18 मई 2011

शर्म गर उन्हें आती...

गुंजेश
अगर यह समझना हो कि कैसे पापुलर तरीकों का प्रयोग कर शोहरत बटोरी जा सकती है तो हमें बुधवार को राहुल गांधी के द्वारा किये गए धारणा प्रदर्शन और उसके बाद होने वाली गिरफ्तारी का अध्ययन करना चाहिए। इस घटना को जिस तरह से समझाया दिखाया गया है उससे राहुल गांधी एकदम हीरो दिख रहे हैं। किसानों के मसीहा नज़र आ रहे हैं। राहुल गांधी अचानक से सनी देयोल हो गए हैं। बात यह बढ़ाई जा रही है कि राहुल को किसानों की चिंता थी इसलिए वो सुबह-सुबह पुलिस-प्रशासन सब से छुप-छुपा कर गुप-चुप तरीके से मोटरसाइकिल में बैठ कर भट्टा पारसौल पहुँच गये। समय-समय पर अपने निजी बयानों से कांग्रेस को सार्वजनिक स्तर पर चर्चा में रखने वाले दिगविजय सिंह हुंकार भर रहे हैं कि राहुल को पब्लिसिटी नहीं चाहिए थी इसलिए उन्होने मीडिया को अपने भट्टा पारसौल आने के बारे में कुछ नहीं बताया। दिग्गी गुरु आप कुछ भी कहें पर आपके युवराज इतने भोले तो नहीं, हम यह समझते हैं कि राहुल आज कि मीडिया को और मायावती के खुन्नस को बेहतर समझते हैं आखिर वो लंबे समय से यूपी की राजनीति का ही अध्ययन कर रहे हैं। और जहां तक मीडिया से दूरी का सवाल है तो वह ज़माना लद चुका है जब खबरें माध्यमों की तलाश में दम तोड़ देती थी। 24*7 के संघर्ष में खबरों में आना समस्या नहीं रह गया है खास कर सब मामला कांग्रेस के युवराज के हिरोइज़्म का हो। राहुल गांधी जमीनी नेता हैं या उत्तर प्रदेश में अपनी ज़मीन तलाश रहे हैं यह तो वक़्त और इतिहास ही तय करेगा, इन पंक्तियों के लेखक की चिंता तो यह है कि क्या यथार्थ को समझने समझने के इस जादुई करतब के बाद भी उन किसानों को तत्काल कुछ फायदा होगा जो अपने ज़मीन से बेदखल कर दिये गये हैं?
भट्टा पारसौल गाँव के लोगों ने मंगलवार की रात ज़रूर यह सपना देखा होगा कि अब तो उन्हें कोई मसीहा ही पुलिस की इस ज्यादती से बचा सकता है। और अगली सुबह राहुल वहाँ पहुँच गये। राहुल ने गाँव वालों को दिलासा दिलाया कि वे उनके संघर्ष में उनके साथ हैं और तब तक हैं जब तक संघर्ष निर्णायक मोड तक नहीं पहुँच जाता। भट्टा पारसौल शनिवार से जिस तरह के प्रशासकीय अत्याचार झेल रहा है उसमें शायद ही अब कोई कांग्रेसी युवराज से यह पुछने की स्थिति में हो की संघर्ष की स्थिति आयी ही क्यों? दिल्ली से भट्टा पारसौल की दूरी इतनी भी नहीं की वहाँ सुलग रही चिंगारी की खबर उन्हें न रही हो। बल्कि मंगलवार से पहले तक कांग्रेस के आधिकारिक बयानों में किसानों के इस आंदोलन को, जिसे निर्णायक मोड़ तक पहुंचाने का जिम्मा अब राहुल गांधी ने ले लिया है, अपराधियों का आंदोलन कहती आयी है। दरअसल कांग्रेस का इतिहास जो भी रहा हो हाल के दिनों में वह जनता की नब्ज़ को पकड़ने में असफल रही है और यह पिछले दो दशकों में उसके सरोकारों में आए बदलाव का परिणाम है। जिसकी खाना पूर्ति करने के लिए राहुल गांधी को कभी गाँव में किसी दलित के यहाँ रात बितानी पड़ती है तो कभी मुंबई के लोकल ट्रेन में सफर करना पड़ता है।
बहरहाल, सवाल यह है कि राहुल ने भले ही यह सब कुछ कांग्रेस कि छवि सुधारने के लिए किया हो क्या इससे किसानों को कोई तत्काल राहत मिलना है ? राहुल ने उत्तर प्रदेश सरकार के समक्ष जो तीन मांगें रखीं थीं क्या उसे मान लेने पर उत्तर प्रदेश सरकार किसी बहुत बड़ी मुसीबत में फसेगी? क्या राहुल गांधी मायावती सरकार के लिए इससे बड़ी चुनौती खड़ी नहीं कर सकते थे?
बजाय इसके की राहुल गांधी एक गंभीर प्रयास के तहत किसानों की समस्या को हल करते या उनके मुद्दे को भारत का केन्द्रीय मुद्दा बनाते। राहुल गांधी ने सहानुभूति बटोरने का एक लोकप्रिय तरीका चुना जिसमें राजनीतिक समझ दूरदर्शिता और जमीनी यथार्थ की जानकारी का घोर अभाव दिखता है। राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश सरकार के सामने मांगें रखीं हैं कि मामले की न्यायिक जांच हो, गिरफ़्तार किये गये किसानों को रिहा किया जाय और किसानों की ज़मीन जबरन अधिग्रहित न की जाय। यह मांगें ऐसी है जिससे किसानों को फिलहाल राहत तो मिल सकती है पर भविष्य की सुरक्षा मिलती नहीं दिख रही। फर्ज़ करें की किताबों में दर्ज़ कानून के अनुसार अगर किसान दोषी पाये गये तो क्या होगा? राहुल गांधी को यह समझना चाहिए था कि भट्टा पारसौल सिर्फ एक गाँव है और अधिग्रहण और अतिक्रमण दोनों ही इस समय देश की अंदरूनी राजनीति को प्रभावित करने वाले मुद्दे हैं। इन दोनों ही मुद्दों पर जिस भी राजनीतिक पार्टी की दृष्टि साफ और जनहित में होगी जनता उसी पार्टी के सिर अपना हाथ रखेगी।
अधिग्रहण के बाद ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर जो प्रभाव पड़ेगा, उनकी जीवन शैली पर जो असर पड़ेगा उसके बारे में राजनीतिक दलों में एक उदासिनता है। पिछले कई वर्षों से कृषक समाज कि अस्मिताओं पर लगातार इसी तरह के सरकारी हमले हो हो रहे हैं। भारतीय संविधान अपने नागरिकों को अपने मन मुताबिक जीविका अपनाने का अधिकार देता है गावों का निजीकरन साफ-साफ ग्रामीणों के उस अधिकार का हनन है। राहुल गांधी अगर सच में शर्मिंदा हैं तो उनको कांग्रेस के राजनीतिक हितों के लिए नहीं बल्कि किसानों के मानवाधिकारों के लिए लड़ाई लड़नी चाहिए।

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