12 अप्रैल 2010

दंतेवाड़ा से भोथरी होती संवेदना

दंतेवाड़ा में ऑपरेशन ग्रीन हंट को अंजाम देने निकले सीआरपीएफ के 75जवानों का माओवादी हमले में मारा जाना माओवादियों पर भारी पड़ने वाला है. गृहमंत्री पी चिदंबरम अब सवाल करने पर यह बता रहे हैं कि वे छत्तीसगढ़ के उस हिस्से में वायु सेना का इस्तेमाल नहीं करने के बारे में पुनर्विचार करेंगे.

इससे घटना से दो दिन पहले लालगढ़ में जब पी चिदंबरम माओवादियों को कायर बता रहे थे ठीक उसी दिन माओवादियों ने उड़ीसा में सुरक्षा बल के दस जवानों को मार डाला. अब इस बड़े हमले को कई लोग चिदंबरम के कहे का जवाब मान रहे हैं. लेकिन ऐसा मान लेना मुश्किल लगता है कि माओवादियों ने सीआरपीएफ के एक बटालियन को इसलिए उड़ाया क्योंकि उन्हें गृहमंत्री का जवाब देना था. सवाल-जवाब की स्थिति तब बनती है जब एक प्लेटफार्म पर बैठकर बात की जाए. लालगढ़ के इस घोषणा से गृहमंत्रालय राजनीतिक लाभ की स्थिति में आना चाहती थी कि उसने अपनी तरफ से बातचीत की छूट दे रखी है और माओवादी कायर की तरह दुबके हुए है और यह भी कि कायरता के मारे दुबकना किसी डर का परिणाम नहीं है बल्कि वे लोकतांत्रिक स्पेस का उपयोग करना ही नहीं चाहते. पिछले कुछ दिनों में गृहमंत्रालय की तरफ़ से बातचीत करने की घोषणा को तमाम जगहों से दोहराया गया है. ख़बर यहां तक आई थी कि माओवादी महाश्वेता देवी और अरुंधति राय की मध्यस्थता में बातचीत करने को तैयार है. फिर ये उपक्रम पार्श्व में चले गए और कहीं पुलिस ने माओवादियों को गोली मारी तो कहीं माओवादियों ने पुलिस कैंप को जलाया और रेल की पटरी उड़ाई. ऐसे में गृहमंत्री ने लालगढ़ से पुनः बातचीत का प्रस्ताव रखा. माओवादियों ने बातचीत के लिए सरकार से यह अपील की थी कि पहले उन इलाकों से सशस्त्र बल हटाएं जाए जहां माओवादी सक्रिय है ताकि वे आश्वस्त हो सके कि यह वाकई एक ईमानदार पहल है. इस घोषणा के बाद दो-तीन दिनों के लिए युद्धविराम की स्थिति बनी थी लेकिन अर्धसैनिक बलों और पुलिस को उन इलाकों से नहीं हटाया गया जिसकी मांग की जा रही थी. इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता कि दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ के जवान माओवादी उन्मूलन के लिए ही गए थे. गृहमंत्री एक तरफ बातचीत की पहल करते है और दूसरी तरफ अर्धसैनिक बल की टुकड़ियों को जंगल में भेजते है कि जिनसे बातचीत करनी है उनकी संख्या को न्यून कर दिया जाए. सीआरपीएफ पर हुए हमले के बाद गृहमंत्री कह रहे हैं कि बातचीत अब बेमानी है. माओवादियों की यह स्पष्ट मांग है कि बातचीत तब तक नहीं की जा सकती जब तक पुलिस की तरफ से हमला (या हमले का प्रयास) बंद नहीं किया जाता. सरकार ने माओवादियों के इस मांग को नहीं माना. ऑपरेशन ग्रीन हंट पर सरकार पहले चुप्पी साधे रही लेकिन जब धीरे-धीरे मामला स्पष्ट होने लगा तो कई जगहों पर ऐसे संभावित ऑपरेशन को आंतरिक सुरक्षा के लिए ज़रूरी बताते हुए कुछ सरकारी नुमाइंदों ने इसके पक्ष में सहमति जताई.

दंतेवाड़ा में अगर सीआरपीएफ के जवानों को माओवादी नहीं मारते तो बहुत संभव है कि ख़बर इसके उलट होती और देश भर में ’आंतरिक सुरक्षा के सबसे बड़े ख़तरे’ को निपटाने को लेकर जश्न मनाई जाती. हालांकि इस घटना के बाद माओवादियों के इस दुस्साहस को भारतीय अर्धसैनिक बल चुनौती के बतौर ले रही है और अगले कुछ दिनों में दंतेवाड़ा, जगदलपुर और बस्तर के इलाके में भीषण जनसंहार देखने को मिल सकता है. सेना की तरफ़ से त्वरित कार्रवाई की बात की जा रही है. पी चिदंबरम यह आश्वासन दे रहे हैं कि दो-तीन सालों के भीतर नक्सलियों का सफाया कर दिया जाएगा. ’जंगल वारफेयर स्कूल’ में पहले से इसकी कड़ी ट्रेनिंग चल रही है जिसमें यह बताया जाता है कि कैसे गुरिल्ला तरीके से गुरिल्लों को परास्त करना है? लिट्टे का अनुभव दक्षिण एशियाई देशों के सैनिकों में उन्माद भर रहा है. यह अलग बात है कि सेनाओं के बहुत सारे जवानों को यह मालूम नहीं होगा कि श्रीलंका में लिट्टे को ’ख़त्म’ करने के क्रम में बीस लाख से अधिक तमिलों को सुनियोजित तरीके से मार डाला गया.

जंगलों का सही ज्ञान नहीं होना और सुरक्षा (सतर्कता) में हुई चूक को कई बार सरकार की तरफ से चिंता का कारण बताया गया. इसको ख़त्म करने के लिए ’ट्राइबल बटालियन’ बना ली गई है. गुरिल्ले को गुरिल्ले की तरह मारो. आदिवासियों को आदिवासियों से लड़ाओ. सल्वा जुडूम का कार्यक्रम जब फ्लॉप होने लगा और दुनिया भर में इसकी तीखी आलोचना हुई तो सरकार ने इसको ’सब्सटीट्यूट’ कर ’ट्राइबल बटालियन’ बना डाला. यह उसी तरह है जैसे ’नगा बटालियन’, ’गोरखा बटालियन’, ’सिख रेजीमंट’, ’राजपुताना राइफल्स’. इस प्रयास में यह बात अंतर्निहित है कि जब इन बटालियनों की आलोचना नहीं हो रही है तो इसके बीच एक और बटालियन घुस जाने से उसकी आलोचना क्योंकर होगी? तो क्या इन तमाम उपक्रमों के बाद छत्तीसगढ़ के मानचित्र के दक्षिणी हिस्से से आदिवासियों की पूरी क़ौम ख़त्म हो जाएगी? हिटलर के समय जर्मनी में साठ लाख यहूदियों को मार डाला गया था. यूरोप और अमेरिका मे धनी यहूदियों द्वारा अपनी धार्मिक अस्मिता का देश बनाने के क्रम में पश्चिमी एशिया के फिलीस्तीन में लाखों मुसलमान ख़त्म हो गए. उनकी कई पीढ़ियां कैंप में ही पलकर जवान हुईं और उन्होंने स्वाभाविक तौर पर विद्रोह का रास्ता चुना. छत्तीसगढ़ में भी आदिवासियों की एक पीढ़ी कैंप में पल रही है. यह सरकारी कैंप लोगों के असंतोष को किस सीमा तक बांध के रखती है यह भविष्य की राजनीतिक परिदृश्य तय करेगी.

हालिया घटना के बाद माओवाद को लोगों के बीच क़ानून व्यवस्था की समस्या के बतौर समझाने में अब सरकार ज़्यादा आसानी महसूस करेगी. लोगों में ऐसे तत्त्वों को लेकर नकार और घृणा का भाव और अधिक तीखा होगा. सांस्कृतिक-राष्ट्रवाद का नारा देने वाली शक्तियां इस पूरी जंग में सत्ता पक्ष के साथ है. मीडिया ऐसी ख़बरों को सनसनीख़ेज तरीके से परोस कर माओवादियों को देश के आंतरिक भाग में ’बाहरी हमलावर’ बता रहा है. ऐसे में लोगों का इस बात में निश्चित तौर पर यक़ीन गहरा होगा कि इस समस्या पर क़ाबू पाया जा सकता है जैसे अफ़गानिस्तान में तालीबान पर पाया गया या फिर इराक में अब तक छिट-पुट तरीके से ’इस्लामी आतंकवाद’ पर पाया जा रहा है. लालगढ़ का हेलीकॉप्टर अब दंडकारण्य का रुख अधिक जनाधार और अधिक आक्रामकता के साथ कर सकेगा.

इस पूरी जंग मे लोग जिस तरह मारे जा रहें है और मारे जाने के बाद प्रत्येक दूसरे पक्ष में जिस तरह का उन्माद पसर रहा है वह बेहद ख़तरनाक हैं. इसमें तर्क-बुद्धि कम और एक-दूसरे को दुश्मन समझ लेने की प्रवृत्ति अधिक हावी हो रही है. ऐसी घटनाओं पर प्रतिक्रिया करने वाले लोग अधिक टुकड़ों में बंट रहे हैं. जो टुकड़ा इन घटनाओं से अपने को अधिक जुड़ा हुआ महसूस करता है वही इसके बारे में सोच रहा है वरना अधिकतर प्रतिक्रियाएं तात्कालिक शैली की है जो मुख्य तौर पर समाचार चैनल के प्रभाव के कारण व्यक्य हो रही हैं. हमारे सामने जिस अंदाज़ में ख़बरें पहुंच रहीं है और ख़त्म हो रहीं है उसने पूरी मानसिकता को ही बदल दिया है. बगदाद में ईरानी दूतावास के पास बम विस्फोट में तीस लोगों का मारा जाना या फिर रूस की मेट्रो बम विस्फोट और दागिस्तान में बम विस्फोट में सौ से अधिक लोगों का मारा जाना हमारी जमी हुई संवेदना को कुरेद नहीं पाता. ऐसा लगता है कि इराक में तो कई वर्षों से लोग मारे जा रहे हैं. मेट्रो मे बम फटना भी कोई नया नहीं हैं. माओवादियों और पुलिसों की आपस में ठनी है और इसमें कभी एक तो कभी दूसरा पक्ष एक-दूसरे को मारते ही रहते है. चार लोगों का मारा जाना और चार सौ लोगों का मारा जाना लोगों पर अलग-अलग असर नहीं डालती. लाश और घटनास्थल की विभीषिका पृष्ठभूमि में चले जाते हैं और सामने महज संख्या भर रह जाती है. संख्य़ा के साथ कोई संवेदना को कैसे महसूस कर सकता है? युद्ध, बम विस्फोट और मुठभेड़ों ने हमारी चेतना में नियमित चलने वाली प्रक्रिया के रूप में स्थान पा लिया है. इसमें कुछ भी अलग नहीं है. इसने हमारी संवेदनशीलता को भोथरा बना दिया है. सामाजिक प्रभुत्व वाले वर्ग के लिए यह सबसे आनंद और निश्चिंतता का क्षण होता है जब लोग ऐसी घटनाओं में प्रतिक्रिया करना बंद कर दे या फिर वैसी ही प्रतिक्रिया दें जैसा वे चाहते हैं. धीरे-धीरे यह आदत सवाल करने की प्रवृत्ति को बंद कर देगी.

लेखक म.गां.अं.हिं.वि. में मीडिया के जनपक्षधर छात्र हैं पिछले कुछ दिनों से लगातार लेखन व विश्लेषण कर रहे हैं इनसे dilipk.media@gmail.com या मो.- 9561513701 पर सम्पर्क किया जा सकता है

2 टिप्‍पणियां:

  1. माओवादपक्षधरता का यह एक और "उदाहरण" आलेख है। इस आलेख की बेहयायी यह है कि बेहद सधी हुई भाषा में माओवादी हिंसा को जस्टीफाई करने की कोशिश की गयी है। वैसे भी माओ नें यह "केटेगोरिकली" कहा था कि बुद्धीजीवी वह बेवकूफ है जिसे सबसे सशक्त हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है। इस वाक्य के विश्लेषण में कुछ नहीं कहूंगा।

    किससे बैठ कर बात की जाये? हथियार छोडे आतंकवादी और टेबल पर आयें किसने मना किया है? मध्यस्तता के लिये महाश्वेता देवी और अरुन्धति राय ही क्यों चाहिये ये दोनों तो प्रख्यात और जगजाहिर नक्सल समर्थक है ये क्या बात करेंगी? बात चीत हो तो तटस्थ लोगों के बीच न कि "बायस्ड" मीडियेटर्स के साथ। यहाँ फंतासी भरे उपन्यास नहीं लिखे जाने हैं।

    सलवा जुडुम फ्ळोप नहीं हुआ बल्कि उसके चेहरे पर कालिख लगाने का काम जान बूझ कर उस मीडिया बिरादरी नें किया है जो वास्तव में नक्सलियों की बी-टीम है। यह बस्तर के बाहर बैठे लोगों का प्रोपेगेंडा है जो जमीनी हकीकत जानते ही नहीं। आदिवासी त्रस्त हैं और नक्सलियों से उनकी खिलाफत जारी है। यह अलग बात है कि वर्धा से बैठ कर नक्सली फंतासी रंगीन ही नजर आयेगी।

    कश्मीर में आतंकवाद थमा, पंजाब में निर्मूल हुआ है, भारत का दक्षिण पूर्व भी अब शांत होने लगा है और भारत के वीर सैनिक यह काबीलियत रखते हैं कि किसी भी लालसेना को नीली-पीली बना दें। आश्चर्य है कि आपको 76 जवानों की मौत पर सहानुभूति नही?

    मेरा मानना है कि जब दीपक बुझने पर होता है तो लौ अधिक लाल हो कर फडफडाती है लेकिन आखिर में उसका लाल सलाम हो जाता है (जैसा कि चीन में हो रहा है, रूस का हुआ, नेपाल में जारी है) उसके बाद सवेरा होता है। यकीन मानिये यह आपके खुश होने की क्षणभंगुरता है और हमारी आँखे अपने वीर शहीदों के लिये नम है पर हम जानते हैं कि "वो सुबह कभी तो आयेगी"।

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  2. राजीव रंजन जी... भारत के वीर सैनिक यह काबीलियतकेवल देश के माशूम लोगों के खिलाफ ही काम आती है.अगर इतने ही ये महान काबिल लोग हैं तो आतंकवाद इतने सर चढ़ कर नहीं बोलता...मानता हूँ नाख्शल आन्दोलन में कुछ गड बड़ियाँ हैं मगर ये सरकार उस टाइम कहाँ सोई थी जब ये आन्दोलन शुरू हूवा था...जमीनी समस्या तो हल किये नहीं..अब तो ये बलगम हो ही चूका है..अपने महान देश के महान देश वाशियों को और लोगों से लाना देना क्या है...बठे बठे घर पे कोश्ने के शिवा..जब अपने सर पड़ती है तब समझ आती है बात...अब तो ये लोग सबसे बड़े गद्दार है ही देश की हर problum हल होने जा रहा है...नाख्सली मारे जायेंगे..ताली बजावो बच्चा लोगों ताली...खेल का लुत्फ लो खूब सारी मार काट होगी...अब खतरों के खिलाडी देखने की जरुरत क्या है...इंडिया का सबसे TRP देने वाला प्रोग्राम शुरू हो चूका है...नाख्सली या आदिवाशी मारे तो ताली और जवान मारे तो गाली इन नाख्सलियों को देना ...नहीं देना तो इन्हें जीने और रोटी खाने का हक...

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