उन तक संसद में महिला आरक्षण की चर्चायें वर्षों बाद तक नही पहुंच पायेंगी और पहुंचने के कोई अर्थ भी नहीं, उन्हें शायद दिल्ली का नाम ही इसलिये पता है कि वहीं कहीं के आदेश पर सेना उनकी महिलाओं के स्तन काटने के लिये भेजी जाती है और दो वर्ष के बच्चों की उंगलिया भी, कहीं ये उंगलियाँ बड़ी होकर तीर चलाने लायक न हो जाय कि देश का भविष्य इन उंगलियों से असुरक्षित है. आस-पास जब हत्या या हत्या का भय इतना फैला हो जितना जंगल, तो जीने के लिये भूख मिटाने की भी जरूरत कितनी कम होती है. भय से उपजा क्रोध शरीर में सिथिलता नहीं आने देता. भूख से उनके मौत की ख़बर कितनी पीछे छूट गयी है, मलेरिया से हो रही मौतें और सूखे की तबाही दब सी गयी है. शिक्षा के बारे में बात करना कितना हास्यास्पद होगा जबकि स्कूल सेना के कैम्प बन चुके हैं.
२५ साल से एक पूरी आबादी ने इस तथाकथित सभ्य दुनिया से हत्या का दंश ही झेला है. जिस समाज को तुम पिछड़ा कहते हुए उसे मुख्य धारा में शामिल करना चाहते हो उसका पिछड़ापन क्या यही है कि वह अपनी संस्कृति को बचाना चाहता है, बाजार में नहीं ढालना चाहता, जबकि बाजार कोसों दूर रहते हुए उसे अपने दुकान पर ला रहा है. रायपुर की सड़कों पर बस्तर की नकली कलायें सजाइ जा रही हैं. एक महिला अपनी पीठ पर लकड़ी का गट्ठर और कांख में बच्चे को दबाये हुए जा रही है, तीर कमान लिये एक आदिवासी की निगाह कुछ ढूंढ़ रही है. जंगल से उनकी तमाम मुद्रायें तक उठा लाई गयी हैं. रायपुर की सड़कों पर क्या वे सच में इतनी सहज होंगी. यह सहजता उसी वक्त छीन ली गयी थी जब फूलोबाई को जलावन लकड़ी लाने के जुर्म में पीटा गया. जिस समाज के नकलीपन को लाकर राजधानी की सड़क पर खड़ा किया गया है, उसकी असली दुनिया को जलाकर कितना तबाह किया गया पिछले सालों में, कि खुद पता नहीं उन्हें जंगल में कितने ठिकाने बदलने पड़े. शान्ति अभियानों के झूठ शायद अब किसी से छुपे हुए नहीं रहे. वे गाँव, इतिहास लिखे जाने के इंतजार में हैं जिन्हें बार-बार जलाया गया, पहाड़ों में छुपाये गये जिनके अनाजों को इसलिये नष्ट किया गया कि लोगों को मजबूरन सरकारी कैम्पों पर निर्भर होना पड़े. अब जबकि वहाँ सेनायें कूच कर चुकी हैं और जंगलों को घेरा जा रहा है कितने चुप हैं अखबार सिवाय यह कहने के कि अंबानी दुनिया के पाँच सबसे धनी लोगों में शामिल हो गये हैं.
बस्तर के कोंडा, तुरपुरा और कनेरा गाँवों को छोड़कर जलधर, मनकू और पैतू अपनी कमसिन उम्र में ही रायपुर आ गये हैं, इनकी कुशलता इतनी ही है. बाकी ये इतने अकुशल हैं कि न्यूनतम मजदूरी का एक हिस्सा ही इन्हें मुनासिब हो पाता है. इन्हें न्यूनतम मजदूरी के बारे में कोई जानकारी नहीं यह उनके मजदूर बनने की शायद पहली पीढ़ी है जो इन बड़ी मशीनों के बीच अपने को सहज कर रही है. स्पंज आयरन की फैक्ट्रीयों से उड़ती धूल और जंगलों की हवाओं का फर्क इन्हें कितना सालता है, यह सोचने की मोहलत इन्हें नहीं ही मिल पाती होगी. बड़ी मशीनों के बीच इनके काम के घंटे भी बड़े हैं और बारह घंटे काम करने के बाद वक्त इतना ही बचता है कि उसे नींद साथ ही गुजारा जा सके. अपने रंग और गंध के साथ किसी भी बाहरी आदमी से इन्हें मिलने में संकोच है. सिलतरा की सैकड़ों फैक्ट्रीयों के अहाते के किसी कोने में इनकी झुग्गियाँ बना दी गयी हैं और ठेकेदारों के रहम-ओ-करम पर ये सब जीने को मजबूर हैं, बस्तर लौटने का खयाल इन्हें मजदूरी मिलने के साथ हर बार आता है और उनमे से कोई एक जाकर सबके हिस्से का थोड़ा-थोड़ा बस्तर ले आता है. इनके लिये अपना गाँव छोड़कर किसी दूसरे शहर जाना एक नयी शुरुआत है इससे पहले बस्तर ने न इन्हें छोड़ा था न इन्होंने बस्तर को, सूखे में जब छत्तीसगढ़ दूसरे राज्यों के ईंट भट्ठों पर होता, तब भी इस जिले के आदिवासियों कों जंगलों ने कहीं जाने से बचा लिया. यह आंकड़ा शायद कभी दर्ज नहीं किया जा सकेगा कि देश में बनाये गये कंक्रीट के मकानों में जो ईंट लगी है, देर तक जलने के बावजूद छत्तीसगढ़ी पसीने की महक उसमे बची हुई है.
तथाकथित सभ्य समाज ने अपनी पहचान के खिलाफ लड़ना छोड़ दिया और अब तो इनकी सभ्यता उस देश की सभ्यता में लगभग ढल चुकी है जो बर्बर युद्ध के जरिये दुनिया के तमाम देशों को लकतंत्र का पाठ पढ़ा रहा है. क्या आदिवासियों को सभ्य बनाने के लिये, उनके जमीन पर कब्जेदारी के लिये, देश की फौज द्वारा छेड़े गये गृहयुद्ध में कोई फर्क नजर आता है भले ही स्थानों का नाम इराक, अफगान या बस्तर हों.
२५ साल से एक पूरी आबादी ने इस तथाकथित सभ्य दुनिया से हत्या का दंश ही झेला है. जिस समाज को तुम पिछड़ा कहते हुए उसे मुख्य धारा में शामिल करना चाहते हो उसका पिछड़ापन क्या यही है कि वह अपनी संस्कृति को बचाना चाहता है, बाजार में नहीं ढालना चाहता, जबकि बाजार कोसों दूर रहते हुए उसे अपने दुकान पर ला रहा है. रायपुर की सड़कों पर बस्तर की नकली कलायें सजाइ जा रही हैं. एक महिला अपनी पीठ पर लकड़ी का गट्ठर और कांख में बच्चे को दबाये हुए जा रही है, तीर कमान लिये एक आदिवासी की निगाह कुछ ढूंढ़ रही है. जंगल से उनकी तमाम मुद्रायें तक उठा लाई गयी हैं. रायपुर की सड़कों पर क्या वे सच में इतनी सहज होंगी. यह सहजता उसी वक्त छीन ली गयी थी जब फूलोबाई को जलावन लकड़ी लाने के जुर्म में पीटा गया. जिस समाज के नकलीपन को लाकर राजधानी की सड़क पर खड़ा किया गया है, उसकी असली दुनिया को जलाकर कितना तबाह किया गया पिछले सालों में, कि खुद पता नहीं उन्हें जंगल में कितने ठिकाने बदलने पड़े. शान्ति अभियानों के झूठ शायद अब किसी से छुपे हुए नहीं रहे. वे गाँव, इतिहास लिखे जाने के इंतजार में हैं जिन्हें बार-बार जलाया गया, पहाड़ों में छुपाये गये जिनके अनाजों को इसलिये नष्ट किया गया कि लोगों को मजबूरन सरकारी कैम्पों पर निर्भर होना पड़े. अब जबकि वहाँ सेनायें कूच कर चुकी हैं और जंगलों को घेरा जा रहा है कितने चुप हैं अखबार सिवाय यह कहने के कि अंबानी दुनिया के पाँच सबसे धनी लोगों में शामिल हो गये हैं.
बस्तर के कोंडा, तुरपुरा और कनेरा गाँवों को छोड़कर जलधर, मनकू और पैतू अपनी कमसिन उम्र में ही रायपुर आ गये हैं, इनकी कुशलता इतनी ही है. बाकी ये इतने अकुशल हैं कि न्यूनतम मजदूरी का एक हिस्सा ही इन्हें मुनासिब हो पाता है. इन्हें न्यूनतम मजदूरी के बारे में कोई जानकारी नहीं यह उनके मजदूर बनने की शायद पहली पीढ़ी है जो इन बड़ी मशीनों के बीच अपने को सहज कर रही है. स्पंज आयरन की फैक्ट्रीयों से उड़ती धूल और जंगलों की हवाओं का फर्क इन्हें कितना सालता है, यह सोचने की मोहलत इन्हें नहीं ही मिल पाती होगी. बड़ी मशीनों के बीच इनके काम के घंटे भी बड़े हैं और बारह घंटे काम करने के बाद वक्त इतना ही बचता है कि उसे नींद साथ ही गुजारा जा सके. अपने रंग और गंध के साथ किसी भी बाहरी आदमी से इन्हें मिलने में संकोच है. सिलतरा की सैकड़ों फैक्ट्रीयों के अहाते के किसी कोने में इनकी झुग्गियाँ बना दी गयी हैं और ठेकेदारों के रहम-ओ-करम पर ये सब जीने को मजबूर हैं, बस्तर लौटने का खयाल इन्हें मजदूरी मिलने के साथ हर बार आता है और उनमे से कोई एक जाकर सबके हिस्से का थोड़ा-थोड़ा बस्तर ले आता है. इनके लिये अपना गाँव छोड़कर किसी दूसरे शहर जाना एक नयी शुरुआत है इससे पहले बस्तर ने न इन्हें छोड़ा था न इन्होंने बस्तर को, सूखे में जब छत्तीसगढ़ दूसरे राज्यों के ईंट भट्ठों पर होता, तब भी इस जिले के आदिवासियों कों जंगलों ने कहीं जाने से बचा लिया. यह आंकड़ा शायद कभी दर्ज नहीं किया जा सकेगा कि देश में बनाये गये कंक्रीट के मकानों में जो ईंट लगी है, देर तक जलने के बावजूद छत्तीसगढ़ी पसीने की महक उसमे बची हुई है.
तथाकथित सभ्य समाज ने अपनी पहचान के खिलाफ लड़ना छोड़ दिया और अब तो इनकी सभ्यता उस देश की सभ्यता में लगभग ढल चुकी है जो बर्बर युद्ध के जरिये दुनिया के तमाम देशों को लकतंत्र का पाठ पढ़ा रहा है. क्या आदिवासियों को सभ्य बनाने के लिये, उनके जमीन पर कब्जेदारी के लिये, देश की फौज द्वारा छेड़े गये गृहयुद्ध में कोई फर्क नजर आता है भले ही स्थानों का नाम इराक, अफगान या बस्तर हों.
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