गुंजेश (स्वतंत्र पत्रकार एवं विश्लेषक)
यह कहना तो मुश्किल है कि ऐसा पूरी समझदारी के साथ किया जा रहा है या फिर अनजाने में लेकिन जो किया जा रहा है वह बहुत खतरनाक है। किया यह जा रहा है कि एक ऐसे समय में जब सूचना ही ताकत है बड़ी सफाई से सूचनाएँ छिपाई जा रही हैं और उसके पक्ष में एक राय भी तैयार की जा रही है। 1988-89 में आई एक पुस्तक ‘मैन्यूफैक्चरिंग कनसेंट’ में नॉम चमस्की और एडवर्ड एस हरमन ने बताया था कि मीडिया में वही खबरें बाहर आयेंगी जो समाज का इलिट वर्ग चाहेगा। नॉम चमस्की और एडवर्ड एस हरमन दोनों ही करीब दो दशक पहले से ही मीडिया के छद्म लोकतान्त्रिक चेहरे, और ‘मीडिया’ के माध्यम से समाजों में लागू वैचारिक नियंत्रण की प्रणाली को पहचान रहे थे। फिर आज हम यह सब कुछ इतनी आसानी से कैसे पचा पा रहे हैं?
जी हाँ मेरा इशारा रविवार से लेकर अब तक के अमेरिका- पाकिस्तान सम्बन्धों और ओसामा ह्त्या कांड में मीडिया कि भूमिका की ओर है। सोमवार को आतंकी संगठन अल-क़ायदा का सरगना ओसामा बिन लादेन ज़िंदा है या नहीं, के अटकलों पर विराम लग गया। लेकिन कैसे? वैसे ही जैसे आज से लगभग 10 वर्ष पूर्व 11 सितंबर को एक अमेरिकी राष्ट्रपति ने घोषणा की थी कि अमेरिका के ऊपर आया यह संकट किसी ओसामा बीन लादेन का किया धरा है वैसे ही अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने रविवार की रात यह घोषणा कर दी की अमेरिका का सबसे बड़ा दुश्मन, और इसी नाते मनुष्यता का सबसे बड़ा दुश्मन ओसामा बिन लादेन मारा गया और उसे अमेरिकियों ने मारा है, यह मानवता के हित में है, यह न्याय है। और यही सही न्याय है, यह बहुत ज़रूरी था। बराक हुसैन ओबामा के कह देने भर से दुनिया भर के मीडिया ने यह मान लिया और इस दुनिया का हरेक व्यक्ति एकदम से ‘पोस्ट ओसामा’ पीरियड में जीने लगा। अब तक विद्वान जिन खबरों, घटनाओं का विश्लेषण कर रहे हैं वो वही खबरें है जो मीडिया से छन कर सामने आ रही हैं बल्कि कहा जाय की ओबामा जिन खबरों को विश्व दर्शक-श्रोता के लिए मुक्त कर रहे हैं वही खबरें और उन्हीं खबरों का विश्लेषण हमारे सामने आ रहा है। हम उन्हीं खबरों में संभावनाएं तलाश रहे हैं और खास कर भारतीय मीडिया इन्हीं खबरों के आधार पर दाऊद और कई अन्य आतंकवादियों पकड़ पाने का सपना देख रही है। क्या यह मुक्त सूचना प्रवाह है जिसकी तरफदारी संयुक्त राष्ट्र संघ पिछले कई दशकों से कर रहा है!
इसपूरे प्रकरण को ज़रा गैर मीडियाई परिदृश्य में समझने की कोशिश करें जिसकी बुनियाद कुछ ठोस तथ्यों पर आधारित हो जैसे एक तथ्य यह है कि अमेरिका और पाकिस्तान पिछले दस साल से एक साथ एक योजना पर काम कर रहे थे। इसी से संबन्धित दूसरा तथ्य यह कि अमेरिका को इतना बुद्दू मानना बेवकूफी होगी कि उसे पाकिस्तान के अंदरूनी राजनीति कि समझ नहीं है और बिना समझदारी के ही वह पाकिस्तानी नेताओं पर समय-समय पर दबाब बनाने में कामयाब हुआ है बल्कि पड़ताल तो इस बात की की जानी चाहिए कि पाकिस्तान कि अंदुरिणी राजनीति में अमेरिका का दखल कितना है और यह भी कि क्या अमेरिका पिछले दस वर्षों से बिना आईएसआई के मर्ज़ी के इतनी सुख शांति से पाकिस्तानी सरकार का सहयोग प्राप्त का पा रहा था, क्या वास्तव में अमेरिका और आईएसआई के संबंध वैसे ही हैं जैसे दिखाई देते हैं? खास कर तब जब दुनिया जानती है कि पाकिस्तान में फौज और आईएसआई की कितनी चलती है और पाकिस्तानी सरकार की कितनी!
अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमले के बाद पाकिस्तान का कट्टरपंथ खुद वहाँ के इलिट के लिए एक नासूर बन गया और उसकी उपयोगिता पाकिस्तान के लिए बहुत नहीं रह गई। बीते कुछ वर्षों में पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था बेतरह बिगड़ी है और इस समय किसी भी तरह से खुद की अर्थव्यवस्था को ज़िंदा रखना उसके लिए बड़ी चुनौती है जिसमें अमेरिका उसकी भरपूर सहायता कर रहा है। और इसलिए पाकिस्तान की यह मजबूरी है कि वह अमेरिका की कही हर बात माने। आइये अब ज़रा देखें कि ओसामा की इंश्योरेंस पालिसी से किसको क्या मिलना था या मिला? हम सभी यह जानते हैं कि अपने कार्यकाल के आखरी दिनों में पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश को अफ़गानिस्तान में बड़ी संख्या में लगी फौज और संसाधनों में होने वाले खर्चे के कारण बड़ी हेठी झेलनी पड़ी थी, बल्कि वर्तमान राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने तो इसे चुनावी मुद्दा भी बनाया था और उनको मिली सफलता हमारे सामने है। इसलिए राष्ट्रपति ओबामा पर आतंकवाद के विरुद्ध चल रही इस लड़ाई को निर्णायक मोड पर ले जाने का बहुत दवाब था वह भी इस तरह से कि, अमेरिका के महाशक्ति होने का घमंड बचा रहे। क्योंकि हाल के वर्षों में अमेरिकी जनता ओबामा से किसी भी चमत्कार की उम्मीद खो बैठी है। ओबामा एक औसत राष्ट्रपति ही साबित हुए हैं जो बेरोज़गारी और मंदी से लड़ने की अपेक्षाओं में खरे नहीं उतरे हैं ऐसे में ओबामा ओसामा के मारे जाने को दस वर्षों से चली आ रही लड़ाई के खत्म होने के रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं और यह उन्हें थोड़ी राहत तो देगा ही। पर यह देखना रोचक होगा कि वे उनलोगों को क्या मुँह दिखायेंगे जिन्होंने उन्हें शांति के लिए नोबल पुरस्कार दिलवाया/दिया।
साथ ही पाकिस्तान में अमेरिकी घुसपैठ के प्रतिकृया स्वरूप कट्टरपंथी जिस तरह की हिंसा दक्षिण एशिया में फैलाएँगे उससे जो स्थिरता यहाँ के देशों में आएगी उसका आर्थिक फायद भी अमेरिका को मिलता दिख रहा है। वर्तमान वैश्विक राजनीतिक परिदृश्य में जो समीकरण दक्षिण एशिया में बन रहे हैं उसमें चीन, पाकिस्तान और अमेरिका एक ही पंक्ति में खड़े होकर भारत को चुनौती देते नज़र आ रहे हैं इस लिहाज से देखा जय तो यह बिलकुल ठीक समय है जब ओसामा को मर जाना चाहिए था।
अहम सवाल तो यह भी है कि आखिर कब और कैसे बराक ओबामा मानवता के न्यायाधीश हो गए जब बराक ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति हुए थे तो यह अमेरिका में ‘काले’ की लोकतान्त्रिक भागीदारी के रूप में देखा गया था। क्या ओबामा के इस फैसले से विश्व में कहीं भी लोकतन्त्र को बल मिलेगा इसका विश्लेषण किया जाना चाहिए। होना तो यह चाहिए था कि अमेरिका ओसामा ज़िंदा गिरफ्तार करता जो वह कर सकता था। और उसे कानूनी तरीके से सज़ा दी जाती। ताजा समाचारों के अनुसार ओबामा खुले आम घोषणा कर रहे हैं कि वारदात की तस्वीरें सार्वजनिक नहीं की जाएंगी यह घोषणा ओबामा किस हैसियत से कर रहे हैं? यह माना जा सकता है कि ओसामा बिन लादेन एक विश्व मुजरिम था (अगर अमेरिका का दावा सही है तो हालांकि वह सितंबर 11 के तरह ही इस बात के प्रमाण नहीं दे पाया है कि जो व्यक्ति मारा गया है वह वास्तव में ओसामा ही है और वास्तव में वही सितंबर 11 कि घटना के जिम्मेदार भी है और) तो क्या उसके अंत कि तस्वीरें देखने का हक़ पूरे विश्व को नहीं है? इस बारे में जो तर्क दिये जा रहे हैं तर्कों से ज़्यादा सांप्रदायिक बयान है जिसके अनुसार उन तसवीरों से एक धर्म विशेष के लोगों की भावनाएं आहत होंगी इस तरह के बयानों का विश्लेषण कर उसका खंडन करने के बजाय मीडिया इसके पक्ष में राय बनाने में जुट गया है यह स्थिति दुखद ही नहीं चिंता जनक है।
बात सिर्फ इतनी नहीं है कि ओसामा को कैसे मारा गया मूल बात यह है कि इस तरह प्रवृति से विश्व शांति को तो बढ़ावा नहीं ही मिलेगा बल्कि अलग अलग संदर्भों में सरकारी तानाशाही को बढ़ावा मिलेगा। जो लोकतन्त्र के लिए खतरनाक है। सम्पर्क-gunjeshkcc@gmail.com
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