अहा! ज़िंदगी सिनेमा विशेषांक (जून 2011) में प्रकाशित कवर स्टोरी। इस अंक में और भी सुरूचिकर व पठनीय सामग्रियां हैं, अंक मंगवाने के लिए इस पते पर संपर्क करें-
अहा! ज़िंदगी,
भास्कर परिसर, 10-जे.एल.एन. मार्ग,
मालवीय नगर, जयपुर - 302015 (राजस्थान)
यह पत्र हमे मेल के जरिए प्राप्त हुआ एक लम्बे वक्त तक इन्टरनेट से दूर होने के कारण यह खत देर से प्रकाशित हो सका। माडरेटर
प्रिय सलमान रावी,
लाल सलाम।
बीबीसी में 18 और 19 मई को लगातार प्रसारित आपकी दो रिपोर्टें सुनने के बाद मैं खुद को यह खत लिखने से रोक नहीं पा रहा हूं। जाहिर है ये दोनों ही रिपोर्टें सलवा जुडूम और एसपीओ के बारे में थीं। आपने उनकी समस्याओं और उनके ‘दिलों को हुए जख्मों’ का बड़ी संजीदगी के साथ जिक्र किया। उनकी तनख्वाहों और तकलीफों का काफी संवेदना के साथ बयान किया। आमतौर पर मीडिया और पत्राकारिता को लेकर यह बताया जाता है कि पत्रकारों को दोनों पक्षों के बारे में लिखना चाहिए। ‘निष्पक्ष’ और ‘तटस्थ’ होना चाहिए जिसकी आप और आपकी बीबीसी हर दूसरे दिन ढिंढ़ोरा पीटते हैं। लेकिन आपकी इन दो रिपोर्टों ने - बाकी को अगर छोड़ भी दें तो - साफ तौर पर साबित कर दिया कि आपके ये दावे कितने खोखले हैं। पर इसकी चर्चा से पहले कुछ और बातें की जाएं।
सलवा जुडूम के बारे में अब यह स्थापित हो चुका है कि यह कुछ और नहीं था बल्कि सरकार द्वारा खड़ा किया गया एक आतंकी अभियान था। केन्द्र व राज्य सरकारों ने - यानी केन्द्रीय गृह मंत्रालय, सेना व पुलिस के आला अधिकारियों ने साझे तौर पर इसकी योजना बनाई थी। इसके लिए लोगों को अलग-अलग तरीके से इकट्ठा कर गिरोह बनाए गए थे। इन गिरोहों से पैदा हुए एसपीओ और कोया कमाण्डो को बाकायदा प्रशिक्षित किया गया ताकि विद्रोह- विरोधी कार्रवाहयों (counter-insurgency operations) में इन्हें कारगर ढंग से आजमाया जा सके। इनके साथ सुविधा यह है कि इन्हें एक साथ कई मोर्चों पर लगाया जा सकता है और इन्हें अनेक नामों से बुलाया जा सकता है। पत्रकारों को रुकवाना है या स्वामी अग्निवेश जैसे लोगों पर अंडे फिकवाना है तो इन्हें सलवा जुडूम ‘आंदोलन’ से जुड़े हुए लोगों के रूप में पेश किया जा सकता है। किसी माओवादी कैम्प या दस्ते पर हमला करना है तो इन्हें ‘बहादुर कोया कमाण्डो’ के रूप में पेश किया जा सकता है। और आदिवासियों की हत्या, बलात्कार, गांव-दहन आदि करतूतों को मुख्य रूप से इन्हीं लोगों के जरिए अंजाम दिलवाना कई मायनों में सरकार के लिए सुविधाजनक होगा। मैं नहीं समझता कि इन सभी पहलुओं से आप वाकिफ नहीं होंगे।
जब राजसत्ता ने ‘लोकतंत्र’ का चोला ओढ़ रखा हो, ऐसे में जनसंघर्षों का दमन करने में उसके सामने कुछ पेचीदगियां होती हैं। उसे अलग-अलग संगठनों को सामने लाने पर मजबूर होना पड़ता है ताकि अपने दमनकारी व तानाशाहाना चेहरे को ढंक दिया जा सके। कभी-कभी अपने दूसरे अंगों, जैसे कि अदालतों या अन्य आयोगों के द्वारा उसके सामने मुश्किलें खड़ी की जाती हैं क्योंकि सभी अंगों पर लोकतंत्र का दिखावा करने का दबाव रहता है। इसलिए शासक वर्ग सलवा जुडूम को लाते भी हैं और किसी परिस्थिति में उससे मुकर भी जाते हैं। फिर उसे ‘दण्डकारण्य शांति संघर्ष मोर्चा’ का नाम देते हैं या फिर ‘मां दंतेश्वरी स्वाभिमान मंच’ या ‘बस्तर स्वाभिमान मंच’ का नाम दे देते हैं। उदाहरण के लिए चिंतलनार काण्ड में कोया कमाण्डो और एसपीओ को आगे किया गया। और उन्होंने इस सच्चाई को सफाई के साथ छुपा दिया है कि दरअसल इसकी योजना केन्द्रीय गृहमंत्रालय के निर्देश पर बनाई गई थी और इसे रमनसिंह, विश्वरंजन व लांगकुमेर के मार्गदर्शन में एसएसपी कल्लूरी के हाथों अंजाम दिलवाया गया था। जनता को हमेशा भ्रम की स्थिति में रखना इनका मकसद होता है ताकि व्यवस्था पर ‘लोकतंत्र’ का मुखौटा बने रहे। फिर ‘मामला जब तूल पकड़ने’ लगता है तो राजसत्ता तुरंत ही अपने दूसरे अंगों को मोर्चे पर लगा देती है जैसा कि चिंतलनार की घटना में कलेक्टर और कमिशनर को उतारा गया और बाद में जांच के लिए एक आयोग का गठन किया गया। यह सारी कवायद वह इसलिए करती है ताकि ‘मामले को ठण्डा’ किया जा सके और अपने ‘लोकतंत्र’ का मखौल उड़ने से बचाया जा सके।
सलवा जुडूम कुछ और नहीं था, बल्कि ‘मछलियों को पकड़ने के लिए तालाब से पानी खाली करवाने’ की दरिंदगी भरी नीति थी, जिसका केन्द्र बिंदु आदिवासियों को उनके रिहायशी इलाकों से, जहां वे हजारों सालों से रहते आ रहे हैं, बाहर निकालकर रणनीतिक बसावटों (strategic hamleting) की योजना के तहत सड़कों के किनारे सरकारी कैम्पों में बसाना था। लेकिन कोई यूं ही आदिवासियों को अपनी जगहों से खदेडा नहीं जा सकता। उपनिवेशकाल से भी अगर देखेंगे तो पाएंगे कि आदिवासी अपने जंगल और जमीन के लिए जान दे सकता है, लेकिन कभी उससे अलग नहीं हो सकता। और वर्तमान संदर्भ में, ये आदिवासी पिछले 25 वर्षों (1980-2005) तक युद्ध से संगठित हो रहे थे। ऐसे में इन्हें जंगलों से खदेड़ना और ‘राहत’ शिविरों में घसीटना भला कैसे मुमकिन?
मैं यह सब इसलिए लिख रहा हूं ताकि कुछ बुनियादी मामलों पर आपको स्पष्टता दिलाई जा सके। दुनिया के काउंटर इंसर्जेन्सी आज काउंटर टेर्ररिज़्म सिद्धांत को आपने पढ़ा ही होगा। मलया में 1940 के दशक में इसी नीति को लागू किया गया था। उसके बाद भारत के महान तेलंगाना किसान संघर्ष में ‘ब्रिग्स’ योजना के नाम से इसी नीति को लागू किया गया था। और पेरू जैसे कई लातिनी अमेरिकी देशों में भी इसे लागू किया गया था। बस्तर में भी सलवा जुडूम के नाम से इसी नीति को आजमाने की कोशिश की गई ताकि आदिवासियों को जंगलों से खाली करवाया जा सके तथा टाटा, एस्सार वगैरह-वगैरह को बिठाया जा सके। और साथ ही, इसके एवज में रमनसिंह, ब्रजमोहन अग्रवाल, महेंद्र कर्मा और विश्वरंजन जैसों को हासिल करनी है मोटी दलाली। दुनिया भर में बहुराष्ट्रीय कम्पनियां और भारत के दलाल कार्पोरेट घराने संसाधनों की लूटखसोट के लिए कितने उतावले हैं और मौजूदा वैश्विक संकट के चलते यह उनके लिए कितना जरूरी हो गया, यह बात आप भी जानते हैं।
अब यह सवाल अप्रासंगिक हो चुका है कि सलवा जुडूम एक आंदोलन था या नहीं था। इसके पीछे शोषक शासक वर्गों की रणनीति क्या रही, यह एक बार स्पष्ट कर लेने के बाद अब उसके बाकी पहलुओं को समझना मुश्किल नहीं है। यहां एक तरफ माओवादी और दूसरी तरफ सरकार (मीडिया की भाषा में) या फिर एक तरफ आदिवासी और दूसरी तरफ सरकार जिसके पीछे बहुराष्ट्रीय कम्पनियां आदि - इन्हीं दो खेमों में बंटा हुआ नहीं है सब कुछ। विभिन्न प्रकार के मानवाधिकार संगठन (दोनों सरकारी और गैर-सरकारी) तथाकथित नागरिक समाज, मीडिया आदि-आदि कई दूसरे पहलू हैं इस मसले के। तो क्या दिखलाकर या क्या बताकर इन सभी को चुप किया जा सकता था? या कम से कम इनके विरोध या प्रतिरोध को कम किया जा सकता था? यही सोचकर बड़े सुनियोजित तरीके से यह प्रचार शुरू किया गया था कि बस्तर में माओवादियों की नीतियों से नाराज आदिवासियों ने अपने आपको संगठित कर ‘सलवा जुडूम’ आंदोलन शुरू किया। बार-बार दोहराकर यह बताया गया था कि माओवादी सड़कें बनाने नहीं देते हैं, तेंदूपत्ता तोड़ने नहीं देते हैं, आदिवासी संस्कृति के साथ छेड़छाड़ करते हैं आदि-आदि। उसके बाद शुरू हुआ बस्तर में एक काला अध्याय जिसकी तुलना में बहुत कम उदाहरण मिलेंगे। क्योंकि इसमें एक साथ घर जलाए गए। लोगों को काट-काटकर मार डाला गया। महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया। लोगों की लाशें नदियों में फेंक दी गईं। सम्पत्ति लूटी गई और बाहरी दुनिया को इस बारे में कुछ भी पता चलने नहीं दिया गया। हालांकि, सरकारी हिंसा और भी कई जगहों में हुई थी, लेकिन यहां जिस ढंग से हुई, इसके उदाहरण इतिहास में बहुत कम मिलेंगे। जैसे कि एक ही गांव को एक बार नहीं, बल्कि कई बार किश्तों में जलाया गया। कुछ गांवों पर 30-35 बार तक हमले हुए। हर बार कुछ-कुछ लोगों को मार डाला गया। एक-एक गांव में 2-3 से लेकर 15-20 तक लोगों की हत्या की गई। सिंगारम, गोमपाड़, सिंगनमडुगु, पालाचेलमा, कोतरापाल, मनकेली, हरियाल, ताकिलोड़, ओंगनार और भी दर्जनों गांव ऐसे हैं जहां सरकारी बलों के हाथों मारे जाने वालों की संख्या दस-पंद्रह से ऊपर है। साम, दाम, भेद और दण्ड के सभी हथकण्डे अपनाकर हर बार कुछ परिवारों को शिविरों में ले जाया गया।
लेकिन, जैसा कि इतिहास में कई बार देखा गया, इतनी भारी हिंसा और बर्बरता के बावजूद भी लोगों ने घुटने नहीं टेके। आंदोलन खत्म नहीं हुआ, बल्कि मजबूत हुआ। माओवादी लड़ाकों के हौसले पस्त नहीं हुए, बल्कि वे इस भीषण संग्राम में तपकर फौलाद बन गए। हालांकि इसके दूसरे पहलू भी हैं - कई जवान लड़के (चाहकर भी और न चाहते हुए भी) एसपीओ बन गए और कई लोग एक विकट परिस्थिति में जनता के ऊपर की गई सरकारी हिंसा और अत्याचारों में भागीदार बन गए और वहां से पीछे आने का कोई रास्ता नहीं सूझा तो उसी मशीनरी (machinery) का हिस्सा बनकर तथाकथित राहत शिविरों में रह गए। कुछ तो पहले से लम्पट किस्म के थे, कुछ ऐसे थे जिन्हें या जिनके परिवार के सदस्यों को क्रांतिकारी संघर्ष के दौरान किसी न किसी रूप से दण्डित किया गया था। कुछ नौजवान ऐसे भी थे जिन्हें दरअसल हमारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ना चाहिए था, जिनके साथ मारपीट कर या जान से मारने की धमकियां देकर जबरन एसपीओ बनाया गया। और इस तरह न चाहते हुए भी वे क्रांति के विरोधी खेमे में चले गए।
बहरहाल, इस तर्क को अब रद्दी के टोकरे में पहुंचा दिया जा चुका है कि माओवादियों की ‘गलतियों’ या ‘ज्यादतियों’ के चलते सलवा जुडूम ‘आंदोलन’ शुरू हुआ था। आप पूछ सकते हैं कि क्या माओवादियों की कोई गलती नहीं रही? क्यों नहीं रहेगी? किसी भी आंदोलन के दौरान गलतियां होना अस्वाभाविक नहीं है। लेकिन गांवों को जलाना, घरों को लूटना, लोगों के शरीर के अंगों को काट-काटकर हत्या करना, महिलाओं के साथ बलात्कार और हत्या - यह सब माओवादियों की किस ‘गलती’ को सुधरने के लिए किया गया ? माओवादियों की किन ‘गलतियों’ के कारण जनता को ऐसी ‘सजाएं’ दी गईं? इस आरोप में उतना ही दम है जितना कि बुश की उस दलील में था कि चूंकि इराक के पास मानव संहार के हथियार थे, इसलिए उन्हें हमला करना पड़ा। और इसमें उतनी ही सच्चाई थी जितनी कि उसके उत्तराधिकारी ओबामा के इस दंभ में है कि लीबिया में उन्हें इसलिए बमबारी शुरू करनी पड़ी क्योंकि वहां पर गद्दाफी लोगों को मार रहा था।
और आदिवासी समाज के अंदर सलवा जुडूम से सांस्कृतिक विनाश जिस हद तक हुआ उसका अंदाजा तक लगाना मुश्किल है। एक ही परिवार का एक भाई क्रांतिकारी संघर्ष में है तो दूसरे को किसी न किसी तरीके से एसपीओ बनाया गया। ऐसे कई परिवार हैं। पढ़िए - बी.डी. दमयंती की किताब ’हरी-भरी जिंदगी पर कहर बरपाता राज्य’। तो इसलिए, एसपीओ और कोया कमाण्डो सिर्फ ‘माओवादियों’ के दुश्मन नहीं हैं जैसाकि आपने अपनी रिपोर्ट में कहा है। वो पूरे बस्तर के आदिवासी समाज के दुश्मन बने हैं। बस्तर की संस्कृति के दुश्मन बने हैं। कुल मिलाकर बस्तरिया जन जीवन के दुश्मन बने हैं।
हालांकि इसका दूसरा पहलू भी है। एसपीओ के साथ निपटने में क्रांतिकारी आंदोलन की नीति हमेशा वर्गीय दृष्टिकोण पर ही आधरित रही। मजबूरी में जनता के खिलाफ अपराधों में शामिल होने वालों को भी वापस गांवों में आने पर माफ किया गया। कई लोग जो एसपीओ बनकर या ‘राहत’ शिविर में शामिल होकर प्रति-क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल हो चुके थे, ऐसे लोगों के भी खेतों, फसलों, मवेशियों और घरों को बचाकर रखा गया और जब वे माफी मांगकर वापस आ गए तो उन्हें उनके सुपुर्द कर दिया गया। कई एसपीओ वापस आ गए और गांवों में पहले जैसा रहने लगे हैं। और एकाध लोग अपनी रायफल के साथ भी भागकर चले आए। सिर्फ कट्टर और जालिम किस्म के एसपीओ के साथ सख्ती से निपटा जा रहा है जोकि जनता के हितों की रक्षा के लिए जरूरी भी है।
आखिरकार सलवा जुडूम पराजित किया गया। इसका श्रेय बुनियादी तौर पर बस्तरिया जनता के प्रतिरोधी संघर्ष को जाता है। और साथ ही जाता है उन तमाम जनवाद पसंदों , प्रगतिशील ताकतों और जनवादी संगठनों को जिन्होंने अपनी जान को जोखिम में डालकर भी अथक प्रयासों और कानूनी लड़ाइयों से सलवा जुडूम के खिलाफ निरंतर संघर्ष किया। सलवा जुडूम के पराजित होने का मतलब यह है कि वह आज उस रूप में नहीं रहा जैसाकि वह 2005-08 के बीच हुआ करता था। सलवा जुडूम गया, लेकिन उसके द्वारा पैदा किए गए एसपीओ अभी भी हैं, बल्कि उन्हें अब और ज्यादा संगठित और विस्तारित किया गया।
अब फिर मैं आपकी रिपोर्टों की तरफ आता हूं जहां से मैंने इस खत की शुरूआत की। आपने बड़ी संजीदगी के साथ कह दिया है कि एसपीओ की कई समस्याएं हैं। हां जी, हत्यारों की भी समस्याएं जरूर होती हैं ! गुण्डों और बलात्कारियों को भी जरूर कोई न कोई समस्या होगी ही। 2 साल के बच्चे सरकारी सशस्त्र बलों ने 1 अक्टूबर 2009 को गोमपाड़ गांव के दो साल के नन्हे सुरेश की उंगलियां काट दीं और अक्टूबर 2005 में मूकावेल्ली गांव के एक डेढ़ साल के नन्हे बच्चे के सिर में गोली मारी से लेकर 80 साल की बूढ़ी तक को गोली मारकर, गांवों को जलाकर, घरों से मुरगे, बकरों से लेकर जेवर, कपड़े, बरतन तक लूटने वाले डकैतों और दरिंदों की भी समस्याएं होती हैं। समस्याएं सभी की हो सकती हैं। गुजरात में मुसलमानों का कत्लेआम करने वाले बाबू बजरंगी जैसे भाड़े के टट्टुओं को भी समस्याएं होंगी ही। यह आप पर है कि आप उनकी समस्याओं के प्रति कितना इत्तेफाक रखते हैं और कितनी संवेदना दिखाते हैं।
हां, यह बात भी अपनी जगह दुरुस्त है सलमान जी! एसपीओ की भी तनख्वाएं बढ़नी चाहिए! उन्हें भी पक्के मकान मिलने चाहिए! बल्कि उन्हें पुलिस में ले लेना चाहिए! मीडिया के लगातार कवरेज से सरकार भी जरूर इस पर ध्यान देगी। देगी भी क्यों नहीं? आखिर माओवादियों का खात्मा जो करना है। उसके बाद क्या होगा? सलमान जी! आप खुद से सवाल कर लीजिए कि ऐसी रिपोर्टों से क्या आप गुण्डों, हत्यारों, डकैतों और बलात्कारियों को ‘सुविधओं’ की बात तो नहीं कर रहे? जाने या अनजाने में कहीं आप इस बात की हिमायत तो नहीं कर रहे कि उनकी करतूतों में और ज्यादा इजाफा हो? क्या आपको एहसास है कि ‘दोनों पक्षों की रिपोर्टिंग’ या ‘निष्पक्ष रिपोर्टिंग’ के फेर में आपने खुद को किस जगह पहुंचा दिया?! आप उन लोगों की समस्याओं और सुविधाओं की चर्चा कर रहे हैं जिन लोगों की नियुक्ति व प्रशिक्षण तथा हथियारबंद कर आदिवासियों के खिलाफ इस्तेमाल किए जाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ने आपत्ति की और छत्तीसगढ़ सरकार की खिंचाई की?! जरा खुद से पूछ लीजिए कि आप कहां खड़े हैं?
सलमान जी! आपसे हमारा सीधा सवाल है कि क्या आपने अपने करीब एक साल के छत्तीसगढ़ प्रवास के दौरान ऐसे किसी सलवा जुडूम से पीड़ित आदिवासी का कभी इंटरव्यू लिया जिसका घर जलाया गया हो या लूटा गया हो, या फिर जिसका कोई परिवार सदस्य मारा गया हो। चिनारी और ओंगनार गांवों के लोगों की बमुश्किल 10 सेकण्ड वाली एक आडियो क्लिप को को छोड़ दें तो आज तक आपने कभी भी किसी आदिवासी की आवाज अपनी रिपोर्ट में नहीं सुनाई जो सरकारी बलों की बर्बरता का शिकार हुआ हो। क्या आपने किसी ऐसी महिला की आपबीती सुनने की कोशिश की जिसके साथ तथाकथित सुरक्षा बलों ने बलात्कार किया हो। क्या आपने तिम्मापुरम, मोरपल्ली, ताड़िमेट्ला और पुलानपाड़ के सरकारी हिंसा से पीड़ित लोगों के दिलों में हुए ताजा जख़्मों को छूने की कोशिश की? क्या आपने यह देखने की कोशिश की कि घर जलाए जाने के बाद वे किन हालात में जी रहे हैं? उनकी क्या समस्याएं हैं और क्या परेशानियां हैं, उन्हें खाने को कुछ मिल भी रहा है या नहीं, क्या आपने इसकी रिपोर्ट करने की कोशिश की? जब ताडमेटला और उसके आसपास के ग्रामीणों के शरीर पर हुए गहरे जख्म, दिलों के जख्मों का भरना तो नामुमकिन है भरे तक नहीं, आपका अपनी रिपोर्ट में यह कहना कि ‘सलवा जुडम के कैम्पों में रहने वाले अपने दिलों में कई जख्मों को लिए जी रहे हैं’, क्या बस्तर के दसियों हजार लोगों के जख्मों पर नमक छिड़कना नहीं है?
‘तटस्थ’ या ‘निष्पक्ष’ रिपोर्टिंग से बड़ा भद्दा मजाक कुछ और नहीं हो सकता। यहां लकीरें साफ तौर पर खींची हुई हैं। एक तरफ बस्तरिया जनता है जो अपने जल-जंगल-जमीन को बचाने के लिए और अपने घरों को, खेतों को, फसलों को और बच्चों को बचाने के लिए लड़ रही है जिसका नेतृत्व माओवादी पार्टी और उसकी सेना पीएलजीए कर रही हैं। दूसरी तरफ सोनिया, मनमोहन, चिदम्बरम, प्रणब मुखर्जी, मोंटेक सिंह, रंगराजन, रमनसिंह, महेंद्र कर्मा, विश्वरंजन, लांगकुमेर, कल्लूरी जैसे लोग हैं जो दरअसल टाटा, एस्सार, जिंदल, मित्तल, अम्बानी आदि बड़े कार्पोरेट आकाओं और साम्राज्यवादियों, खासकर अमेरिकी साम्राज्यवादियों के दलाल हैं। पुलिस, अर्धसैनिक, कोबरा, एसटीएफ, कोया, एसपीओ, सलवा जुडूम, शांति संघर्ष मोर्चा, मां दंतेश्वरी स्वाभिमान मंच-चाहे जो भी नाम हो-सभी भाड़े के टट्टू उनकी राज मशीनरी के अलग-अलग पुरजे हैं। इन परस्पर विरोधी खेमों के बीच ऐसी कोई जगह ही नहीं है जिसे ‘तटस्थ’ कहा जा सके और जहां पर खड़े होकर रेफरी का काम किया जा सके।
वैसे ताड़मेटला, चिंतलनार और मोरपल्ली गांवों में उड़ रही राख से भरी धूल और खण्डहरों में तब्दील हुए घरों के बीच खड़े होकर आप क्या ‘निष्पक्ष’ रिपोर्टिंग करेंगे? यही न कि ‘यहां का पूरा इलाका बारूदी सुरंगों से पटा पड़ा है’ और यहां जाने वाली ‘सड़कों में कदम-कदम पर मौत बिछी हुई है’। आप मीडिया वालों को ‘माओवादी हिंसा’ का शब्द मुंह से निकालने में तनिक भी देर नहीं लगती! लेकिन आंखों के सामने मची बर्बरता को देखने के बाद भी एसपीओ से आप बड़े प्यार से पूछते हैं कि ‘अच्छा, तिम्मापुरम में घरों को कौन जलाया था’। जब आपको सरकार द्वारा बरती गई हिंसा पर मजबूरी में कुछ कहना भी पड़ता है तब भी आप बड़ी सावधनी से ‘कथित’ शब्द जोड़ना नहीं भूलते हैं, जबकि इसके आपके पास पर्याप्त सबूत मौजूद होते हैं, जिसके आधर पर आप साफतौर पर कह सकें कि हां, घरों को कोया कमाण्डो, एसपीओ और कोबरा बलों ने चिदम्बरम, रमनसिंह, शेखर दत्त और विश्वरंजन द्वारा रची गई साजिश के तहत ही जलाया था।
यह रिपोर्ट लिखते-लिखते 26 मई को छत्तीसगढ़ में बारूदी सुरंगों के बारे में भी आपकी रिपोर्ट आ गई रेडियो बीबीसी हिंदी में। और आपने गरियाबंद में मारे गए पुलिस वालों के जनाजे की ही नहीं, बल्कि आपने एक प्रकार से उनकी ‘पोस्टमार्टम रिपोर्ट’ तक पेश कर दी अपनी रिपोर्ट में, यह कहकर कि ‘लाशों को देखने से ऐसा लगता है कि मरने के बाद माओवादियों द्वारा धरदार हथियारों से काट दिया गया होगा’। ;माओवादियों के कट्टर दुश्मन दैनिक भास्कर तक ने ऐसा लिखने का साहस नहीं किया। मेरा आपसे एक और सीध सवाल है कि क्या आपने ऑपरेशन ग्रीनहंट के दौरान अगस्त 2009 से दिसम्बर 2010 तक सरकारी बलों द्वारा मारे गए 181 बस्तरिया आदिवासियों में से किसी एक की भी लाश के बारे में कभी रिपोर्ट पेश की? छोड़िए, किसी आदिवासी की लाश को अपनी आंखों से देखा?
और जहां तक आपकी बारूदी सुरंग वाली रिपोर्ट का सवाल है, उसमें यह दोहराने के चक्कर में कि ‘यहां कदम-कदम पर बारूदी सुरंगों का खतरा है’ आप इस कठोर सच्चाई को पूरी तरह नजरअंदाज कर गए कि दरअसल शोषक शासक वर्गों ने टाटा, एस्सार, जिंदल, मित्तल जैसे कार्पोरेट घरानों को यहां आमंत्रित कर बोधघाट, रावघाट जैसी विनाशकारी परियोजनाएं शुरूकर तथा इन्हें बिना किसी विरोध के आगे बढ़ाने की मंशा से पहले ‘सलवा जुडूम’ और बाद में ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ शुरू कर बस्तरिया जनता की जिंदगी को पहले से एक महा विस्फोट के मुहाने पर ला खड़ा किया है। किसी चीज के ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक पहलुओं की तह तक जाने की कोशिश किए बगैर सतही व सनसनीखेज बातों तक सीमित होना, क्या यही है ‘तटस्थता’ जिसका दावा बीबीसी बार-बार करती है? जब 20-25 झोंपड़ियों वाले किसी गांव को चारों तरफ से अत्याधुनिक मारक हथियारों से लैस 500 से लेकर 1000-1200 तक ‘सुरक्षा’ बल घेर लेते हैं जो भी आदमी मिलता है तो उसे मार डालते हैं जहां महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार एक आम बात है, जहां फर्जी मुठभेड़ रोजमर्रे की सच्चाई है घरों में आग लगाना जहां एसपीओ, कोया कमण्डो और सीआरपीएपफ का रूटीन का काम है - ऐसी जगह पर लोगों के पास बचाव के क्या उपाय बचे हैं, जरा हमें बताइए। क्या जनता को आत्मरक्षा करने का अधिकार नहीं है? जरा आप खुद को उस जगह पर खड़े करते हुए एक बार कल्पना कीजिए - क्या ऐसी परिस्थितियों में आप किसी न किसी तरीके से प्रतिरोध करेंगे या नहीं? इसके लिए कोई न कोई औजार या हथियार ढूंढ़ेंगे या नहीं? बस, बस्तर की जनता भी यही कुछ कर रही है। इसी पृष्ठभूमि में बस्तरिया जनता के पास ‘प्रेशर बम’, ‘टिफिन बम’, ‘बूबी ट्रैप’, ‘बारूदी सुरंग’ आदि अस्त्र-शस्त्र आ गए। किसी इलाके पर कब्जा करने के लिए नहीं, किसी का घर उजाड़ने के लिए नहीं, किसी की जमीन छीनने के लिए नहीं... सिर्फ और सिर्फ अपने आपको जिंदा रखने के लिए उन्हें ये सब इकट्ठा करने पड़ रहे हैं। हालात ने ही जनता को हथियार उठाने और बारूद बिछाने पर मजबूर किया। लेकिन एक बात साफ है। अगर जनता का यह प्रतिरोध, खासकर 2005 से लेकर अभी तक जारी संगठित व सक्रिय प्रतिरोध नहीं रहा, तो यहां आज कुछ भी नहीं बचता। कॉर्पोरेट दैत्यों के ‘विकास’ बुलडोजर तले पिसकर अब तक आधे बस्तर कब्रिस्तान में तब्दील हो चुका होता। जगदलपुर में टाटा, एस्सार, जिंदल, मित्तल जैसी बड़ी-बड़ी कार्पोरेट कम्पनियों के अलीशान दफ्तर खुल चुके होते जिसके इर्द-गिर्द कॉर्पोरेट मीडिया के लोग वफादार कुत्तों की तरह पूंछ हिलाते हुए घूमते रहते!
हां, बमों या बारूदी सुरंगों के इस्तेमाल में कभी-कभी गलतियां हो रही हैं। कुछ घटनाओं में आम लोग मारे गए हैं। हमें खेद है। जो खून बहा है वह हमारा ही था, हमारे अपने ही लोगों का था। इतना ही नहीं, बारूद के इस्तेमाल और प्रयोगों के दौरान मारे गए हमारे कार्यकर्ताओं और जन मिलिशिया की संख्या भी कम नहीं है। हम ऐसी हर गलती से सीख ले रहे हैं। लेकिन किसी गलती को दिखाकर पूरे संघर्ष पर और उसके औचित्य पर उंगली उठाना कहां तक जायज है, जरा सोचिए। गलती के लिए हमारी आलोचना कीजिए। हमारी खामियों और कमियों की चर्चा कीजिए। आपका हमेशा स्वागत है। बहस को असली समस्याओं पर फोकस करने वाले ईमानदार और निर्भीक लोग ही यह काम कर सकते हैं।
बस्तर, कुल मिलाकर दण्डकारण्य का संघर्ष आज एक ऐतिहासिक मोड़ पर पहुंच चुका है। इस संघर्ष को कुचलने के लिए शासक वर्ग एड़ी-चोटी एक कर रहे हैं। अब सेना भी उतार दी गई है। भारतीय सेना और बस्तरिया जनता के बीच एक भीषण संग्राम शुरू होने में ज्यादा वक्त नहीं बचा है। इस पर सभी की नजरें हैं। खासकर उन कॉर्पोरेट गिरोहों की जो यहां एक बार आदिवासियों या माओवादियों का सफाया होते ही इस पूरी धरती को दबोचने के लिए ताक में बैठे हुए हैं। ये इतने खतरनाक हैं कि इनके पास देशों तक को खरीद सकने वाली दौलत मौजूद है। इनकी पहुंच काफी दूर तक है। मीडिया पर पूरा इन्हीं लोगों का नियंत्रण है जोकि आप भी जानते हैं। देश की निधर्नतम जनता के खिलाफ कॉर्पोरेट वर्गों द्वारा छेड़े गए इस युद्ध में कॉर्पोरेट मीडिया द्वारा संचालित मनोवैज्ञानिक युद्ध एक अहम हिस्सा है। अंत में, आपको, आप जैसे उन तमाम पत्रकारों को, जो ‘निष्पक्षता’ या ‘तटस्थता’ का झण्डा उठाए हुए हैं मेरी अपील है कि आप इस गलतफहमी से बाहर आइए। क्योंकि न्याय और अन्याय के बीच ‘तटस्थता’ नहीं रहती। क्योंकि शोषकों और मेहनतकशों के बीच ‘निष्पक्ष’ नहीं रहता।
विनम्रता के साथ,
अमन,
दण्डकारण्य से
1 जून २०११