जिंदगी की कीमतें रुपयों से नहीं चुकायी जा सकती। चाहे वह 40 लाख हो या उससे भी अधिक। आदिवासियों की जिंदगी की भी और सेना के जवानों की भी। न ही किसी की जिंदगी को कम करके आंका जा सकता है – पर यह होता रहा है। स्थान, व्यक्ति, वर्ग के लिहाज से घटनाओं की महत्ता कम या ज्यादा हो ही जाती है। यही विभेद है। ये वर्गीय विषमता की मानसिकता व वर्गीय संरचना की निष्पत्तियां हैं। जहां एक आदिवासी की जिंदगी, एक जवान की जिंदगी, एक नेता की जिंदगी और एक कॉर्पोरेट की जिंदगी, सबकी जिंदगियां अलग-अलग अहमियत रखती हैं चूंकि इनके काम स्तरीकृत हैं, उच्च और निम्न आधारों पर, कुछ-कुछ चतुर्वर्णीय व्यवस्था जैसा ही लगता है, हमारा लोकतंत्र भी।
ग्रीनहंट ऑपरेशन के दौरान दांतेवाड़ा में “शहीद” हुए 76 जवान और छह महीने में “मारे” गये 170 आदिवासी, जिनमें माओवादी भी शामिल हैं – इसके पीछे की वजह हमें तलाशनी होगी। जबकि इस घटना के बाद सरकार युद्ध की भाषा बोलने लगी है। क्योंकि किन्हीं भी आधारों पर यह देश के मानव संसाधन व आर्थिक संसाधन की क्षति का ही मामला बनता है और अपने ही लोगों के खिलाफ युद्ध, जो अघोषित रूप से जारी था, जिसे घोषित करने की मनोदशा में सरकार दिख रही है, अलोकतांत्रिक है।
जब भी यह कहा जाता है कि आदिवासी मारे जा रहे हैं, तो मानवाधिकार कार्यकर्ता व अन्य सामाजिक संगठनों के लोगों की आवाजें सरकार के खिलाफ निश्चित तौर पर बुलंद हो जाती है और आम जनमानस की भी यही धारणा बन चुकी है – पर माओवादियों का मारा जाना सहज है। मीडिया के लिए भी, मानवाधिकार व सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए भी और उन लोगों के लिए भी, जो इन जंगलों से दूर हैं यानी हम सबके लिए। दरअसल इस पूरी प्रक्रिया में माओवादी अछूत की तरह हैं। बीते जमाने के वे अछूत जिन पर किसी तरह की प्रताड़ना, प्रताड़ना के दायरे से बाहर थी। जवानों का मारा जाना दुखद है। आदिवासियों का मारा जाना भी दुखद है। पर अगर आदिवासी ही माओवादी हों तो, जो कि है भी आदिवासियों का सशस्त्रीकरण व राजनीतिकरण ही उनका माओवादी होना है। पर माओवादियों पर जब भी बात होती है तो वह इस रूप में कि वे देश के भूभाग से कहीं बाहर की कोई प्रजाति हैं। जबकि ग्रीनहंट में मारे गये व पिछले कुछ वर्षों में चलाये गये तमाम अभियानों में जिन माओवादियों को निशाना बनाया गया है उनमें अधिकांश आदिवासी ही हैं। तो क्या अंततः आदिवासियों का ही कत्लेआम हो रहा है? यह एक कठिन सवाल है, जिसके उत्तर एक घटना को केंद्र में रख कर नहीं तलाशे जा सकते बल्कि पिछले 60 वर्षों के इतिहास का पन्ना हमें पलटना ही पड़ेगा। यदि इतना पीछे न भी जाएं तो 1990 के बाद जो आर्थिक सुधार हुए, उन सुधारों की खामियां हमे जरूर पहचाननी पड़ेगी। अब सवाल आदिवासियों के मारे जाने का नहीं, माओवादियों के मारे जाने का नहीं बल्कि आदिवासियों के माओवादी बनने की प्रक्रिया का है। क्योंकि माओवादियों का मारा जाना उन आदिवासियों का मारा जाना है जिन्होंने शस्त्र उठा लिये हैं, जिन्होंने अपने क्षेत्र में अपनी सरकारें बना ली हैं, भारत सरकार से अलग, जिन्हें उन लाखों आदिवासियों का समर्थन प्राप्त है जो जंगलों में रहते हैं और मूलभूत सुविधाओं से वंचित रह गये हैं। यह अलग सरकार का चुनाव, अलग संरचना का निर्माण, ठीक वैसा ही है जैसा कि हम संसद को चुनते हैं, जैसा हमारे सांसदों को हमारा समर्थन प्राप्त है, दोनों की प्रणालियां कार्य करने के तरीके में फर्क हो सकता है पर शायद इसमे कोई फर्क नहीं दिखता कि सरकार वही चला रहा है, जिसका जनता समर्थन कर रही है। दंडकारण्य में भी और दिल्ली में भी। बावजूद इसके कि सरकार चलाने के तौर तरीके अलग-अलग हैं। मसलन पानी पीने के लिए वे तालाब खोदते हैं, कुंए खोदते हैं, तो हमारी सरकार एक और बोतलबंद पानी की कंपनी खोल देती है।
ऐसे में समस्या एक संप्रभु राष्ट्र में दो समानांतर सरकारों के होने का है, जो एक दूसरे को अमान्य घोषित कर रही हैं और शायद संघर्ष भी इसी बात का है। यह राज्य की वैधता की लड़ाई बन गयी है। वहां के आदिवासी भारत सरकार को वैध मानने से इनकार कर रहे हैं। भारत सरकार उनके द्वारा बनायी “जनताना सरकार” को। और खतरा इसी बात का है, जिसे सरकार सबसे बड़ा मान रही है कि यदि यही भ्रूण अलग-अलग हिस्सों में निर्मित होता गया, लोग सरकार से असंतुष्ट हो अपनी सरकारें बनाते गये, अपनी संरचना बनाते गये तो यह भारत राष्ट्र और संसदीय लोकतंत्र के अस्तित्व के लिए खतरा होगा। संसदीय लोकतंत्र के लिए माओवादियों के शस्त्र उठाने से ज्यादा खतरा उस संरचना से है, जो वे निर्मित करते जा रहे हैं या जिसे उन्होंने मुक्त क्षेत्र में निर्मित कर रखा है।
1980 से लेकर अब तक भारत सरकार द्वारा अलग-अलग तरीके से कई प्रयास किये जा चुके हैं, विकास की योजनाएं चलाकर, सैन्य अभियान चलाकर, शांति अभियान “सलवा-जुडुम” के जरिये और अब ग्रीन हंट आपरेशन। ये अभियान एक तरफ तो विफल हुए हैं, दूसरी तरफ आदिवासी और भी सशस्त्रीकृत हुए हैं। भारतीय सेना जितने विकसित तकनीक के शस्त्रों का प्रयोग करती है, उनसे छीनकर ये भी अपने को समृद्ध बनाते गये हैं। आखिर इन अभियानों की विफलताओं के क्या कारण रहे हैं, क्या नये अभियान चलाने से पूर्व इन विफल अभियानों का ठीक-ठीक मूल्यांकन किया गया? शायद नहीं। यदि किया गया होता तो आदिवासियों का सशस्त्रीकरण और न बढ़ता जो सलवा जुड़ुम जैसे बर्बर अभियानों के बाद और भी बढ़ा। इन कार्यवाहियों ने आदिवासियों को और भी असुरक्षित बनाया व सुरक्षित होने के लिए और भी ज्यादा शस्त्रीकृत होने पर मजबूर किया। उन पर की गयी क्रूरताओं ने उनमें और भी ज्यादा असंतोष पैदा किये। अपने ऊपर हुए जुल्मों से वे और भी उग्र हुए। इसी उग्रता को सरकार ने उग्रवादी करार दिया। क्या उनका उग्र होना नाजायज था? अगर किसी आदिवासी परिवार ने किसी माओवादी को खाना खिला दिया, रास्ता बता दिया, तो इसके लिए उस परिवार के सदस्यों को पीटा जाना या उनके घर जला देना कहां तक जायज है?
यही वे कार्यपद्धतियां रही हैं, जिन्होंने आदिवासियों के मन में सरकार के प्रति असंतोष पैदा किये और माओवादियों से उनकी निकटता बनती गयी। क्योंकि माओवादी उनके जीवन की मूलभूत चीजों, रोजगार और तेंदू पत्ता की कीमतों, खेती की उनकी जमीनों व अन्य संसाधनों को मुहैया कराने व व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए एक संरचना, संघर्ष के साथ विकसित करते गये। उनके लिए एक अलग ढांचा विकसित किया जो सरकार के ढांचे से अलग जंगल की परिस्थितियों के अनुकूल था। न्यायिक व्यवस्था, सुरक्षा समिति, कृषक समिति आदि। इस ढांचे ने आदिवासियों में माओवादियों के प्रति विश्वास पैदा किया। माओवादी और आदिवासी पानी में मछली इसी तरह हुए, जिसे वे स्वीकार करते हैं। जिसमें सरकार विफल रही क्योंकि सरकार जिस तरह का विकास चाहती थी, उसके पैमाने अलग थे और आदिवासियों को उनकी परिस्थिति के मुताबिक अस्वीकार थे। टाटा और एस्सार के लिए लाखों आदिवासियों को अपने घर से विस्थापित होना अस्वीकार था और सरकार विकास के नाम पर यही कर रही थी। आदिवासी समाज का विकास निश्चित तौर पर इन कंपनियों की स्थापना से नहीं होना है, बल्कि यह उनके शोषण की एक और कुंजी ही बनेगी, उनकी जिंदगी में और भी खलल बढ़ेगा। वर्षों पूर्व की उनकी संस्कृति को यह नष्ट ही करेगी और इन सबके लिए आदिवासी समाज तैयार नहीं है।
आदिवासियों का विश्वास जीतने के बजाय उन पर क्रूर कार्यवाहियां की जा रही हैं। जिस दिन दंतेवाड़ा में 76 जवानों को मारा गया, उसके एक दिन पहले ही दंतेवाड़ा के तोंगपाल थाना के सिदुरवाड़ा गांव में 26 आदिवासी महिलाओं को जगदलपुर से आये कोबरा बटालियन के 200 जवानों ने पीटा, जिसमें महिलाओं के हाथ तक टूट गये। जबकि इन महिलाओं का दोष यह था कि जब कुछ ग्रामीणों को नक्सली समर्थक बताकर जवान ले जाने लगे तो इसका इन महिलाओं ने विरोध किया। क्या इन कार्यप्रणालियों से सरकार आदिवासियों में विश्वास पैदा कर सकती है। दमित बनाकर वह उन पर शासन जरूर कर सकती है पर यह गैरलोकतांत्रिक संरचना का ही हिस्सा होगा बल्कि यह आदिवासियों को सरकार के खिलाफ ही खड़ा करेगा। वहीं दूसरी तरफ माओवादियों ने आदिवासियों में इस विश्वास को इस हद तक अर्जित किया कि उन्होंने जिस मुक्त क्षेत्र का निर्माण किया, उसकी सुरक्षा के लिए आदिवासी शस्त्र लेकर अवैतनिक कार्य करने लगे। जैसे यह उनके अपने राज्य, उनकी अपनी जमीन व जमीन की रक्षा का मसला हो। निश्चित तौर पर यह एक सामुदायिक चेतना के तहत ही संभव था।
भारत सरकार रक्षा बजट पर सर्वाधिक खर्च करती है और आज भी यह स्थिति नहीं है कि वह अवैतनिक सेवा देश की जनता से ले सके। कारण कि जनता को यह महसूस होना ही चाहिए कि देश उसका उतना ही अपना है, जितना किसी नेता का। जितना प्रधानमंत्री का। जितना व्यवसायियों का। पर क्या उन्हें यह महसूस हो पाता है? क्या न्यायिक व्यवस्था में उन्हें बराबरी का न्याय मिल पता है? शायद नहीं। लिहाजा यह मामला सरकार की कार्यपद्धति के साथ उसकी संरचना से निर्मित हो रहा है। जहां सरकार एक बड़े वर्ग को बेहतर संरचना देने में असफल हुई है।
ग्रीनहंट जैसे ऑपरेशन या वायुसेना के प्रयोग से इस समस्या का समाधान संभव नहीं दिखता। सिवाय इसके कि बड़ी और बड़ी संख्या में आदिवासियों का कत्लेआम ही होगा, और प्रतिरोध के तौर पर सेना के जवानों के भी क्षत-विक्षत होने की संभावना बनती है। इस तरह की दमनपूर्ण कार्यवाहियों के बजाय सरकार को आदिवासियों की मूल समस्या को उनकी जमीनी हकीकत के मुताबिक चिन्हित करना होगा और वहां पर विकास की उन योजनाओं को चलाना होगा जो आदिवासियों के जीवन से सीधे तौर पर जुड़ी हुई हैं। मसलन वहां की स्वास्थ्य सेवाओं को बहाल करना होगा, स्कूल को सेना का कैंप बनाने के बजाय वहां शिक्षकों की नियुक्ति कर शिक्षा का बेहतर प्रबंध करना होगा ताकि वह विश्वास आदिवासियों में अर्जित किया जा सके जो कि माओवादियों ने अर्जित किया है। ♦ चंद्रिका
ग्रीनहंट ऑपरेशन के दौरान दांतेवाड़ा में “शहीद” हुए 76 जवान और छह महीने में “मारे” गये 170 आदिवासी, जिनमें माओवादी भी शामिल हैं – इसके पीछे की वजह हमें तलाशनी होगी। जबकि इस घटना के बाद सरकार युद्ध की भाषा बोलने लगी है। क्योंकि किन्हीं भी आधारों पर यह देश के मानव संसाधन व आर्थिक संसाधन की क्षति का ही मामला बनता है और अपने ही लोगों के खिलाफ युद्ध, जो अघोषित रूप से जारी था, जिसे घोषित करने की मनोदशा में सरकार दिख रही है, अलोकतांत्रिक है।
जब भी यह कहा जाता है कि आदिवासी मारे जा रहे हैं, तो मानवाधिकार कार्यकर्ता व अन्य सामाजिक संगठनों के लोगों की आवाजें सरकार के खिलाफ निश्चित तौर पर बुलंद हो जाती है और आम जनमानस की भी यही धारणा बन चुकी है – पर माओवादियों का मारा जाना सहज है। मीडिया के लिए भी, मानवाधिकार व सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए भी और उन लोगों के लिए भी, जो इन जंगलों से दूर हैं यानी हम सबके लिए। दरअसल इस पूरी प्रक्रिया में माओवादी अछूत की तरह हैं। बीते जमाने के वे अछूत जिन पर किसी तरह की प्रताड़ना, प्रताड़ना के दायरे से बाहर थी। जवानों का मारा जाना दुखद है। आदिवासियों का मारा जाना भी दुखद है। पर अगर आदिवासी ही माओवादी हों तो, जो कि है भी आदिवासियों का सशस्त्रीकरण व राजनीतिकरण ही उनका माओवादी होना है। पर माओवादियों पर जब भी बात होती है तो वह इस रूप में कि वे देश के भूभाग से कहीं बाहर की कोई प्रजाति हैं। जबकि ग्रीनहंट में मारे गये व पिछले कुछ वर्षों में चलाये गये तमाम अभियानों में जिन माओवादियों को निशाना बनाया गया है उनमें अधिकांश आदिवासी ही हैं। तो क्या अंततः आदिवासियों का ही कत्लेआम हो रहा है? यह एक कठिन सवाल है, जिसके उत्तर एक घटना को केंद्र में रख कर नहीं तलाशे जा सकते बल्कि पिछले 60 वर्षों के इतिहास का पन्ना हमें पलटना ही पड़ेगा। यदि इतना पीछे न भी जाएं तो 1990 के बाद जो आर्थिक सुधार हुए, उन सुधारों की खामियां हमे जरूर पहचाननी पड़ेगी। अब सवाल आदिवासियों के मारे जाने का नहीं, माओवादियों के मारे जाने का नहीं बल्कि आदिवासियों के माओवादी बनने की प्रक्रिया का है। क्योंकि माओवादियों का मारा जाना उन आदिवासियों का मारा जाना है जिन्होंने शस्त्र उठा लिये हैं, जिन्होंने अपने क्षेत्र में अपनी सरकारें बना ली हैं, भारत सरकार से अलग, जिन्हें उन लाखों आदिवासियों का समर्थन प्राप्त है जो जंगलों में रहते हैं और मूलभूत सुविधाओं से वंचित रह गये हैं। यह अलग सरकार का चुनाव, अलग संरचना का निर्माण, ठीक वैसा ही है जैसा कि हम संसद को चुनते हैं, जैसा हमारे सांसदों को हमारा समर्थन प्राप्त है, दोनों की प्रणालियां कार्य करने के तरीके में फर्क हो सकता है पर शायद इसमे कोई फर्क नहीं दिखता कि सरकार वही चला रहा है, जिसका जनता समर्थन कर रही है। दंडकारण्य में भी और दिल्ली में भी। बावजूद इसके कि सरकार चलाने के तौर तरीके अलग-अलग हैं। मसलन पानी पीने के लिए वे तालाब खोदते हैं, कुंए खोदते हैं, तो हमारी सरकार एक और बोतलबंद पानी की कंपनी खोल देती है।
ऐसे में समस्या एक संप्रभु राष्ट्र में दो समानांतर सरकारों के होने का है, जो एक दूसरे को अमान्य घोषित कर रही हैं और शायद संघर्ष भी इसी बात का है। यह राज्य की वैधता की लड़ाई बन गयी है। वहां के आदिवासी भारत सरकार को वैध मानने से इनकार कर रहे हैं। भारत सरकार उनके द्वारा बनायी “जनताना सरकार” को। और खतरा इसी बात का है, जिसे सरकार सबसे बड़ा मान रही है कि यदि यही भ्रूण अलग-अलग हिस्सों में निर्मित होता गया, लोग सरकार से असंतुष्ट हो अपनी सरकारें बनाते गये, अपनी संरचना बनाते गये तो यह भारत राष्ट्र और संसदीय लोकतंत्र के अस्तित्व के लिए खतरा होगा। संसदीय लोकतंत्र के लिए माओवादियों के शस्त्र उठाने से ज्यादा खतरा उस संरचना से है, जो वे निर्मित करते जा रहे हैं या जिसे उन्होंने मुक्त क्षेत्र में निर्मित कर रखा है।
1980 से लेकर अब तक भारत सरकार द्वारा अलग-अलग तरीके से कई प्रयास किये जा चुके हैं, विकास की योजनाएं चलाकर, सैन्य अभियान चलाकर, शांति अभियान “सलवा-जुडुम” के जरिये और अब ग्रीन हंट आपरेशन। ये अभियान एक तरफ तो विफल हुए हैं, दूसरी तरफ आदिवासी और भी सशस्त्रीकृत हुए हैं। भारतीय सेना जितने विकसित तकनीक के शस्त्रों का प्रयोग करती है, उनसे छीनकर ये भी अपने को समृद्ध बनाते गये हैं। आखिर इन अभियानों की विफलताओं के क्या कारण रहे हैं, क्या नये अभियान चलाने से पूर्व इन विफल अभियानों का ठीक-ठीक मूल्यांकन किया गया? शायद नहीं। यदि किया गया होता तो आदिवासियों का सशस्त्रीकरण और न बढ़ता जो सलवा जुड़ुम जैसे बर्बर अभियानों के बाद और भी बढ़ा। इन कार्यवाहियों ने आदिवासियों को और भी असुरक्षित बनाया व सुरक्षित होने के लिए और भी ज्यादा शस्त्रीकृत होने पर मजबूर किया। उन पर की गयी क्रूरताओं ने उनमें और भी ज्यादा असंतोष पैदा किये। अपने ऊपर हुए जुल्मों से वे और भी उग्र हुए। इसी उग्रता को सरकार ने उग्रवादी करार दिया। क्या उनका उग्र होना नाजायज था? अगर किसी आदिवासी परिवार ने किसी माओवादी को खाना खिला दिया, रास्ता बता दिया, तो इसके लिए उस परिवार के सदस्यों को पीटा जाना या उनके घर जला देना कहां तक जायज है?
यही वे कार्यपद्धतियां रही हैं, जिन्होंने आदिवासियों के मन में सरकार के प्रति असंतोष पैदा किये और माओवादियों से उनकी निकटता बनती गयी। क्योंकि माओवादी उनके जीवन की मूलभूत चीजों, रोजगार और तेंदू पत्ता की कीमतों, खेती की उनकी जमीनों व अन्य संसाधनों को मुहैया कराने व व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए एक संरचना, संघर्ष के साथ विकसित करते गये। उनके लिए एक अलग ढांचा विकसित किया जो सरकार के ढांचे से अलग जंगल की परिस्थितियों के अनुकूल था। न्यायिक व्यवस्था, सुरक्षा समिति, कृषक समिति आदि। इस ढांचे ने आदिवासियों में माओवादियों के प्रति विश्वास पैदा किया। माओवादी और आदिवासी पानी में मछली इसी तरह हुए, जिसे वे स्वीकार करते हैं। जिसमें सरकार विफल रही क्योंकि सरकार जिस तरह का विकास चाहती थी, उसके पैमाने अलग थे और आदिवासियों को उनकी परिस्थिति के मुताबिक अस्वीकार थे। टाटा और एस्सार के लिए लाखों आदिवासियों को अपने घर से विस्थापित होना अस्वीकार था और सरकार विकास के नाम पर यही कर रही थी। आदिवासी समाज का विकास निश्चित तौर पर इन कंपनियों की स्थापना से नहीं होना है, बल्कि यह उनके शोषण की एक और कुंजी ही बनेगी, उनकी जिंदगी में और भी खलल बढ़ेगा। वर्षों पूर्व की उनकी संस्कृति को यह नष्ट ही करेगी और इन सबके लिए आदिवासी समाज तैयार नहीं है।
आदिवासियों का विश्वास जीतने के बजाय उन पर क्रूर कार्यवाहियां की जा रही हैं। जिस दिन दंतेवाड़ा में 76 जवानों को मारा गया, उसके एक दिन पहले ही दंतेवाड़ा के तोंगपाल थाना के सिदुरवाड़ा गांव में 26 आदिवासी महिलाओं को जगदलपुर से आये कोबरा बटालियन के 200 जवानों ने पीटा, जिसमें महिलाओं के हाथ तक टूट गये। जबकि इन महिलाओं का दोष यह था कि जब कुछ ग्रामीणों को नक्सली समर्थक बताकर जवान ले जाने लगे तो इसका इन महिलाओं ने विरोध किया। क्या इन कार्यप्रणालियों से सरकार आदिवासियों में विश्वास पैदा कर सकती है। दमित बनाकर वह उन पर शासन जरूर कर सकती है पर यह गैरलोकतांत्रिक संरचना का ही हिस्सा होगा बल्कि यह आदिवासियों को सरकार के खिलाफ ही खड़ा करेगा। वहीं दूसरी तरफ माओवादियों ने आदिवासियों में इस विश्वास को इस हद तक अर्जित किया कि उन्होंने जिस मुक्त क्षेत्र का निर्माण किया, उसकी सुरक्षा के लिए आदिवासी शस्त्र लेकर अवैतनिक कार्य करने लगे। जैसे यह उनके अपने राज्य, उनकी अपनी जमीन व जमीन की रक्षा का मसला हो। निश्चित तौर पर यह एक सामुदायिक चेतना के तहत ही संभव था।
भारत सरकार रक्षा बजट पर सर्वाधिक खर्च करती है और आज भी यह स्थिति नहीं है कि वह अवैतनिक सेवा देश की जनता से ले सके। कारण कि जनता को यह महसूस होना ही चाहिए कि देश उसका उतना ही अपना है, जितना किसी नेता का। जितना प्रधानमंत्री का। जितना व्यवसायियों का। पर क्या उन्हें यह महसूस हो पाता है? क्या न्यायिक व्यवस्था में उन्हें बराबरी का न्याय मिल पता है? शायद नहीं। लिहाजा यह मामला सरकार की कार्यपद्धति के साथ उसकी संरचना से निर्मित हो रहा है। जहां सरकार एक बड़े वर्ग को बेहतर संरचना देने में असफल हुई है।
ग्रीनहंट जैसे ऑपरेशन या वायुसेना के प्रयोग से इस समस्या का समाधान संभव नहीं दिखता। सिवाय इसके कि बड़ी और बड़ी संख्या में आदिवासियों का कत्लेआम ही होगा, और प्रतिरोध के तौर पर सेना के जवानों के भी क्षत-विक्षत होने की संभावना बनती है। इस तरह की दमनपूर्ण कार्यवाहियों के बजाय सरकार को आदिवासियों की मूल समस्या को उनकी जमीनी हकीकत के मुताबिक चिन्हित करना होगा और वहां पर विकास की उन योजनाओं को चलाना होगा जो आदिवासियों के जीवन से सीधे तौर पर जुड़ी हुई हैं। मसलन वहां की स्वास्थ्य सेवाओं को बहाल करना होगा, स्कूल को सेना का कैंप बनाने के बजाय वहां शिक्षकों की नियुक्ति कर शिक्षा का बेहतर प्रबंध करना होगा ताकि वह विश्वास आदिवासियों में अर्जित किया जा सके जो कि माओवादियों ने अर्जित किया है। ♦ चंद्रिका
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