20 मई 2011

क्या पब्लिक सब जानती है?

गुंजेश
समाजवादी चिंतक किशन पटनायक ने भारतीय राजनीति की स्थितियों पर चिंता जताते हुए लिखा था कि नये विचारों और नये शास्त्रों का आना रुक सा गया है। "शास्त्र और विचार निर्माण का नियामक जब से अमेरिका हो गया है। इसमें पहले का औध्दत्य तो रह गया है लेकिन उसकी गंभीरता ख़त्म हो गई है"। क्या यही बात हम पत्रकारिता और अन्य ऐसे कार्यों, जिनका सीधा संबंध सामाजिक बदलाव को पहचानने और समाज को सचेत करने से है, के बारे में नहीं कह सकते हैं। पिछले कुछ दशकों में भारतीय समाज कुछ खास तरह के बदलावों से होकर गुज़रा है। इन बदलावों ने समाजों में एक सहमति की एकता का निर्माण किया है और असहमति के अवसरों को लगातार कम किया है। क्या हम ऐसा कोई क्षण याद कर सकते हैं जब पत्रकारों और समाज विज्ञानियों ने असहमति के इन कम होते क्षणों पर गंभीर चिंता जाहीर की हो? ईक्का- दुक्का उदाहरणों को छोड़ दें तो हमें निराशा ही हाथ लगेगी। एक ज़माने में हम अपनी विभिन्नताओं के लिए जाने जाते थे, मतांतर हमारी राजनीति की खासियत हुआ करती थी, पर पिछले कुछ समय में यह परिदृश्य बदला है। हमारे यहाँ मुद्दों में जो एकता आई है क्या वह किसी भी लोकतान्त्रिक समाज के लिए चिंता का विषय नहीं होना चाहिए?
अगर हम बिहार विधानसभा चुनावों से लेकर हाल ही में संपन्न हुए सभी पाँच राज्यों के चुनाव परिणामों का विश्लेषण करें तो हम देखेंगे की सभी राज्यों में चुनावी मुद्दों में बेहद समानता है, मुद्दों की एकता ने राज्यों के भौगोलिक और सामाजिक सीमाओं को तो तोड़ा ही है अपनी परंपरागत विचारधारा को भी छोड़ा है, न सिर्फ छोड़ा है विचारधाराओं का जो संघर्ष कभी भारतीय राजनीति में देखा गया है वह अब लगभग समाप्ती की ओर है। विश्लेषक इसे विकास की सामूहिक चाह के रूप में देख और दिखा रहे हैं। अभी तक हम इस दिशा में नहीं सोच पायें हैं की विकास की इस समूहिक चाहत का निर्माण कैसे हुआ, इस समूहिक चाहत का लाभ किसे मिलेगा और राय में इस एकता के क्या निहितार्थ हैं। हमें यह भी सोचना चाहिए की अगर एक बहुमत विकास के इस माडल से सहमत है तो क्या विकास का यही माडल हमारे समाजों के लिए सबसे उपयुक्त है? समय समय पर आने वाले सर्वेक्षणों के आंकड़े और रिपोर्ट हमें यह लगातार बताते रहे हैं कि विकास के इस माडल में आबादी का एक बड़ा हिस्सा उपेक्षित रह जाता है। इस समय किसान आत्महत्याओं को लेकर चल रहे पूरे विमर्श का लब्बो-लुबाब यही है। फिर क्या यह एक पैदा की गई चाहत है, जिसके भ्रम के टूटने का इंतज़ार हमें करना चाहिए?
पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम क्या आने वाले हैं इससे कहीं न कहीं हम सभी वाकिफ थे, और इसी तरह के परिणाम के अंदाज़ भी लगा रहे थे। मीडिया और ममता ने मिलकर एक स्वर में कहा था कि बहुमत दीदी के साथ ही हाथ मिलाएगा। इस बहुमत के निर्माण में जिसकी भी जो भी भूमिका रही हो बहुमत आ चुका है। हारने और जीतने वाले पक्षों ने इसे विनम्रता से स्वीकार किया है। यही लोकतन्त्र का तक़ाज़ा भी है। पर ममता के जीत के साथ कई और घोषणायें भी हो रही है। एक बात जिसे भयानक तरीके से प्रचारित किया जा रहा कि यह वामपंथ की हार है, वास्तव में यह पश्चिम बंगाल के वामपंथियों की हार है इसमें कोई शक नहीं की वहाँ की सरकार ने बहुत सारे ऐसे काम किए थे जिनका खामियाजा संसदीय लोकतन्त्र में किसी भी पार्टी को भुगतना पड़ता और वह वाम दलों को भी पड़ा। जिस बात पर वामपंथियों और राजनीति से सहानुभूति रखने वाले लोगों को चिंता होनी चाहिए वह है युवा वोटरों का नीतिगत राजनीति के प्रति झुकाव नहीं होना।
दरअसल, उदारवादियों ने पिछले 20 सालों में देश भर के स्कूलों और विश्वविध्यालयों में जिस तरह से ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया को अपने कब्जे में लिया है यह उसकी जीत है। विश्वविध्यालय और स्कूल वह पहली जगह है जहां व्यक्ति समाज और उसकी तरक्की का ब्लू प्रिंट समझता है। क्या हम बहुत आश्वस्त होकर कह सकते हैं कि हमारी शिक्षा व्यवस्था में वे सारे तत्व मौजूद हैं जो व्यक्ति को स्वतंत्र राय बनाने में मदद करते हैं? या फिर इस पूरी व्यवस्था का भरपूर इस्तेमाल समाजों के गैर राजनीतिकरण में हुआ है। जिसके द्वारा खास तरह की वर्चस्व वाली ताकतों को बढ़ावा मिला है। ये वे ताक़तें हैं जिनको विचारों की विविधता से खतरा है, और समाजों के गैर राजनीतिकरण से फायदा। अगर बुद्धिजीवी इससे नहीं चेते, और विश्वविध्यालयों और स्कूलों को इस गैर राजनीतिकरण से मुक्त नहीं कराया गया तो जल्द ही हम हमारा लोकतन्त्र विपक्ष विहीन हो जाएगा। हमें मानना होगा की केरला और बाँकी देश के ज्ञान के निर्माण की जो व्यवस्था जिससे एक पीढ़ी बन कर तैयार हुई है उसमें फर्क है और यही फर्क आज बंगाल में उभर कर सामने आया है .....
ममता ने माना है कि जो नये वोटर हैं उन्हें रिझाने में वामपंथ नाकामयाब रहा हमें इस नकामयाबी के कारणों को क्षणों में नहीं बल्कि वर्षों में ढूँढना चाहिए। नये वोटर एक खास तरह की शिक्षण पद्धति से ढल कर निकले हैं जिस पद्धति में साम्यवाद या कोई भी विचारधारा इतिहास की सिर्फ एक घटना है। इस पूरे समय में जो नया 'मैनेजर' और 'प्रोफेशनल' पैदा हुआ है उसका परिचय सिर्फ लाभ कमाने के उद्योग से है किसी विचारधारा से नहीं। और अगर वह इस व्यवस्था के द्वारा निर्मित, अधिक से अधिक पैसा कमाने की इच्छा रखने वाले 'व्यक्ति' से अलग कुछ है तो वह या तो 'हिन्दू' है या 'मुसलमान' या इसी तरह की कोई धार्मिक अस्मिता। इसलिए अगर हम ममता की जीत पर शंखनाद सुनते हैं तो हमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए। राजनीतिक चेतना में आयी यह गिरावट खतरे की निशानी है इसे हमने बिहार में भी देखा है और अब बंगाल भी इसका उदाहरण है।
'माँ', 'माटी' और 'मानुष' के जिस नारे को ममता ने बुलंद किया है वह निश्चित रूप से वामपंथ की प्रेरणा ही है। जिसकी ज़रूरत उन्हें ठेठ बंगाली वोटरों को रिझाने के लिए पड़ी लेकिन ममता ने जीत के बाद कहा कि वो बंद और बुलेट की राजनीति नहीं करेगी, बुलेट की राजनीति को इस देश की जनता ने कई बार नकारा है पर बंद की राजनीति का विरोध ममता जैसी नेत्री को शोभा देता है क्या? क्या ममता यह नहीं समझती हैं कि बंद और बंद की राजनीति के भी लोकतंत्र में अपने मायने होते हैं जिसे नकारा नहीं जाना चाहिए, यदि नहीं तो क्या मीडिया को इस बात की आलोचना नहीं करनी चाहिए थी कि जिस बंद और हड़ताल की रणनीति से ममता ने बंगाल को फतह किया है अचानक ममता उससे मुंह कैसे मोड सकती है? सिर्फ बंगाल ही नहीं अगर देश के अन्य राज्यों में हुए चुनावों में जीत कर आए मुख्यमंत्रियों को देखें तो हमें पता चलेगा की उनकी कोई विचारधारात्मक छवि राजनीतिक तौर से नहीं है बल्कि वह अपने-अपने क्षेत्रों में पार्टी के मैनेजर के रूप में ही कार्य करते रहे हैं। क्या राजनीति में विचारकों की कमी खतरे की ओर सूचित नहीं करता है।
हमें यह समझना होगा की वर्तमान समय में विकास और शोषण के बीच बहुत महीन रेखा रह गई है। इस महीन रेखा को पहचान कर, जमीनी विकास के पक्ष में और शोषण के प्रतिपक्ष में खड़े रहने की महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी हमारे समय के बुद्धिजीवियों और मीडिया की है। हमें यह भी समझना होगा की संविधान के लक्ष्यों में राष्ट्र के नागरिकों के लिए न केवल रोजगार उपलब्ध करना शामिल है बल्कि रोज़गार की स्वतन्त्रता उसके मूल में है। यह महत्वपूर्ण नहीं है की सरकार कितनी कम कीमत में किसानों गरीबों को अनाज उपलब्ध करा रही है महत्वपूर्ण यह है कि कितने गरीब और किसान प्रचलित दरों पर अपनी आजीविका चलाने में सक्षम हो रहे हैं। हमें मायकोव्स्की के इन पंक्तियों में लोकतन्त्र के संदर्भों को देखना होगा कि “कलम और बेनट खड़े हों एक ही कतार में/ और बराबर का दर्ज़ा दिया जाय दोनों को”।

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