आदिवासियों के विद्रोह और आंदोलन के इतिहास से दुनिया अंजान नहीं है।जब माओवाद नहीं था तब भी बिरसा मुंडा, सिद्धु- कान्हू,तिलका मांझी की एक लंबी परंपरा दिखाई देती है। वे अंग्रेजों के खिलाफ थे क्योंकि वे उनके जंगल जमीन और जिंदगी में अपना दखल रखना चाहते थे।उनके लिए जातीय विरोधी युद्ध जैसा था। भारत में माओवाद को एक राजनीतिक संघर्ष का वैचारिक माध्यम बनाने से पहले तेलंगाना और अविभाजित बंगाल का तिभागा आंदोलन आदिवासी असंतोष की राजनीतिक लड़ाई थी। जिस झारखंड में माओवाद और नक्सलवाद का प्रभाव बताया जाता है वहां पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी में विद्रोह से पहले आदिवासियों के आंदोलनों की एक लंबी कड़ी रही है। झारखंड के एक साप्ताहिक खबरखंड ने 10 जून 2009 को माओवादियों द्वारा दस पुलिस वालों के मारे जाने की घटना के आलोक में जो लिखा है वह गौरतलब है। अखबार लिखता है कि सारंडा जंगल में बंदूक की नली अब धूम चुकी है। पहले बंदूक की गोली अपने अधिकारों के लिए संघर्षशील ग्रामीणों पर चला करती थी। अब वहीं बंदूक की नली पुलिस की तरफ तनकर खड़ी हो गई है। ये जानने के लिए किसी भी आदिवासी इलाके का अध्धयन किया जा सकता है कि वहां अंग्रेजों की सरकार के बाद की सरकारों पर अपनी जिंदगी की बेहतरी के लिए भरोसा किया जाता रहा ।उस भरोसे के तहत ही उन्होने आंदोलन किए । लेकिन आदिवासी इलाके के अध्धयन बताते है कि सरकार ने अपनी पुलिस के जरिये उन आंदोलनों को दबाने के लिए उन पर बेतरह गोलियां चलायी। मुठभेड़ के नाम पर हत्याएं की। एकीकृत सिहभूम में, जहां टाटानगर भी है, सतरह बार पुलिस ने गोलियां चलायी। खबरखंड लिखता है कि सारंडा के जंगलों में नक्सलियों की उपस्थिति से पुलिसिया खौफ काफी हद तक कम हो गया है। पश्चिम बंगाल के पश्चिम मिदनापुर में लालगढ़ के हालात को किस तरह से देखा जाए? देश में साठ साल से ज्यादा समय से कांग्रेस और भाजपा के नेतृत्व में सरकार रही है।पश्चिम बंगाल में वामपंथी पार्टियों की तीस वर्षों से सरकार हैं। ये सभी पार्टियां आदिवासी इलाकों से चुनकर आने वाले अपने प्रतिनिधियों की संख्या के आधार पर एक दूसरे के मुकाबले आदिवासियों के बीच अपनी लोकप्रियता का दावा ठोकते रहते हैं।तब लालगढ़ जैसे तमाम आदिवासी इलाके के संदर्भ में ये सवाल उठाया जाना चाहिए कि ये आदिवासियों के बीच भरोसे को खोने का मामला है या ऐसे इलाकों में माओवादियों की उपस्थिति का पहलू प्राथमिक हैं। आदिवासियों के लिए लालगढ़ के इलाके में 35 हजार करोड़ की स्टील परियोजना क्या उस स्थिति से अलग है जब अंग्रेजों ने पहली बार किसी आदिवासी इलाके में अपना वर्चस्व कायम करने का इरादा किया था ? आखिर अपने नियमों , शर्तों, परंपराओं के आधार पर जीवन बसर करने वाले आदिवासियों से अब तक की सरकारें क्या चाहती रही है ? क्या ये कहना अनुचित होगा कि आदिवासी अब तक सरकारों के द्वारा अपने खिलाफ युद्ध थोपने की स्थिति में खुद को महसूस करती रही हैं? दुनिया का इतिहास इस तरह के उदाहरणों से भरा पड़ा है जिसमें गैरजातीय वर्चस्व की स्थिति में स्थानीय समाज ने विद्रोह कर दिया है।इतिहास का ये सबसे नया उदाहरण है जब अमेरिका ने इराक पर हमले की योजना तैयार की तो उसने इराक के शासकों के पास मानव समाज को नाश करने वाले रसायनिक हथियारों के होने का दावा किया था। लेकिन दुनिया जानती है कि वह इराक के संसाधनों पर कब्जे के लिए एतकरफा युद्ध छेड़ा गया। वहां की जनता अब भी दुनियाभर की सेनाओं के खिलाफ लगातार लड़ रही है।दुनिया में अभी ऐसा लोकतंत्र नहीं आया है जब सचमुच सभी लोगों को वह अपने शासन जैसा लगे।अभी तक का लोकतंत्र समाज के प्रभुत्वशाली वर्ग के वर्चस्व को बनाए रखने की कवायद तक ही सीमित है। भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था इससे अलग नहीं है।इसमें समाज के दमित समूहों के लिए संदेश साफ है कि उन्हें जिस हालात में रखा जाता है उसे वह स्वीकार करें।प्रतिनिधित्ववादी लोकतंत्र में राजनीति को विभिन्न वर्गों को यथास्थिति से बाहर निकालकर बेहतर स्थिति में लाने का माध्यम माना जाता है। लेकिन यह मानने में किसी को शर्म नहीं आनी चाहिए कि समाज के दमित वर्ग के लिए प्रतिनिधित्ववादी लोकतंत्र कामयाब नहीं हो पाया।दमित वर्ग के प्रतिनिधि प्रभुत्वशाली संस्कृति के बड़े चट्टान के नीचे दबे जीवो से ज्यादा की स्थिति में नहीं रह पाता है। इसके लिए एक आंकड़ा काफी है कि बीस रूपये से कम पर रोजाना चैरासी करोड़ नागरिक जीवन बसर कर रहे हैं।राजनीतिक विचारधाराओं के व्यवहार में कोई अंतर नहीं है। बल्कि ये कहा जाए कि दमितों की मुक्ति के लिए जितने भी विचारधाराएँ विकसित हुई उस पर समाज के वर्चस्ववादी समूहों ने कब्जा कर लिया है।जब समाज के राजनीतिक हालात ऐसे हो तो उस सत्ता के किसी भी तंत्र से ये उम्मीद नहीं की जा सकती है कि वह दमितों के दमन और वर्चस्व को कायम रखने की सेना के रूप में काम नहीं करती होगी।लाल गढ़ में 2 नंवबर 2008 के बाद आदिवासियों के दमन की घटनाओं के बारे में भी यही कहा जा सकता है। मौजूदा सरकारों के लिए समस्या ये नहीं है कि आदिवासियों के हालात बदत्तर हुए हैं।वह आदिवासियों के बीच माओवादी विचारधारा के विस्तार से परेशान हैं।किसी भी राजनीतिक समाज में किसी भी जातीय समूह या तबके के पास अपनी बदत्तर स्थिति में परिवर्तन लाने के लिए क्या रास्ते बचते हैं? वह अपने सामने मौजूद विभिन्न राजनीतिक विकल्पों में से एक का चुनाव करता है। लेकिन जब उसके सामने खड़े सारे विकल्पों के चेहरों पर एक सा मुखौटा दिखता हो तो वह क्या कर सकता है। उसे उनमें से किसी के मुखौटे के उतरने का इंतजार करना चाहिए ? यदि भारत के राजनीतिक हालात के परिपेक्षय में इस सवाल का जवाब चाहें तो क्या मिल सकता है? यदि झाड़ग्राम के पास के इलाके में गुजरात से चलकर बापू आशाराम जाए और आदिवासियों के बीच विकल्प बनें तो शायद माओवाद से एतराज करने वालों को कोई परेशानी नहीं होगी। एक बात बहुत स्पष्ट करनी चाहिए कि माओवाद से परेशानी है? या फिर माओवादियों की हिंसा से परेशानी है। क्या माओवाद के खुले प्रचार की यहां के लोकतंत्र में इजाजत हैं? लाल गढ़ में माओवादियों ने कितनी हिंसा की है ? क्या किसी की भी इतनी हिंसा को इस तरह की अंधाधुन सैनिक कारर्वाई के लिए सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया जा सकता है ? सचमुच आम नागरिकों के खिलाफ इतनी हिंसा हुई है कि इतनी बड़ी सेना के जरिये आदिवासियों का भरोसा हासिल करने की नौबत आ पड़ी ? सरकारी मशीनरी की हिंसा ने आदिवासियों के बीच भरोसा खोया है ।उसे सैनिक बलों की माओवादियों के खिलाफ कार्रवाईयों के नाम पर हासिल नहीं किया जा सकता है। देश के कई हिस्सों में सत्ता की मशीनरी अपना विश्वास खो रही है।कानून एवं व्यवस्था को बहाल करने के नाम पर सैनिक बलों की कार्रवाईयों ने स्थितियों को और जटिल किया है। यदि सचमुच लोकतंत्र की स्थापना का इरादा है तो सरकार की चिंता का पहलू ये होना चाहिए कि भरोसे खोने के उसके इलाके में इस कदर इजाफा क्यों हो रहा है।दरअसल प्रचार माध्यमों ने लोगों के बीच सवाल जिस रूप में जाने चाहिए उसे अपने आईने से उल्ट देने के सिद्धांत को तेजी से लागू कर दिया है।पूरी दुनिया में सरकारें इन्हीं प्रचार माध्यमों के जरिये अपने शुरू किए गए युद्धों को जीतने की योजना बनाती है। कोई भी इस तरह की इजाजत शासितों को नहीं देना चाहता है कि चाहें वह लालगढ़ के आदिवासी हो या समाज का कोई भी हिस्सा खुद ही ये तय कर लेगा कि उसे माओवाद या मौजूदा किसी भी राजनीतिक विचारधारा से इतर किसी राजनीति पर कितना भरोसा करना चाहिए।
aap ne jis jansatta ka link diya hai use sirf edit page delhi vala milta hai baki to vah raipur ka dainik dumdum jaisa akhbaar hai jo raipur me 175 copy bikta hai .jiska bihari sampadak bihaar par jyada chhattisgarh par kam likhta hai.kripya gumrah na kare isme jansatta ki koi rapat tak nahi aati.aur aap prachaar kar rahe hai.
जवाब देंहटाएंaap ne jis jansatta ka link diya hai use sirf edit page delhi vala milta hai baki to vah raipur ka dainik dumdum jaisa akhbaar hai jo raipur me 175 copy bikta hai .jiska bihari sampadak bihaar par jyada chhattisgarh par kam likhta hai.kripya gumrah na kare isme jansatta ki koi rapat tak nahi aati.aur aap prachaar kar rahe hai.
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