अनिल चमड़िया
एनजीओ का उद्देश्य राजनीतिक विकल्प तैयार करना कतई नहीं होता है. उसकी गतिविधियां राजनैतिक विकल्प वाले आंदोलनों को कमजोर करती हैं. एनजीओ की अवधारणा पूंजीवादी देशों की तैयार की गई है. राजनीतिक विकल्प की जब हम बात करते हैं तो उसमें यह निहित होता है कि जिन लोगों द्वारा अपने हितों में व्यवस्था चलाई जा रही है, सत्ता के उस आधार को बदला जाए. जिनका शोषण हो रहा है अपनी व्यवस्था का निर्माण करें.
एनजीओ का बड़ा हिस्सा इसी वर्ग को विभिन्न तरह के वैसे कार्यक्रमों में सक्रिय करता है, जिनसे उनके जीवन का कोई हिस्सा प्रभावित होता है. अपने देश में बड़े एनजीओ विदेशों की मदद से चलते हैं.
विदेशी मदद को यहां राष्ट्रवाद के चश्मे से नहीं देखें बल्कि विदेशी सहयोग के अर्थों को पहले समझने की कोशिश करें. कई स्तरों पर एक देश दूसरे देश की मदद करते हैं और उन सबको विदेशी मदद कहा जा सकता है. लेकिन विदेशी मदद शब्द के इस्तेमाल से उसके साथ जो ध्वनि निकलती है, वह तय करती है कि उसका उस संदर्भ में क्या मायने हैं? क्या ये आरोप की शक्ल में हैं? अपने देश में राजनीतिक स्तर पर जब विदेशी मदद का आरोप लगाया जाता है तो वह राष्ट्र की सार्वभौमिकता और स्वतंत्रता में हस्तपेक्ष की कोशिश का विरोध होता है.
डा. राममनोहर लोहिया ने 11 जून से 15 जून 1962 में गोरखपुर में समाजवादियों के एक सम्मेलन को संबोधित किया और राजनीतिक तौर पर विदेशी मदद की जो व्याख्या एक घटना से की, उसे देखा जाना चाहिए. लोहिया के अनुसार 1951 में वे अमेरिका में नॉर्मन टामस से मिलें. टामस समाजवादी आंदोलनकारी थे. लोहिया की मानें तो सारी दुनिया के पैमाने पर नार्मन टामस से ज्यादा बड़ा और बढ़िया समाजवादी ढूंढना मुश्किल था.
टामस ने लोहिया से कहा कि अमरीकी समाजवादी अपने देश में सिर्फ कुछ विचार फैलाने के अलावा कुछ कर नहीं पाए हैं-“तुम्हारे यहां चुनाव आ रहा है. तुम गरीब हो लेकिन तुमसे जनता का सहयोग मिला हुआ है. अगर तुम हमारा पैसा लेकर चुनाव में ज्यादा सफलता लेते हो तो उसमें मुझे क्यों नहीं खुशी लेने देते हो कि मैंने एक समाजवादी भाई की मदद की.”
डाक्टर लोहिया ने जवाब दिया, “यह आपकी बड़ी मेहरबानी है लेकिन हमलोगों का यह तरीका नहीं है. इसके बाद राजनीति बिगड़ जाया करती है.”
लोहिया ने आग्रह किया तो कहा कि ज्यादा से ज्यादा आप आगे चलकर मान लो स्कूल के काम हैं. इसमें आदान-प्रदान के मतलब गैर हिन्दुस्तानी, अमरीकी हिन्दुस्तानी बाहर जाएं. इन सब चीजों के लिए कुछ कर सकते हो तो करो.
इस प्रसंग का थोड़ा और विस्तार है; पर वह विदेशी मदद वाली राजनीति की पैठ को समझने के लिए जरूरी है. लोहिया ने बताया कि टामस ने उनके सामने विदेशी मदद का प्रस्ताव क्यों रखा? टामस के अनुसार जब वे बम्बई (अब मुंबई) में थे, दिल्ली में थे, तब उन्होंने लोहिया के कुछ साथियों से बात की थी. उन साथियों ने ही टामस से कहा था, ‘ठीक है, पैसा दिलाना.’ विदेशी मदद से देश की राजनीति के बिगड़ने की आशंका किसी राष्ट्र की राजनीति में स्वावलंबन की जरूरत को बुनियादी मूल्य के रूप में स्पष्ट करती है.
विदेशी मदद की राजनीति ने भारतीय समाज को बहुत नुकसान पहुंचाया है. पूर्व रक्षा मंत्री जार्ज फर्नाडीस ने आरोप लगाया था कि 1967 में चुनाव में कोई भी ऐसी पार्टी नहीं थी, जो बिना विदेशी मदद के चुनाव मैदान में उतरी हो. उस विदेशी मदद की जांच के लिए एक संसदीय समिति भी बनी थी लेकिन उसकी रिपोर्ट तब से दबी पड़ी है.
सीपीएम के महासचिव प्रकाश करात ने 1984 में अपने एक लंबे लेख को विस्तार कर विदेशी मदद और स्वयंसेवी संगठन( एनजीओ) के दर्शन पर एक पुस्तिका लिखी थी. उस दौर के बाद विदेशी मदद से गैर सरकारी संगठनों की सक्रियता पर सवाल खड़े किए जाते रहे हैं.
प्रकाश करात के अनुसार स्वैच्छिक संगठनों के लिए वैचारिक आधार सातवें दशक के अंत में ही तैयार करके इस्तेमाल किया जा रहा था. तब प्रकाश करात ने अपनी सूचना के अनुसार स्वैच्छिक संगठनों और एक्शन ग्रुपों की संख्या पांच हजार बताई थी और लिखा था कि ये पश्चिमी साम्राजी मुल्कों की विभिन्न एजेंसियों से अपनी गतिविधियों के लिए पैसा पा रहे हैं. उस दौर में साम्राजी रणनीति में एक नए तत्व के उभरने के संकेत दिए थे.
वास्तव में हमें एनजीओ की पड़ताल आत्मनिर्भरता, स्वावलंबन की राजनीति के विकास के संदर्भ में करनी होगी. किसी भी परिवर्तनगामी आंदोलन की कसौटी यह होती है कि उसके विकास और विस्तार को निर्देशित करने वाली ताकत किसके हाथों में है. जनता विदेशी वित्तीय मदद वाले आंदोलन में भी हो सकती है और अपने संसाधनों के बूते भी वह आंदोलन खड़ी कर सकती है लेकिन दोनों तरह के आंदोलनों की अपनी-अपनी फसल तैयार होती है. एनजीओ की राजनीति पर एक मुक्कमल बहस की जरूरत है लेकिन बहस को कई स्तरों पर घालमेल कर भटकाया जाता रहा है.
आंदोलनों में कैसे परजीविता की भावना बढ़ी है; इसका तो सहज अंदाजा लगाया जा सकता है. राजनीतिक कार्यकर्ता एनजीओ के वेतनभोगी कार्यकर्ता में तब्दील होता दिखाई देता है. सबसे बड़ी तो इस भावना का तेजी के साथ विस्तार का होना है कि राजनीति से पहले पैसे का जुगाड़ होना चाहिए. ऐसे में परिवर्तन क्या खाक हो सकता है?
एनजीओ का उद्देश्य राजनीतिक विकल्प तैयार करना कतई नहीं होता है. उसकी गतिविधियां राजनैतिक विकल्प वाले आंदोलनों को कमजोर करती हैं. एनजीओ की अवधारणा पूंजीवादी देशों की तैयार की गई है. राजनीतिक विकल्प की जब हम बात करते हैं तो उसमें यह निहित होता है कि जिन लोगों द्वारा अपने हितों में व्यवस्था चलाई जा रही है, सत्ता के उस आधार को बदला जाए. जिनका शोषण हो रहा है अपनी व्यवस्था का निर्माण करें.
एनजीओ का बड़ा हिस्सा इसी वर्ग को विभिन्न तरह के वैसे कार्यक्रमों में सक्रिय करता है, जिनसे उनके जीवन का कोई हिस्सा प्रभावित होता है. अपने देश में बड़े एनजीओ विदेशों की मदद से चलते हैं.
विदेशी मदद को यहां राष्ट्रवाद के चश्मे से नहीं देखें बल्कि विदेशी सहयोग के अर्थों को पहले समझने की कोशिश करें. कई स्तरों पर एक देश दूसरे देश की मदद करते हैं और उन सबको विदेशी मदद कहा जा सकता है. लेकिन विदेशी मदद शब्द के इस्तेमाल से उसके साथ जो ध्वनि निकलती है, वह तय करती है कि उसका उस संदर्भ में क्या मायने हैं? क्या ये आरोप की शक्ल में हैं? अपने देश में राजनीतिक स्तर पर जब विदेशी मदद का आरोप लगाया जाता है तो वह राष्ट्र की सार्वभौमिकता और स्वतंत्रता में हस्तपेक्ष की कोशिश का विरोध होता है.
डा. राममनोहर लोहिया ने 11 जून से 15 जून 1962 में गोरखपुर में समाजवादियों के एक सम्मेलन को संबोधित किया और राजनीतिक तौर पर विदेशी मदद की जो व्याख्या एक घटना से की, उसे देखा जाना चाहिए. लोहिया के अनुसार 1951 में वे अमेरिका में नॉर्मन टामस से मिलें. टामस समाजवादी आंदोलनकारी थे. लोहिया की मानें तो सारी दुनिया के पैमाने पर नार्मन टामस से ज्यादा बड़ा और बढ़िया समाजवादी ढूंढना मुश्किल था.
टामस ने लोहिया से कहा कि अमरीकी समाजवादी अपने देश में सिर्फ कुछ विचार फैलाने के अलावा कुछ कर नहीं पाए हैं-“तुम्हारे यहां चुनाव आ रहा है. तुम गरीब हो लेकिन तुमसे जनता का सहयोग मिला हुआ है. अगर तुम हमारा पैसा लेकर चुनाव में ज्यादा सफलता लेते हो तो उसमें मुझे क्यों नहीं खुशी लेने देते हो कि मैंने एक समाजवादी भाई की मदद की.”
डाक्टर लोहिया ने जवाब दिया, “यह आपकी बड़ी मेहरबानी है लेकिन हमलोगों का यह तरीका नहीं है. इसके बाद राजनीति बिगड़ जाया करती है.”
लोहिया ने आग्रह किया तो कहा कि ज्यादा से ज्यादा आप आगे चलकर मान लो स्कूल के काम हैं. इसमें आदान-प्रदान के मतलब गैर हिन्दुस्तानी, अमरीकी हिन्दुस्तानी बाहर जाएं. इन सब चीजों के लिए कुछ कर सकते हो तो करो.
इस प्रसंग का थोड़ा और विस्तार है; पर वह विदेशी मदद वाली राजनीति की पैठ को समझने के लिए जरूरी है. लोहिया ने बताया कि टामस ने उनके सामने विदेशी मदद का प्रस्ताव क्यों रखा? टामस के अनुसार जब वे बम्बई (अब मुंबई) में थे, दिल्ली में थे, तब उन्होंने लोहिया के कुछ साथियों से बात की थी. उन साथियों ने ही टामस से कहा था, ‘ठीक है, पैसा दिलाना.’ विदेशी मदद से देश की राजनीति के बिगड़ने की आशंका किसी राष्ट्र की राजनीति में स्वावलंबन की जरूरत को बुनियादी मूल्य के रूप में स्पष्ट करती है.
विदेशी मदद की राजनीति ने भारतीय समाज को बहुत नुकसान पहुंचाया है. पूर्व रक्षा मंत्री जार्ज फर्नाडीस ने आरोप लगाया था कि 1967 में चुनाव में कोई भी ऐसी पार्टी नहीं थी, जो बिना विदेशी मदद के चुनाव मैदान में उतरी हो. उस विदेशी मदद की जांच के लिए एक संसदीय समिति भी बनी थी लेकिन उसकी रिपोर्ट तब से दबी पड़ी है.
सीपीएम के महासचिव प्रकाश करात ने 1984 में अपने एक लंबे लेख को विस्तार कर विदेशी मदद और स्वयंसेवी संगठन( एनजीओ) के दर्शन पर एक पुस्तिका लिखी थी. उस दौर के बाद विदेशी मदद से गैर सरकारी संगठनों की सक्रियता पर सवाल खड़े किए जाते रहे हैं.
प्रकाश करात के अनुसार स्वैच्छिक संगठनों के लिए वैचारिक आधार सातवें दशक के अंत में ही तैयार करके इस्तेमाल किया जा रहा था. तब प्रकाश करात ने अपनी सूचना के अनुसार स्वैच्छिक संगठनों और एक्शन ग्रुपों की संख्या पांच हजार बताई थी और लिखा था कि ये पश्चिमी साम्राजी मुल्कों की विभिन्न एजेंसियों से अपनी गतिविधियों के लिए पैसा पा रहे हैं. उस दौर में साम्राजी रणनीति में एक नए तत्व के उभरने के संकेत दिए थे.
वास्तव में हमें एनजीओ की पड़ताल आत्मनिर्भरता, स्वावलंबन की राजनीति के विकास के संदर्भ में करनी होगी. किसी भी परिवर्तनगामी आंदोलन की कसौटी यह होती है कि उसके विकास और विस्तार को निर्देशित करने वाली ताकत किसके हाथों में है. जनता विदेशी वित्तीय मदद वाले आंदोलन में भी हो सकती है और अपने संसाधनों के बूते भी वह आंदोलन खड़ी कर सकती है लेकिन दोनों तरह के आंदोलनों की अपनी-अपनी फसल तैयार होती है. एनजीओ की राजनीति पर एक मुक्कमल बहस की जरूरत है लेकिन बहस को कई स्तरों पर घालमेल कर भटकाया जाता रहा है.
आंदोलनों में कैसे परजीविता की भावना बढ़ी है; इसका तो सहज अंदाजा लगाया जा सकता है. राजनीतिक कार्यकर्ता एनजीओ के वेतनभोगी कार्यकर्ता में तब्दील होता दिखाई देता है. सबसे बड़ी तो इस भावना का तेजी के साथ विस्तार का होना है कि राजनीति से पहले पैसे का जुगाड़ होना चाहिए. ऐसे में परिवर्तन क्या खाक हो सकता है?
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