चन्द्रिका
कुटकु बचाओ संघर्ष समिति के अध्यक्ष 'जगत सिंह' |
नैतिकता की रक्षा के
करने के लिए कुरुक्षेत्र
में 18 अक्षोहणी सेना के विनाश
लीला की भी हम
निंदा नहीं करते बल्कि
उन सबों से हम
राष्ट्रहित की सीख लेते
हैं- जी.एस.रथ
(डी.जी.पी. झारखण्ड,
प्रभात खबर, ३० मार्च
२०१२, पृष्ठ-६)
भारतीय
राज्य हमारे आंदोलन को हिंसा के
नाम पर दुष्प्रचारित करता
है क्योंकि वह हिंसा पर
एकाधिकार चाहता है, जबकि राज्य
के परमाणु बम से लेकर
बृहद सैन्य बल अहिंसा के
लिए नहीं हैं. – प्रशांत,
माओवादी पार्टी के सदस्य.
यह मार्च
की पतझड़ का
मौसम है. पेड़ों
की पत्तियां सूख
कर गिर चुकी
हैं और रात
के तकरीबन नौ
बजे हैं जब
हम जंगल में
अपना रास्ता भूल
चुके हैं. झारखण्ड
झाड़ों का प्रदेश
है और यहां
घूमते हुए यह
महसूस किया जा सकता है कि
यहां राज्य, नौकरशाही
और लोकतंत्र सब
अपना रास्ता भूल
चुके हैं. यह
गढ़वा और लातेहार
के बीच की
कोई जगह है.
मेरे साथ दैनिक
भास्कर के पत्रकार
सतीश हैं जिन्हें
कुछ महीने पहले
माओवादी होने के
आरोप में पुलिस
द्वारा प्रताड़ित किया जा
चुका है. सड़क
जैसी कोई चीज इन्हीं पत्तियों के नीचे दबी है जो साहस के साथ बगैर किसी पुल के नदी
और नालों के उस पार निकल जाती है, मसलन नदी को सड़क नहीं, सड़क को नदी पार करती है.
हम
मोटरसाईकल को बार-बार
रोक, पीछे मुड़
कर देखते हैं
और स्वाभाविक भय
के साथ आगे
बढ़ जाते हैं.
सूखी पत्तियों पर
घूमते पहिए किसी के
पीछा करने का
आभास देते हैं.
यह पहियों के
रौंदने से पत्तियों
के चरमराने की आवाज है.
साखू के फूल पूरे जंगल को खुशबू से भरे हुए हैं पर खौफ और भय किसी भी
खुशबू और आनंद पर भारी होता है. सतीश को
इन इलाकों में जंगली
जानवरों का उतना
भय नहीं है
जितना कि कोबरा
बटालियन का, जो
कई बार ग्रीन
हंट अभियान के
दौरान रात को
जंगलों में रुक
जाते हैं. यह
अभियान “माओवादियों के सफाए”
के लिए इन
इलाकों में पिछले
दो वर्षों से
चलाया जा रहा
है. सतीश एक
घटना का जिक्र
करते हैं जिसमे
सी.आर.पी.एफ. ने
एक गूंगे बहरे
चरवाहे की कुछ
दिन पहले गोली
मारकर हत्या कर
दी है. २०-२५ कि.मी. भटकने
के बाद हमे
वह रास्ता मिल
जाता है जिसके
सहारे हम जंगल
से बाहर निकल
पाते हैं.
संजय के पिता जयराम प्रसाद- बरवाडीह. |
हम अपने यात्रा की शुरुआत कर रहे थे जबकि
यहां के स्थानीय पत्रकारों ने मुलाकात की और वे इन इलाकों की कहानियां सुनाते रहे.
मौत और हत्याओं की कहानियां, बरसों पहले के किस्से, झारखण्ड बनने के बाद से कल
परसों तक के किस्से. कहना मुश्किल है कि झारखण्ड बना या बिगड़ गया. जबकि राज्य और
ज्यादा असुरक्षित हुआ और स्कूलों-गांवों में सी.आर.पी.एफ. व कोबरा कमांडो लगा दिए
गए. लोगों की सुरक्षा यह है कि इन इलाकों से अक्सर कोई गायब हो जाता है और हफ्ते-दस
दिन बाद गांव वालों को अखबारों से पता चलता है कि उसकी लाश किसी नदी किनारे या
किसी नाले में सड़ चुकी है या जिले पार किसी जेल में उसे कैद कर दिया गया है. सैन्य
बल उसे ‘माओवादी’ बताते हैं जो एक “मुठभेड़” में मारा गया और यदि वह कैद है तो जाने
कितने ‘इल्जामों’ का दोषी. वह उन घटनाओं का भी दोषी है जो उसके सूरत या बम्बई में
किसी फैक्ट्री में काम करते हुए घटित हुई. गांव के लोगों को तब थोड़ा सुकून होता है
जब गायब शख्स जेल में पहुंच जाता है. यहां जेल में पहुंचना ही सुरक्षित होने का
प्रमाण है. जबकि कुछ प्रमाण ऐसे भी हैं कि वर्षों पहले गायब लोग अभी तक जेल नहीं पहुंचे
और न ही उनकी लाश मिली है. पिता, पत्नी और परिवार के अलावा ऐसे लोगों का इंतजार अब
कोई गांव वाला नहीं करता. क्योंकि लोगों को पता हैं कि किसी भी इंतजार की एक उम्र
होती है.
लातेहार जिले में जिस जगह पर हम रुके हुए
हैं वहां से बरवाडीह तकरीबन २० किमी. है. जयराम प्रसाद अपने छोटे बेटे के साथ तड़के
ही हमसे मिलने पहुंचते हैं और बातचीत शुरु हो इससे पहले उनका गला रूंध जाता है. वे
देर तक रोते रहते हैं. फिर वे बताते हैं कि २१ मार्च को पुलिस ने उनके बड़े बेटे
संजय को थाने में बुलाया था और आज पांच दिन से वह लापता है. संजय बरवाडीह में मोबाइल
की एक दुकान चलाता था. कोई अधिकारी कहता हैं कि बातचीत के बाद उन्होंने उसे उसी
रात छोड़ दिया था, एस.पी. क्रांति कुमार कहते हैं कि उसे मंडल के आसपास जंगल से २३
की रात को पकड़ा गया है. जयराम कानून का हवाला देते हुए कहते हैं कि अगर एस.पी. की
ही बात को सही मान लें तो २४ घंटे में उसे कोर्ट के सामने प्रस्तुत किया जाना
चाहिए था पर पांच दिन बीत चुके हैं. यदि उसे छोड़ दिया गया तो ३५ साल की उम्र में
क्या वह अपने घर का रास्ता भूल जाएगा. जयराम की आशंकाएं कुछ और हैं पर अभी तक किसी
लावारिस लाश की खबर किसी भी अखबार में नहीं छपी है. उस दोपहर हमे पता चला कि संजय
को माओवादियों का सहयोग करने के आरोप में जेल भेज दिया गया है. पकड़े जाने के पूरे
छः दिन बाद, इन इलाकों में ‘सहयोग’ सबसे बड़ा जुल्म है. यह ‘सहयोग’ किसी अपराध में
सहयोग करना नहीं है बल्कि इंसानी व्यवहारों के तहत किया गया सहयोग है. कि वे गांव
या पड़ोस के गांव से आए किसी आगंतुक को खाना खिलाते हैं, संभव है वह पड़ोस का ही कोई
युवक हो, वे उसे पानी पिलाते हैं. अगले दिन पुलिस आती है और गांव वालों के इस
व्यवहार को ‘अपराध’ घोषित कर देती है ‘माओवादियों को सहयोग करने का अपराध’.
सामुदायिकता के इस सहज व्यवहार और सामाजिकता को राज्य ने प्रतिबंधित कर दिया है.
तो क्या लोगों को ‘असामाजिक’ हो जाना चाहिए कि भूखे को खाना न खिलाएं, कि प्यासे
को पानी न पिलाएं और एक राहगीर को रास्ता न बताएं. मानवाधिकार के प्रश्न बहुत पीछे
छूट चुके हैं. शायद यह जैव अधिकार या जैव व्यवहार जैसी किसी अवधारणा के दायरे में
आएगा. एक मोबाइल और सिम` का
दुकानदार आखिर अपने सामनों को किसे बेचे जबकि पुलिस व सैन्य बल की निगाह में जाने
कौन ग्राहक कल माओवादी घोषित कर दिया जाए.
एक ग्रामीड़ लादी गाँव से. |
बरवाडीह के लादी गांव में परइया, कोरबा और
उरांव जनजाति के तकरीबन ८० घर हैं. यह एक घाटी नुमा जगह है जो चारो तरफ पहाडों से
घिरी हुई दिखती है. गांव की तरफ आती हुई लीक खत्म होती है और पहला घर जसिंता देवी
का है जो पुलिस की गोली से अपने घर में ही मारी गई थी, इस घटना को एक लंबा अर्सा
बीत चुका है. हमारे पहुंचते ही एक महिला आंगन में उस जगह जा कर खड़ी हो जाती है
जहां जसिंता देवी गोली से निढाल हुई थी. वह महिला जसिंता देवी की सास हैं. क्रोधित
हो उन्होंने हमे पहले कैमरा बंद करने को कहा. फिर बताया कि पुलिस उस दिन माओवादियों
को खोजने आई थी और हमारे घर में आग लगाना चाह रही थी जिसका जसिंता ने विरोध किया
और वह उनकी गोलियों से मारी गई. मिट्टी की दीवारों में गोलियों के निशान अभी भी
बने हुए हैं. जसिंता को जिस समय गोली मारी गई उसकी ७ महीने की बेटी प्रियंका उसके
पास ही थी जो अब थोड़ी बड़ी हो गई है. गांव वाले बताते हैं कि पुलिस ने अपनी इस
हत्या का इल्ज़ाम माओवादियों पर लगाया. चुरकुन पहड़िया गुस्से में बोलते हैं कि गांव
में एकता है और हमने पुलिस को दोबारा यहां आने से मना कर दिया है. जब दुबारा पुलिस
आई तो हमने उसे खदेड़ भी दिया. अक्सर गांवों मे हमने पाया कि ह्त्या के बाद सैन्य
बलों द्वारा दी गयी एक “मोहलत” होती है. वे कुछ महीने तक दुबारा गांव में
लौटकर नहीं आते. एक हत्या पूरे गांव में वर्षों तक खौफ को जिंदा रखती है. खौफ इतना
कि लोग काम करने के बाद मजदूरी लेने तक से डरते हैं. मनरेगा, सड़क निर्माण, इंदिरा
आवास जैसी योजनाओं के लिए वे काम करते हैं और उनकी मजदूरी इन योजनाओं की तरह ही
अधूरी पड़ी है.
गांधी इंटर कालेज में सैन्य बलों का 'बसेरा' |
वहां लड़कियां फिर से स्कूल जाने लगी हैं और
कुछ बच्चे स्कूल की चहरदीवारी पर बैठे हैं. करमडीह के स्कूल से सैन्य बलों का कैम्प
वापस जा चुका है. यह एक सामान्य स्थिति है जो ३१ जनवरी की शाम के दहशत के बाद लौटी
है. दुकानदार ने अपने घर के आसपास खोदी गई मिट्टी को पाट दिया है. सैन्य बलों
द्वारा यह खुदाई माओवादियों के छुपाए गए शस्त्र खोजने के लिए की गई थी. यहां से
उन्हें भिंडी के पौधे की कुछ जड़ें मिली थी. ३१ जनवरी की शाम को सात बजे माओवादियों
के एक दस्ते ने हवाई फायरिंग की. देर रात तक गोलियां चली, देर रात तक दहशत पली.
लोग बंदूकों की एक आवाज के बाद दूसरी आवाज का इंतज़ार करते रहे और दूसरी के बाद
तीसरी फिर सुबह जाने किस गिनती के बाद आई. सुबह तक सब कुछ शांत हो चुका था. रात की
घटना के अवशेष में दीवारों पर सुराख के निशान बचे थे. अगले दिन सैन्य बल स्कूल
छोड़कर चले गए, उसके एक दिन बाद बच्चे भी स्कूल चले गए. अध्यापकों से ज्यादा इन
स्कूलों में बच्चे खाना बनानेवाले का इंतजार करते हैं और स्कूल की चहरदीवारी पर
बैठे बच्चे वही कर रहे हैं.
कोयल नदी में 'ढोल परवला' |
अगले गांव नवरनागू जाने के लिए यहां से हमे
पैदल चलना था, पहाड़ी के उस पार तक. यह कोयल नदी के किनारे का एक गांव है. २५०
किमी. लम्बी इस नदी में कई छोटी नदियां मिलती हैं. अपनी पूरी यात्रा के दौरान हमने
कोयल नदी को कई बार पार किया. गांव में एक महिला चटाई बीन रही है, यह किसी पेड़ की
मजबूत पत्तियां हैं जिन्हें एक-दूसरे के ऊपर-नीचे गूथा जा रहा है. एक कमसिन उम्र
की बच्ची झाड़ू बुहार रही है, गांव के अकेले अध्यापक पढ़ाने के लिए चले गए हैं. लूकस
मिंज की हत्या को एक महीने बीत चुके हैं. गांव से ढोल परवला तकरीबन एक किमी. की
दूरी पर था, जहां लूकस मिंज की लाश नदी की रेत पर ५ दिनों बाद पाई गई थी, जो पानी
में सड़ चुकी थी. लूकस बोलने और सुनने में अक्षम थे और नदी किनारे वे गाय चराने
जाया करते थे. उनकी हत्या की सही तारीख गांव के लोगों को नहीं पता पर यह शायद १
फरवरी की तारीख थी. इस घटना को नदी में एक मछली पकड़ने वाले ने देखा था, सैन्य बलों
ने नदी के उस पार से दो गोलियां चलाई थी. एक महीने बीत चुके हैं सैन्य बलों ने इधर
आना स्थगित किया हुआ है.
'सैन्य बल' बगैर वर्दी के शहर में घूमते हुए. |
हम छत्तीसगढ़ की सीमाओं को छूते हुए बल्लीगढ़
और होमिया पहुंचे थे. राज्य ने भले ही प्रेदेशों की इन सीमाओं को निर्धारित किया
हुआ है पर प्रकृति और लोगों ने उसे मान्यता नहीं दी है. इन गांवों के लिए छत्तीसगढ़
एक बाजार है, एक ओकड़ा (ओझा) का घर है, वहां से आकर एक बैगा रोज यहीं घूमा करता है,
छत्तीसगढ़ का सबकुछ यहां ज्यादा से ज्यादा सुलभ है. यह गढ़वा जिले का एक बड़ा गांव है
१२ किमी. में फैला हुआ. भुइयां, खरवार और गोड़ आदिवासियों की दस हजार जनसंख्या वाला
गांव. एक गांव जिसमे दो नदियां बहती हैं. हम यहां के कुछ युवकों के साथ गांव के
बीच बहती पोपरा नदी तक गए. हमने यहां ज्यादा वक्त गुजारा और गांव का लंबा इतिहास
सुना. इस गांव का इतिहास एक स्थानीय सामंत रामनाथ पाण्डे उर्फ फुल्लू पाण्डे के
प्रताड़ना का इतिहास है. जिसके इल्जामों के दस्तावेज संक्षेप में लिखना भी मुश्किल
है. एकनाथ भुईयां ६७ साल पहले से कहानी को शुरु करते हैं जब फुल्लु पाण्डे का
परिवार यहां आकर बसा था. गांव के लोगों ने एक ब्राम्हण को पूजा-पाठ के लिए बसा
लिया था. गांव की सैकडो एकड़ जमीन अब उसके कब्जे में है. जमीनों पर यह कब्जेदारी
भूदान और भू-सुधार के बाद की कथा है. अभी पिछले बरस ही गांव वालों की १५० एकड़ जमीन
के कागजात बनवाकर स्थानीय सामंत फुल्लु पाण्डे ने जिंदल के हांथों बेंच दिया है.
गांव वाले जमीन को अब भी जोत रहे हैं, उन्होंने अपने जमीन के कागजों पर शहर में
जाकर लेमिनेशन करवा लिया है कि कागज मजबूत रहेगा तो जमीन बनी रहेगी. पर लगातार यह
भय बना हुआ है कि जिंदल जाने कब आ जाए. हम बीच में एकनाथ से किसी घटना की तारीख
पूछते हैं तो वे अपनी भाषा में कहते हैं कि हम नहीं जानते कि तारीख कितने किलो की
होती है. वे बताते हैं कि हम धन से नहीं, मन से पढ़े लोग हैं.
उनकी आवाज तब थोड़ी धीमी हो जाती है यह गांव
की बहु-बेटियों से जुड़ा मसला है. लड़कियों की उम्र बढ़ती, गांव में नई बहुएं आती तो
किसको बख्स देना है यह फुल्लू पाण्डे की इच्छा पर निर्भर करता. लेकिन सैकडों को
उसने नहीं बख्सा, इन घटनाओं के आंकड़े क्रूरता और शर्मिंदगी के हैं जिन्हें कोई
नहीं जुटाता. ऐसी घटनाओं का जिक्र करने के बाद मैने एकनाथ के चेहरे पर पछतावे का
भाव देखा मानो अपने गांव के विरुद्ध उसने कोई अपराध कर दिया हो. एक लड़का जो पेड़ से
सटा हुआ बैठा है उसकी उम्र तकरीबन २५ साल है और उसकी छः एकड़ जमीन चली गई है. वह
कहता है कि अगर एम.सी.सी. के लोग साथ देंगे तो जिंदल यहां नहीं आएगा. फुल्लु
पाण्डे अब गांव से दूर किसी कस्बे में रहने लगा है. अब तक गांव के सैकड़ों लोग
इकट्ठा हो चुके हैं. हमारे कागजों पर सब अपना नाम दर्ज करा देना चाहते हैं. जाने
उनकी क्या उम्मीदें हैं कि कागजों पर लिखे उनके नाम उनकी जोत की जमीन के दस्तावेज
बन जाएंगे.
गढ़वा, पलामू और लातेहार के कई गांवों में हम
घूमते रहे. कहानियां बदल जाती थी, पीड़ाएं कम या ज्यादा हो जाती थी, बस. दुकानदार,
किसान, मजदूर और गांव के सरपंच जाने कितनों पर माओवादियों के सहयोग करने का आरोप है,
उन्हें खाना खिलाने का आरोप, किसी विस्फोट में शामिल होने का आरोप. खाना खिलाने के
आरोप में बरगड़, कुमीकोला के सरपंच रामदास मिंज और फिदा हुसैन २० जनवरी से जेल में
हैं. उन पर आरोप यह भी है कि भंडरिया में माओवादियों द्वारा सैन्य बलों की जो गाड़ी
उड़ाई गई, वे उस घटना में सहयोगी थे. जबकि गांव वालों का कहना है कि इस घटना के १२
घंटे पहले ही पुलिस उन्हें थाने में लेकर गई थी और घटना के दौरान वे थाने में ही
थे. क्या राज्य के विरुद्ध माओवादियों के सहयोग में पूरा का पूरा इलाका खड़ा है?
क्या और क्यों के प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं? झारखण्ड के एक सशस्त्र माओवादी
दस्ते ने एक दोपहर हमसे मुलाकात की. यह कोयल नदी के किनारे की कोई जगह थी. अपनी
लंबी बातचीत के दौरान उन्होंने कई ऐसे तथ्य बताए जो उनके संघर्ष से सीधे तौर पर
जुड़े हुए थे. उन्होंने टीपीसी, जेएलटी, जेपीसी, पीएलएफआई और जेजेएमपी जैसे संगठनो
पर आरोप लगाए जो माओवाद के नाम पर उनके संघर्ष को बदनाम कर रहे हैं और जिनमे से
कुछ को पुलिस द्वारा संरक्षण भी मिला हुआ है. वे चिंतित थे कि सैन्य बलों द्वारा
गांव वालों पर जो कार्यवाही की जा रही है उससे आदिवासियों की आर्थिकी पर इस बार भारी
असर पड़ने वाला है. यह महुआ और तेंदू पत्ते का मौसम है. सैन्य बलों की प्रताड़ना के
भय से लोग इसे इकट्ठा करने के लिए अपने गांव से दूर नहीं जा पा रहे. कई उत्तरों के
साथ हम लौट आए और ज़ेहन में नए प्रश्न उभरने गले. झारखण्ड मानवाधिकार संगठन के
शशिभूषण पाठक ने डी.जी.पी. जी.एस. रथ से मिलने की इच्छा जाहिर की पर वे राज्यसभा
के चुनाव में व्यस्त थे उन्होंने मिलने से इनकार कर दिया. अलबत्ता दूसरे दिन उनका
एक लेख अखबार में छपा जिसमे वे महाभारत के युद्ध से राष्ट्रहित की सीख लेने की
सलाह दे रहे थे. शायद वे इस मिथक के सहारे झारखण्ड की मिट्टी को युद्ध में लाल
होने की हिमायत में खड़े हैं.
इस दौरान अखबार हमारी पहुंच से दूर थे, पर
हम कई अप्रकाशित खबरों के करीब. बहेरटाड़ के सरपंच बीफा और गांव के अन्य ८ लोगों को
हफ्ते भर पहले सीआरपीएफ ने पिटाई के बाद छोड़ दिया है. बीफा की दाहिनी आंख से दिखना
कम हो गया है. गांव के बगल में सीआरपीएफ का एक स्थायी कैम्प बनाया जा रहा है. बगल
ही मुर्गीडीह गांव है जहां बिरजू ओरांव की दसो उंगलियों को कटर से चीड़ दिया गया
है, उंगली में पट्टी बांधकर वे काम पर चले गए हैं. अपनी-अपनी तकलीफों के साथ सब
अपने-अपने गांव में जिंदा हैं.
संतोष जिनके दोस्त राजेन्द्र प्रसाद की
हत्या जतिन नरवाल एस.पी. के आवास में पीटाई से हुई थी, इसके एवज में राजेन्द्र की
पत्नी मंजू को कोई नौकरी दे दी गई है. संतोष जो राजद के स्थानीय नेता हैं वे अपने
दोस्त की हत्या के अपराधियों को सजा दिलाना चाहते हैं. उनको लगातार धमकियां मिल
रही हैं. कुछ माओवादी घटनाओं के तहत इनका नाम अखबारों और पुलिस के दस्तावेजों में
शामिल किया जा चुका है. सुल्तानी घाटी में नशे मे धुत सीआरपीएफ के ‘जवानों’ ने एक
टेम्पो ड्राइवर दारा सिंह की कुछ दिन पहले हत्या कर दी है. चंद दिनों में अनगिनत
घटनाएं हैं. वह जो अखबारों में प्रकाशित हुई और वे जिनका किसी अखबार में कोई जिक्र
भी नहीं. गांव में अखबार कम पहुंचते हैं और अखबारों में गांव भी.
चेमू-सान्या में नीलाम्बर-पीताम्बर के वंशज. |
यह २८ मार्च की तारीख थी जब रात के १० बजे
हम चेमू-सान्या पहुंचे. यह १८५७ के क्रांतिकारी नीलांबर-पीतांबर का गांव है, यहां
आने के लिए सड़क को २० किमी. पीछे छोड़ना पड़ता है. जिसके सहारे यहां तक हम पहुंचे
हैं वह नदी-नाले-सड़क-खाई का एक मिश्रित रूप है. पूरे झारखण्ड में आज उनकी १५३वी
शहादत मनाई जा रही है. झारखण्ड के नेता नामधारी सिंह इंदर चंदवा में नीलांबर-पीतांबर
की प्रतिमा स्थापना के लिए आए हुए हैं. उन्होंने युवावों से नीलांबर-पीतांबर जैसा होने
का आवाह्न किया है. आज के ही दिन नीलांबर-पीतांबर विश्वविद्यालय ने भी एक बड़ा
आयोजन रखा है. माओवादियों के स्शस्त्र दस्ते ने धनकारा गांव में मशाल जुलूस निकाला
है. हम गांव के एक सिरे पर हैं यहां काफी ठंड है, गांव के लोगों ने सूखी लकड़ियां
जला रखी हैं और इसके आसपास कुछ लोग बैठे हैं. अलाव की रोशनी के सहारे इर्दगिर्द के
२-३ घरों को देखा जा सकता है. बांस के फट्ठों का एक लंबा सा तखत है जहां गांव के
लोग अक्सर इकट्ठा हुआ करते हैं. किसी भी आयोजन से गांव के लोग अनभिज्ञ हैं. शायद
माओवादियों का एक दस्ता थोड़ी देर पहले यहां से गुजर चुका है. थोड़ी देर बाद कुछ
बच्चे आते है, जो संघम के बाल कलाकार है और जलते अलाव की आंच में जीतन मरांडी के
कुछ गीत सुनाते हैं. ये झारखण्ड के लूटे जाने के गीत हैं, इनमे लोगों के संघर्ष
में बुलाने की पुकार है. यह गांव कुटकु-मंडल बाध परियोजना के तहत ३२ डूबने वाले
गांवों में से एक है. १९१२ में पूरे सौ साल पहले किए गए सर्वे के आधार पर लोगों की
जमीनों का जो मुवावजा तय किया गया था वह कुछ लोगों को मिल चुका है. इन सौ वर्षों
में पीढ़ियां बदल चुकी हैं और उनके गांव छोड़ने के इरादे भी. १९७२ में बाध बनने की
जो परियोजना चालू हुई थी वह ९७ से स्थगित है. बगैर किसी सूचना के बांध के इंजीनियर
बैजनाथ मिश्रा ने बांध के अस्थाई फाटक को बंद कर दिया था और पूरा इलाका डूब गया
था. जानवरों की संख्या नहीं गिनी जा सकी, तबाही के अन्य आंकलन नहीं लगाए जा सके पर
२१ लोग पानी में डूब कर मर गए. बनवारी लाल अंतिम युवक के मौत की याद सुनाते हैं कि
कैसे वह ७ दिनों तक बगैर कुछ खाए-पिए पेड़ पर लटका रहा और जब लोग तसले के सहारे तैरते
हुए उसके पास पहुंचे तो अचानक वह पानी में गिर गया. डूबते गांवों से लोगों को
बचाने इस दौरान कोई प्रसाशन न आया. माओवादीयों ने उसी बीच इंजीनीयर बैजनाथ पंडा को
इस तबाही के इल्जाम में मौत की सजा सुनाई और उसकी हत्या कर दी गई. इसके बाद
परियोजना का कार्य स्थगित कर दिया गया. यह स्थगन अभी भी जारी है और ३२ गांवों का
उजड़ना थम सा गया है. लोगों के पलायन की वजहें बदल गयी हैं. अब सैन्य बल आते हैं और
माओवादियों के सहयोग के लिए युवकों को पीटते हैं, उनके घरों के ताले तोड़ दिए जाते
हैं, वे उनके अनाज एक दूसरे में मिला देते हैं. मनगू, सतीस, जोखन सिंह, करम दयाल
सब कहीं चले जाना चाहते हैं. ऐसी जगह जहां वे पुलिस प्रताड़ना से बच सकें. वे चले भी
जाते हैं पर जब भी वे साल-दो साल बाद इलाहाबाद, बनारस से लौटकर आते हैं. कोई न कोई
इल्जाम उनके इंतज़ार मे होता है. अपने गांव में लौटना किसी खतरे में लौटने जैसा है.
युवाओं के नीलांबर-पीतांबर बनने का नामधारी सिंह इंदर द्वारा किया गया आवाह्न
दूसरे दिन अखबारों में प्रमुखता से छपा है.
बहेरतांड |
हम वहां से लौट आए हैं, बस घटनाए वहा पर चल रही है…घटनाओं
अपना रास्ता नहीं भूलती.. और न ही उन्हें किसी रास्ते की जरूरत होती
है. जब यह रिपोर्ट लिखी जा रही है.....ऑपरेशन ऑक्टोपस वहां
शुरु हो चुका है. नीलांबर-पीताम्बर के गांव
चेमू-सान्या मे सैन्य बलों ने गोलिया चलाई हैं हत्या हुए
लोगो की संख्या का पता नही चल रहा है .....यहा महिलाओ के साथ बलात्कार भी हुए
है....इलाक़े मे जाने पर पत्रकारों को भी प्रतिबंधित कर दिया गया है। मनोज
विश्वकर्मा के पास लातेहार मे नीलांबर पीताम्बर की जीवनी मिली थी जिसके आरोप मे 1
अप्रेल को उन्हे जेल भेज दिया गया है। बरवाडीह में एक ‘मुठभेड़’ में छः माओवादियों के मारे
जाने की खबरें अखबारों के पहले पन्ने पर छपी हैं. दूसरे दिन माओवादियों
ने इस खबर के गलत होने की पुष्टी की है. जो कहीं छपने के बजाय,
कहीं छिप गयी है.
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