अनभिज्ञता के साथ एक युद्ध हमारे और पिछले दशक के दर्शकों द्वारा लडा गया और हम हार गये. हमे हारना ही था क्योंकि हमारे शस्त्र नैतिकतायें थी, भावनायें थी, व हम आस्थावादी दर्शन की पैदाइस थे. दूसरी तरफ एक सुनियोजित विचार था जो एक व्यवस्था की सुदृढ़ता के लिये संकल्प बद्ध था. हारी हुई लडाईयाँ जीती नहीं जा सकती. हार में मिली हार के एहसास को बचाया जा सकता है. नयी पीढी को यह बताया जा सकता है कि मानव आबादी को तबाह किये बगैर कैसे एक समाज गुलाम बन जाता है, कि हमारे कितने सारे जश्न गुलामी के एक नये पायदान हैं.
मास मीडिया द्वारा लोगों तक निष्पक्ष खब़रों का पहुंचाया जाना एक झूठा तर्क साबित हो चुका है. ख़बरों की अपनी पक्षधरता होती है. एक ही ख़बर उन्हीं तथ्यों आंकडों के साथ कई तरह से बनायी जाती है और उनका प्रस्तुतीकरण किया जाता है. इनके मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी अलग-अलग पड़ते हैं. इसे जरूरत के मुताबिक विश्लेषित किया जाता है.
देश के २८ राज्यों में से १६ राज्यों में माओवादी आंदोलन है, कुल १८४ जिलों में माओवादी आंदोलन है, जिले के गावों को चिन्हित करें तो इसके प्रदर्शन का तरीका और भी बदल जाता है. ऎसे में मीडिया जब इसे एक बडे आंतरिक असुरक्षा के रूप में प्रदर्शित करना चाहती है तो यह भारत का नक्शा उठाती है और १६ राज्यों को लाल रंग से रंग देती है या जब जरूरत पड़ती है तो राज्यों के जिले व गाँवों को रंग दिया जाता है. आंकडे भी इसी लिहाज से प्रदर्शित किये जाते हैं. क्या ये तरीके ख़बरों को निष्पक्ष बना सकते हैं? इस रूप में निष्पक्षता या सबसे सटीक होना इनके हितों पर निर्भर करता है.
पिछले दिनों जब दाल की कीमतें आसमान छूने लगीं और अरहर की दाल १०५ रूपये किलो तक की कीमत में बिकने लगी तो शरद पवार के सामने प्रश्न उठा कि दाल की कीमत क्यों बढ़ रही है. पता चला कि म्यामा से आयातित लाखों टन दाल पश्चिम बंगाल के खिदिरपुर बंदरगाह पर सड़ रही है. मीडिया ने इस बात को जिस तौर पर रखा उससे यही लगा कि इसमे पश्चिम बंगाल सरकार का दोष है. अब पश्चिम बंगाल को उछाला जाना एक सरकार को उछाला जाना नहीं था बल्कि यह प्रयास था कि वामपंथी सरकार को दोषी करार दिया जाय. जबकि इसके आयात और वितरण की जिम्मेदारी केन्द्र सरकार की थी. यद्यपि इस बात को कहने का यह मतलब कतई नहीं है कि वाम पार्टीयां बहुत पाक साफ हैं पर इस मसले पर जिस तरह की रिपोर्टिंग कुछ अखबारों में हुई वह दुराग्रहपूर्ण था. इन दो उदाहरण के जरिये यह समझा जा सकता है कि निष्पक्षता के बजाय मीडिया एक पक्षधरता तय करवाती है. यह पक्षधरता किस तरह की होती है इस पर?
हम एक ऎसी व्यवस्था में जी रहे हैं जहाँ मीडिया का पूजीवादी व्यवस्था को बचाये रखने के लिये कार्य करना आवश्यक हो गया है. यदि यह किसी परिवर्तन या विकल्प की अवधारणा को लेकर कार्य करेगी तो यह स्वयं के स्वरूप को नष्ट कर देगी (यहाँ हम व्यवसायी मीडिया की बात कर रहे हैं). क्या मास मीडिया मालिकानों के लिये यह संभव है कि वे परिवर्तनकामी समाज के लिये कार्य कर सकें? एक वैकल्पिक सामाजिक ढांचे की निर्मिति के लिये लोगों को जागरूक करें? उन्हें पता है कि यदि ऎसा हुआ तो मास मीडिया का व्यवसाय बिखर जायेगा, कम-अज-कम निजी स्वरूप का टूटना तय है. अतः वे ऎसी मानसिकता का निर्माण करते हैं जो वर्तमान व्यवस्था को किसी तरह टिकाये रखे. पिछले कुछ दशकों में मास मीडिया का पूजीवाद के लिये यही योगदान रहा है जिसे राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय संदर्भों में समझने की जरूरत है. अंतरराष्ट्रीय संदर्भों में इसलिये क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद स्वतंत्र सूचना के प्रवाह की जो अवधारणा आयी वह बहुत ही महत्वपूर्ण है.
पूजीवाद की इस औद्योगिक संरचना में मीडिया एक सांस्कृतिक उद्योग के रूप में विकसित हुआ जिसने एक पूरी की पूरी संस्कृति को शनैः-शनैः ख़त्म किया और दूसरी संस्कृति को हमारे सामने खडा किया. यह सब अचानक घटित नहीं हुआ. चाहे वह अश्लीलता का मसला हो, पहनावे का मसला हो या हमारे खान-पान का. जब जन्मे बच्चे के मुंह से माँ का दूध छीनकर खरीदे हुए दूध को पिलाने का विकल्प दिया गया, जब फिल्मों में नग्नता दिखने लगी और आर्डियंस को उपभोक्ता के रूप में विकसित करने का प्रयास किया जाने लगा तो एक लम्बे समय बाद आने वाले परिणामों की परिकल्पना पहले की जा चुकी होगी. पुरानी फिल्मों में महिलाओं का जो स्वरूप दिखाया गया अपने मस्तिस्क पर जोर डालकर सोचें कि उस समाज के लिये कितना स्वीकृत रहा होगा. हमे लगता है स्थिति ठीक आज जैसी ही रही होगी. क्या ये सारे बदलाव जो धीरे-धीरे किये गये इस व्यवस्था को मजबूत बनाने में सहयोगी साबित नहीं हुए. ये तस्वीरें थी, भाषायें थी जो आपकी आखों के सहारे धीरे-धीरे आयी और आपके अचम्भे को शून्य कर दिया. लोगों का इन तस्वीरों से अचम्भित होना ख़त्म हो गया. अब नये अचम्भे के लिये आपको इससे आगे ले जाना था.
यह सब किरणों का कमाल था. ऎसा भी नहीं कि जो आपको पसंद न हो न देखें. मीडिया ने अपना पूरा खेल इसी फार्मूले पर किया कि लोगों को जो पसंद है हम वही दिखाते हैं जबकि इसका ठीक उल्टा था. दृश्य माध्यम एक अजूबा माध्यम था कुछ भी जो आपके सामने वास्तविकता जैसा घट रहा हो वह लोगों के द्वारा देखा जाना लाज़मी था. स्थिति यह हो गयी कि लोग इसके अभ्यस्त व आदी हो गये.
मनोरंजन के साधन की जब भी बात आती है तो वे कौन से साधन हैं जो हमारे मस्तिस्क में घुमड़ने लगते हैं. क्या वह टी.वी. नही है, क्या वह सिनेमा नहीं है, क्या रेडियो, मोबाइल नहीं है. अब इनके जरिये जो मनोरंजन होता है, उसकी विषय-वस्तु क्या है. दरअसल हमारे मनोरंजन की विषय-वस्तु हम नहीं तय करते यह उन व्यवसायी घरानों द्वारा तय किया जाता है जो आपके मनोरंजन में अपने व्यंजन भी पकाते हैं. इन्हें उदाहरणॊं के रूप में समझा जाना चाहिये कि आपके पसंद के गीतों को सुनने के लिये जब आपको फोन करना पड़ता है, लिटिल चैम्प्स या गीतों के स्टार चुनने के लिये आर्डियंस एस.एम.एस. करती है तो इससे करोडों का व्यापार तय होता है. यह मामला किसी खास कम्पनी से नहीं जुडा है बल्कि यह एक व्यवस्था के सुदृढीकरण से जुडा है. जहाँ अंततः हित पूजीवादियों का होता है. जबकि दूसरी तरफ गायकों या इस तरह की अन्य प्रतिभाओं को सेलीब्रिटी बनाना भी इसके हित से ही जुडी हुई बात है. जहाँ पूंजी सुविधा व प्रतिभाओं को निजीकृत कर स्टार बनाया जाता है, यह किसी व्यवस्था का अपना सांस्कृतिक आयाम होता है. दूसरी तरफ यह वैकल्पिक समाज व्यवस्था के सांस्कृतिक पहलू पर आघात इसी माध्यम से करता है. मसलन एक नये पहनावे, नये खान पान को प्रतिष्ठित नायकों के प्रदर्शन के जरिये लोगों के मस्तिस्क में उतारता है. लोकजन के माध्यमों को भी इसी रूप में व्यवसायिक मीडिया ने निगलने का प्रयास किया है लोकगीतों व लोकधुनों के मिक्सिंग से बाजारू बना दिया गया.
एक नयी सभ्यता, पुरानी सभ्यता की रीढ़ पर आकार ले चुकी है. हंसना रोना ये भाव प्रदर्शन के माध्यम थे पर आज लोगों के हंसने को भी टोंका जाता है, यह कहते हुए कि असभ्य की तरह मत हंसिये या रोइये. पर इस असभ्य के बरक्स जिस सभ्य की बात की जा रही है, उसका खाका कहाँ से आता है. एक सभ्य व्यक्ति कैसे हंसता है यह हमारा मस्तिस्क कहाँ से चित्रित करता है.
शिक्षा सूचना व सौन्दर्यबोध तक पर कब्जा जमाने के बाद देश में जो व्यापार का स्वरूप है, उसे मध्यम वर्ग के लिये, उच्च वर्ग के अनुरूप बनाया जा रहा है. इसके कुछ निहित कारण हैं एक तो मध्यम वर्ग की अपनी कुछ चारित्रिक विशेषतायें हैं जो मूलतः परिवर्तन विरोधी होती हैं और यथा स्थिति को बनाये रखने में मदद करती हैं. क्योंकि मध्यम वर्ग विकास को सामाजिक जड़ता के साथ देखता है. वह समाज को स्थिर करके अपने विकास को आंकता है पर सम्प्रेषण तंत्र के इतने बडे बदलाव को जितनी तेजी के साथ खारिज किया जा रहा है वह इस तंत्र के लिये घातक है.
५० हजार वर्ष पूर्व व्यक्ति ने बोलना सीखा और इस बोलने को व्यापक पैमाने पर प्रसारित करने के लिये जो तंत्र खोजे गये वे कुछ ही वर्ष पूर्व के हैं. टी.वी. का विस्तार हुए भारत में २० वर्ष भी नहीं हुए हैं. २४ घंटे के समाचार चैनल शुरू हुए और भी कम वर्ष गुजरे हैं पर लोगों के बीच में इनके खबरों की विश्वसनीयता कम हो रही है, अभी हाल में आये एक शोध से यह बात निकल कर आयी है. लोग खबरों की सत्यता के लिये अन्य विकल्पों का सहारा ले रहे हैं. पर जनमत बनाने में इनकी भूमिका आज भी उस वर्ग में अहम है जहाँ अशिक्षा है, शिक्षा है पर ज्ञान नहीं है.
मास मीडिया द्वारा लोगों तक निष्पक्ष खब़रों का पहुंचाया जाना एक झूठा तर्क साबित हो चुका है. ख़बरों की अपनी पक्षधरता होती है. एक ही ख़बर उन्हीं तथ्यों आंकडों के साथ कई तरह से बनायी जाती है और उनका प्रस्तुतीकरण किया जाता है. इनके मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी अलग-अलग पड़ते हैं. इसे जरूरत के मुताबिक विश्लेषित किया जाता है.
देश के २८ राज्यों में से १६ राज्यों में माओवादी आंदोलन है, कुल १८४ जिलों में माओवादी आंदोलन है, जिले के गावों को चिन्हित करें तो इसके प्रदर्शन का तरीका और भी बदल जाता है. ऎसे में मीडिया जब इसे एक बडे आंतरिक असुरक्षा के रूप में प्रदर्शित करना चाहती है तो यह भारत का नक्शा उठाती है और १६ राज्यों को लाल रंग से रंग देती है या जब जरूरत पड़ती है तो राज्यों के जिले व गाँवों को रंग दिया जाता है. आंकडे भी इसी लिहाज से प्रदर्शित किये जाते हैं. क्या ये तरीके ख़बरों को निष्पक्ष बना सकते हैं? इस रूप में निष्पक्षता या सबसे सटीक होना इनके हितों पर निर्भर करता है.
पिछले दिनों जब दाल की कीमतें आसमान छूने लगीं और अरहर की दाल १०५ रूपये किलो तक की कीमत में बिकने लगी तो शरद पवार के सामने प्रश्न उठा कि दाल की कीमत क्यों बढ़ रही है. पता चला कि म्यामा से आयातित लाखों टन दाल पश्चिम बंगाल के खिदिरपुर बंदरगाह पर सड़ रही है. मीडिया ने इस बात को जिस तौर पर रखा उससे यही लगा कि इसमे पश्चिम बंगाल सरकार का दोष है. अब पश्चिम बंगाल को उछाला जाना एक सरकार को उछाला जाना नहीं था बल्कि यह प्रयास था कि वामपंथी सरकार को दोषी करार दिया जाय. जबकि इसके आयात और वितरण की जिम्मेदारी केन्द्र सरकार की थी. यद्यपि इस बात को कहने का यह मतलब कतई नहीं है कि वाम पार्टीयां बहुत पाक साफ हैं पर इस मसले पर जिस तरह की रिपोर्टिंग कुछ अखबारों में हुई वह दुराग्रहपूर्ण था. इन दो उदाहरण के जरिये यह समझा जा सकता है कि निष्पक्षता के बजाय मीडिया एक पक्षधरता तय करवाती है. यह पक्षधरता किस तरह की होती है इस पर?
हम एक ऎसी व्यवस्था में जी रहे हैं जहाँ मीडिया का पूजीवादी व्यवस्था को बचाये रखने के लिये कार्य करना आवश्यक हो गया है. यदि यह किसी परिवर्तन या विकल्प की अवधारणा को लेकर कार्य करेगी तो यह स्वयं के स्वरूप को नष्ट कर देगी (यहाँ हम व्यवसायी मीडिया की बात कर रहे हैं). क्या मास मीडिया मालिकानों के लिये यह संभव है कि वे परिवर्तनकामी समाज के लिये कार्य कर सकें? एक वैकल्पिक सामाजिक ढांचे की निर्मिति के लिये लोगों को जागरूक करें? उन्हें पता है कि यदि ऎसा हुआ तो मास मीडिया का व्यवसाय बिखर जायेगा, कम-अज-कम निजी स्वरूप का टूटना तय है. अतः वे ऎसी मानसिकता का निर्माण करते हैं जो वर्तमान व्यवस्था को किसी तरह टिकाये रखे. पिछले कुछ दशकों में मास मीडिया का पूजीवाद के लिये यही योगदान रहा है जिसे राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय संदर्भों में समझने की जरूरत है. अंतरराष्ट्रीय संदर्भों में इसलिये क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद स्वतंत्र सूचना के प्रवाह की जो अवधारणा आयी वह बहुत ही महत्वपूर्ण है.
पूजीवाद की इस औद्योगिक संरचना में मीडिया एक सांस्कृतिक उद्योग के रूप में विकसित हुआ जिसने एक पूरी की पूरी संस्कृति को शनैः-शनैः ख़त्म किया और दूसरी संस्कृति को हमारे सामने खडा किया. यह सब अचानक घटित नहीं हुआ. चाहे वह अश्लीलता का मसला हो, पहनावे का मसला हो या हमारे खान-पान का. जब जन्मे बच्चे के मुंह से माँ का दूध छीनकर खरीदे हुए दूध को पिलाने का विकल्प दिया गया, जब फिल्मों में नग्नता दिखने लगी और आर्डियंस को उपभोक्ता के रूप में विकसित करने का प्रयास किया जाने लगा तो एक लम्बे समय बाद आने वाले परिणामों की परिकल्पना पहले की जा चुकी होगी. पुरानी फिल्मों में महिलाओं का जो स्वरूप दिखाया गया अपने मस्तिस्क पर जोर डालकर सोचें कि उस समाज के लिये कितना स्वीकृत रहा होगा. हमे लगता है स्थिति ठीक आज जैसी ही रही होगी. क्या ये सारे बदलाव जो धीरे-धीरे किये गये इस व्यवस्था को मजबूत बनाने में सहयोगी साबित नहीं हुए. ये तस्वीरें थी, भाषायें थी जो आपकी आखों के सहारे धीरे-धीरे आयी और आपके अचम्भे को शून्य कर दिया. लोगों का इन तस्वीरों से अचम्भित होना ख़त्म हो गया. अब नये अचम्भे के लिये आपको इससे आगे ले जाना था.
यह सब किरणों का कमाल था. ऎसा भी नहीं कि जो आपको पसंद न हो न देखें. मीडिया ने अपना पूरा खेल इसी फार्मूले पर किया कि लोगों को जो पसंद है हम वही दिखाते हैं जबकि इसका ठीक उल्टा था. दृश्य माध्यम एक अजूबा माध्यम था कुछ भी जो आपके सामने वास्तविकता जैसा घट रहा हो वह लोगों के द्वारा देखा जाना लाज़मी था. स्थिति यह हो गयी कि लोग इसके अभ्यस्त व आदी हो गये.
मनोरंजन के साधन की जब भी बात आती है तो वे कौन से साधन हैं जो हमारे मस्तिस्क में घुमड़ने लगते हैं. क्या वह टी.वी. नही है, क्या वह सिनेमा नहीं है, क्या रेडियो, मोबाइल नहीं है. अब इनके जरिये जो मनोरंजन होता है, उसकी विषय-वस्तु क्या है. दरअसल हमारे मनोरंजन की विषय-वस्तु हम नहीं तय करते यह उन व्यवसायी घरानों द्वारा तय किया जाता है जो आपके मनोरंजन में अपने व्यंजन भी पकाते हैं. इन्हें उदाहरणॊं के रूप में समझा जाना चाहिये कि आपके पसंद के गीतों को सुनने के लिये जब आपको फोन करना पड़ता है, लिटिल चैम्प्स या गीतों के स्टार चुनने के लिये आर्डियंस एस.एम.एस. करती है तो इससे करोडों का व्यापार तय होता है. यह मामला किसी खास कम्पनी से नहीं जुडा है बल्कि यह एक व्यवस्था के सुदृढीकरण से जुडा है. जहाँ अंततः हित पूजीवादियों का होता है. जबकि दूसरी तरफ गायकों या इस तरह की अन्य प्रतिभाओं को सेलीब्रिटी बनाना भी इसके हित से ही जुडी हुई बात है. जहाँ पूंजी सुविधा व प्रतिभाओं को निजीकृत कर स्टार बनाया जाता है, यह किसी व्यवस्था का अपना सांस्कृतिक आयाम होता है. दूसरी तरफ यह वैकल्पिक समाज व्यवस्था के सांस्कृतिक पहलू पर आघात इसी माध्यम से करता है. मसलन एक नये पहनावे, नये खान पान को प्रतिष्ठित नायकों के प्रदर्शन के जरिये लोगों के मस्तिस्क में उतारता है. लोकजन के माध्यमों को भी इसी रूप में व्यवसायिक मीडिया ने निगलने का प्रयास किया है लोकगीतों व लोकधुनों के मिक्सिंग से बाजारू बना दिया गया.
एक नयी सभ्यता, पुरानी सभ्यता की रीढ़ पर आकार ले चुकी है. हंसना रोना ये भाव प्रदर्शन के माध्यम थे पर आज लोगों के हंसने को भी टोंका जाता है, यह कहते हुए कि असभ्य की तरह मत हंसिये या रोइये. पर इस असभ्य के बरक्स जिस सभ्य की बात की जा रही है, उसका खाका कहाँ से आता है. एक सभ्य व्यक्ति कैसे हंसता है यह हमारा मस्तिस्क कहाँ से चित्रित करता है.
शिक्षा सूचना व सौन्दर्यबोध तक पर कब्जा जमाने के बाद देश में जो व्यापार का स्वरूप है, उसे मध्यम वर्ग के लिये, उच्च वर्ग के अनुरूप बनाया जा रहा है. इसके कुछ निहित कारण हैं एक तो मध्यम वर्ग की अपनी कुछ चारित्रिक विशेषतायें हैं जो मूलतः परिवर्तन विरोधी होती हैं और यथा स्थिति को बनाये रखने में मदद करती हैं. क्योंकि मध्यम वर्ग विकास को सामाजिक जड़ता के साथ देखता है. वह समाज को स्थिर करके अपने विकास को आंकता है पर सम्प्रेषण तंत्र के इतने बडे बदलाव को जितनी तेजी के साथ खारिज किया जा रहा है वह इस तंत्र के लिये घातक है.
५० हजार वर्ष पूर्व व्यक्ति ने बोलना सीखा और इस बोलने को व्यापक पैमाने पर प्रसारित करने के लिये जो तंत्र खोजे गये वे कुछ ही वर्ष पूर्व के हैं. टी.वी. का विस्तार हुए भारत में २० वर्ष भी नहीं हुए हैं. २४ घंटे के समाचार चैनल शुरू हुए और भी कम वर्ष गुजरे हैं पर लोगों के बीच में इनके खबरों की विश्वसनीयता कम हो रही है, अभी हाल में आये एक शोध से यह बात निकल कर आयी है. लोग खबरों की सत्यता के लिये अन्य विकल्पों का सहारा ले रहे हैं. पर जनमत बनाने में इनकी भूमिका आज भी उस वर्ग में अहम है जहाँ अशिक्षा है, शिक्षा है पर ज्ञान नहीं है.
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