31 मई 2011

एक दिन चींटियां ढूढ़ लाएंगी दुनिया के सबसे विलक्षण रहस्य को



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कविताएं चन्द्रिका की आवाज में.
१- धर्म



पॉल राब्सन-अमिताभ
कबीर-अमिताभ




29 मई 2011

बंद करो, बंद करो, बंद करो, यह विकास !

बस्तरिया मैना कंठ में उग आये कांटें
मस्त मगन अरना भैंसा थक कर के चूर हुआ
मैनपाट में ज़ल समाधि ले ली नदी ने
गहरी और छोटी वन मेखलाएँ जिनका अभी नाम भी नहीं पड़ा
पहली बार लादी गयीं नंगी कर रेलों में
सूर्य को देखे बिना बीत गयी जिनकी उमर
उन वन-वृक्षों की छालें उतारकर
रखी गयी गिरवी
घोटल समुदाय गृहों पर हुई नालिश
कैसी है आयी ऋतु अबकी बसंत में

अबकी वसंत में टेसू के लाल फूल
सुर्ख-सुर्ख रक्त चटख झन-झन कर बज उट्ठे
खून की होली जो खेली सरकार बेकरार ने

वृक्षों के पुरखों ने प्राणों की आहुति दी
प्रस्तर चट्टानों से शीश पटक धरती में दब गए
सब कुछ कुर्बान किया
मान दिया
निर्धन संततियों को दीं अपनी अस्थियां
लाखों बरस की इस संपदा की नीलामी होने को है अब

चतुर-चटुल पूंजीपति, पुरातत्ववेत्ता संग
दुनिया के नौवें धनी-मानी-अंबानी
वेदों के अंत के ठेकेदार, सब आये
छत्तिस सरदारों की बलिवेदी
आज तीर्थाटन की
बनी हुई पुण्यभूमि-पितृभूमि
आये सब कुशल-क्रूर, कर्मीं, कर्ता-धर्ता मुल्क के
अबकी वसंत में

लोकतंत्र की गाय के तोड़ दिए चारों पैर
नाक में नकेल डाल
उलट दिया
पथरीली धरती पर
कुहनियों से कोंचते हैं मंत्रीगण बार बार
बारी अब दुहने की आयी है
खौफ से भरी मां
कातर आवाज में बिन बछड़ा रंभाती रही
बां बां बां
सोचते हैं दूर तलक नज़र गाड़
चिदम्बरम, मनमोहन, मोंटेक, रमन सिंह
टेकेंगे कब घुटने वन-जंगल वासी ये
जैसे हो, जल्दी हो !

अबकी वसंत में
अपने ही शस्त्रों से अस्त्रों से
हत्या की इतनी पुरानी इबारत
जंगल की छाती पर कुरेद रही पुलिस-फौज
मीठी मुस्कान पगे पुलिस पति
मंत्री संग फोटो उतरवाने लगे

वृक्षों के चरणों को सीने से भींचकर
नदियों के बालू से अंतरतम सींचकर
कबीर वहीं बैठा है
तलवों में बिंधा है बहेलिये का आधा बाण
पीर की कोई आवाज ही नहीं आती
सहमा बारहसिंहा
बड़ी बड़ी आँखों में कातर अवरोह लिए ताक रहा.

नाश से डरे हुए जंगल ने उनके भीतर
रोप दीं अपनी सारी वनस्पतियां
आग न लग जाए कहीं, वन्ध्या न हो जाए धरती की कोख
सो, अकुलाई धरती ने शर्मो-हया का लिबास फेंक
जिस्म पर उकेरा खजाने का नक्शा
आँखों में लिख दिया पहाड़ों ने
अपनी हर परत के नीचे गड़ा गुप्त ज्ञान
कुबेर के कभी न भरने वाले रथ पर सवार हो
आये वे उन्मत्त आये
अबकी वसंत में
उतार रहे गर्दन.

अबकी वसंत में
हड़पी गयी ज़मीनों की मृत आत्माएं
छत्तिस सरदारों के कंधे पर हैं सवार
दम-साध
गोल बाँध
कदमताल करते अभुवाते हैं
छत्तिस सरदार
अपने जल जंगल जमीन बीच
नाचते बवंडर से
दिल्ली से रायपुर राजधानी एक्स प्रेस
के चक्कों को कंधा भिड़ा रोक रोक देते हैं
नोक गाड़ देते हैं, सर्वग्रासी विकास की छाती में

पर जीने की यही कला
दूर तलक काम नहीं आती है
सहम-सहम जाती है
रक्त सनी लाल लाल मट्टी
अबकी वसंत में
गोली के छर्रे संग बिखर गयी आत्मा
छत्तिस सरदारों की

छत्तिस कबीलों के छत्तिस हज़ार
महिलायें और पुरुष सब
एक दूसरे से टिकाये पीठ, भिडाये कंधा
हाथों में धनुष धार एकलव्य के वंशज
फंदा बनाते हैं पगलाए नागर-पशु-समुदाय की खातिर
मरना और मरना ही धंधा है इस नगरी
ठठरी की प्रत्यंचा देह पर चढाते हैं
बदले की आंच में हवा को सिंझाते हैं
दिल्ली तक

बंद करो !
बंद करो !
बंद करो !
यह विकास.

मृत्युंजय से mrityubodh@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है.

22 मई 2011

आफ्सपा आधी सदी बाद.


महताब आलम
आज बाईस मई की सुबह जब ऑफिस या काम पर जाने की चिंता से बेफिक्र हम सोते रहेंगे, उसी समय नॉर्थ-ईस्ट और कश्मीर की जनता जो सुबह देखेगी, वह कानून के नाम पर बर्बरता की 53 वीं सालगिरह होगी. जी हाँ, मैं आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट (अफ्स्पा) की बात कर रहा हूँ. कानून के नाम पर, ला-कनूनियत नाफ़िज़ करने का घिनौना हथियार. जिसके खाते में अगर कुछ लिखा है, तो सिर्फ ला-क़नूनियत और बरबरियत की न खत्म होने वाली दास्तानें.
बाईस मई 1958 को नागा लोगों को 'नियंत्रित' करने के लिए ये कानून अमल में लाया गया. नागा जनता के पुरजोर विरोध के बावजूद, अपनी आदत के मुताबिक भारतीय संसद ने 18 अगस्त 1958 को इस कानून पर अपनी मुहर लगा दी. पहले- पहल ये कानून सिर्फ नागा जनता को 'नियंत्रित' करने के लिए बना और कहा गया कि जल्द ही हटा लिया जायेगा. पर ऐसा कभी हुआ नहीं. बल्कि धीरे-धीरे ये 'कानून' पूर्वोत्तर के 7 राज्यों से निकलता हुआ कश्मीर की घाटी तक पहुँच गया. आख़िरकार, कानून के हाथ लम्बे होते हैं. वैसे भी, अगर भेड़िये को एक बार खून का स्वाद मिल जाये तो फिर उसे कौन रोक सकता है और खासतौर पर खून 'विदेशी' या अलग नस्ल का हो. इस पूरे मामले में भी कुछ ऐसा ही दिखता है.
खैर, ये कानून, प्रसिद्ध किस्सागो महमूद फारुकी और दानिश अहमद के लफ्जों में ' तिलिस्म' है क्या?' ऐसा क्या है कि ये देश के 'रक्षकों' को भक्षक और राक्षस बना देता है? कानून की बात करें तो ये सरकार द्वारा घोषित 'disturberd' इलाकों में सशस्त्र बल को विशेष अधिकार ही नहीं, बल्कि एकाधिकार देता है. इस काले कानून के बदौलत सशस्त्र बल जब चाहें, जिसे चाहें, जहाँ चाहें मौत के घाट उतर सकते हैं-- इसमें उम्र और लिंग का कोई भेद नहीं है. कारण, यही कि अमुक व्यक्ति 'गैरकानूनी' कार्य कर रहा था. या फिर अमुक व्यक्ति देश की सत्ता और संप्रभुता के लिए खतरा था...आदि, आदि.
ये अधिकार सिर्फ सशस्त्र बल के उच्च- अधिकारियों को ही नहीं, बल्कि आम जवानों (नॉन-कमीशंड) ऑफिसर्स तक को हासिल हैं. इस कानून की वजह से भारतीय वैधानिक व्यवस्था के तहत जिन नियमों का पालन करना ज़रूरी होता है, सबके सब ख़ारिज हो जाते हैं. इन्हें कुछ उदाहरणों के जरिये समझा जा सकता है.
मणिपुर के पश्चिमी इम्फाल जिले के युम्नुं गाँव कि बात है, 4 मार्च 2009, दोपहर के बारह बजने वाले थे. इसी गाँव के मोहम्मद आजाद खान, जिसकी उम्र मात्र 12 साल थी, अपने घर के बरामदे में एक मित्र कियाम के साथ बैठा अख़बार पढ़ रहा था. तभी मणिपुरी पुलिस कमांडो के कुछ जवान उसके घर में दाखिल हुए. एक जवान ने आजाद के दोनों हाथों को पकड़कर घसीटना शुरू कर दिया. वे उसे उत्तर दिशा में लगभग 70 मीटर दूरी पर एक खेत तक ले गए. इसी बीच एक दूसरे जवान ने आजाद के मित्र कियाम से पूछा कि तुम इसके साथ क्यों रहते हो? तुम्हे मालूम होना चाहिए कि ये एक उग्रवादी संगठन का सदस्य है. इतना कहने के बाद उस जवान ने कियाम के मुंह पर एक जोरदार तमाचा जड दिया.
जवानों ने आजाद को खेत तक ले जाकर पटक दिया. जब आजाद के घरवालों ने जवानों को रोकने की कोशिश की तो उन पर बंदूकें तान बुरा अंजाम भुगतने की धमकियां दी गयीं. आजाद को खेत तक घसीटकर ले जाने के बाद एक जवान ने बन्दूक से उसको वहीँ ढेर कर दिया. उसके बाद एक दूसरी बन्दूक उसकी लाश के पास रख दी, जिसे आजाद के पास से बरामद होना बताया गया. इस काण्ड को अंजाम देने के बाद जवान आज़ाद की लाश को थाने ले गए.
जब एक बार फिर आज़ाद के घर और गांव के लोगों ने थाने तक जाने की कोशिश की तो फिर उन्हें रोक दिया गया. हो सकता है किसी को ये हिन्दी फिल्म की कहानी लगे, मगर ये एक तल्ख हकीकत है. इन स्थितियों से मणिपुर से लेकर कश्मीर तक की जनता दोचार हो रही है. अगर सिर्फ मणिपुर ही की बात करें तो फर्जी मुठभेड़ में मार डालना, बेवजह सताना, बलात्कार समेत विभिन्न प्रकार की यातनाएं सहना यहाँ के लोगों की नियति बन चुकी है.
यही हाल नागालैंड, मिजोरम, असम, त्रिपुरा, मिजोरम, अरुणाचल और कश्मीर के ज्यादातर हिस्सों का है. और इन सबका तात्कालिक कारण है-- अफ्स्पा. इस कानून को हटाने की मांग को लेकर पिछले 11 वर्षों से इरोम शर्मिला भूख हड़ताल पर हैं. इरोम ने अपनी बात और लाखों जनता की मांग को भारत के नीति-निर्धारकों तक अपनी बात पहुँचाने के लिए दिल्ली तक का सफर किया. वो भारतीय जनतन्त्र का बैरोमीटर कहे जाने वाले जन्तर मन्तर पर भी बैठी, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात.
पिछले 53 वर्षों में एक बार नहीं, बल्कि हजारों बार साबित हो चुका है कि अफ्स्पा कानून नहीं, कानून के नाम पर धब्बा है. इस बात को सरकारी कमेटी ने भी दबे मुंह से सही, मगर स्वीकार किया है. वर्ष 2004 में, भारत सरकार द्वारा गठित जस्टिस जीवन रेड्डी अध्यक्षता वाली कमिटी के रिपोर्ट में इसको कबूल किया गया है. जून 2005 में आई इस रिपोर्ट में लिखा है, 'चाहे जो भी कारण रहे हों, ये कानून उत्पीड़न, नफरत, भेदभाव और मनमानी का साधन का एक प्रतीक बन गया है.'
ऐसे समय में जब कश्मीर से लेकर मणिपुर की जनता इस कानून की वजह से (ये सिर्फ एक वजह है) आपातकाल की स्थिति में जी रही हो, उनके बुनियादी अधिकार स्थगित कर दिए गए हों, ला-कनूनियत का राज हो, लोकतंत्र फ़ौजतंत्र में बदल गया हो, 'आज़ादी' का सुख भोग रहे हम लोगों का कर्तव्य बनता है कि इन सबकी आवाज़ में आवाज़ मिलाकर कहें कि अफ्स्पा जैसे अलोकतांत्रिक कानून को अविलम्ब रद्द किया जाये. इसी में हम सब का भविष्य है, अन्यथा वो दिन दूर नहीं जब आग की लपटें हमारे घरों तक भी पहुँच जाएँगी. वैसे भी छत्तीसगढ़, झारखण्ड, ओड़िसा आदि तक तो पहुँच ही चुकी है.
(लेखक मानवाधिकार कार्यकर्ता एवं स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनसे activist.journalist@gmail.comपर संपर्क किया जा सकता है.)

20 मई 2011

क्या पब्लिक सब जानती है?

गुंजेश
समाजवादी चिंतक किशन पटनायक ने भारतीय राजनीति की स्थितियों पर चिंता जताते हुए लिखा था कि नये विचारों और नये शास्त्रों का आना रुक सा गया है। "शास्त्र और विचार निर्माण का नियामक जब से अमेरिका हो गया है। इसमें पहले का औध्दत्य तो रह गया है लेकिन उसकी गंभीरता ख़त्म हो गई है"। क्या यही बात हम पत्रकारिता और अन्य ऐसे कार्यों, जिनका सीधा संबंध सामाजिक बदलाव को पहचानने और समाज को सचेत करने से है, के बारे में नहीं कह सकते हैं। पिछले कुछ दशकों में भारतीय समाज कुछ खास तरह के बदलावों से होकर गुज़रा है। इन बदलावों ने समाजों में एक सहमति की एकता का निर्माण किया है और असहमति के अवसरों को लगातार कम किया है। क्या हम ऐसा कोई क्षण याद कर सकते हैं जब पत्रकारों और समाज विज्ञानियों ने असहमति के इन कम होते क्षणों पर गंभीर चिंता जाहीर की हो? ईक्का- दुक्का उदाहरणों को छोड़ दें तो हमें निराशा ही हाथ लगेगी। एक ज़माने में हम अपनी विभिन्नताओं के लिए जाने जाते थे, मतांतर हमारी राजनीति की खासियत हुआ करती थी, पर पिछले कुछ समय में यह परिदृश्य बदला है। हमारे यहाँ मुद्दों में जो एकता आई है क्या वह किसी भी लोकतान्त्रिक समाज के लिए चिंता का विषय नहीं होना चाहिए?
अगर हम बिहार विधानसभा चुनावों से लेकर हाल ही में संपन्न हुए सभी पाँच राज्यों के चुनाव परिणामों का विश्लेषण करें तो हम देखेंगे की सभी राज्यों में चुनावी मुद्दों में बेहद समानता है, मुद्दों की एकता ने राज्यों के भौगोलिक और सामाजिक सीमाओं को तो तोड़ा ही है अपनी परंपरागत विचारधारा को भी छोड़ा है, न सिर्फ छोड़ा है विचारधाराओं का जो संघर्ष कभी भारतीय राजनीति में देखा गया है वह अब लगभग समाप्ती की ओर है। विश्लेषक इसे विकास की सामूहिक चाह के रूप में देख और दिखा रहे हैं। अभी तक हम इस दिशा में नहीं सोच पायें हैं की विकास की इस समूहिक चाहत का निर्माण कैसे हुआ, इस समूहिक चाहत का लाभ किसे मिलेगा और राय में इस एकता के क्या निहितार्थ हैं। हमें यह भी सोचना चाहिए की अगर एक बहुमत विकास के इस माडल से सहमत है तो क्या विकास का यही माडल हमारे समाजों के लिए सबसे उपयुक्त है? समय समय पर आने वाले सर्वेक्षणों के आंकड़े और रिपोर्ट हमें यह लगातार बताते रहे हैं कि विकास के इस माडल में आबादी का एक बड़ा हिस्सा उपेक्षित रह जाता है। इस समय किसान आत्महत्याओं को लेकर चल रहे पूरे विमर्श का लब्बो-लुबाब यही है। फिर क्या यह एक पैदा की गई चाहत है, जिसके भ्रम के टूटने का इंतज़ार हमें करना चाहिए?
पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम क्या आने वाले हैं इससे कहीं न कहीं हम सभी वाकिफ थे, और इसी तरह के परिणाम के अंदाज़ भी लगा रहे थे। मीडिया और ममता ने मिलकर एक स्वर में कहा था कि बहुमत दीदी के साथ ही हाथ मिलाएगा। इस बहुमत के निर्माण में जिसकी भी जो भी भूमिका रही हो बहुमत आ चुका है। हारने और जीतने वाले पक्षों ने इसे विनम्रता से स्वीकार किया है। यही लोकतन्त्र का तक़ाज़ा भी है। पर ममता के जीत के साथ कई और घोषणायें भी हो रही है। एक बात जिसे भयानक तरीके से प्रचारित किया जा रहा कि यह वामपंथ की हार है, वास्तव में यह पश्चिम बंगाल के वामपंथियों की हार है इसमें कोई शक नहीं की वहाँ की सरकार ने बहुत सारे ऐसे काम किए थे जिनका खामियाजा संसदीय लोकतन्त्र में किसी भी पार्टी को भुगतना पड़ता और वह वाम दलों को भी पड़ा। जिस बात पर वामपंथियों और राजनीति से सहानुभूति रखने वाले लोगों को चिंता होनी चाहिए वह है युवा वोटरों का नीतिगत राजनीति के प्रति झुकाव नहीं होना।
दरअसल, उदारवादियों ने पिछले 20 सालों में देश भर के स्कूलों और विश्वविध्यालयों में जिस तरह से ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया को अपने कब्जे में लिया है यह उसकी जीत है। विश्वविध्यालय और स्कूल वह पहली जगह है जहां व्यक्ति समाज और उसकी तरक्की का ब्लू प्रिंट समझता है। क्या हम बहुत आश्वस्त होकर कह सकते हैं कि हमारी शिक्षा व्यवस्था में वे सारे तत्व मौजूद हैं जो व्यक्ति को स्वतंत्र राय बनाने में मदद करते हैं? या फिर इस पूरी व्यवस्था का भरपूर इस्तेमाल समाजों के गैर राजनीतिकरण में हुआ है। जिसके द्वारा खास तरह की वर्चस्व वाली ताकतों को बढ़ावा मिला है। ये वे ताक़तें हैं जिनको विचारों की विविधता से खतरा है, और समाजों के गैर राजनीतिकरण से फायदा। अगर बुद्धिजीवी इससे नहीं चेते, और विश्वविध्यालयों और स्कूलों को इस गैर राजनीतिकरण से मुक्त नहीं कराया गया तो जल्द ही हम हमारा लोकतन्त्र विपक्ष विहीन हो जाएगा। हमें मानना होगा की केरला और बाँकी देश के ज्ञान के निर्माण की जो व्यवस्था जिससे एक पीढ़ी बन कर तैयार हुई है उसमें फर्क है और यही फर्क आज बंगाल में उभर कर सामने आया है .....
ममता ने माना है कि जो नये वोटर हैं उन्हें रिझाने में वामपंथ नाकामयाब रहा हमें इस नकामयाबी के कारणों को क्षणों में नहीं बल्कि वर्षों में ढूँढना चाहिए। नये वोटर एक खास तरह की शिक्षण पद्धति से ढल कर निकले हैं जिस पद्धति में साम्यवाद या कोई भी विचारधारा इतिहास की सिर्फ एक घटना है। इस पूरे समय में जो नया 'मैनेजर' और 'प्रोफेशनल' पैदा हुआ है उसका परिचय सिर्फ लाभ कमाने के उद्योग से है किसी विचारधारा से नहीं। और अगर वह इस व्यवस्था के द्वारा निर्मित, अधिक से अधिक पैसा कमाने की इच्छा रखने वाले 'व्यक्ति' से अलग कुछ है तो वह या तो 'हिन्दू' है या 'मुसलमान' या इसी तरह की कोई धार्मिक अस्मिता। इसलिए अगर हम ममता की जीत पर शंखनाद सुनते हैं तो हमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए। राजनीतिक चेतना में आयी यह गिरावट खतरे की निशानी है इसे हमने बिहार में भी देखा है और अब बंगाल भी इसका उदाहरण है।
'माँ', 'माटी' और 'मानुष' के जिस नारे को ममता ने बुलंद किया है वह निश्चित रूप से वामपंथ की प्रेरणा ही है। जिसकी ज़रूरत उन्हें ठेठ बंगाली वोटरों को रिझाने के लिए पड़ी लेकिन ममता ने जीत के बाद कहा कि वो बंद और बुलेट की राजनीति नहीं करेगी, बुलेट की राजनीति को इस देश की जनता ने कई बार नकारा है पर बंद की राजनीति का विरोध ममता जैसी नेत्री को शोभा देता है क्या? क्या ममता यह नहीं समझती हैं कि बंद और बंद की राजनीति के भी लोकतंत्र में अपने मायने होते हैं जिसे नकारा नहीं जाना चाहिए, यदि नहीं तो क्या मीडिया को इस बात की आलोचना नहीं करनी चाहिए थी कि जिस बंद और हड़ताल की रणनीति से ममता ने बंगाल को फतह किया है अचानक ममता उससे मुंह कैसे मोड सकती है? सिर्फ बंगाल ही नहीं अगर देश के अन्य राज्यों में हुए चुनावों में जीत कर आए मुख्यमंत्रियों को देखें तो हमें पता चलेगा की उनकी कोई विचारधारात्मक छवि राजनीतिक तौर से नहीं है बल्कि वह अपने-अपने क्षेत्रों में पार्टी के मैनेजर के रूप में ही कार्य करते रहे हैं। क्या राजनीति में विचारकों की कमी खतरे की ओर सूचित नहीं करता है।
हमें यह समझना होगा की वर्तमान समय में विकास और शोषण के बीच बहुत महीन रेखा रह गई है। इस महीन रेखा को पहचान कर, जमीनी विकास के पक्ष में और शोषण के प्रतिपक्ष में खड़े रहने की महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी हमारे समय के बुद्धिजीवियों और मीडिया की है। हमें यह भी समझना होगा की संविधान के लक्ष्यों में राष्ट्र के नागरिकों के लिए न केवल रोजगार उपलब्ध करना शामिल है बल्कि रोज़गार की स्वतन्त्रता उसके मूल में है। यह महत्वपूर्ण नहीं है की सरकार कितनी कम कीमत में किसानों गरीबों को अनाज उपलब्ध करा रही है महत्वपूर्ण यह है कि कितने गरीब और किसान प्रचलित दरों पर अपनी आजीविका चलाने में सक्षम हो रहे हैं। हमें मायकोव्स्की के इन पंक्तियों में लोकतन्त्र के संदर्भों को देखना होगा कि “कलम और बेनट खड़े हों एक ही कतार में/ और बराबर का दर्ज़ा दिया जाय दोनों को”।

18 मई 2011

शर्म गर उन्हें आती...

गुंजेश
अगर यह समझना हो कि कैसे पापुलर तरीकों का प्रयोग कर शोहरत बटोरी जा सकती है तो हमें बुधवार को राहुल गांधी के द्वारा किये गए धारणा प्रदर्शन और उसके बाद होने वाली गिरफ्तारी का अध्ययन करना चाहिए। इस घटना को जिस तरह से समझाया दिखाया गया है उससे राहुल गांधी एकदम हीरो दिख रहे हैं। किसानों के मसीहा नज़र आ रहे हैं। राहुल गांधी अचानक से सनी देयोल हो गए हैं। बात यह बढ़ाई जा रही है कि राहुल को किसानों की चिंता थी इसलिए वो सुबह-सुबह पुलिस-प्रशासन सब से छुप-छुपा कर गुप-चुप तरीके से मोटरसाइकिल में बैठ कर भट्टा पारसौल पहुँच गये। समय-समय पर अपने निजी बयानों से कांग्रेस को सार्वजनिक स्तर पर चर्चा में रखने वाले दिगविजय सिंह हुंकार भर रहे हैं कि राहुल को पब्लिसिटी नहीं चाहिए थी इसलिए उन्होने मीडिया को अपने भट्टा पारसौल आने के बारे में कुछ नहीं बताया। दिग्गी गुरु आप कुछ भी कहें पर आपके युवराज इतने भोले तो नहीं, हम यह समझते हैं कि राहुल आज कि मीडिया को और मायावती के खुन्नस को बेहतर समझते हैं आखिर वो लंबे समय से यूपी की राजनीति का ही अध्ययन कर रहे हैं। और जहां तक मीडिया से दूरी का सवाल है तो वह ज़माना लद चुका है जब खबरें माध्यमों की तलाश में दम तोड़ देती थी। 24*7 के संघर्ष में खबरों में आना समस्या नहीं रह गया है खास कर सब मामला कांग्रेस के युवराज के हिरोइज़्म का हो। राहुल गांधी जमीनी नेता हैं या उत्तर प्रदेश में अपनी ज़मीन तलाश रहे हैं यह तो वक़्त और इतिहास ही तय करेगा, इन पंक्तियों के लेखक की चिंता तो यह है कि क्या यथार्थ को समझने समझने के इस जादुई करतब के बाद भी उन किसानों को तत्काल कुछ फायदा होगा जो अपने ज़मीन से बेदखल कर दिये गये हैं?
भट्टा पारसौल गाँव के लोगों ने मंगलवार की रात ज़रूर यह सपना देखा होगा कि अब तो उन्हें कोई मसीहा ही पुलिस की इस ज्यादती से बचा सकता है। और अगली सुबह राहुल वहाँ पहुँच गये। राहुल ने गाँव वालों को दिलासा दिलाया कि वे उनके संघर्ष में उनके साथ हैं और तब तक हैं जब तक संघर्ष निर्णायक मोड तक नहीं पहुँच जाता। भट्टा पारसौल शनिवार से जिस तरह के प्रशासकीय अत्याचार झेल रहा है उसमें शायद ही अब कोई कांग्रेसी युवराज से यह पुछने की स्थिति में हो की संघर्ष की स्थिति आयी ही क्यों? दिल्ली से भट्टा पारसौल की दूरी इतनी भी नहीं की वहाँ सुलग रही चिंगारी की खबर उन्हें न रही हो। बल्कि मंगलवार से पहले तक कांग्रेस के आधिकारिक बयानों में किसानों के इस आंदोलन को, जिसे निर्णायक मोड़ तक पहुंचाने का जिम्मा अब राहुल गांधी ने ले लिया है, अपराधियों का आंदोलन कहती आयी है। दरअसल कांग्रेस का इतिहास जो भी रहा हो हाल के दिनों में वह जनता की नब्ज़ को पकड़ने में असफल रही है और यह पिछले दो दशकों में उसके सरोकारों में आए बदलाव का परिणाम है। जिसकी खाना पूर्ति करने के लिए राहुल गांधी को कभी गाँव में किसी दलित के यहाँ रात बितानी पड़ती है तो कभी मुंबई के लोकल ट्रेन में सफर करना पड़ता है।
बहरहाल, सवाल यह है कि राहुल ने भले ही यह सब कुछ कांग्रेस कि छवि सुधारने के लिए किया हो क्या इससे किसानों को कोई तत्काल राहत मिलना है ? राहुल ने उत्तर प्रदेश सरकार के समक्ष जो तीन मांगें रखीं थीं क्या उसे मान लेने पर उत्तर प्रदेश सरकार किसी बहुत बड़ी मुसीबत में फसेगी? क्या राहुल गांधी मायावती सरकार के लिए इससे बड़ी चुनौती खड़ी नहीं कर सकते थे?
बजाय इसके की राहुल गांधी एक गंभीर प्रयास के तहत किसानों की समस्या को हल करते या उनके मुद्दे को भारत का केन्द्रीय मुद्दा बनाते। राहुल गांधी ने सहानुभूति बटोरने का एक लोकप्रिय तरीका चुना जिसमें राजनीतिक समझ दूरदर्शिता और जमीनी यथार्थ की जानकारी का घोर अभाव दिखता है। राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश सरकार के सामने मांगें रखीं हैं कि मामले की न्यायिक जांच हो, गिरफ़्तार किये गये किसानों को रिहा किया जाय और किसानों की ज़मीन जबरन अधिग्रहित न की जाय। यह मांगें ऐसी है जिससे किसानों को फिलहाल राहत तो मिल सकती है पर भविष्य की सुरक्षा मिलती नहीं दिख रही। फर्ज़ करें की किताबों में दर्ज़ कानून के अनुसार अगर किसान दोषी पाये गये तो क्या होगा? राहुल गांधी को यह समझना चाहिए था कि भट्टा पारसौल सिर्फ एक गाँव है और अधिग्रहण और अतिक्रमण दोनों ही इस समय देश की अंदरूनी राजनीति को प्रभावित करने वाले मुद्दे हैं। इन दोनों ही मुद्दों पर जिस भी राजनीतिक पार्टी की दृष्टि साफ और जनहित में होगी जनता उसी पार्टी के सिर अपना हाथ रखेगी।
अधिग्रहण के बाद ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर जो प्रभाव पड़ेगा, उनकी जीवन शैली पर जो असर पड़ेगा उसके बारे में राजनीतिक दलों में एक उदासिनता है। पिछले कई वर्षों से कृषक समाज कि अस्मिताओं पर लगातार इसी तरह के सरकारी हमले हो हो रहे हैं। भारतीय संविधान अपने नागरिकों को अपने मन मुताबिक जीविका अपनाने का अधिकार देता है गावों का निजीकरन साफ-साफ ग्रामीणों के उस अधिकार का हनन है। राहुल गांधी अगर सच में शर्मिंदा हैं तो उनको कांग्रेस के राजनीतिक हितों के लिए नहीं बल्कि किसानों के मानवाधिकारों के लिए लड़ाई लड़नी चाहिए।

08 मई 2011

ओसामा की हत्या पर नोम चोम्स्की की प्रतिक्रिया

अमेरिका के अपराध नाजियों के अपराधों से भी बढ़ कर हैं



नोम चोम्स्की
हम खुद से यह पूछ सकते हैं कि तब हमारी प्रतिक्रिया क्या होती, जब कोई ईराकी कमांडो जॉर्ज डब्ल्यू बुश के घर में घुस कर उनकी हत्या कर देता और उनकी लाश अटलांटिक में बहा देता.

यह अधिक से अधिक साफ होते जाने से कि यह एक योजनाबद्ध हत्या का अभियान था, अंतरराष्ट्रीय कानूनों के सबसे बुनियादी नियमों का उल्लंघन भी उतना ही गहराता जा रहा है. संभवतः 80 कमांडो उस निहत्थे पीड़ित को पकड़ सकते थे, लेकिन यह भी साफ हो चुका है कि उन्होंने इसकी कोई कोशिश नहीं की. जबकि उन्हें वास्तव में किसी भी तरह के विरोध का सामना नहीं करना पड़ा, सिवाय - उन्हीं के दावे के मुताबिक – लादेन की बीवी को छोड़ कर जो उनकी तरफ लपकी थी. जिन समाजों में कानून को लेकर थोड़ा भी सम्मान होता है, वहां संदिग्धों को पकड़ कर उन्हें निष्पक्ष सुनवाई के लिए पेश किया जाता है. मैं ‘संदिग्ध’ शब्द पर पर जोर दे रहा हूं. अप्रैल, 2002 में एफबीआई के मुखिया रॉबर्ट मुलर ने प्रेस को बताया था कि इतिहास की सबसे सघन जांच के बाद एफबीआई इससे अधिक कुछ भी नहीं कह सकती कि उसका ‘मानना’ है कि योजना अफगानिस्तान में बनी, हालांकि संयुक्त अरब अमीरात और जर्मनी में उसे लागू किया गया. जो वे अप्रैल, 2002 में ‘मानते’ थे, जाहिर है कि उसे वे आठ महीना पहले उस समय नहीं जानते थे जब वाशिंगटन ने तालिबान के ढीले-ढाले प्रस्तावों को खारिज कर दिया था (वे कितने गंभीर थे, यह हम नहीं जानते, क्योंकि उन्हें खारिज कर दिया गया) कि अगर अमेरिका सबूत पेश करे तो तालिबान बिन लादेन को उन्हें सौंप देंगे. पर हमने अभी-अभी जाना है कि वे सबूत वाशिंगटन के पास थे ही नहीं. यानी ओबामा तब साफ झूठ बोल रहे थे जब उन्होंने अपने व्हाईट हाउस के बयान में कहा कि ‘हमने तत्काल जान लिया था कि 11 सितंबर के हमले अल कायदा द्वारा किए गए थे.’
तब से लेकर अब तक कुछ भी ऐसा नहीं पेश किया गया है जो गंभीर हो. बिन लादेन के कबूलनामे के बारे में बहुत चर्चा हुई है लेकिन उसका उतना ही महत्व है जितना मेरे मेरे इस कबूलनामे का कि मैंने बोस्टन मैराथन जीता है. लादेन ने उस बात की डींग हांकी जिसे वह एक बड़ी उपलब्धि मानता था.
मीडिया में वाशिंगटन के गुस्से के बारे में भी बहुत चर्चा हो रही है कि पाकिस्तान ने बिन लादेन को उसे नहीं सौंपा, जबकि पक्के तौर पर फौज और सुरक्षा बलों के कुछ अधिकारी एबटाबाद में उसकी मौजूदगी से वाकिफ थे. पाकिस्तान के गुस्से के बारे में बहुत कम कहा जा रहा है कि अमेरिक ने एक राजनीतिक हत्या के लिए उनकी जमीन में हस्तक्षेप किया. पाकिस्तान में अमेरिका विरोधी गुस्सा पहले से ही बहुत है, और इस घटना से वह और बढ़ेगा. जैसा अंदाजा लगाया जा सकता है, लाश को समुद्र में फेंक देने के फैसले ने मुसलिम जगत में गुस्से और संदेह को ही भड़काया है.
हम खुद से यह पूछ सकते हैं कि तब हमारी प्रतिक्रिया क्या होती, जब कोई ईराकी कमांडो जॉर्ज डब्ल्यू बुश के घर में घुस कर उसकी हत्या कर देता और उसकी लाश अटलांटिक में बहा देता. यह तो निर्विवाद है कि बुश के अपराध बिन लादेन के अपराधों से बहुत अधिक हैं और वह ‘संदिग्ध’ नहीं है, बल्कि निर्विवाद रूप से उसने ‘फैसले’ लिये. उसने सर्वोच्च अंतरराष्ट्रीय अपराधों के लिए आदेश दिए, जो दूसरे युद्धापराधों से इस मायने में अलग हैं कि वे अपने में उन सारे अपराधों को समेटे हुए हैं (न्यूरेमबर्ग ट्रिब्यूनल को उद्धृत करूं तो) जिनके लिए नाजी अपराधियों को फांसी पर लटकाया गया थाः लाखों मौतें, दसियों लाख शरणार्थी, अधिकतर देश को तबाह कर देना और एक कटु सांप्रदायिक विवाद को पैदा करना जो अब बाकी इलाके में फैल गया है.
अभी फ्लोरिडा में शांति से मरे (क्यूबाई एयरलाइन बॉम्बर ओरलांडो) बोश के बारे में भी बहुत कुछ कहना है, और अभी ‘बुश डॉक्ट्रिन’ का भी हवाला देना है कि जिसके अनुसार वे समाज जहां आतंकवादी पनाह लेते हैं, उतने ही बड़े अपराधी हैं जितने आतंकवादी और उनके साथ वैसा ही सलूक किया जाना चाहिए. किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया कि ऐसा कह कर बुश अमेरिका पर हमले और इसके विनाश तथा इसके अपराधी राष्ट्रपति की हत्या का ही आह्वान कर रहा था.
अब इस ऑपरेशन के नाम पर- ऑपरेशन गेरोनिमो. पूरे पश्चिमी समाज में साम्राज्यवादी मानसिकता इस कदर गहरी है कि कोई अंदाजा तक नहीं लगा सकता कि जनसंहारकर्ता हमलावरों के खिलाफ साहसी प्रतिरोध के साथ बिन लादेन को जोड़ कर उसकी शान को बढ़ा ही रहे हैं. यह अपने मारक हथियारों को उन लोगों के नाम दे देना है, जो हमारे अपराधों के पीड़ित रहे हैः अपाचे, टॉमहॉक... यह ऐसा है मानों लुफ्टवाफे (Luftwaffe) ने अपने लड़ाकु हवाई जहाजों को ‘यहूदी’ और ‘जिप्सी’ का नाम दिया होता.
अभी बहुत कुछ कहना है, लेकिन ऐसा होना चाहिए कि बहुत जाहिर और शुरुआती तथ्यों पर भी हम सोच सकें. साभार-हाशिया

06 मई 2011

खरबरदार होने पर पाबंदी

गुंजेश (स्वतंत्र पत्रकार एवं विश्‍लेषक)

यह कहना तो मुश्किल है कि ऐसा पूरी समझदारी के साथ किया जा रहा है या फिर अनजाने में लेकिन जो किया जा रहा है वह बहुत खतरनाक है। किया यह जा रहा है कि एक ऐसे समय में जब सूचना ही ताकत है बड़ी सफाई से सूचनाएँ छिपाई जा रही हैं और उसके पक्ष में एक राय भी तैयार की जा रही है। 1988-89 में आई एक पुस्तक मैन्यूफैक्चरिंग कनसेंट में नॉम चमस्की और एडवर्ड एस हरमन ने बताया था कि मीडिया में वही खबरें बाहर आयेंगी जो समाज का इलिट वर्ग चाहेगा। नॉम चमस्की और एडवर्ड एस हरमन दोनों ही करीब दो दशक पहले से ही मीडिया के छद्म लोकतान्त्रिक चेहरे, और मीडिया के माध्यम से समाजों में लागू वैचारिक नियंत्रण की प्रणाली को पहचान रहे थे। फिर आज हम यह सब कुछ इतनी आसानी से कैसे पचा पा रहे हैं?

जी हाँ मेरा इशारा रविवार से लेकर अब तक के अमेरिका- पाकिस्तान सम्बन्धों और ओसामा ह्त्या कांड में मीडिया कि भूमिका की ओर है। सोमवार को आतंकी संगठन अल-क़ायदा का सरगना ओसामा बिन लादेन ज़िंदा है या नहीं, के अटकलों पर विराम लग गया। लेकिन कैसे? वैसे ही जैसे आज से लगभग 10 वर्ष पूर्व 11 सितंबर को एक अमेरिकी राष्ट्रपति ने घोषणा की थी कि अमेरिका के ऊपर आया यह संकट किसी ओसामा बीन लादेन का किया धरा है वैसे ही अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने रविवार की रात यह घोषणा कर दी की अमेरिका का सबसे बड़ा दुश्मन, और इसी नाते मनुष्यता का सबसे बड़ा दुश्मन ओसामा बिन लादेन मारा गया और उसे अमेरिकियों ने मारा है, यह मानवता के हित में है, यह न्याय है। और यही सही न्याय है, यह बहुत ज़रूरी था। बराक हुसैन ओबामा के कह देने भर से दुनिया भर के मीडिया ने यह मान लिया और इस दुनिया का हरेक व्यक्ति एकदम से पोस्ट ओसामा पीरियड में जीने लगा। अब तक विद्वान जिन खबरों, घटनाओं का विश्लेषण कर रहे हैं वो वही खबरें है जो मीडिया से छन कर सामने आ रही हैं बल्कि कहा जाय की ओबामा जिन खबरों को विश्व दर्शक-श्रोता के लिए मुक्त कर रहे हैं वही खबरें और उन्हीं खबरों का विश्लेषण हमारे सामने आ रहा है। हम उन्हीं खबरों में संभावनाएं तलाश रहे हैं और खास कर भारतीय मीडिया इन्हीं खबरों के आधार पर दाऊद और कई अन्य आतंकवादियों पकड़ पाने का सपना देख रही है। क्या यह मुक्त सूचना प्रवाह है जिसकी तरफदारी संयुक्त राष्ट्र संघ पिछले कई दशकों से कर रहा है!
इसपूरे प्रकरण को ज़रा गैर मीडियाई परिदृश्य में समझने की कोशिश करें जिसकी बुनियाद कुछ ठोस तथ्यों पर आधारित हो जैसे एक तथ्य यह है कि अमेरिका और पाकिस्तान पिछले दस साल से एक साथ एक योजना पर काम कर रहे थे। इसी से संबन्धित दूसरा तथ्य यह कि अमेरिका को इतना बुद्दू मानना बेवकूफी होगी कि उसे पाकिस्तान के अंदरूनी राजनीति कि समझ नहीं है और बिना समझदारी के ही वह पाकिस्तानी नेताओं पर समय-समय पर दबाब बनाने में कामयाब हुआ है बल्कि पड़ताल तो इस बात की की जानी चाहिए कि पाकिस्तान कि अंदुरिणी राजनीति में अमेरिका का दखल कितना है और यह भी कि क्या अमेरिका पिछले दस वर्षों से बिना आईएसआई के मर्ज़ी के इतनी सुख शांति से पाकिस्तानी सरकार का सहयोग प्राप्त का पा रहा था, क्या वास्तव में अमेरिका और आईएसआई के संबंध वैसे ही हैं जैसे दिखाई देते हैं? खास कर तब जब दुनिया जानती है कि पाकिस्तान में फौज और आईएसआई की कितनी चलती है और पाकिस्तानी सरकार की कितनी!
अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमले के बाद पाकिस्तान का कट्टरपंथ खुद वहाँ के इलिट के लिए एक नासूर बन गया और उसकी उपयोगिता पाकिस्तान के लिए बहुत नहीं रह गई। बीते कुछ वर्षों में पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था बेतरह बिगड़ी है और इस समय किसी भी तरह से खुद की अर्थव्यवस्था को ज़िंदा रखना उसके लिए बड़ी चुनौती है जिसमें अमेरिका उसकी भरपूर सहायता कर रहा है। और इसलिए पाकिस्तान की यह मजबूरी है कि वह अमेरिका की कही हर बात माने। आइये अब ज़रा देखें कि ओसामा की इंश्योरेंस पालिसी से किसको क्या मिलना था या मिला? हम सभी यह जानते हैं कि अपने कार्यकाल के आखरी दिनों में पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश को अफ़गानिस्तान में बड़ी संख्या में लगी फौज और संसाधनों में होने वाले खर्चे के कारण बड़ी हेठी झेलनी पड़ी थी, बल्कि वर्तमान राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने तो इसे चुनावी मुद्दा भी बनाया था और उनको मिली सफलता हमारे सामने है। इसलिए राष्ट्रपति ओबामा पर आतंकवाद के विरुद्ध चल रही इस लड़ाई को निर्णायक मोड पर ले जाने का बहुत दवाब था वह भी इस तरह से कि, अमेरिका के महाशक्ति होने का घमंड बचा रहे। क्योंकि हाल के वर्षों में अमेरिकी जनता ओबामा से किसी भी चमत्कार की उम्मीद खो बैठी है। ओबामा एक औसत राष्ट्रपति ही साबित हुए हैं जो बेरोज़गारी और मंदी से लड़ने की अपेक्षाओं में खरे नहीं उतरे हैं ऐसे में ओबामा ओसामा के मारे जाने को दस वर्षों से चली आ रही लड़ाई के खत्म होने के रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं और यह उन्हें थोड़ी राहत तो देगा ही। पर यह देखना रोचक होगा कि वे उनलोगों को क्या मुँह दिखायेंगे जिन्होंने उन्हें शांति के लिए नोबल पुरस्कार दिलवाया/दिया।
साथ ही पाकिस्तान में अमेरिकी घुसपैठ के प्रतिकृया स्वरूप कट्टरपंथी जिस तरह की हिंसा दक्षिण एशिया में फैलाएँगे उससे जो स्थिरता यहाँ के देशों में आएगी उसका आर्थिक फायद भी अमेरिका को मिलता दिख रहा है। वर्तमान वैश्विक राजनीतिक परिदृश्य में जो समीकरण दक्षिण एशिया में बन रहे हैं उसमें चीन, पाकिस्तान और अमेरिका एक ही पंक्ति में खड़े होकर भारत को चुनौती देते नज़र आ रहे हैं इस लिहाज से देखा जय तो यह बिलकुल ठीक समय है जब ओसामा को मर जाना चाहिए था।
अहम सवाल तो यह भी है कि आखिर कब और कैसे बराक ओबामा मानवता के न्यायाधीश हो गए जब बराक ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति हुए थे तो यह अमेरिका में काले की लोकतान्त्रिक भागीदारी के रूप में देखा गया था। क्या ओबामा के इस फैसले से विश्व में कहीं भी लोकतन्त्र को बल मिलेगा इसका विश्लेषण किया जाना चाहिए। होना तो यह चाहिए था कि अमेरिका ओसामा ज़िंदा गिरफ्तार करता जो वह कर सकता था। और उसे कानूनी तरीके से सज़ा दी जाती। ताजा समाचारों के अनुसार ओबामा खुले आम घोषणा कर रहे हैं कि वारदात की तस्वीरें सार्वजनिक नहीं की जाएंगी यह घोषणा ओबामा किस हैसियत से कर रहे हैं? यह माना जा सकता है कि ओसामा बिन लादेन एक विश्व मुजरिम था (अगर अमेरिका का दावा सही है तो हालांकि वह सितंबर 11 के तरह ही इस बात के प्रमाण नहीं दे पाया है कि जो व्यक्ति मारा गया है वह वास्तव में ओसामा ही है और वास्तव में वही सितंबर 11 कि घटना के जिम्मेदार भी है और) तो क्या उसके अंत कि तस्वीरें देखने का हक़ पूरे विश्व को नहीं है? इस बारे में जो तर्क दिये जा रहे हैं तर्कों से ज़्यादा सांप्रदायिक बयान है जिसके अनुसार उन तसवीरों से एक धर्म विशेष के लोगों की भावनाएं आहत होंगी इस तरह के बयानों का विश्लेषण कर उसका खंडन करने के बजाय मीडिया इसके पक्ष में राय बनाने में जुट गया है यह स्थिति दुखद ही नहीं चिंता जनक है।
बात सिर्फ इतनी नहीं है कि ओसामा को कैसे मारा गया मूल बात यह है कि इस तरह प्रवृति से विश्व शांति को तो बढ़ावा नहीं ही मिलेगा बल्कि अलग अलग संदर्भों में सरकारी तानाशाही को बढ़ावा मिलेगा। जो लोकतन्त्र के लिए खतरनाक है। सम्पर्क-gunjeshkcc@gmail.com

04 मई 2011

ओसामा बिन लादेन की दूसरी मौत: एक नाटक की गंध

ओसामा बिन लादेन की हत्या की खबरें अनेक सवालों पर फिर से ध्यान खींचती हैं. इनमें सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या किसी भी देश को दूसरे देश में अवैध-अनैतिक-अमानवीय फौजी कार्रवाइयों का अधिकार है. ऐसे हमले के पीछे तर्क दिया जा रहा है कि लादेन, कथित तौर पर, उन हमलों के लिए जिम्मेदार था, जिनमें 3 हजार से अधिक लोगों की मौतें हुईं. इन हमलों और हमलावरों की वास्तविकताओं पर किये जानेवाले मजबूत संदेहों को छोड़ भी दें तब भी अगर बेगुनाह लोगों की हत्याओं का जिम्मेदार होना ही ऐसे हमलों के लिए वाजिब कारण है तब तो सारे हत्यारे बुशों और ओबामाओं को सैकड़ों बार गोलियों से मारना पड़ेगा. यूनियन कार्बाइड के मुखिया और भोपाल गैस जनसंहार में मारे गये बीसियों हजार लोगों और दो दशकों में इसकी पीड़ा अब भी भुगत रहे लाखों लोगों के अपराधी वारेन एंडरसन को किसने पनाह दी है ? उसे कौन बचा रहा है? 2009 से लेकर अब तक श्रीलंका में लाखों तमिल निवासियों के कत्लेआम के दोषी राजपक्षे की मदद किसने की और अब भी उसकी पीठ पर किसका हाथ है? विदर्भ में पिछले 15 वर्षों में 2.5 लाख से अधिक किसानों की (आत्म)हत्याओं के लिए जो (निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की) नीतियां जिम्मेदार हैं, उन्हें किसने बनाया और उन्हें कौन लागू कर रहा है? इराक में पिछले दो दशकों में प्रतिबंधों और युद्ध में जो 14 लाख 55 हजार से अधिक लोग मारे गये हैं, उनके लिए कौन जिम्मेदार है? पूरी दुनिया में लगातार युद्ध, प्रतिबंधों और सरकारी नीतियों के जरिए लोगों की जिंदगियों में संस्थागत हिंसा घोल रही साम्राज्यवादी नीतियां आखिर कौन लोग बनाते और थोपते हैं. अमेरिकी साम्राज्यवादी और उसके सहयोगी देश. इनके द्वारा की गयी हत्याएं 11 सितंबर को मारे गए लोगों की संख्या से सैकड़ों गुना अधिक हैं. इन्हें क्यों नहीं सजा मिलती? कब मिलेगी इन्हें सजा? फिर इन्हें क्या अधिकार है दूसरों को आतंकवादी कहने और मारने का?

इन सब सवालों के जवाब दुनिया की जनता खोज भी रही है और दे भी रही है. साम्राज्यवाद का ध्वस्त होना लाजिमी है. अपने इन हताशा में उठाये कदमों के जरिए ही वह अपने अंत के करीब भी आ रहा है. उसकी जीत का एक-एक जश्न, उसकी कामयाबी का एक-एक ऐलान उसकी कमजोरी और भावी अंत की ओर भी संकेत कर रहा है. ओसामा बिन लादेन की हत्या की खबर को भी इसी संदर्भ में देखना चाहिए. अमेरिकी अर्थशास्त्री, वाल स्ट्रीट जर्नल और बिजनेस वीक के पूर्व संपादक-स्तंभकार, अमेरिका की ट्रेजरी फॉर इकोनॉमिक पॉलिसी के सहायक सचिव पॉल क्रेग रॉबर्ट्स बता रहे हैं कि कैसे हत्या की इस खबर का सीधा संबंध विदेशी मुद्रा और व्यापार बाजार में डॉलर की पतली होती हालत और अमेरिकी अर्थव्यवस्था की डांवाडोल होती जा रही स्थिति से है. इन्फॉर्मेशन क्लियरिंग हाउस की पोस्ट. हाशिया का अनुवाद.


 अगर आज 2 मई के बजाय 1 अप्रैल होता तो हम ओसामा बिन लादेन के पाकिस्तान में मारे जाने और तत्काल समुद्र में बहा दिये जाने को अप्रैल फूल के दिन के मजाक के रूप में खारिज कर सकते थे. लेकिन इस घटना के निहितार्थों को समझते हुए हमे इसे इस बात के सबूत के रूप में लेना चाहिए कि अमेरिकी सरकार को अमेरिकियों की लापरवाही पर बेहद भरोसा है.

जरा सोचिए. एक आदमी जो कथित रूप से गुरदे की बीमारी से पीड़ित हो और जिसे साथ में डायबिटीज और लो ब्लड प्रेशर भी हो, और उसे डायलिसिस की जरूरत हो, उसकी एक दशक तक खुफिया पहाड़ी इलाकों में छुपे रह सकने की कितनी गुंजाईश है? अगर बिन लादेन अपने लिए जरूरी डायलिसिस के उपकरण और डाक्टरी देख-रेख जुटा लेने में कामयाब भी हो गया था तो क्या इन उपकरणों को जुटाने की कोशिशें इस बात का भंडाफोड़ नहीं कर देतीं कि वह वहां छुपा हुआ है? फिर उसे खोजने में दस साल कैसे लग गए?

बिन लादेन की मौत का जश्न मना रहे अमेरिकी मीडिया के दूसरे दावों के बारे में भी सोचें. उनका दावा है कि बिन लादेन ने अपने दसियों लाख रुपए खर्च करके सूडान, फिलीपीन्स, अफगानिस्तान में आतंकवादी प्रशिक्षण शिविर खड़े किए, ‘पवित्र लड़ाकुओं’ को उत्तरी अफ्रीका, चेचेन्या, ताजिकिस्तान और बोस्निया में कट्टरपंथी मुसलिम बलों के खिलाफ लड़ने और क्रांति भड़काने के लिए भेजा. इतने सारे कारनामे करने के लिए यह रकम तो ऊंट के मुंह में जीरे की तरह है (शायद अमेरिका को उसे पेंटागन का प्रभार सौंप देना चाहिए था), लेकिन असली सवाल है कि बिन लादेन अपनी रकम भेजने में सक्षम कैसे हुआ? कौन-सी बैंकिंग व्यवस्था उनकी मदद कर रही थी? अमेरिकी सरकार तो व्यक्तियों और पूरे के पूरे देशों की संपत्तियां जब्त करती रही है. लीबिया इसका सबसे हालिया उदाहरण है. तब बिन लादेन की संपत्ति क्यों जब्त नहीं की गयी? तो क्या वह 100 मिलियन डॉलर की अपनी रकम सोने के सिक्कों के रूप में लेकर चलता था और अपने अभियानों को पूरा करने के लिए दूतों के जरिए रकम भेजता था?

मुझे इस सुबह की सुर्खियों में एक नाटक की गंध आ रही है. यह गंध जीत के जश्न में डूबी अतिशयोक्तियों से भरी खबरों में से रिस रही है, जिनमें जश्न करते लोग झंडे लहरा रहे हैं और ‘अमेरिका-अमेरिका’ का मंत्र पढ़ रहे हैं. क्या ऐसी कोई घटना सचमुच हो रही है?

इसमें कोई संदेह नहीं है कि ओबामा को जीत की बेतहाशा जरूरत है. उन्होंने अफगानिस्तान में युद्ध को फिर से शुरू करके मूर्खतापूर्ण गलती की और अब एक दशक लंबी लड़ाई के बाद अमेरिका अगर हार नहीं रहा तो अपने आप को गतिरोध में फंसा हुआ जरूर पा रहा है. बुश और ओबामा के जंगी कार्यकालों ने अमेरिका का दिवाला निकाल दिया है. उसे भारी घाटे और डॉलर की पतली होती हालत का सामना करना पड़ रहा है. और फिर चुनाव भी धीरे-धीरे नजदीक आ रहे हैं.

पिछली अनेक सरकारों द्वारा ‘व्यापक संहार के हथियारों’ जैसे तरह-तरह के झूठों और हथकंडों का नतीजा अमेरिका और दुनिया के लिए बहुत भयानक रहा है. लेकिन सभी हथकंडे एक तरह के नहीं थे. याद रखें, अफगानिस्तान पर हमले की अकेली वजह बतायी गयी थी- बिन लादेन को पकड़ना. अब ओबामा ने ऐलान किया है कि बिन लादेन अमेरिकी विशेष बलों द्वारा एक आजाद देश में की गयी एक कार्रवाई में मारा गया है और उसे समुद्र में दफना दिया गया है, तो अब युद्ध को जारी रखने की कोई वजह नहीं रह गयी है.

शायद दुनिया के विदेश विनिमय बाजार में अमेरिकी डॉलर में भारी गिरावट ने कुछ वास्तविक बजट कटौतियों के लिए मजबूर किया है. यह सिर्फ तभी मुमकिन है जब अंतहीन युद्धों को रोका जाए. ऐसे में जानकारों की राय में बहुत पहले मर चुके ओसामा बिन लादेन को डॉलर के पूरी तरह धूल में लोट जाने से पहले एक उपयोगी हौवे के रूप में अमेरिकी फौजी और सुरक्षा गठजोड़ के मुनाफे के लिए इस्तेमाल किया गया.