31 मई 2011
एक दिन चींटियां ढूढ़ लाएंगी दुनिया के सबसे विलक्षण रहस्य को
29 मई 2011
बंद करो, बंद करो, बंद करो, यह विकास !
बस्तरिया मैना कंठ में उग आये कांटें
मस्त मगन अरना भैंसा थक कर के चूर हुआ
मैनपाट में ज़ल समाधि ले ली नदी ने
गहरी और छोटी वन मेखलाएँ जिनका अभी नाम भी नहीं पड़ा
पहली बार लादी गयीं नंगी कर रेलों में
सूर्य को देखे बिना बीत गयी जिनकी उमर
उन वन-वृक्षों की छालें उतारकर
रखी गयी गिरवी
घोटल समुदाय गृहों पर हुई नालिश
कैसी है आयी ऋतु अबकी बसंत में
अबकी वसंत में टेसू के लाल फूल
सुर्ख-सुर्ख रक्त चटख झन-झन कर बज उट्ठे
खून की होली जो खेली सरकार बेकरार ने
वृक्षों के पुरखों ने प्राणों की आहुति दी
प्रस्तर चट्टानों से शीश पटक धरती में दब गए
सब कुछ कुर्बान किया
मान दिया
निर्धन संततियों को दीं अपनी अस्थियां
लाखों बरस की इस संपदा की नीलामी होने को है अब
चतुर-चटुल पूंजीपति, पुरातत्ववेत्ता संग
दुनिया के नौवें धनी-मानी-अंबानी
वेदों के अंत के ठेकेदार, सब आये
छत्तिस सरदारों की बलिवेदी
आज तीर्थाटन की
बनी हुई पुण्यभूमि-पितृभूमि
आये सब कुशल-क्रूर, कर्मीं, कर्ता-धर्ता मुल्क के
अबकी वसंत में
लोकतंत्र की गाय के तोड़ दिए चारों पैर
नाक में नकेल डाल
उलट दिया
पथरीली धरती पर
कुहनियों से कोंचते हैं मंत्रीगण बार बार
बारी अब दुहने की आयी है
खौफ से भरी मां
कातर आवाज में बिन बछड़ा रंभाती रही
बां बां बां
सोचते हैं दूर तलक नज़र गाड़
चिदम्बरम, मनमोहन, मोंटेक, रमन सिंह
टेकेंगे कब घुटने वन-जंगल वासी ये
जैसे हो, जल्दी हो !
अबकी वसंत में
अपने ही शस्त्रों से अस्त्रों से
हत्या की इतनी पुरानी इबारत
जंगल की छाती पर कुरेद रही पुलिस-फौज
मीठी मुस्कान पगे पुलिस पति
मंत्री संग फोटो उतरवाने लगे
वृक्षों के चरणों को सीने से भींचकर
नदियों के बालू से अंतरतम सींचकर
कबीर वहीं बैठा है
तलवों में बिंधा है बहेलिये का आधा बाण
पीर की कोई आवाज ही नहीं आती
सहमा बारहसिंहा
बड़ी बड़ी आँखों में कातर अवरोह लिए ताक रहा.
नाश से डरे हुए जंगल ने उनके भीतर
रोप दीं अपनी सारी वनस्पतियां
आग न लग जाए कहीं, वन्ध्या न हो जाए धरती की कोख
सो, अकुलाई धरती ने शर्मो-हया का लिबास फेंक
जिस्म पर उकेरा खजाने का नक्शा
आँखों में लिख दिया पहाड़ों ने
अपनी हर परत के नीचे गड़ा गुप्त ज्ञान
कुबेर के कभी न भरने वाले रथ पर सवार हो
आये वे उन्मत्त आये
अबकी वसंत में
उतार रहे गर्दन.
अबकी वसंत में
हड़पी गयी ज़मीनों की मृत आत्माएं
छत्तिस सरदारों के कंधे पर हैं सवार
दम-साध
गोल बाँध
कदमताल करते अभुवाते हैं
छत्तिस सरदार
अपने जल जंगल जमीन बीच
नाचते बवंडर से
दिल्ली से रायपुर राजधानी एक्स प्रेस
के चक्कों को कंधा भिड़ा रोक रोक देते हैं
नोक गाड़ देते हैं, सर्वग्रासी विकास की छाती में
पर जीने की यही कला
दूर तलक काम नहीं आती है
सहम-सहम जाती है
रक्त सनी लाल लाल मट्टी
अबकी वसंत में
गोली के छर्रे संग बिखर गयी आत्मा
छत्तिस सरदारों की
छत्तिस कबीलों के छत्तिस हज़ार
महिलायें और पुरुष सब
एक दूसरे से टिकाये पीठ, भिडाये कंधा
हाथों में धनुष धार एकलव्य के वंशज
फंदा बनाते हैं पगलाए नागर-पशु-समुदाय की खातिर
मरना और मरना ही धंधा है इस नगरी
ठठरी की प्रत्यंचा देह पर चढाते हैं
बदले की आंच में हवा को सिंझाते हैं
दिल्ली तक
बंद करो !
बंद करो !
बंद करो !
यह विकास.
मृत्युंजय से mrityubodh@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है.
22 मई 2011
आफ्सपा आधी सदी बाद.
20 मई 2011
क्या पब्लिक सब जानती है?
18 मई 2011
शर्म गर उन्हें आती...
08 मई 2011
ओसामा की हत्या पर नोम चोम्स्की की प्रतिक्रिया
अमेरिका के अपराध नाजियों के अपराधों से भी बढ़ कर हैं
हम खुद से यह पूछ सकते हैं कि तब हमारी प्रतिक्रिया क्या होती, जब कोई ईराकी कमांडो जॉर्ज डब्ल्यू बुश के घर में घुस कर उनकी हत्या कर देता और उनकी लाश अटलांटिक में बहा देता.
06 मई 2011
खरबरदार होने पर पाबंदी
04 मई 2011
ओसामा बिन लादेन की दूसरी मौत: एक नाटक की गंध
इन सब सवालों के जवाब दुनिया की जनता खोज भी रही है और दे भी रही है. साम्राज्यवाद का ध्वस्त होना लाजिमी है. अपने इन हताशा में उठाये कदमों के जरिए ही वह अपने अंत के करीब भी आ रहा है. उसकी जीत का एक-एक जश्न, उसकी कामयाबी का एक-एक ऐलान उसकी कमजोरी और भावी अंत की ओर भी संकेत कर रहा है. ओसामा बिन लादेन की हत्या की खबर को भी इसी संदर्भ में देखना चाहिए. अमेरिकी अर्थशास्त्री, वाल स्ट्रीट जर्नल और बिजनेस वीक के पूर्व संपादक-स्तंभकार, अमेरिका की ट्रेजरी फॉर इकोनॉमिक पॉलिसी के सहायक सचिव पॉल क्रेग रॉबर्ट्स बता रहे हैं कि कैसे हत्या की इस खबर का सीधा संबंध विदेशी मुद्रा और व्यापार बाजार में डॉलर की पतली होती हालत और अमेरिकी अर्थव्यवस्था की डांवाडोल होती जा रही स्थिति से है. इन्फॉर्मेशन क्लियरिंग हाउस की पोस्ट. हाशिया का अनुवाद.
अगर आज 2 मई के बजाय 1 अप्रैल होता तो हम ओसामा बिन लादेन के पाकिस्तान में मारे जाने और तत्काल समुद्र में बहा दिये जाने को अप्रैल फूल के दिन के मजाक के रूप में खारिज कर सकते थे. लेकिन इस घटना के निहितार्थों को समझते हुए हमे इसे इस बात के सबूत के रूप में लेना चाहिए कि अमेरिकी सरकार को अमेरिकियों की लापरवाही पर बेहद भरोसा है.
जरा सोचिए. एक आदमी जो कथित रूप से गुरदे की बीमारी से पीड़ित हो और जिसे साथ में डायबिटीज और लो ब्लड प्रेशर भी हो, और उसे डायलिसिस की जरूरत हो, उसकी एक दशक तक खुफिया पहाड़ी इलाकों में छुपे रह सकने की कितनी गुंजाईश है? अगर बिन लादेन अपने लिए जरूरी डायलिसिस के उपकरण और डाक्टरी देख-रेख जुटा लेने में कामयाब भी हो गया था तो क्या इन उपकरणों को जुटाने की कोशिशें इस बात का भंडाफोड़ नहीं कर देतीं कि वह वहां छुपा हुआ है? फिर उसे खोजने में दस साल कैसे लग गए?
बिन लादेन की मौत का जश्न मना रहे अमेरिकी मीडिया के दूसरे दावों के बारे में भी सोचें. उनका दावा है कि बिन लादेन ने अपने दसियों लाख रुपए खर्च करके सूडान, फिलीपीन्स, अफगानिस्तान में आतंकवादी प्रशिक्षण शिविर खड़े किए, ‘पवित्र लड़ाकुओं’ को उत्तरी अफ्रीका, चेचेन्या, ताजिकिस्तान और बोस्निया में कट्टरपंथी मुसलिम बलों के खिलाफ लड़ने और क्रांति भड़काने के लिए भेजा. इतने सारे कारनामे करने के लिए यह रकम तो ऊंट के मुंह में जीरे की तरह है (शायद अमेरिका को उसे पेंटागन का प्रभार सौंप देना चाहिए था), लेकिन असली सवाल है कि बिन लादेन अपनी रकम भेजने में सक्षम कैसे हुआ? कौन-सी बैंकिंग व्यवस्था उनकी मदद कर रही थी? अमेरिकी सरकार तो व्यक्तियों और पूरे के पूरे देशों की संपत्तियां जब्त करती रही है. लीबिया इसका सबसे हालिया उदाहरण है. तब बिन लादेन की संपत्ति क्यों जब्त नहीं की गयी? तो क्या वह 100 मिलियन डॉलर की अपनी रकम सोने के सिक्कों के रूप में लेकर चलता था और अपने अभियानों को पूरा करने के लिए दूतों के जरिए रकम भेजता था?
मुझे इस सुबह की सुर्खियों में एक नाटक की गंध आ रही है. यह गंध जीत के जश्न में डूबी अतिशयोक्तियों से भरी खबरों में से रिस रही है, जिनमें जश्न करते लोग झंडे लहरा रहे हैं और ‘अमेरिका-अमेरिका’ का मंत्र पढ़ रहे हैं. क्या ऐसी कोई घटना सचमुच हो रही है?
इसमें कोई संदेह नहीं है कि ओबामा को जीत की बेतहाशा जरूरत है. उन्होंने अफगानिस्तान में युद्ध को फिर से शुरू करके मूर्खतापूर्ण गलती की और अब एक दशक लंबी लड़ाई के बाद अमेरिका अगर हार नहीं रहा तो अपने आप को गतिरोध में फंसा हुआ जरूर पा रहा है. बुश और ओबामा के जंगी कार्यकालों ने अमेरिका का दिवाला निकाल दिया है. उसे भारी घाटे और डॉलर की पतली होती हालत का सामना करना पड़ रहा है. और फिर चुनाव भी धीरे-धीरे नजदीक आ रहे हैं.
पिछली अनेक सरकारों द्वारा ‘व्यापक संहार के हथियारों’ जैसे तरह-तरह के झूठों और हथकंडों का नतीजा अमेरिका और दुनिया के लिए बहुत भयानक रहा है. लेकिन सभी हथकंडे एक तरह के नहीं थे. याद रखें, अफगानिस्तान पर हमले की अकेली वजह बतायी गयी थी- बिन लादेन को पकड़ना. अब ओबामा ने ऐलान किया है कि बिन लादेन अमेरिकी विशेष बलों द्वारा एक आजाद देश में की गयी एक कार्रवाई में मारा गया है और उसे समुद्र में दफना दिया गया है, तो अब युद्ध को जारी रखने की कोई वजह नहीं रह गयी है.
शायद दुनिया के विदेश विनिमय बाजार में अमेरिकी डॉलर में भारी गिरावट ने कुछ वास्तविक बजट कटौतियों के लिए मजबूर किया है. यह सिर्फ तभी मुमकिन है जब अंतहीन युद्धों को रोका जाए. ऐसे में जानकारों की राय में बहुत पहले मर चुके ओसामा बिन लादेन को डॉलर के पूरी तरह धूल में लोट जाने से पहले एक उपयोगी हौवे के रूप में अमेरिकी फौजी और सुरक्षा गठजोड़ के मुनाफे के लिए इस्तेमाल किया गया.