28 अक्टूबर 2009

सत्ता तंत्र और माओवाद से निपटने के तरीके

पी. चिदम्बरम को मैं भाषा और शब्दों के मायने समझाने की जुर्रत नहीं कर सकता. क्योंकि हमारे और उनके बीच में बहुत बडा फर्क है. क्योंकि वे एक राष्ट्र के शीर्ष पद पर हैं और मैं एक राष्ट्र की तलाश में, बिना राष्ट्र का नागरिक. मैं उनकी मजबूरी भी समझता हूं और बदलते हुए बयान के रुख भी. झारखण्ड और दिल्ली में शब्दों के तेवर का उतार चढाव भी समझने का प्रयास करता हूँ. वे जब कुछ नहीं बोलते उसके मायने भी कुछ-कुछ मेरी समझ में आ ही जाते हैं.

मंत्रालय का वह विज्ञापन आपको याद ही होगा जो अभी हाल ही में लगभग सभी अखबारों के आधे पन्ने पर छपा था जिसमें लिखा था कि माओवादी कोई क्रांतिकारी नहीं बल्कि डकैत हैं. यदि मैं सही सही याद कर पा रहा हूँ तो शायद कुछ ऎसा ही लिखा था. माओवादी पहले आर्थिक राजनैतिक समस्या की उपज थे फिर लालगढ़ के समय वे आतंकवादी और झारखण्ड के वक्तव्य में भटके हुए लोग हैं. यानि माओवादी = आर्थिक और राजनीतिक समस्या = आतंकवादी = डकैत = भटके हुए युवा = कोबाड गांधी, और यहाँ पर मेरा शब्द ज्ञान भहरा कर गिर जाता है. मुझे नहीं पता पर यदि गृहमंत्री चिदम्बरम का ही हवाला दिया जाय तो माओवाद का प्रभावित क्षेत्र भी बढ़कर २० राज्यों के २२३ जिलों में पहुंच चुका है जो कि २००५ में १४ राज्यों में ही था. जबकि सरकार इतनी मजबूती के साथ खडी हो, जबकि सभी तरह की गतिविधियों पर पाबंदी और अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध हो, माओवाद के इतनी तेजी से फैलने के क्या कारण हो सकते हैं? यदि यही स्थिति रही तो क्या यह अनुमान लगाया जाय कि विजन २०२० तक माओवादी............. यानि देश का हर राज्य आंतरिक रूप से असुरक्षित हो जायेगा. मैं चिदम्बरम के उस देश का मायने जानने की कोशिश करता हूँ जिसे वे सुरक्षित रखना चाहते हैं और जिसे माओवादी असुरक्षित बना रहे हैं. मसलन लालगढ़, नंदीग्राम, बस्तर के सहारे यह जानने का प्रयास करता हूँ कि चिदम्बरम के राष्ट्र का नागरिक कौन है जिसे सुरक्षा देने का जिम्मा उन्होंने उठाया है. क्या वह टाटा है, सालबोनी है, जिन्दल है, एस्सार है?
यह सुरक्षा यहीं तक सीमित नहीं रही बल्कि पिछले कुछ वर्षों में सांस्कृतिक व मानसिक रूप से लोगों को सुरक्षित करने का प्रयास किया जा रहा है कि कहीं वे संसदीय राजनीति से परे किसी अन्य विकल्प पर न सोचने लगें. उडी़सा के पत्रकार लक्ष्मण चौधरी पर राजद्रोह का मुकदमा इसीलिये लगाया जा रहा है, बस्तर के पत्रकार हैं कि पुलिस की बतायी खबरों पर विश्वास तो करते हैं पर इसके अलावा भी उन तक खबरें पहुंच जा रही हैं पर अब यह सब ख़त्म होने जा रहा है. माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में अखबार पढो़ या अपने पडो़स के किसी थाने में जाकर बात कर लो दोनों से आपको वही सूचना मिलेगी क्योंकि अखबारों के स्रोत अब वही रह गये हैं. दांतेवाडा़ के एस.पी. अम्रीस मिश्रा ने आदेश जारी कर दिया है कि मीडिया कर्मीयों को देखते ही सूट कर दो यह एक मौखिक आदेश है जिसका आने वाले दिनों में लिखित होना संभव है पर लिखित और मौखिक का कोई फर्क नहीं पड़ता. उनके पास माओवादियों के कुछ पर्चे मिले हैं आखिर एक पत्रकार यदि निष्पक्षता के साथ खबरें लाना चाहे तो दूसरे पक्ष का स्रोत क्या होगा.संविधान में लिखित रूप से अभिव्यक्ति की आज़ादी व एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में नागरिक अधिकार होने के बावजूद भी वे कौन से कानून हैं जो पी. गोविन्दम कुट्टी को पीपुल्स मार्च निकालने से रोकते हैं या दानिस प्रकाशन की पुस्तकों पर प्रतिबंध लगाया जाता है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित कर दिया गया है या फिर वे आज तक मिली ही नहीं जहाँ उन पार्टीयों व संगठनों को भी असहमति ज़ाहिर करने का मौका मिले जो सत्ता तंत्र के खिलाफ हैं. लोकतंत्र की आलोचना भी सत्ता तंत्र में रहते हुए ही की जा सकती है. पी. चिदम्बरम ने अभी अपने नये बदले हुए रुख के साथ यह भी कह डाला कि माओवादी एक सशस्त्र राजनीतिक पार्टी है तो क्या यह मान लिया जाय कि गृह मंत्रालय से जारी वह विज्ञापन जिसमे कोल्ड ब्लड मर्डरर कहा गया था वह गलत था. फिर तो इस गलती के लिये एक विज्ञापन गृहमंत्री को निकलवाना ही चाहिये. यदि माओवादी राजनीतिक पार्टी है तो एक पार्टी को अपना मुख पत्र निकालने की छूट मिलनी चाहिये और देश में बंद उन तमाम माओवादी नेताओं के साथ राजनीतिक कैदी जैसा व्यवहार किया जाना चाहिये. अपराधी के तौर पर उनके साथ हो रहे व्यवहारों को रोका जाना चाहिये. जबकि उन्हें अन्य कैदियों से मिलने जुलने की छूट तक नहीं है. उन्हें न तो लिखने-पढ़ने की सामाग्री मुहैया होती है और न ही पत्र पत्रिकायें. पर समय-समय पर पी. चिदम्बरम के बदलते बयान को किस रूप में लिया जाय? क्या यह मान लिया जाय की कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद से अब तक जो बयान आये हैं वह उनकी बढ़ती समझदारी के रूप में हैं. फिर तो उन्हें माओवादी पार्टी को और समझने का प्रयास करना चाहिये और लोगों को गृहमंत्री के अगले बयान की प्रतीक्षा. ऐसी स्थिति में ही वे सैन्य कार्यवाही छेड़ने जा रहे हैं जिसमे जन संहार होना तय है क्योंकि पिछले आंकडों पर गौर करें तो अभी है माओवादी इलाकों में हुई कार्यवाहियों में नागरिक समाज यानि बहुसंख्या में निर्दोष आदिवासियों की हत्यायें ही बडे़ पैमाने पर हुई हैं.
सीताराम यचुरी ने अपने एक आलेख में माओवाद को इस आधार पर खारिज किया कि गड़्चिरौली में चुनाव बहिस्कार के फरमान को नकार लोगों ने दिखा दिया है कि वे किसके साथ हैं पर वे पूरी स्थितियों को छुपा गये कि यह मतदान नहीं बल्कि पुलिस बंदूक का भय था जिसने ग्रामीणों को बटन दबाने के लिये बाध्य किया. जब पुलिस यह फरमान जारी करे कि जो मतदान नहीं करेगा वह गिली खाने को तैयार हो जाय तो मौत या मत के विकल्प में आपका क्या चुनाव होगा.
गड़चिरौली में मतदान कैसा रहा यह गड़चिरौली प्रेस क्ल्ब के पत्रकारों से पूछा जाना चाहिये जो मसेली गाँव में जबरन मतदान करवाती पुलिस को कवर करने गये तो लाठियाँ खाई और बंधक बनाकर रखे गये. महाराष्ट्र के गोंदिया, सतरा, यवतमाल जैसे इलाके जहाँ माओवादियों का प्रभाव नहीं है वहाँ भी लोगों ने मतदान का बहिस्कार किया. पिछले चुनाव के मुकाबले इस चुनाव में मत डालने का प्रतिशत कम हुआ है. यदि मत प्रतिशत ही स्वीकार्यता या नकार को तय करती है तो क्या यह नहीं माना जाना चाहिये कि दुकानों, स्कूलों, फैक्ट्रियों को जबरन बंद कराने व टी.वी. पर लगातार सेलिब्रिटीज के प्रचार के बाद भी ५४ प्रतिशत लोगों ने मुंबई में चुनाव को नकार दिया और ४६ प्रतिशत ही वोट पडे़. क्या इसे संसदीय लोकतंत्र को खारिज हुआ मान लिया जाय.
पर यह उदारीकरण का दौर है और चिदम्बरम व मनमोहन सिंह...... क्षमा करें, शायद मुझे इनके पीछे “जी” लगाना चाहिये वरना मैं इस अपमान के लिये किसी जनसुरक्षा अधिनियम का अपराधी हो सकता हूँ. उदारीकरण के इस दौर में अपना उदार रुख अपनाते हुए ये माओवादियों के साथ बात करने को तैयार हैं. शर्त यह है कि माओवादी हिंसा का रास्ता छोड़ दें. जबकि दूसरी तरफ माओवादियों के उन्मूलन के लिये ४० हजार विशेष दल के जवानों का चुनाव किया जा चुका है जो आगामी दिनों में संयुक्त कार्यवाही में भाग लेंगें.
ऎसा पहली बार नहीं है जब सरकार इतनी उदार हुई हो बल्कि इससे पहले राज्य के स्तर पर आंध्रा, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में कई बार ये प्रस्ताव रखे जा चुके हैं पर वार्तायें या तो असफल हुई हैं या फिर सरकार की शर्त पर माओवादी वार्ता करने को तैयार ही नहीं हुए हैं. १९९५ में दिग्विजय सिंह के प्रस्ताव पर माओवादी नेता गोपन्ना ने भी शर्त रखी थी और वह थी विशेष शसस्त्र बल हटाने, पुलिस बल न बढाने, लोगों को नुकसान का मुवाबजा देने, और ऎसे बेकसूर गिरफ़्तार लोग जिन्होंने महज माओवादियों को रास्ता दिखाया या खाना खिलाया उन्हें रिहा करने की पर शर्तें नामंजूर हुई और वार्तायें असफल. जिन्हें होना भी था क्योंकि माओवाद आज महज सरकार की कमियों से उत्पन्न एक स्थिति ही नहीं है बल्कि यह एक असमानता युक्त व्यवस्था से असंतुष्टि भी है. जो अपने क्षेत्र विस्तार के साथ ही विचारों में भी व्यापक होता गया है. माओवाद दिनों-दिन अपनी संरचना व क्रियान्वयन में भी व्यापक होता गया है तभी आज ऎसी स्थिति बन पायी है कि महिलाओं की बडे हिस्से पर भागीदारी के साथ उनका शीर्षस्थ पदों पर पहुंचना संभव हुआ है. शायद गृहमंत्री इन्हें डकैतों के टोली की सरगना कह दें.
इन सारी स्थितियों को समझते हुए या न समझते हुए क्या शसस्त्र कार्यवाहियों से एक विचार को उडाया जाना मुमकिन है. भले ही ४० हजार के बजाय ४ लाख की फोर्स तैनात क्यों न कर दी जाय. क्योंकि सरकार के पास पैसे और बारूद की इतनी बडी और सरकारी भाषा में वैध ताकत है कि उसके आगे माओवादियों की सशस्त्र सेना निहायत छोटी होगी. पर दोनों में मूलभूत अंतर है कि माओवादी भाडे पर नहीं खरीदे गये हैं. इसकी पूरी संभावना है कि सरकारी सेना इनका नेस्तनाबूत कर दे पर इस पर पूरा यकीन है कि यदि व्यवस्था की संरचना में सवाल बचे रहे तो वह फिर से निर्मित हो जायेगी.
यदि इतिहास हमे भविष्य निर्मित करने की समझ देता है तो पिछले चार दशकों यानि ४० वर्षों में नक्सलवाडी से आज तक माओवादियों के संघर्ष और सत्ता द्वारा उनके उन्मूलन को लेकर अख्तियार किये गये अब तक के तरीकों से सीखना होगा जोकि मामूली नहीं रहे हैं. छत्तीसगढ़ तब मध्यप्रदेश का हिस्सा था जब नक्सली उन्मूलन के महानीरिक्षक अयोध्यानाथ पाठक बनाये गये उस समय नक्सली इलाकों में पुलिस कर्मी शिक्षक के वेश में जाया करते थे और नक्सली गतिविधियों पर नजर रखते थे. यह माना गया कि नक्सली गाँव वालों के साथ इतने घुले मिले होते हैं कि कई बार पहचान ही मुश्किल हो जाती है और इस तरीके को अपनाते हुए तत्काल पुलिस अधीक्षक सुदर्शन ने ग्रामीणों के साथ अपने तौर तरीकों में बदलाव लाया. जब वे ग्रामीणों के बीच जाते तो जमीन पर बैठते, पता नहीं गाँव वालों ने इस पुलिस के इस बदले हुए रूप किस तरह लिया पर मीडिया को यह तरीका कफी पसंद आया और पुलिस का यह उदार चरित्र बडे पैमाने पर प्रसारित किया गया. तरीका यह भी अख्तियार किया गया कि पुलिस कई दिनों तक जंगलों में नक्सली दलम बनकर घूमती रही. १९९०-९२ के आस-पास जनजागरण अभियन चलाये गये और गाँव-गाँव जाकर यह बताया गया कि नक्सली अपराधी हैं. एन.एस.जी. जैसी एजंसी जो कि प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को सुरक्षा प्रदान करती है उसे तैनात किया गया. इस तरह के अन्य कई प्रयोग किये गये..
वहाँ के तत्कालीन डी.आई.जी. पन्ना लाल ने दावा किया कि बहुत जल्द ही राज्य इस समस्या से मुक्त हो जायेगा. उस समय के गृह राज्य मंत्री गौरी शंकर शेजवार ने तो यह भी कह डाला कि नक्सलवाद आखिरी सांसें ले रहा है यह बात १९९३ की है तब से अब तक १६ वर्ष बीत चुके हैं ये सारे प्रयोग और दावे आज खारिज हो चुके हैं. अगर जुनून में न हो तो वास्तविक स्थिति का अंदाजा कोई पुलिस वाला भी लगा सकता है. १९९७ में देव प्रकाश खन्ना जो वहाँ के डी.जी.पी. थे ने अपनी पुस्तक “ हम सब अर्जुन हैं” में इसे स्पष्ट भी किया है और व्यवस्था की संरचना व नक्सलवाद की समस्या को नये दृष्टि से रखने का प्रयास किया है. अंततः उस समय यह मान लिया गया कि नक्सलवाद के लिये कोई भी फौरी कार्यवाही महज आदिवासियों को नष्ट करना और उनका कत्लेआम होगा इसलिये इसका एलोपैथिक इलाज किया जाना चाहिये.

23 अक्टूबर 2009

अनभिज्ञता में लडे गये युद्ध की कहानी

अनभिज्ञता के साथ एक युद्ध हमारे और पिछले दशक के दर्शकों द्वारा लडा गया और हम हार गये. हमे हारना ही था क्योंकि हमारे शस्त्र नैतिकतायें थी, भावनायें थी, व हम आस्थावादी दर्शन की पैदाइस थे. दूसरी तरफ एक सुनियोजित विचार था जो एक व्यवस्था की सुदृढ़ता के लिये संकल्प बद्ध था. हारी हुई लडाईयाँ जीती नहीं जा सकती. हार में मिली हार के एहसास को बचाया जा सकता है. नयी पीढी को यह बताया जा सकता है कि मानव आबादी को तबाह किये बगैर कैसे एक समाज गुलाम बन जाता है, कि हमारे कितने सारे जश्न गुलामी के एक नये पायदान हैं.
मास मीडिया द्वारा लोगों तक निष्पक्ष खब़रों का पहुंचाया जाना एक झूठा तर्क साबित हो चुका है. ख़बरों की अपनी पक्षधरता होती है. एक ही ख़बर उन्हीं तथ्यों आंकडों के साथ कई तरह से बनायी जाती है और उनका प्रस्तुतीकरण किया जाता है. इनके मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी अलग-अलग पड़ते हैं. इसे जरूरत के मुताबिक विश्लेषित किया जाता है.
देश के २८ राज्यों में से १६ राज्यों में माओवादी आंदोलन है, कुल १८४ जिलों में माओवादी आंदोलन है, जिले के गावों को चिन्हित करें तो इसके प्रदर्शन का तरीका और भी बदल जाता है. ऎसे में मीडिया जब इसे एक बडे आंतरिक असुरक्षा के रूप में प्रदर्शित करना चाहती है तो यह भारत का नक्शा उठाती है और १६ राज्यों को लाल रंग से रंग देती है या जब जरूरत पड़ती है तो राज्यों के जिले व गाँवों को रंग दिया जाता है. आंकडे भी इसी लिहाज से प्रदर्शित किये जाते हैं. क्या ये तरीके ख़बरों को निष्पक्ष बना सकते हैं? इस रूप में निष्पक्षता या सबसे सटीक होना इनके हितों पर निर्भर करता है.
पिछले दिनों जब दाल की कीमतें आसमान छूने लगीं और अरहर की दाल १०५ रूपये किलो तक की कीमत में बिकने लगी तो शरद पवार के सामने प्रश्न उठा कि दाल की कीमत क्यों बढ़ रही है. पता चला कि म्यामा से आयातित लाखों टन दाल पश्चिम बंगाल के खिदिरपुर बंदरगाह पर सड़ रही है. मीडिया ने इस बात को जिस तौर पर रखा उससे यही लगा कि इसमे पश्चिम बंगाल सरकार का दोष है. अब पश्चिम बंगाल को उछाला जाना एक सरकार को उछाला जाना नहीं था बल्कि यह प्रयास था कि वामपंथी सरकार को दोषी करार दिया जाय. जबकि इसके आयात और वितरण की जिम्मेदारी केन्द्र सरकार की थी. यद्यपि इस बात को कहने का यह मतलब कतई नहीं है कि वाम पार्टीयां बहुत पाक साफ हैं पर इस मसले पर जिस तरह की रिपोर्टिंग कुछ अखबारों में हुई वह दुराग्रहपूर्ण था. इन दो उदाहरण के जरिये यह समझा जा सकता है कि निष्पक्षता के बजाय मीडिया एक पक्षधरता तय करवाती है. यह पक्षधरता किस तरह की होती है इस पर?
हम एक ऎसी व्यवस्था में जी रहे हैं जहाँ मीडिया का पूजीवादी व्यवस्था को बचाये रखने के लिये कार्य करना आवश्यक हो गया है. यदि यह किसी परिवर्तन या विकल्प की अवधारणा को लेकर कार्य करेगी तो यह स्वयं के स्वरूप को नष्ट कर देगी (यहाँ हम व्यवसायी मीडिया की बात कर रहे हैं). क्या मास मीडिया मालिकानों के लिये यह संभव है कि वे परिवर्तनकामी समाज के लिये कार्य कर सकें? एक वैकल्पिक सामाजिक ढांचे की निर्मिति के लिये लोगों को जागरूक करें? उन्हें पता है कि यदि ऎसा हुआ तो मास मीडिया का व्यवसाय बिखर जायेगा, कम-अज-कम निजी स्वरूप का टूटना तय है. अतः वे ऎसी मानसिकता का निर्माण करते हैं जो वर्तमान व्यवस्था को किसी तरह टिकाये रखे. पिछले कुछ दशकों में मास मीडिया का पूजीवाद के लिये यही योगदान रहा है जिसे राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय संदर्भों में समझने की जरूरत है. अंतरराष्ट्रीय संदर्भों में इसलिये क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद स्वतंत्र सूचना के प्रवाह की जो अवधारणा आयी वह बहुत ही महत्वपूर्ण है.
पूजीवाद की इस औद्योगिक संरचना में मीडिया एक सांस्कृतिक उद्योग के रूप में विकसित हुआ जिसने एक पूरी की पूरी संस्कृति को शनैः-शनैः ख़त्म किया और दूसरी संस्कृति को हमारे सामने खडा किया. यह सब अचानक घटित नहीं हुआ. चाहे वह अश्लीलता का मसला हो, पहनावे का मसला हो या हमारे खान-पान का. जब जन्मे बच्चे के मुंह से माँ का दूध छीनकर खरीदे हुए दूध को पिलाने का विकल्प दिया गया, जब फिल्मों में नग्नता दिखने लगी और आर्डियंस को उपभोक्ता के रूप में विकसित करने का प्रयास किया जाने लगा तो एक लम्बे समय बाद आने वाले परिणामों की परिकल्पना पहले की जा चुकी होगी. पुरानी फिल्मों में महिलाओं का जो स्वरूप दिखाया गया अपने मस्तिस्क पर जोर डालकर सोचें कि उस समाज के लिये कितना स्वीकृत रहा होगा. हमे लगता है स्थिति ठीक आज जैसी ही रही होगी. क्या ये सारे बदलाव जो धीरे-धीरे किये गये इस व्यवस्था को मजबूत बनाने में सहयोगी साबित नहीं हुए. ये तस्वीरें थी, भाषायें थी जो आपकी आखों के सहारे धीरे-धीरे आयी और आपके अचम्भे को शून्य कर दिया. लोगों का इन तस्वीरों से अचम्भित होना ख़त्म हो गया. अब नये अचम्भे के लिये आपको इससे आगे ले जाना था.
यह सब किरणों का कमाल था. ऎसा भी नहीं कि जो आपको पसंद न हो न देखें. मीडिया ने अपना पूरा खेल इसी फार्मूले पर किया कि लोगों को जो पसंद है हम वही दिखाते हैं जबकि इसका ठीक उल्टा था. दृश्य माध्यम एक अजूबा माध्यम था कुछ भी जो आपके सामने वास्तविकता जैसा घट रहा हो वह लोगों के द्वारा देखा जाना लाज़मी था. स्थिति यह हो गयी कि लोग इसके अभ्यस्त व आदी हो गये.
मनोरंजन के साधन की जब भी बात आती है तो वे कौन से साधन हैं जो हमारे मस्तिस्क में घुमड़ने लगते हैं. क्या वह टी.वी. नही है, क्या वह सिनेमा नहीं है, क्या रेडियो, मोबाइल नहीं है. अब इनके जरिये जो मनोरंजन होता है, उसकी विषय-वस्तु क्या है. दरअसल हमारे मनोरंजन की विषय-वस्तु हम नहीं तय करते यह उन व्यवसायी घरानों द्वारा तय किया जाता है जो आपके मनोरंजन में अपने व्यंजन भी पकाते हैं. इन्हें उदाहरणॊं के रूप में समझा जाना चाहिये कि आपके पसंद के गीतों को सुनने के लिये जब आपको फोन करना पड़ता है, लिटिल चैम्प्स या गीतों के स्टार चुनने के लिये आर्डियंस एस.एम.एस. करती है तो इससे करोडों का व्यापार तय होता है. यह मामला किसी खास कम्पनी से नहीं जुडा है बल्कि यह एक व्यवस्था के सुदृढीकरण से जुडा है. जहाँ अंततः हित पूजीवादियों का होता है. जबकि दूसरी तरफ गायकों या इस तरह की अन्य प्रतिभाओं को सेलीब्रिटी बनाना भी इसके हित से ही जुडी हुई बात है. जहाँ पूंजी सुविधा व प्रतिभाओं को निजीकृत कर स्टार बनाया जाता है, यह किसी व्यवस्था का अपना सांस्कृतिक आयाम होता है. दूसरी तरफ यह वैकल्पिक समाज व्यवस्था के सांस्कृतिक पहलू पर आघात इसी माध्यम से करता है. मसलन एक नये पहनावे, नये खान पान को प्रतिष्ठित नायकों के प्रदर्शन के जरिये लोगों के मस्तिस्क में उतारता है. लोकजन के माध्यमों को भी इसी रूप में व्यवसायिक मीडिया ने निगलने का प्रयास किया है लोकगीतों व लोकधुनों के मिक्सिंग से बाजारू बना दिया गया.
एक नयी सभ्यता, पुरानी सभ्यता की रीढ़ पर आकार ले चुकी है. हंसना रोना ये भाव प्रदर्शन के माध्यम थे पर आज लोगों के हंसने को भी टोंका जाता है, यह कहते हुए कि असभ्य की तरह मत हंसिये या रोइये. पर इस असभ्य के बरक्स जिस सभ्य की बात की जा रही है, उसका खाका कहाँ से आता है. एक सभ्य व्यक्ति कैसे हंसता है यह हमारा मस्तिस्क कहाँ से चित्रित करता है.
शिक्षा सूचना व सौन्दर्यबोध तक पर कब्जा जमाने के बाद देश में जो व्यापार का स्वरूप है, उसे मध्यम वर्ग के लिये, उच्च वर्ग के अनुरूप बनाया जा रहा है. इसके कुछ निहित कारण हैं एक तो मध्यम वर्ग की अपनी कुछ चारित्रिक विशेषतायें हैं जो मूलतः परिवर्तन विरोधी होती हैं और यथा स्थिति को बनाये रखने में मदद करती हैं. क्योंकि मध्यम वर्ग विकास को सामाजिक जड़ता के साथ देखता है. वह समाज को स्थिर करके अपने विकास को आंकता है पर सम्प्रेषण तंत्र के इतने बडे बदलाव को जितनी तेजी के साथ खारिज किया जा रहा है वह इस तंत्र के लिये घातक है.
५० हजार वर्ष पूर्व व्यक्ति ने बोलना सीखा और इस बोलने को व्यापक पैमाने पर प्रसारित करने के लिये जो तंत्र खोजे गये वे कुछ ही वर्ष पूर्व के हैं. टी.वी. का विस्तार हुए भारत में २० वर्ष भी नहीं हुए हैं. २४ घंटे के समाचार चैनल शुरू हुए और भी कम वर्ष गुजरे हैं पर लोगों के बीच में इनके खबरों की विश्वसनीयता कम हो रही है, अभी हाल में आये एक शोध से यह बात निकल कर आयी है. लोग खबरों की सत्यता के लिये अन्य विकल्पों का सहारा ले रहे हैं. पर जनमत बनाने में इनकी भूमिका आज भी उस वर्ग में अहम है जहाँ अशिक्षा है, शिक्षा है पर ज्ञान नहीं है.

18 अक्टूबर 2009

पश्चिम बंगाल के बुद्धिजीवी माओवादी हैं.?

कृपाशंकर चौबे

पश्चिम बंगाल शासन द्वारा मार्क्सवाद का एक विकृत पाठ तैयार किया जा रहा है। इस प्रक्रिया में सिंगुर-नंदीग्राम-लालगढ़ में सरकार की नीति का प्रतिरोध करने वाले वामपंथी बुद्धिजीवियों से राज्य शासन प्रतिशोध लेने को व्याकुल हो उठा है। नंदीग्राम गोलीकांड के बाद ही बुद्धदेव भट्टाचार्य की अगुवाईवाली वाममोर्र्चा सरकार ने बंगाल के बुद्धिजीवियों में विभाजन करा दिया था। सरकार ने अपने समर्थक बुद्धिजीवियों को "हमारे' और विरोधी बुद्धिजीवियों को "विद्वत्जन' संबोधन दिया था। "विद्वत्जन' संबोधन दरअसल कटाक्ष है। बाद में विद्वत्जनों की संख्या में इजाफा होते जाने पर उनकी आवाज बंद करने के लिए राज्य सरकार ने बर्बर हथकंडे अपनाने शुरू किए।

राज्य के पुलिस महानिदेशक भूपिन्दर सिंह ने लालगढ़ से गिरफ्तार छत्रधर महतो से मिली कथित सूचना का हवाला देते हुए पिछले दिनों कहा कि विद्वत्जनों (बुजुर्ग लेखिका महाश्वेता देवी, बुजुर्ग लेखक अम्लान दत्त, साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कवि जय गोस्वामी, फिल्मकार अपर्णा सेन, अभिनेत्री सावली मित्र, अभिनेता कौशिक सेन, नाटककार ब्राात्य बसु, रंगकर्मी अर्पिता घोष, चित्रकार शुभ प्रसन्न, गायक प्रतुल मुखोपाध्याय और नाटककार विभास चक्रवर्ती) ने लालगढ़ की पुलिस संत्रास विरोधी जन साधाराण कमेटी के आंदोलन और उसके नेता छत्रधर महतो की मदद कर गैरकानूनी क्रियाकलाप निरोधक (संशोधन) कानून (यूएपीए) को तोड़ा है, इसलिए उनके विरुद्ध यथोचित कार्रवाई की जाएगी। पाठकों को बता दें कि यह वही पुलिस महानिदेशक भूपिन्दर सिंह हैं जिन पर सिंगुर में तापसी मल्लिक हत्याकांड की लीपापोती करने का आरोप लगा था। सिंगुर में जमीन के जबरन अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलन कर रही तापसी मल्लिक की बलात्कार के बाद हत्या की गई तो भूपिंदर सिंह वहाँ उसके पिता से मिले और उसके बाद तापसी व उसके पिता के चरित्र का हनन करने वाली टिप्पणियां कीं। बाद में भूपिन्दर सिंह पर नंदीग्राम में तो माकपा के अनुगत के रूप में ही काम करने का आरोप लगा था। बहरहाल, पुलिस महानिदेशक द्वारा विद्वत्जनों के बारे में दिए गए बयान को राज्य के मुख्य सचिव अशोक मोहन चक्रवर्ती ने दोहराया। राज्य सरकार तीन दिनों तक कहती रही कि कानून की नजर में सभी एक समान हैं। चाहे कोई कितना भी बड़ा विद्वान क्यों न हो? राज्य सरकार ने तो विद्वत्जनों से पूछताछ करने की योजना भी बना ली थी कि इसी बीच तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी ने इस मामले पर कड़ा रूख अपनाते हुए धमकी दी कि विद्वत्जनों को नाहक हिरासत में लिया गया तो पूरा बंगाल जल उठेगा। इस धमकी के बाद सरकार विद्वत्जनों से पूछताछ की योजना टालने को बाध्य हुई।

कहना न होगा कि बुद्धदेव सरकार की गलत नीतियों का विरोध करने वाले बुद्धिजीवियों को भयाक्रांत करने और उनके बारे में जनता के बीच संदेह पैदा करने के लिए ही तीन दिनों तक राज्य सरकार ने दुष्प्रचार चलाया। यही नहीं, महाश्वेता देवी समेत अन्य विद्वत्जनों के घर पर खुफिया पुलिस द्वारा निगरानी भी शुरू कर दी गई। मानो बंगाल में ओषित अपातकाल लागू कर दिया हो। विद्वत्जनों के माओवादी होने का यह कोई पहली बार दुष्प्रचार नहीं हो रहा है। 3 जुलाई 2007 को कोलकाता पुलिस की वेबसाइट 'कोलकाता पुलिस.आर्ग' में लिखा गया था कि महाश्वेता देवी और शिक्षाविद् प्रोफेसर सुनंद सान्याल की अगुवाई वाला 'संहति उद्योग' सीपीआई (माओवादी) से संबद्ध संगठन है। बाद में बुद्धिजीवियों ने इसका तीव्र प्रतिवाद करते हुए जब पूछा कि पुलिस को यह अधिकार किसने दिया कि वह किसी जनसंगठन या व्यक्ति को माओवादी बताए? बुद्धिजीवियों के तीव्र प्रतिवाद के बाद ही वेबसाइट से यह सूचना हटाई गई थी।

पुलिस विभाग मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के पास है और सिंगुर-नंदीग्राम व अन्यत्र सरकार के विरूद्ध लड़ने के कारण महाश्वेता देवी व अन्य बुद्धिजीवियों पर दवाब बनाने के लिए उन्हें बार-बार माओवादी या माओवादी समर्थक करार दिया जाता रहा है। बुद्धदेव सरकार तो नंदीग्राम के किसान आंदोलन के पीछे भी माओवादियों के हाथ होने का दुष्प्रचार करती रही। और तो और, राज्य सरकार तृणमूल कांग्रेस और माओवादियों के बीच सांठ-गांठ होने का भी प्रचार करती रही है। अब फिर सरकार कह रही है कि पुलिस संत्रास विरोधी जन साधारण कमेटी दरअसल माओवादियों का शाखा संगठन है, इसलिए विद्वत्जनों ने कमेटी के आंदोलन का समर्थन कर और उसे आर्थिक मदद देकर जुर्म किया। सवाल है कि बंगाल के बुद्धिजीवी किस आंदोलन को समर्थन देंगे, यह साम्यवादी शासन तय करेगा? लालगढ़ में बंगाल पुलिस ने माओवादियों की तलाशी के नाम पर आदिवासी महिलाओं पर जो अत्याचार किया था, उसके खिलाफ ही आदिवासियों ने पुलिस संत्रास विरोधी जनसाधारण कमेटी का गठन कर आंदोलन शुरू किया था। उस आंदोलन का विद्वत्जनों ने समर्थन किया था, न कि माओवादियों का। महाश्वेता देवी से लेकर अपर्णा सेन तक - सारे के सारे विद्वत्जनों ने सार्वजनिक तौर पर बार-बार बयान दिए कि वे आदिवासियों के आंदोलन के साथ हैं न कि माओवादियों के।

यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि विद्वत्जनों ने जब पुलिस संत्राम विरोधी जन साधारण कमेटी के आंदोलन का समर्थन किया था, तब वह कमेटी प्रतिबंधित नहीं थी। आज भी यह कमेटी प्रतिबंधित नहीं है। किसी प्रतिबंधित संगठन से यदि विद्वत्जन संपर्क रखते, तब उन पर कार्रवाई की जा सकती थी। अभी कहा जा रहा है कि छत्रधर महतो के माओवादियों से संपर्क हैं, इसलिए उन पर गैरकानूनी क्रियाकलाप निरोधक (संशोधित) कानून (यूएपीए) के तहत कार्रवाई की जा रही है। यहाँ यह भी गौर-तलब है कि नेपाल के माओवादियों से तो माकपा की पोलित ब्यूरो के सदस्य सीताराम येचुरी के भी सम्पर्क रहे। माकपा के लिए नेपाल के माओवादी अच्छे हैं और बंगाल के माओवादी खराब हैं? नेपाल और भारत के माओवादियों में क्या आदर्शगत अंतर है? इस सवाल पर माकपा ने क्यों चुप्पी ओढ़ रखी है?

दरअसल साम्यवादी सरकार बुद्धिजीवियों के माओवादियों से संबंध होने का दुष्प्रचार एक कौशल के तहत करती रही है। उसमें अन्तर्निहित मकसद था कि बुद्धिजीवियों को इतना भयाक्रांत कर दिया जाए कि वे स्वत: लालगढ़ के आंदोलन से दूर हो जाएं और तब केंद्र और राज्य के सशस्त्र पुलिस बलों की मदद से माकपा लालगढ़ को दखल में ले लेगी। लालगढ़ में केंद्रीय अर्धसैनिक बलों और राज्य पुलिस बल के अभियान शुरू होने के बाद अपर्णा सेन व सांवली मित्र के नेतृत्व में आठ बुद्धिजीवी जब लालगढ़ गए तो उनके खिलाफ निषेधाज्ञा के उल्लंघन का मामला दायर किया गया। उसके ठीक बाद माकपा कैडरों ने लालगढ़ के पास मोटर साइकिल जुलूस निकाल कर इलाका दखल अभियान चलाया। उन कैडरों पर निषेधाज्ञा का कोई मामला क्यों नहीं दायर किया गया? नंदीग्राम गोलीकांड के बाद पुलिस की मदद से माकपा कैडरों ने इसी तरह मोटर साइकिल जुलुस निकाल कर नंदीग्राम को दखल में लिया था और उसे "सूर्योदय' की संज्ञा दी थी। पुलिस प्रशासन की मदद से हथियारों के बल पर ही माकपा ने खेजुरी और केशपुर आदि में दखल कर रखा है। इन सारे के क्रियाकलापों में साम्यवादी शासन का संकट स्वत: ही उजागर नहीं हो रहा है?

09 अक्टूबर 2009

आदिवासियों के सामने विकल्प क्या है ?

अनिल चमड़िया
आदिवासियों के विद्रोह और आंदोलन के इतिहास से दुनिया अंजान नहीं है।जब माओवाद नहीं था तब भी बिरसा मुंडा, सिद्धु- कान्हू,तिलका मांझी की एक लंबी परंपरा दिखाई देती है। वे अंग्रेजों के खिलाफ थे क्योंकि वे उनके जंगल जमीन और जिंदगी में अपना दखल रखना चाहते थे।उनके लिए जातीय विरोधी युद्ध जैसा था। भारत में माओवाद को एक राजनीतिक संघर्ष का वैचारिक माध्यम बनाने से पहले तेलंगाना और अविभाजित बंगाल का तिभागा आंदोलन आदिवासी असंतोष की राजनीतिक लड़ाई थी। जिस झारखंड में माओवाद और नक्सलवाद का प्रभाव बताया जाता है वहां पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी में विद्रोह से पहले आदिवासियों के आंदोलनों की एक लंबी कड़ी रही है। झारखंड के एक साप्ताहिक खबरखंड ने 10 जून 2009 को माओवादियों द्वारा दस पुलिस वालों के मारे जाने की घटना के आलोक में जो लिखा है वह गौरतलब है। अखबार लिखता है कि सारंडा जंगल में बंदूक की नली अब धूम चुकी है। पहले बंदूक की गोली अपने अधिकारों के लिए संघर्षशील ग्रामीणों पर चला करती थी। अब वहीं बंदूक की नली पुलिस की तरफ तनकर खड़ी हो गई है। ये जानने के लिए किसी भी आदिवासी इलाके का अध्धयन किया जा सकता है कि वहां अंग्रेजों की सरकार के बाद की सरकारों पर अपनी जिंदगी की बेहतरी के लिए भरोसा किया जाता रहा ।उस भरोसे के तहत ही उन्होने आंदोलन किए । लेकिन आदिवासी इलाके के अध्धयन बताते है कि सरकार ने अपनी पुलिस के जरिये उन आंदोलनों को दबाने के लिए उन पर बेतरह गोलियां चलायी। मुठभेड़ के नाम पर हत्याएं की। एकीकृत सिहभूम में, जहां टाटानगर भी है, सतरह बार पुलिस ने गोलियां चलायी। खबरखंड लिखता है कि सारंडा के जंगलों में नक्सलियों की उपस्थिति से पुलिसिया खौफ काफी हद तक कम हो गया है। पश्चिम बंगाल के पश्चिम मिदनापुर में लालगढ़ के हालात को किस तरह से देखा जाए? देश में साठ साल से ज्यादा समय से कांग्रेस और भाजपा के नेतृत्व में सरकार रही है।पश्चिम बंगाल में वामपंथी पार्टियों की तीस वर्षों से सरकार हैं। ये सभी पार्टियां आदिवासी इलाकों से चुनकर आने वाले अपने प्रतिनिधियों की संख्या के आधार पर एक दूसरे के मुकाबले आदिवासियों के बीच अपनी लोकप्रियता का दावा ठोकते रहते हैं।तब लालगढ़ जैसे तमाम आदिवासी इलाके के संदर्भ में ये सवाल उठाया जाना चाहिए कि ये आदिवासियों के बीच भरोसे को खोने का मामला है या ऐसे इलाकों में माओवादियों की उपस्थिति का पहलू प्राथमिक हैं। आदिवासियों के लिए लालगढ़ के इलाके में 35 हजार करोड़ की स्टील परियोजना क्या उस स्थिति से अलग है जब अंग्रेजों ने पहली बार किसी आदिवासी इलाके में अपना वर्चस्व कायम करने का इरादा किया था ? आखिर अपने नियमों , शर्तों, परंपराओं के आधार पर जीवन बसर करने वाले आदिवासियों से अब तक की सरकारें क्या चाहती रही है ? क्या ये कहना अनुचित होगा कि आदिवासी अब तक सरकारों के द्वारा अपने खिलाफ युद्ध थोपने की स्थिति में खुद को महसूस करती रही हैं? दुनिया का इतिहास इस तरह के उदाहरणों से भरा पड़ा है जिसमें गैरजातीय वर्चस्व की स्थिति में स्थानीय समाज ने विद्रोह कर दिया है।इतिहास का ये सबसे नया उदाहरण है जब अमेरिका ने इराक पर हमले की योजना तैयार की तो उसने इराक के शासकों के पास मानव समाज को नाश करने वाले रसायनिक हथियारों के होने का दावा किया था। लेकिन दुनिया जानती है कि वह इराक के संसाधनों पर कब्जे के लिए एतकरफा युद्ध छेड़ा गया। वहां की जनता अब भी दुनियाभर की सेनाओं के खिलाफ लगातार लड़ रही है।दुनिया में अभी ऐसा लोकतंत्र नहीं आया है जब सचमुच सभी लोगों को वह अपने शासन जैसा लगे।अभी तक का लोकतंत्र समाज के प्रभुत्वशाली वर्ग के वर्चस्व को बनाए रखने की कवायद तक ही सीमित है। भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था इससे अलग नहीं है।इसमें समाज के दमित समूहों के लिए संदेश साफ है कि उन्हें जिस हालात में रखा जाता है उसे वह स्वीकार करें।प्रतिनिधित्ववादी लोकतंत्र में राजनीति को विभिन्न वर्गों को यथास्थिति से बाहर निकालकर बेहतर स्थिति में लाने का माध्यम माना जाता है। लेकिन यह मानने में किसी को शर्म नहीं आनी चाहिए कि समाज के दमित वर्ग के लिए प्रतिनिधित्ववादी लोकतंत्र कामयाब नहीं हो पाया।दमित वर्ग के प्रतिनिधि प्रभुत्वशाली संस्कृति के बड़े चट्टान के नीचे दबे जीवो से ज्यादा की स्थिति में नहीं रह पाता है। इसके लिए एक आंकड़ा काफी है कि बीस रूपये से कम पर रोजाना चैरासी करोड़ नागरिक जीवन बसर कर रहे हैं।राजनीतिक विचारधाराओं के व्यवहार में कोई अंतर नहीं है। बल्कि ये कहा जाए कि दमितों की मुक्ति के लिए जितने भी विचारधाराएँ विकसित हुई उस पर समाज के वर्चस्ववादी समूहों ने कब्जा कर लिया है।जब समाज के राजनीतिक हालात ऐसे हो तो उस सत्ता के किसी भी तंत्र से ये उम्मीद नहीं की जा सकती है कि वह दमितों के दमन और वर्चस्व को कायम रखने की सेना के रूप में काम नहीं करती होगी।लाल गढ़ में 2 नंवबर 2008 के बाद आदिवासियों के दमन की घटनाओं के बारे में भी यही कहा जा सकता है। मौजूदा सरकारों के लिए समस्या ये नहीं है कि आदिवासियों के हालात बदत्तर हुए हैं।वह आदिवासियों के बीच माओवादी विचारधारा के विस्तार से परेशान हैं।किसी भी राजनीतिक समाज में किसी भी जातीय समूह या तबके के पास अपनी बदत्तर स्थिति में परिवर्तन लाने के लिए क्या रास्ते बचते हैं? वह अपने सामने मौजूद विभिन्न राजनीतिक विकल्पों में से एक का चुनाव करता है। लेकिन जब उसके सामने खड़े सारे विकल्पों के चेहरों पर एक सा मुखौटा दिखता हो तो वह क्या कर सकता है। उसे उनमें से किसी के मुखौटे के उतरने का इंतजार करना चाहिए ? यदि भारत के राजनीतिक हालात के परिपेक्षय में इस सवाल का जवाब चाहें तो क्या मिल सकता है? यदि झाड़ग्राम के पास के इलाके में गुजरात से चलकर बापू आशाराम जाए और आदिवासियों के बीच विकल्प बनें तो शायद माओवाद से एतराज करने वालों को कोई परेशानी नहीं होगी। एक बात बहुत स्पष्ट करनी चाहिए कि माओवाद से परेशानी है? या फिर माओवादियों की हिंसा से परेशानी है। क्या माओवाद के खुले प्रचार की यहां के लोकतंत्र में इजाजत हैं? लाल गढ़ में माओवादियों ने कितनी हिंसा की है ? क्या किसी की भी इतनी हिंसा को इस तरह की अंधाधुन सैनिक कारर्वाई के लिए सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया जा सकता है ? सचमुच आम नागरिकों के खिलाफ इतनी हिंसा हुई है कि इतनी बड़ी सेना के जरिये आदिवासियों का भरोसा हासिल करने की नौबत आ पड़ी ? सरकारी मशीनरी की हिंसा ने आदिवासियों के बीच भरोसा खोया है ।उसे सैनिक बलों की माओवादियों के खिलाफ कार्रवाईयों के नाम पर हासिल नहीं किया जा सकता है। देश के कई हिस्सों में सत्ता की मशीनरी अपना विश्वास खो रही है।कानून एवं व्यवस्था को बहाल करने के नाम पर सैनिक बलों की कार्रवाईयों ने स्थितियों को और जटिल किया है। यदि सचमुच लोकतंत्र की स्थापना का इरादा है तो सरकार की चिंता का पहलू ये होना चाहिए कि भरोसे खोने के उसके इलाके में इस कदर इजाफा क्यों हो रहा है।दरअसल प्रचार माध्यमों ने लोगों के बीच सवाल जिस रूप में जाने चाहिए उसे अपने आईने से उल्ट देने के सिद्धांत को तेजी से लागू कर दिया है।पूरी दुनिया में सरकारें इन्हीं प्रचार माध्यमों के जरिये अपने शुरू किए गए युद्धों को जीतने की योजना बनाती है। कोई भी इस तरह की इजाजत शासितों को नहीं देना चाहता है कि चाहें वह लालगढ़ के आदिवासी हो या समाज का कोई भी हिस्सा खुद ही ये तय कर लेगा कि उसे माओवाद या मौजूदा किसी भी राजनीतिक विचारधारा से इतर किसी राजनीति पर कितना भरोसा करना चाहिए।

01 अक्टूबर 2009

बंगाल पुलिस ने मीडिया बनकर छला


मुझे एक न्यूज स्टोरी के लिए किसी व्यक्ति से कुछ जानकारी चाहिए। वह मीडिया से बात करने तो तैयार नहीं। मैं एक पुलिस अधिकारी होने का नाटक करके उसे पकड़ लूं तो वह सब कुछ बता देगा। मेरी न्यूज स्टोरी बन जायेगी। लेकिन क्या कानून इसकी इजाजत देगा, क्या समाज इसके लिए माफ करेगा? पश्चिम बंगाल की सीआईडी पुलिस ने ऐसा ही शर्मनाक तरीका चुना। लालगढ़ आंदोलन के चर्चित नेता छत्रधर महतो 26 सितंबर को पकड़ लिये गये। पुलिस ने पत्रकार का वेश बनाकर ऐसा किया। एक पुलिस अधिकारी ने खुद को एशियन न्यूज एजेंसी, सिंगापुर का संवाददाता अनिल मयी बताया। उसने पहले एक स्थानीय पत्रकार का विश्वास जीता। फिर उसके साथ जाकर छत्रधर महतो का साक्षात्कार लेने के बहाने गिरफ्तार कर लिया। हर संस्था का अपना अलग कार्यक्षेत्र है। इस नाते उसे कुछ विशेष रियायत मिली होती है। हर संस्था की अपनी अलग भूमिका के अनुरूप लोग उस पर भरोसा करते हैं। किसी चर्च के पादरी के सामने अपने दोष को स्वीकार करने वाले को भरोसा होता है कि वह इसका दुरुपयोग नहीं करेगा। चिकित्सक के सामने एक महिला किसी भरोसे के ही कारण अपने शरीर को अनावृत करती है।
हर संस्था की अपनी इस विशिष्टता को बनाये रखना जरूरी है। अपनी सुविधा के लिए किसी संस्था को दूसरे के भरोसे से खिलवाड़ करने का हक नहीं। भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री प्रायः अपने संबोधनों में बेहद शौक के साथ बताते हैं कि वामपंथी उग्रवाद या नक्सलवाद के पीछे आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक कारण हैं।

आबादी के बड़े हिस्से का इन आंदोलनों के साथ जुड़ाव भी जगजाहिर है। लिहाजा इन आंदोलनों और इससे जुड़ी आबादी की आकांक्षाओं एवं गतिविधियों को सामने लाने की दिशा में मीडिया को अपनी अहम भूमिका निभाने का पूरा हक है। मीडिया पर आम लोगों और आंदोलनकारियों के निर्विवाद भरोसे के जरिये ही मीडिया अपनी यह भूमिका निभा सकता है। मीडियाकर्मी अपनी जान पर खेलकर दूरदराज के इलाकों में जाते हैं। उनके पास बचाव का एकमात्र जरिया उसकी यह पहचान ही है। इस पहचान को बदनाम करने का हक किसी को नहीं दिया जा सकता। पश्चिम बंगाल पुलिस की इस हरकत के बाद मीडियाकर्मियों को देश के किसी भी इलाके में जाने पर ऐसे ही संदेह का शिकार होना पड़ेगा। उन पर जानमाल का गंभीर खतरा हरदम बना रहेगा।
कई बार पुलिस प्रशासनतंत्र द्वारा ऐसे मामलों में पत्रकारों को अपना दलाल या मुखबिर बनाने की कोशिश की जाती है। झारखंड के लातेहार जिले में ऐसी ही एक कोशिश हुई थी। जब मीडिया ने इसमें पुलिस का साथ नहीं दिया तो पुलिस ने प्रभात खबर के स्थानीय प्रतिनिधि पर आरोपों का पुलिंदा तैयार किया था। उस वक्त प्रभात खबर, रांची के तत्कालीन संपादक बैजनाथ मिश्र ने जवाबी पत्र लिखकर मीडिया की स्वतंत्रता एवं भूमिका के पक्ष में जोरदार तर्क दिये थे। इसके कारण पुलिस ने अपने नक्सल विरोधी अभियान में मीडिया को मोहरा बनाने की हिम्मत नहीं की। अब पश्चिम बंगाल की बहुरूपिया पुलिस ने पत्रकार का वेश बनाकर मीडिया संस्था पर भरोसे की हत्या कर दी है। यह हरकत ऐतिहासिक भूल है। यह बेहद शर्मनाक, आपत्तिजनक एवं अक्षम्य अपराध है। इसका पूरे मीडियाजगत और समाज को ऐसा पुरजोर विरोध करना चाहिए ताकि दुबारा कोई ऐसी हरकत करे। यह सुनिश्चित हो कि इसकी पुनरावृति कभी, कहीं, किसी भी परिस्थिति में हो। इस संबंध में स्पष्ट कानून भी तत्काल बनना चाहिए। विष्णु राजगढ़िया