो घंटे बाद तक उनके नाम को याद रखा जा सके? नहीं, ऐसा कतई नहीं है। देश के कोने-कोने में
लोग शाहरुख ख़ान, आमिर ख़ान, मो. अजहरुद्दीन, अबू सलेम, अजमल कसाब, अफ़जल गुरू और
ओसामा-बिन-लादेन का नाम जानते हैं। लोग भी जानते हैं और मीडिया भी। आखिरकार मीडिया
ने ही लोगों के दिमाग़ के भीतर इन नामों को पैबस्त कराया है वरना ओसामा-बिन-लादेन
याद करने के मामले में दो-तीन अक्षर का छोटा नाम नहीं है। ठीक-ठाक साइज है इसकी। लोग
याद रख सकते है, लेकिन जब देश में एक मुकम्मल समाज को ही अपवर्जित (एक्सक्लूड) कर
दिया जाए तो इस तरह की मुश्किलें आम हो जाती है।
मीडिया में जिन ख़बरों का
ब्लैकआउट होता है वो अपनी प्रकृति में ख़ास तरह की होती है-आर्थिक तौर पर मीडिया
के मालिकाने ढांचे के विरुद्ध या फिर मीडिया में वर्चस्वशाली सामाजिक तबकों से
उलट। प्रोपगैंडा के कई रूप हैं। आप किसी ख़बर को बार-बार दिखा रहे हैं यह सीधा
तरीका है, लेकिन किसी ख़बर को आने से रोक रहे हैं यह एक तरह से अपनी प्रोपगैंडा
सामग्री को मज़बूत करने के लिहाज से उठाया गया कदम है, ताकि पक्ष वाली सामग्री के
ख़िलाफ़ चीज़ें समाज में न आ जाय। योजना किसी टेबल पर बैठकर बनाने की चीज़ नहीं
है। खास वैचारिकी, राजनीति और समाजशास्त्र के लोगों द्वारा काम को अंजाम देने का
तरीका एक-सा होता है, यह उस ख़ास राजनीति और वैचारिकी की योजना है। मीडिया में
ख़बरों के चयन-प्रकाशन-प्रसारण में योजना का यही रूप काम करता है।
दिलीप ख़ान साहब के क़लम से निकला हुआ एक-एक शब्द समकालीन मीडिया उद्योग की बानगी बयान करता है।इनके लेख मे सर्व समाज के लोगों को साथ लेकर चलने की बात की गई है जिसकी अपेक्षा सही मायने मे एक मीडिया कर्मी से की जाती है मेरी शुभकामनाएं हमेशआ आप के साथ हैं...आपका शुभेक्षु-मोहम्मद फातेह टीपू
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