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मंत्रालय का वह विज्ञापन आपको याद ही होगा जो अभी हाल ही में लगभग सभी अखबारों के आधे पन्ने पर छपा था जिसमें लिखा था कि माओवादी कोई क्रांतिकारी नहीं बल्कि डकैत हैं. यदि मैं सही सही याद कर पा रहा हूँ तो शायद कुछ ऎसा ही लिखा था. माओवादी पहले आर्थिक राजनैतिक समस्या की उपज थे फिर लालगढ़ के समय वे आतंकवादी और झारखण्ड के वक्तव्य में भटके हुए लोग हैं. यानि माओवादी = आर्थिक और राजनीतिक समस्या = आतंकवादी = डकैत = भटके हुए युवा = कोबाड गांधी, और यहाँ पर मेरा शब्द ज्ञान भहरा कर गिर जाता है. मुझे नहीं पता पर यदि गृहमंत्री चिदम्बरम का ही हवाला दिया जाय तो माओवाद का प्रभावित क्षेत्र भी बढ़कर २० राज्यों के २२३ जिलों में पहुंच चुका है जो कि २००५ में १४ राज्यों में ही था. जबकि सरकार इतनी मजबूती के साथ खडी हो, जबकि सभी तरह की गतिविधियों पर पाबंदी और अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध हो, माओवाद के इतनी तेजी से फैलने के क्या कारण हो सकते हैं? यदि यही स्थिति रही तो क्या यह अनुमान लगाया जाय कि विजन २०२० तक माओवादी............. यानि देश का हर राज्य आंतरिक रूप से असुरक्षित हो जायेगा. मैं चिदम्बरम के उस देश का मायने जानने की कोशिश करता हूँ जिसे वे सुरक्षित रखना चाहते हैं और जिसे माओवादी असुरक्षित बना रहे हैं. मसलन लालगढ़, नंदीग्राम, बस्तर के सहारे यह जानने का प्रयास करता हूँ कि चिदम्बरम के राष्ट्र का नागरिक कौन है जिसे सुरक्षा देने का जिम्मा उन्होंने उठाया है. क्या वह टाटा है, सालबोनी है, जिन्दल है, एस्सार है?
यह सुरक्षा यहीं तक सीमित नहीं रही बल्कि पिछले कुछ वर्षों में सांस्कृतिक व मानसिक रूप से लोगों को सुरक्षित करने का प्रयास किया जा रहा है कि कहीं वे संसदीय राजनीति से परे किसी अन्य विकल्प पर न सोचने लगें. उडी़सा के पत्रकार लक्ष्मण चौधरी पर राजद्रोह का मुकदमा इसीलिये लगाया जा रहा है, बस्तर के पत्रकार हैं कि पुलिस की बतायी खबरों पर विश्वास तो करते हैं पर इसके अलावा भी उन तक खबरें पहुंच जा रही हैं पर अब यह सब ख़त्म होने जा रहा है. माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में अखबार पढो़ या अपने पडो़स के किसी थाने में जाकर बात कर लो दोनों से आपको वही सूचना मिलेगी क्योंकि अखबारों के स्रोत अब वही रह गये हैं. दांतेवाडा़ के एस.पी. अम्रीस मिश्रा ने आदेश जारी कर दिया है कि मीडिया कर्मीयों को देखते ही सूट कर दो यह एक मौखिक आदेश है जिसका आने वाले दिनों में लिखित होना संभव है पर लिखित और मौखिक का कोई फर्क नहीं पड़ता. उनके पास माओवादियों के कुछ पर्चे मिले हैं आखिर एक पत्रकार यदि निष्पक्षता के साथ खबरें लाना चाहे तो दूसरे पक्ष का स्रोत क्या होगा.संविधान में लिखित रूप से अभिव्यक्ति की आज़ादी व एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में नागरिक अधिकार होने के बावजूद भी वे कौन से कानून हैं जो पी. गोविन्दम कुट्टी को पीपुल्स मार्च निकालने से रोकते हैं या दानिस प्रकाशन की पुस्तकों पर प्रतिबंध लगाया जाता है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित कर दिया गया है या फिर वे आज तक मिली ही नहीं जहाँ उन पार्टीयों व संगठनों को भी असहमति ज़ाहिर करने का मौका मिले जो सत्ता तंत्र के खिलाफ हैं. लोकतंत्र की आलोचना भी सत्ता तंत्र में रहते हुए ही की जा सकती है. पी. चिदम्बरम ने अभी अपने नये बदले हुए रुख के साथ यह भी कह डाला कि माओवादी एक सशस्त्र राजनीतिक पार्टी है तो क्या यह मान लिया जाय कि गृह मंत्रालय से जारी वह विज्ञापन जिसमे कोल्ड ब्लड मर्डरर कहा गया था वह गलत था. फिर तो इस गलती के लिये एक विज्ञापन गृहमंत्री को निकलवाना ही चाहिये. यदि माओवादी राजनीतिक पार्टी है तो एक पार्टी को अपना मुख पत्र निकालने की छूट मिलनी चाहिये और देश में बंद उन तमाम माओवादी नेताओं के साथ राजनीतिक कैदी जैसा व्यवहार किया जाना चाहिये. अपराधी के तौर पर उनके साथ हो रहे व्यवहारों को रोका जाना चाहिये. जबकि उन्हें अन्य कैदियों से मिलने जुलने की छूट तक नहीं है. उन्हें न तो लिखने-पढ़ने की सामाग्री मुहैया होती है और न ही पत्र पत्रिकायें. पर समय-समय पर पी. चिदम्बरम के बदलते बयान को किस रूप में लिया जाय? क्या यह मान लिया जाय की कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद से अब तक जो बयान आये हैं वह उनकी बढ़ती समझदारी के रूप में हैं. फिर तो उन्हें माओवादी पार्टी को और समझने का प्रयास करना चाहिये और लोगों को गृहमंत्री के अगले बयान की प्रतीक्षा. ऐसी स्थिति में ही वे सैन्य कार्यवाही छेड़ने जा रहे हैं जिसमे जन संहार होना तय है क्योंकि पिछले आंकडों पर गौर करें तो अभी है माओवादी इलाकों में हुई कार्यवाहियों में नागरिक समाज यानि बहुसंख्या में निर्दोष आदिवासियों की हत्यायें ही बडे़ पैमाने पर हुई हैं.
सीताराम यचुरी ने अपने एक आलेख में माओवाद को इस आधार पर खारिज किया कि गड़्चिरौली में चुनाव बहिस्कार के फरमान को नकार लोगों ने दिखा दिया है कि वे किसके साथ हैं पर वे पूरी स्थितियों को छुपा गये कि यह मतदान नहीं बल्कि पुलिस बंदूक का भय था जिसने ग्रामीणों को बटन दबाने के लिये बाध्य किया. जब पुलिस यह फरमान जारी करे कि जो मतदान नहीं करेगा वह गिली खाने को तैयार हो जाय तो मौत या मत के विकल्प में आपका क्या चुनाव होगा.
गड़चिरौली में मतदान कैसा रहा यह गड़चिरौली प्रेस क्ल्ब के पत्रकारों से पूछा जाना चाहिये जो मसेली गाँव में जबरन मतदान करवाती पुलिस को कवर करने गये तो लाठियाँ खाई और बंधक बनाकर रखे गये. महाराष्ट्र के गोंदिया, सतरा, यवतमाल जैसे इलाके जहाँ माओवादियों का प्रभाव नहीं है वहाँ भी लोगों ने मतदान का बहिस्कार किया. पिछले चुनाव के मुकाबले इस चुनाव में मत डालने का प्रतिशत कम हुआ है. यदि मत प्रतिशत ही स्वीकार्यता या नकार को तय करती है तो क्या यह नहीं माना जाना चाहिये कि दुकानों, स्कूलों, फैक्ट्रियों को जबरन बंद कराने व टी.वी. पर लगातार सेलिब्रिटीज के प्रचार के बाद भी ५४ प्रतिशत लोगों ने मुंबई में चुनाव को नकार दिया और ४६ प्रतिशत ही वोट पडे़. क्या इसे संसदीय लोकतंत्र को खारिज हुआ मान लिया जाय.
पर यह उदारीकरण का दौर है और चिदम्बरम व मनमोहन सिंह...... क्षमा करें, शायद मुझे इनके पीछे “जी” लगाना चाहिये वरना मैं इस अपमान के लिये किसी जनसुरक्षा अधिनियम का अपराधी हो सकता हूँ. उदारीकरण के इस दौर में अपना उदार रुख अपनाते हुए ये माओवादियों के साथ बात करने को तैयार हैं. शर्त यह है कि माओवादी हिंसा का रास्ता छोड़ दें. जबकि दूसरी तरफ माओवादियों के उन्मूलन के लिये ४० हजार विशेष दल के जवानों का चुनाव किया जा चुका है जो आगामी दिनों में संयुक्त कार्यवाही में भाग लेंगें.
ऎसा पहली बार नहीं है जब सरकार इतनी उदार हुई हो बल्कि इससे पहले राज्य के स्तर पर आंध्रा, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में कई बार ये प्रस्ताव रखे जा चुके हैं पर वार्तायें या तो असफल हुई हैं या फिर सरकार की शर्त पर माओवादी वार्ता करने को तैयार ही नहीं हुए हैं. १९९५ में दिग्विजय सिंह के प्रस्ताव पर माओवादी नेता गोपन्ना ने भी शर्त रखी थी और वह थी विशेष शसस्त्र बल हटाने, पुलिस बल न बढाने, लोगों को नुकसान का मुवाबजा देने, और ऎसे बेकसूर गिरफ़्तार लोग जिन्होंने महज माओवादियों को रास्ता दिखाया या खाना खिलाया उन्हें रिहा करने की पर शर्तें नामंजूर हुई और वार्तायें असफल. जिन्हें होना भी था क्योंकि माओवाद आज महज सरकार की कमियों से उत्पन्न एक स्थिति ही नहीं है बल्कि यह एक असमानता युक्त व्यवस्था से असंतुष्टि भी है. जो अपने क्षेत्र विस्तार के साथ ही विचारों में भी व्यापक होता गया है. माओवाद दिनों-दिन अपनी संरचना व क्रियान्वयन में भी व्यापक होता गया है तभी आज ऎसी स्थिति बन पायी है कि महिलाओं की बडे हिस्से पर भागीदारी के साथ उनका शीर्षस्थ पदों पर पहुंचना संभव हुआ है. शायद गृहमंत्री इन्हें डकैतों के टोली की सरगना कह दें.
इन सारी स्थितियों को समझते हुए या न समझते हुए क्या शसस्त्र कार्यवाहियों से एक विचार को उडाया जाना मुमकिन है. भले ही ४० हजार के बजाय ४ लाख की फोर्स तैनात क्यों न कर दी जाय. क्योंकि सरकार के पास पैसे और बारूद की इतनी बडी और सरकारी भाषा में वैध ताकत है कि उसके आगे माओवादियों की सशस्त्र सेना निहायत छोटी होगी. पर दोनों में मूलभूत अंतर है कि माओवादी भाडे पर नहीं खरीदे गये हैं. इसकी पूरी संभावना है कि सरकारी सेना इनका नेस्तनाबूत कर दे पर इस पर पूरा यकीन है कि यदि व्यवस्था की संरचना में सवाल बचे रहे तो वह फिर से निर्मित हो जायेगी.
यदि इतिहास हमे भविष्य निर्मित करने की समझ देता है तो पिछले चार दशकों यानि ४० वर्षों में नक्सलवाडी से आज तक माओवादियों के संघर्ष और सत्ता द्वारा उनके उन्मूलन को लेकर अख्तियार किये गये अब तक के तरीकों से सीखना होगा जोकि मामूली नहीं रहे हैं. छत्तीसगढ़ तब मध्यप्रदेश का हिस्सा था जब नक्सली उन्मूलन के महानीरिक्षक अयोध्यानाथ पाठक बनाये गये उस समय नक्सली इलाकों में पुलिस कर्मी शिक्षक के वेश में जाया करते थे और नक्सली गतिविधियों पर नजर रखते थे. यह माना गया कि नक्सली गाँव वालों के साथ इतने घुले मिले होते हैं कि कई बार पहचान ही मुश्किल हो जाती है और इस तरीके को अपनाते हुए तत्काल पुलिस अधीक्षक सुदर्शन ने ग्रामीणों के साथ अपने तौर तरीकों में बदलाव लाया. जब वे ग्रामीणों के बीच जाते तो जमीन पर बैठते, पता नहीं गाँव वालों ने इस पुलिस के इस बदले हुए रूप किस तरह लिया पर मीडिया को यह तरीका कफी पसंद आया और पुलिस का यह उदार चरित्र बडे पैमाने पर प्रसारित किया गया. तरीका यह भी अख्तियार किया गया कि पुलिस कई दिनों तक जंगलों में नक्सली दलम बनकर घूमती रही. १९९०-९२ के आस-पास जनजागरण अभियन चलाये गये और गाँव-गाँव जाकर यह बताया गया कि नक्सली अपराधी हैं. एन.एस.जी. जैसी एजंसी जो कि प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को सुरक्षा प्रदान करती है उसे तैनात किया गया. इस तरह के अन्य कई प्रयोग किये गये..
वहाँ के तत्कालीन डी.आई.जी. पन्ना लाल ने दावा किया कि बहुत जल्द ही राज्य इस समस्या से मुक्त हो जायेगा. उस समय के गृह राज्य मंत्री गौरी शंकर शेजवार ने तो यह भी कह डाला कि नक्सलवाद आखिरी सांसें ले रहा है यह बात १९९३ की है तब से अब तक १६ वर्ष बीत चुके हैं ये सारे प्रयोग और दावे आज खारिज हो चुके हैं. अगर जुनून में न हो तो वास्तविक स्थिति का अंदाजा कोई पुलिस वाला भी लगा सकता है. १९९७ में देव प्रकाश खन्ना जो वहाँ के डी.जी.पी. थे ने अपनी पुस्तक “ हम सब अर्जुन हैं” में इसे स्पष्ट भी किया है और व्यवस्था की संरचना व नक्सलवाद की समस्या को नये दृष्टि से रखने का प्रयास किया है. अंततः उस समय यह मान लिया गया कि नक्सलवाद के लिये कोई भी फौरी कार्यवाही महज आदिवासियों को नष्ट करना और उनका कत्लेआम होगा इसलिये इसका एलोपैथिक इलाज किया जाना चाहिये.