31 जुलाई 2009

क्या ये साहित्यकार इतने नासमझ हैं

आप का कहने का निहितार्थ क्या है. यह समझ में नहीं आया. एक तरफ आप उदय प्रकाश का विरोध करने का समर्थन करते हैं. साथ ही यह कहकर -- "कहीं ऐसा तो नहीं कि उदय प्रकाश पर इस बहाने जो बहस हुई, वह एक लेखक की लोकप्रियता को उठाने गिराने के एजेंडे से संचालित रही हो?" आप इस मामले में उदय प्रकाश के स्टैंड कि उनके साथ साजिश कि जा रही है. का समर्थन कर रहें हैं. यदि लेखकों ने छत्तीसगढ़ में हुए कार्यक्रम का विरोध नहीं किया तो क्या इसका आशय यह है कि उन्होंने एक फासीवादी गुंडे से उदय के सम्मानित होने का विरोध कर ठीक नहीं किया.और आपके 'इस बहाने' का क्या मतलब है? क्या आपको यह सिर्फ बहाना लगता है.दूसरी बात आप उदय प्रकाश कि माफ़ी से लगता है पूरी तरह सहमत है. ऐसा क्यों है?आपका कहना है -- "उनकी रचनाएं हमारे समय के शुभ्र, उज्ज्वला और ’वैधानिकता’ की खोल में छिपे अपराधियों की ख़ौफ़नाक कार्रवाइयों का कच्चा चिट्ठा भर ही नहीं है, बल्कि वे ऐसे तत्त्वों के ख़िलाफ़ साहसी प्रतिरोध का भी आह्वान करती हैं।"यदि ऐसा है तो खौपनाक सच्चाईओं के प्रति सचेत इस लेखक को यह पता नहीं था कि योगी आदित्यनाथ कौन है. क्या उदय कि इस बात पर विशवास किया जा सकता है कि वे "राजनीतिक निहितार्थों के बारे में वे इतने सजग और सावधान नहीं थे।"और ध्यान से देखा जाये तो उन्होंने यह भी नहीं कहा है.उन्होंने व्यावहारिक राजनीतिक निहितार्थों की बात की हैमतलब उनके लिए अब भी यह "व्यावहारिक राजनीति" का सवाल है.
दूसरी बात, आपने लिखा है -- "उनकी रचनाएं हमारे समय के शुभ्र, उज्ज्वला और ’वैधानिकता’ की खोल में छिपे अपराधियों की ख़ौफ़नाक कार्रवाइयों का कच्चा चिट्ठा भर ही नहीं है, बल्कि वे ऐसे तत्त्वों के ख़िलाफ़ साहसी प्रतिरोध का भी आह्वान करती हैं।"यह दावा तो स्वयं उदयप्रकाश भी नहीं करेंगे।आखिर उनकी किस कहानी में ऐसे तत्वों के खिलाफ साहसी प्रतिरोध का आह्वान है. जवाब है किसी में भी नहीं. यहाँ मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि उदय प्रकाश की कहानियों में कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है. मेरा विनम्र आग्रह इतना ही है कि मनगढ़ंत तरीके से उनकी कहानियों में साहसी प्रतिरोध दिखा देना कोरा भाववाद है. आप उदय प्रकाश कि कहानियों में दरअसल वह बात डाल देना चाहते है जो आपको लगता है कि किसी अच्छे कहानीकार कि कहानियों में होनी चाहिए. और उदय प्रकाश के प्रति आप इतने मोहासक्त है कि जबरन उनकी कहानियों में साहसी प्रतिरोध घुसेड रहें है.

तीसरी बात, यह बात एकदम सही है कि छत्तीसगढ़ के कार्यक्रम में शिरकत के प्रश्न पर चर्चा होनी चाहिए. सत्ता और बुद्धिजीविओं के बीच के सम्बन्ध के बारे में बातचीत होनी चाहिए.कृष्णमोहन जी जो वहां गए थे. यह तर्क दे रहे हैं कि कार्यक्रम में रमण सिंह के आ जाने से ही वह प्रतिक्रियावादी नहीं हो जाता है. शायद सलवा जुडूम जैसे दमन अभियान कि गंभीरता को भूल रहे हैं. वे भूल रहे हैं कि यह अपने ही नागरिकों पर वियतनाम युद्ध की शैली में छेडा गया एक बर्बर युद्ध है. वे भूल रहें हैं कि इस युद्ध का नायक और निर्माता वही 'कवि' विश्वरंजन है. जो उस कार्यक्रम का कर्ता धर्ता था.लेकिन अनिल जी, बहुत से लोग इन कृष्णमोहन जी के प्रति भी मोहासक्त हैं. और इसकी तो वजहें भी है. मुक्तिबोध जैसे कवि के सरोकारों को समझ कर उन्होंने उनके रचना कर्म पर एक अच्छी पुस्तक भी लिखी है. लेकिन क्या मुक्तिबोध के काव्य व्यक्तित्व और उनकी पक्षधरता पर लिख कर ही कोई आलोचक आज जनपक्षधर हो सकता है. मुक्तिबोध जिन षड्यंत्रों कि पड़ताल कर रहे थे -- "किसी जन क्रांति के दमन निमित्त यह मार्शल ला है". क्या मुक्तिबोध इस तरह के कार्यक्रम में संम्मिलित होते ?कहा जाता है कि साहित्य जीवन और समाज की आलोचना है. इस तरह साहित्य की आलोचना तो उस आलोचना की भी आलोचना हुई. जीवन और समाज अपने गहनतम और संश्लिष्टतम रूप में आलोचना में आलोचना में मौजूद होते हैं.लेकिन क्या किया जाय जब हिंदी के उभरते हुए और स्थापित आलोचकों को अपनी जनता के जीवन और अपने समाज में चल रहे युद्धों की बुनियादी जानकारी भी नहीं है. अकेले कृष्णमोहन ही नहीं है. विश्वरंजन को भेजे अपने पात्र में कवि- आलोचक पंकज चतुर्वेदी कहते हैं कि सलवा जुडूम और उसमें विश्वरंजन कि भूमिका का पता उन्हें एक दिन पहले ही 'द पब्लिक एजेंडा' नामक पत्रिका से हुई. हद है!३ साल हो गए हैं सलवा जुडूम को शुरू हुए. २ साल तो बिनायक सेन ने जेल में गुजारे और हिंदी के एक संभावनाशील आलोचक को उसका पता एक दिन पहले चला है।
विजय गौड़-
अनिल जी इस बिना पर कि कोई लेखक बहुत पढा जाता है या कि लेखक ने बहुत जनपक्षधर रचनाएं लिखी हैं तो वह यदि अमानवीय अत्याचारियों के साथ खडा हो तो बहुत ही भोलेपन के साथ उसके पक्ष में हम भी खडे हों,कोई ठीक बात नहीं। और न ही इसे किसी दूसरे सवाल के साथ जोड कर ही कोई बचाव किया जा सकता है। रही बात छतीसगढ वाले मामले की (जिसके बारे में मेरी जानकारी मात्र उन दो-तीन आलेखों तक ही है जो इस ब्लाग में भी पहले प्रकाशित हुए हैं- जिसमें एक पंकज जी का पत्र और दूसरा कृष्णमोहन जी का खत) तो उसमें जो सवाल आपने उठाएं हैं निश्चित ही वे जरूरी सवाल हैं। उन पर बात होनी चाहिए। लेकिन छायी हुई चुप्पी से यह समझ में आता है कि हिन्दी का रचनाजगत किस तरह से आत्ममुग्ध है जो सिर्फ़ पुरस्कार प्रकरण पर तो, वो भी आधे-अधूरे तरह से (आधे-अधूरे : क्योंकि उदय प्रकाश का नाम तो उठा, जो उठना जरूरी था, पर वहीं एक आलोचक परमानन्द श्रीवास्तव के नाम पर चुप्पी है) खूब उत्तेजित होता है, पर सत्ता के चरित्र के सवालों पर वहां वैसी बेचैनी नहीं होती।
हम पढ़े लिखे सेकुलरों का एक ही काम रह गया है और वो है हन्दू विरोध तसलीमा नसरीन को जब धकियाया गया तब हिंदी से सेकुलर रहनुमा कहाँ थे ? कुछ मुस्लिम संगठनों ने गोदरेज को धमकी दी की यदि गोदरेज सलमान रुश्दी को भोज पे आमंत्रित करेंगे तो मुस्लिम समुदाय गोदरेज products का इस्तेमाल बंद कर देंगे हिंदी सेकुलर्स को सहाबुद्दीन, लालू या मुलायम से कोई दिक्कत नहीं है ये लोग सिर्फ अपनी राजनितिक रोटी सकने मैं लगे हैं मेरा ये पोस्ट देखिये शायद कुछ लोगों की आँखें खुले :
http://raksingh।blogspot.com/2009/07/blog-post_29.html

30 जुलाई 2009

उदय प्रकाश और योगी प्रकरण बनाम छत्तीसगढ़ सरकार - अनिल

गोरखपुर के भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ के हाथों हिंदी के सर्वाधिक पढे़ जाने वाले लेखक उदय प्रकाश द्वारा एक ’स्मृति सम्मान’ लेने की ख़बर के साथ ही समूची हिंदी पट्टी के लेखकों, कवियों, आलोचकों और उदय प्रकाश के आत्मीय शुभचिंतकों में गहरी निराशा, क्षोभ, आक्रोश और असहमति की लहर फैल गई। हिंदी भाषा में अभी परिपक्वता की दहलीज की ओर अग्रसर नये-नवेले माध्यम ब्लॉग पर इस पूरी परिघटना के पक्ष-विपक्ष में व्यापक बहस हुई। उदय प्रकाश के अनुसार यह आयोजन नियाहत पारिवारिक था, जिसके राजनीतिक निहितार्थों के बारे में वे इतने सजग और सावधान नहीं थे।
बहरहाल, उदय प्रकाश ने अपने पाठकों, शुभचिंतकों को विचलित और दुखी कर देने की लापरवाही के कारण सार्वजनिक तौर पर माफ़ी मांग ली है। आख़िर उदय हिंदी के सबसे ज़्यादा पढ़े जाने वाले लेखक हैं। उदय प्रकाश की रचनाएं चाहे वह पद्य हो या गद्य, हिंदी जगत में एक ऊर्जावान हलचल के साथ आदर पाती हैं। उनकी रचनाएं हमारे समय के शुभ्र, उज्ज्वला और ’वैधानिकता’ की खोल में छिपे अपराधियों की ख़ौफ़नाक कार्रवाइयों का कच्चा चिट्ठा भर ही नहीं है, बल्कि वे ऐसे तत्त्वों के ख़िलाफ़ साहसी प्रतिरोध का भी आह्वान करती हैं। और उनकी रचनाओं में इस ताक़त को चीन्हकर अभी कुछ दिनों पहले महाराष्‍ट्र के अमरावती जिले में, खैरलांजी में एक दलित परिवार की हत्या के विरोध में हो रहे जनांदोलनों का दमन करने वाली राज सत्ता के ख़िलाफ़ वास्तविक, जुझारू लड़ाई लड़ने वाले दलित संगठनों ने उदय प्रकाश के सम्मान में सर झुकाते हुए उन्हें ’भीम सेना’ का प्रतीकात्मक सेनाध्यक्ष बनाकर रथ में घुमाया था। इसका जीवंत विवरण पाठक ख़ुद उदय प्रकाश के हिंदी ब्लॉग में पढ़ सकते हैं।

यह कोई कहने की बात नहीं है कि हिंदी भाषा के एक ऐसे जनपक्षधर, लोकप्रिय तथा मूर्धन्य समकालीन लेखक द्वारा बर्बर हिंदुत्व की आतंकी राजनीति करने वाले बाहुबली सांसद के हाथों सम्मान लेना हिंदी जगत के लिए अपमानजनक ही नहीं, बल्कि घोर आपत्तिजनक है। हिंदी के सुधी रचनाकारों से इस मामले में उदय से असहमति ज़ाहिर करना, उनका विरोध करना बहुत स्वाभाविक और जायज़ है।

लेकिन सवाल कुछ और भी गहरे, जटिल तथा एक-दूसरे से गहरे संबद्ध हैं, जो समूचे हिंदी परिदृश्य के दोहरे मापदंडों और छद्‍म को उजागर करते हैं। जिन दिनों उदय प्रकाश के मामले पर समूचा हिंदी जगत अपना सिर खपा रहा था, उन्हीं दिनों छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में ’प्रमोद वर्मा’ स्मृति न्यास की ओर से पहले प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान के तत्वावधान में दो दिवसीय साहित्यिक आयोजन का प्रबंध था। न्यास के अध्यक्ष छत्तीसगढ़ पुलिस के मुखिया अर्थात डीजीपी विश्‍वरंजन इस कार्यक्रम के प्रमुख आयोजक थे। कार्यक्रम के दौरान छत्तीसगढ में सत्तारूढ़ भाजपा विधायक दल के नेता अर्थात मुख्यमंत्री रमन सिंह सहित कई अन्य मंत्रीगण भी बिना किसी पूर्वघोषणा के पहुंचे। कार्यक्रम में चंद्रकांत देवताले, अशोक वाजपेयी, नंदकिशोर आचार्य जैसे हिंदी के कई ’चर्चित’, ’बड़े’ प्रगतिशील और जनवादी लेखक, कवि और आलोचक उपस्थित थे।
आज दुनिया को यह बताने की कोई ख़ास ज़रूरत नहीं है कि छत्तीसगढ़ सरकार और उसके नुमाइंदों का वास्तविक चरित्र क्या है? देशी शासकों द्वारा देश के जल, जंगल, ज़मीन को बड़ी कार्पोरेट कंपनियों को सौंपे जाने के विरोध में जिन आदिवासी, मज़दूर, दलित या महिला संगठनों ने आवाज़ उठाई, उन पर सरकार के फौज़ी ’विजय अभियान’ का ’वीरता चक्र’ पूरे देश में चल रहा है। छत्तीसगढ़ इस दमन के नंगे रूप का प्रत्यक्ष बयान है, जहां ’सलवा जुडुम’ जैसे बर्बर, हत्यारे अभियान सरकारी एजेंडे में सर्वोपरि हैं, जहां अंग्रेज़ी औपनिवेशिक शासन की तर्ज़ पर आधारित ’विशेष जन (विशिष्ट जन) सुरक्षा अधिनियम’ जैसे अपराधी कानून ’लोकतंत्र’ की दुहाई दे देकर असहमति रखने वाले ’विरोधियों’ को सबक़ सिखाने के लिए हैं।

इन सारी स्थितियों का भंडाफोड़ पूरी दुनिया में हो चुका है। इसके कई ठोस उदाहरण गिनाए जा सकते हैं। और इन परिघटनाओं से अब अधिकांश लोग परिचित हैं। बावजूद इसके, सत्ता तथा सरकारों के ऐसे नुमाइंदों के बीच हमारे ’बड़े’, ’चर्चित’ प्रगतिशील तथा जनवादी रचनाकारों ने क्यूं शिरकत की? यह सवाल मन को कचोटता है। कार्यक्रम की एक रपट के अनुसार मुख्यमंत्री रमन सिंह ने साहित्यकारों को विचारधारा से ’मुक्‍त’ होकर रचना करने की सलाह दी। इस बात पर यक़ीन करने का कोई मज़बूत आधार नहीं है कि रमन सिंह के राजनीतिक (कु) कृत्य और साहित्यिक क़द के बारे में वहां मौजूद हमारे प्रिय रचनाकारों को कोई जानकारी नहीं रही होगी। और इस कारण उन्होंने किसी तरह के प्रतिवाद की कोई ज़रूरत महसूस नहीं की होगी। एक अन्य महत्त्वपूर्ण सवाल यह है, कि जिन लोगों ने फ़ासीवादी सांसद के हाथों सम्मान लेने वाले लेखक का प्रतिकार किया, उन लोगों ने छत्तीसगढ़ में सत्तारूढ़ फ़ासीवादी पार्टी के मुखिया के साथ मंच शेयर करने वाले कई हिंदी लेखकों का प्रतिकार क्यों नहीं किया? पूर्वी उत्तर प्रदेश को गुजरात बनाने की धमकी देने वाले योगी आदित्यनाथ और सल्वा जुडुम के कारण कई हज़ार लोगों को मार डालने तथा साठ हज़ार आदिवासियों को जड़ से उखाड़ देने के लिए ज़िम्मेदार रमन सिंह में क्या अंतर है?

एक ऐसे समय की धार में जब कुछ दिनों पहले ही पश्‍चिम बंगाल के बुद्धिजीवी और रचनाकार लालगढ़ में भारत सरकार द्वारा आदिवासियों के सुनियोजित संहार के ख़िलाफ़ सड़कों पर खुल कर आ रहे थे, पत्र पत्रिकाओं में विरोध के स्वर को तेज़ कर रहे थे, हिंदी के लेखकों और बुद्धिजीवियों के छत्तीसगढ़ में सरकारी साहित्यिक जलसे में शामिल होने के निर्णय पर हिंदी के अन्य रचनाकारों की चुप्पी भविष्‍य के लिए भयावह संकेत हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि उदय प्रकाश पर इस बहाने जो बहस हुई, वह एक लेखक की लोकप्रियता को उठाने गिराने के एजेंडे से संचालित रही हो? जबकि रायपुर के साहित्यिक आयोजन से जो राजनीतिक सवाल उभरे हैं, वे मौजूदा समय में समग्र साहित्यिक-सांस्कृतिक परिदृश्य के दुखते रग को छूते हैं। हिंदी में रचनारत समाज सिर्फ़ उदय की प्रतिबद्धताओं और सरोकार पर बहस करके एक सुविधाजनक संतुष्टि की ओर उन्मुख दिख रहा है। एक मित्र बता रहे थे कि हिंदी की एक साहित्यिक पत्रिका उदय प्रकाश प्रकरण पर विशेषांक निकालने जा रही है। हिंदी रचना संसार को छत्तीसगढ़ जैसे आयोजनों और उसमें शामिल होने वाले लेखकों के बारे में बात करने से, समूचे हिंदी रचनाशील दुनिया के खोखलेपन के उजागर होने का डर तो नहीं है?

(लेखक महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय, वर्धा में मीडिया के शोध छात्र हैं।)

28 जुलाई 2009

जनसंस्कृति मंच की बयानबाज़ी पर टिप्पणी - कृष्णमोहन (आलोचक)

प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान कार्यक्रम (रायपुर, 10-11 जुलाई, 09) के बारे में जनसंस्कृति मंच की राष्ट्रीय कार्यकारिणी (दिल्ली, 11-12 जुलाई) द्वारा पारित प्रस्ताव तथ्यहीन लफ़्फ़ाजी का नमूना भर है। यह इस बात का उदाहरण है कि कोई सांस्कृतिक संगठन रचनात्मकता से कटकर जब नौकरशाही प्रवृत्तियों के चंगुल में फँस जाता है तो उसका रवैया कैसा गरिमाहीन, अलोकतांत्रिक और ग़ैरज़िम्मेदार हो जाता है। दिनोदिन स्मृतिहीन होते जा रहे हमारे समाज में एक लगभग भुलाए जा चुके लेखक की स्मृति को संरक्षित करने के कार्यक्रम को यह ‘साज़िश’ करार देता है, क्योंकि उसमें मुख्यमंत्री और राज्यपाल ने भी शिरकत की। छत्तीसगढ़ और देश के तमाम संस्कृतिकर्मियों की भागीदारी को भी इसी तर्ज पर यह उनका ‘शर्मनाक पतन’ मानता है। यही नहीं, इस आरोप से बचने का एक ‘पापमोचक’ नुस्खा भी यह सुझाता है कि ये संस्कृतिकर्मी इसे अपनी ‘नादानी’ मान लें। इस उद्यण्ड प्रस्ताव के मुताबिक शिवकुमार मिश्र, कमला प्रसाद, खगेन्द्र ठाकुर, अशोक वाजपेई, प्रभाकर श्रोत्रिय, नन्दकिशोर आचार्य, चन्द्रकांत देवताले, प्रभात त्रिपाठी जैसे तमाम वरिष्ठ लेखक अपने पतन अथवा नादानी के कारण ही उस कार्यक्रम में भाग ले सकते हैं। इसकी कोई जायज वजह उनके पास नहीं हो सकती। वैसे भी, इन बौने तानाशाहों का गुट जिसे नहीं मानता वह कोई वैध वजह कैसे हो सकती है।
बहरहाल, यह रवैया एक ऐसे संगठन के सर्वथा अनुरूप है, जो खुद तो कहीं जवाबदेह नहीं लेकिन पूरी दुनिया को अपने सामने जवाबदेह मानता है। किसी कार्यक्रम से सैकड़ों मील दूर लगभग उन्हीं तिथियों पर बैठे इसके कर्ता-धर्ता उसके ‘स्वरूप की कल्पना’ कर लेते हैं, जो वैसे भी कुछ मुश्किल नहीं, और फिर उसे अंतिम सत्य की तरह पेश करते हैं। वे यह मानकर चलते हैं कि उस ‘खास समय’ की राजनीतिक ज़रूरत के मुताबिक़ यह कार्यक्रम सरकार की मदद के लिए कर लिया गया होगा। उन्हें इससे क़तई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि इस अवसर की तैयारी वर्षों से चल रही थी। ‘प्रमोद वर्मा समग्र’ की लगभग ढाई हजार पृष्ठों की सामग्री के संकलन, संपादन और प्रकाशन के अलावा ‘स्मृति-सम्मान’ के निर्णय की प्रक्रिया, जिससे केदारनाथ सिंह, विजय बहादुर सिंह, धनंजय वर्मा और विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जैसे वरिष्ठ लेखक जुड़े हुए थे, से गुज़रकर यह आयोजन संभव हुआ। ‘समग्र’ के संपादक विश्वरंजन को प्रस्ताव में हर जगह ‘पुलिस महानिदेशक’ के रूप में याद करने की वजह भी यही है कि शब्दों की सत्ता से इस संगठन पर हाॅवी गुट का नाता टूट चुका है। इसीलिए गोरख पाण्डेय से लेकर चन्द्रशेखर तक, अपने लेखकों की विरासत को सहेजने की इसके अंदर न तो इच्छा बची है, न दूसरों के श्रम का सम्मान करने की तमीज।
जहाँ तक पुलिस महानिदेशक होने का सवाल है तो इस पद अथवा अन्य प्रशासनिक पदों से जनसंस्कृति मंच को कभी कोई समस्या नहीं रही। राज्यसत्ता का चरित्र समूचे देश में एक जैसा है और शासन-तंत्र उसकी नीतियों को लागू करने का औजार है। न इससे कम, न इससे ज़्यादा। इसलिए इस मामले में भी, अन्य मामलों की तरह, दुहरे मानदंड नहीं चल सकते। पुलिस महानिदेशक होने से किसी के व्यक्तिगत अथवा लेखकीय अधिकार कम नहीं हो जाते। दूसरों की ही तरह सत्ता से जुड़े लोगों की भी अन्य सामाजिक भूमिकाओं का वस्तुगत मूल्यांकन किए बिना उन भूमिकाओं के बारे में कही गई कोई बात निरर्थक बकवास से अधिक महत्व नहीं रखती।
इस अहंकारग्रस्त प्रस्ताव में कहा गया है कि ‘वहाँ जाकर मुख्यमंत्री रमन सिंह के मुख से विचारधारा से मुक्त रहने का उपदेश और लोकतंत्र की व्याख्या सुनने की ज़िल्लत बर्दाश्त करने से बचा जा सकता था।’ नैतिकता के ऊँचे पायदान पर खड़े इन महानुभावों को अगर रत्ती भर भी ज़िम्मेदारी का एहसास होता तो उन लेखकों के वक्तव्यों का भी पता करते, जिनके प्रतिनिधित्व का वे दम भरते हैं। चन्द्रकांत देवताले, कमला प्रसाद, खगेन्द्र ठाकुर और शिवकुमार मिश्र जैसे वरिष्ठ लेखकों के साथ इन पंक्तियों के लेखक ने भी अपने वक्तव्य में स्पष्ट शब्दों में मुख्यमंत्री की बात का खण्डन करते हुए विचारधाराओं के संघर्ष की ज़रूरत पर ज़ोर दिया था। इस प्रतिवाद को सभा ने कई बार उत्साहपूर्ण समर्थन भी दिया था। जसम के इन अधिकारियों से यही कहना है कि मुख्यमंत्री की बात सुनने में कोई ज़िल्लत नहीं थी, क्योंकि हम उनके विरोधी हैं और उनको जवाब दे सकते हैं। लेकिन आपके श्रीमुख से इन उपदेशों को सुनना सचमुच ज़िल्लत भरा है, क्योंकि आपसे हम किसी न किसी रूप से जुड़े हुए हैं। वसीम बरेलवी की पंक्तियाँ याद आती हैं -

तुम्हारे हाथ गरेबाँ तक आ गए बढ़कर
कोई बताए कि ये वार टाल दें कैसे
जो होता पाँव में काँटा निकाल सकते थे
तुम्हारी अक्ल का काँटा निकाल दें कैसे।

सच तो यह है कि देश की जनता और राज्यसत्ता में युद्ध छिड़ा हुआ है जो आगे और तीखा होने वाला है। लेखकों और बुद्धिजीवियों की विशिष्ट भूमिका होती है। सार्वजनिक मंचों पर कई बार उन्हें सत्ता के नुमाइंदों की मौजूदगी के बावजूद उपस्थित होना पड़ता है। हम ऐसे मौक़ों पर अपनी जनता के सम्मान की हिफ़ाजत की ज़िम्मेदारी के साथ जाते हैं, और किसी को ये हक़ नहीं देते कि वो हमारी इस भूमिका पर अनर्गल टिप्पणी करे। हाँ, अगर किसी को सचमुच कोई सार्थक राजनीतिक बहस चलानी हो तो वो ऐसा कर सकता है। दूसरों को नसीहत देने वाले अगर अपने गिरेबान में झाँकने को तैयार हों तो उनका स्वागत है।

15 जुलाई 2009

संस्कृतिकर्मियों की शिरकत शर्मनाक:


प्रणय कृष्ण, महासचिव, जन संस्कृति मंच

११-१२ जुलाई को नई दिल्ली मे सम्पन्न हुई जन संस्कृति मंच की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में जनांदोलनों और मानवाधिकारों पर क्रूर दमन ढानेवाली छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा १० व ११ जुलाई को प्रायोजित 'प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान" कार्यक्रम में बहुतेरे वाम, प्रगतिशील और जनवादी लेखकों, संस्कृतिकर्मियों की शिरकत को शर्मनाक बताते हुए खेद व्यक्त किया गया। स्व. प्रमोद वर्मा की स्मृति को जीवित रखने के लिए किए जाने वाले किसी भी आयोजन या पुरस्कार से शायद ही किसी कि ऎतराज़ हो, लेकिन जिस तरह छ्त्तीसगढ के पुलिस महानिदेशक के नेतृत्व में इस कार्यक्रम को प्रायोजित किया गया, जिस तरह छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने इसला उदघाटन किया, शिक्षा और संस्कृतिमंत्री बृजमॊहन अग्रवाल भी अतिथि रहे और राज्यपाल के हाथों पुरस्कार बंटवाया गया, वह साफ़ बतलाता है कि यह कार्यक्रम एक साज़िशाना तरीके से एक खास समय में वाम, प्रगतिशील और लोकतांत्रिक संस्कृतिकर्मियों के अपने पक्ष में इस्तेमाल के लिए आयोजित था। यह संभव है कि इस कार्यक्रम में शरीक कई लोग ऎसे भी हों जिन्हें इस कार्यक्रम के स्वरूप के बारे में ठीक जानकारी न रही हो। लेकिन जिस राज्य में तमाम लोकतांत्रिक आंदोलन, मानवाधिकार संगठन, बिनायक सेन जैसे मानवाधिकारवादी चिकित्सक, अजय टी.जी. जैसे फ़िल्मकार, हिमांशु जैसे गांधीवादी को माओवादी बताकर राज्य दमन का शिकार बनाया जाता हो, जहां 'सलवा जुडुम' जैसी सरकार प्रायोजित हथियारबंद सेनाएं आदिवासियों की हत्या, लूट, बलात्कार के लिए कुख्यात हों और ३ लाख से ज़्यादा आदिवासियों को उनके घर-गांव से खदेड़ चुकी हों, जहां 'छ्त्तीसगढ़ पब्लिक सिक्योरिट ऎक्ट' जैसे काले कानून मीडिया से लेकर तमाम लोकतांत्रिक आंदोलनों का गला घोंटने के काम आते हों, वहां के पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन (जिनके नेतृत्व में यह दमन अभियान चल रहा हो), के द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम के स्वरूप की कल्पना मुश्किल नहीं थी। वहां जाकर मुख्यमंत्री रमन सिंह के मुख से विचारधारा से मुक्त रहने का उपदेश और लोकतंत्र की व्याख्या सुनने की ज़िल्लत बर्दाश्त करने से बचा जा सकता था। बहरहाल, यह घटना वामपंथी, प्रगतिशील, जनवादी सांस्कृतिक आंदोलन के लिए चिंताजनक और शर्मसार होने वाली घटना ज़रूर है। हम यह उम्मीद ज़रूर करते हैं कि जो साथी वहां नाजानकारी या नादानी में शरीक हुए, वे सत्ता द्वारा धोखे से अपना उपयोग किए जाने की सार्वजनिक निंदा करेंगे और जो जानबूझकर शरीक हुए थे, वे आत्मालोचन कर खुद को पतित होने से भविष्य में बचाने की कोशिश करेंगे और किसी भी जनविरोधी, फ़ासिस्ट सत्ता को वैधता प्रदान करने का औजार नहीं बनेंगे। हम सब जानते हैं कि भारत की ८०% खनिज संपदा और ७०% जंगल आदिवासी इलाकों में हैं। छत्तीसगढ एक ऎसा राज्य है जहां की ३२% आबादी आदिवासी है। लोहा, स्टील,अल्युमिनियम और अन्य धातुऒं, कोयला, हीरा और दूसरे खनिजों के अंधाधुंध दोहन के लिए; टेक्नालाजी पार्क, बड़ी बड़ी सम्पन्न टाउनशिप और गोल्फ़ कोर्स बनाने के लिए तमाम देशी विदेशी कारपोरेट घरानों ने छ्त्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों पर जैसे हमला ही बोल दिया है। उनकी ज़मीनों और जंगलों की कारपोरेट लूट और पर्यावरण के विनाश पर आधारित इस तथाकथित विकास का फ़ायदा सम्पन्न तबकों को है जबकि उजाड़े जाते आदिवासी और गरीब इस विकास की कीमत अदा कर रहे हैं। वर्ष २००० में स्थापित छ्त्तीसगढ राज्य की सरकारों ने इस प्रदेश के संसाधनों के दोहन के लिए देशी और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ पचासों समझौतों पर दस्तखत किए हैं। १०००० हेक्टेयर से भी ज़्यादा ज़मीन अधिग्रहण की प्रक्रिया में है। आदिवासी अपनी ज़मीन, आजीविका और जंगल बचाने का संघर्ष चलाते रहे हैं। लेकिन वर्षों से उनके तमाम लोकतांत्रिक आंदोलनों का गला घोटा जाता रहा है। कारपोरेट घरानों के मुनाफ़े की हिफ़ाज़त में केंद्र की राजग और संप्रग सरकारों ने, छ्त्तीसगढ़ में गृहयुद्ध जैसी स्थिति पैदा कर दी है। कांग्रेस और भाजपा ने मिलकर सलवा जुडुम का फ़ासिस्ट प्रयोग चला रखा है। आज देशभर में हर व्यवस्था विरोधी आंदोलन या उस पर असुविधाजनक सवाल उठाने वाले व्यक्तियों को माओवादी करार देकर दमन करना सत्ताधारियों का शगल बन चुका है। दमनकारी कानूनों और देश भर के अधिकाधिक इलाकों को सुरक्षाबलों और अत्याधुनिक हथियारों के बल पर शासित रखने की बढ़ती प्रवृत्ति से माओवादियों पर कितना असर पड़ता है, कहना मुश्किल है, लेकिन इस बहाने तमाम मेहनतकश तबकों, अकलियतों, किसानों, आदिवासियों, मज़दूरॊं और संस्कृतिकर्मियों के आंदोलनों को कुचलने में सत्ता को सहूलियत ज़रूर हो जाती है।

13 जुलाई 2009

छत्तीसगढ़ : डीजीपी विश्वरंजन के नाम एक खुला ख़त

महोदय,
सादर अभिवादन !
आशा है, आप अच्छी तरह हैं।
जैसा कि आपको मालूम ही है, आपके द्वारा रायपुर में 10-11 जुलाई, 2009 को आयोजित की जा रही दो--दिवसीय 'राष्ट्रीय आलोचना संगोष्ठी ' के एक सत्र 'आलोचना का प्रजातंत्र ' में अपना वक्तव्य प्रस्तुत करने के लिए आपने मुझे आमंत्रित किया था। इस सम्बन्ध में आपका पत्र ---दिनांक 15 मई , 2009 मुझे ई-मेल की मार्फ़त 18 जून, 2009 को भेजा गया और उसी दिन मिला था। उपर्युक्त संगोष्ठी में अपनी शिरकत की स्वीकृति मैंने आपको ई-मेल के ज़रिए दिनांक 19 जून, 2009 को भेज दी थी और उस पत्र में इस बात की ख़ुशी ज़ाहिर की थी कि आप सार्थक तथा उदात्त चिन्ताओं से प्रेरित होकर यह अहम संगोष्ठी करा रहे हैं और अपनी इस कृतज्ञता को भी व्यक्त किया था कि आपने मुझ जैसे अदना लेखक को इसमें आमंत्रित करने लायक़ समझा। यों रायपुर आने के लिए मैंने रेलवे रेज़र्वेशन्स करा लिए थे. मगर कल , यानी 6 जुलाई, 2009 को सहसा मेरी नज़र हिन्दी पाक्षिक ' द पब्लिक एजेंडा' के 8 जुलाई, 2009 के पृ . सं. 13 पर छतीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक के तौर पर प्रकाशित आपके साक्षात्कार पर गयी और इसे पढ़कर मैं इतना विचलित हुआ कि मुझे उपर्युक्त संगोष्ठी में हिस्सेदारी करने का अपना फ़ैसला रद्द करना पड़ा और रायपुर आने के अपने रेलवे रेज़र्वेशन्स भी. कृपया इस असहयोग के लिए मुझे क्षमा करेंगे और मेरी वैचारिक असहमति को हरगिज़ व्यक्तिगत स्तर पर नहीं ग्रहण करेंगे ! दरअसल आप अपने साक्षात्कार में 'सलवा जुडूम ' सरीखी सरकार द्वारा संरक्षित ,पोषित और संचालित -----साधनहीन, विपन्न और अत्यंत सामान्य मानवाधिकारों से भी महरूम आदिवासियों का दमन करनेवाली-----संस्था का बेझिझक और सम्पूर्ण समर्थन करते हैं, जो मेरे जैसे लोगों के लिए एक बहुत तकलीफ़देह मामला है. आपने कहा है-----"इस समय बस्तर में हम पूरे ज़ोर-शोर से माओवादियों से लड़ रहे हैं. " सवाल है कि ये 'माओवादी ' कौन हैं ? क्या ये वही आदिवासी नहीं हैं, जिन्हें माओवादी बताकर हाल ही में पश्चिम बंगाल पुलिस ने लालगढ़ में न सिर्फ़ उन पर अत्याचार किये हैं ; बल्कि बकौल मशहूर लेखिका महाश्वेता देवी, " उनकी हत्याएँ भी की हैं. " बहरहाल. आपने अपने इस साक्षात्कार में यह आत्मविश्वास भी व्यक्त किया है कि "उनके खिलाफ़ पुलिस ही लड़ेगी और अंत में जीतेगी. " तो महोदय, पुलिस के आखिरकार जीत जाने में भला किसको संशय हो सकता है ? कुछ ही समय पहले दिवंगत हुए महान साहित्यकार विष्णु प्रभाकर ने कभी अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि "हमारे देश का सबसे शक्तिशाली आदमी पुलिस कांस्टेबल होता है. " फिर जहाँ पूरे देश की पुलिस लालगढ़ से छत्तीसगढ़ तक आदिवासियों के बेरहम दमन में शामिल हो ; वहाँ उसके अकूत पराक्रम की तो केवल कल्पना की जा सकती है ! इस अद्भुत बल-विक्रम का एक सुबूत पेश करते हुए आपने कहा है -----"उत्तर छत्तीसगढ़ से नक्सलियों को खदेड़ दिया गया है ." गौरतलब है कि आपने यह नहीं बताया कि ऐसे लोगों को खदेड़कर पहुँचाया कहाँ गया है ! दूसरे शब्दों में, उनके पुनर्वास का क्या इंतिज़ाम सरकार ने किया है ? ' सलवा जुडूम ' का साथ देते हुए आप कहते हैं कि "इसके खिलाफ़ जिस तरह का दुष्प्रचार किया जा रहा है , उसके लिए माओवादियों को दाद देनी चाहिए ." दिलचस्प है कि फिर आप यह भी जोड़ते हैं-----' सलवा जुडूम ' माओवादियों के खिलाफ़ जनता की बगावत है.' सवाल है कि अगर यह सच है, तो उनकी विचारधारा और उनको उसी "जनता" की सहानुभूति और समर्थन कैसे प्राप्त होता है ? हम हिंसा के रास्ते के हामी नहीं हैं , लेकिन जिनसे उनका सब-कुछ छीन लिया गया हो, कई बार हथियार उठाना उनके लिए अपने वुजूद की रक्षा का आख़िरी उपाय होता है. दूसरे, जिनकी जीवन-स्थितियों में बदलाव और बेहतरी के सारे राजनीतिक रास्ते इस व्यवस्था में सदियों से बंद रहे आते हों और जिनके खुलने की कोई उम्मीद उन्हें आज भी-----आज़ादी मिलने के साठ बरस बाद भी-----नज़र न आती हो, वे आखिर क्या करें , कहाँ जायें, कैसे जियें, इस निज़ाम के नियंताओं से अपने अधिकार और अपने लिए न्याय कैसे माँगें ? इस समूचे अंतर्विरोध, विडम्बना और त्रासदी की भौतिक परिणति आसन्न अतीत में लालगढ़ में दिखायी पड़ी ; जहाँ पूरी दुनिया ने देखा है-----सरकारें चाहे जो कहती रहें-----कि हथियार कथित माओवादियों ने नहीं, बल्कि निरीह आदिवासियों ने उठाये हुए थे, भले उस सबका अंत उनके निर्मम और अप्रत्याशित पुलिस दमन में ही हुआ है. यह सब तब हो रहा है और लगातार हो रहा है, जब दुनिया भर के सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी और प्रतिबद्ध राजनीतिग्य एक आवाज़ में यह माँग कर रहे हैं कि इन सभी समस्याओं को राजनीतिक समाधान की ज़रूरत है और यह कि इस सन्दर्भ में राजनीतिक प्रक्रिया को अपनाने का कोई भी मानवीय विकल्प न है, न हो सकता है. इसके विपरीत, आप कहते हैं कि पहले उन्हें "हथियार शासन को सौंपने होंगे, तभी कोई बातचीत संभव है. " सवाल है कि जब उनके पास ये हथियार नहीं थे , तब उनकी समस्याओं का कौन-सा राजनीतिक हल तलाशा गया और जहाँ-जहाँ इन हथियारों और हथियार उठानेवालों को-----आपके ही शब्दों में कहूँ , तो "खदेड़" दिया गया है-----वहाँ वर्तमान में तमाम प्रांतीय और केन्द्रीय सरकारों द्वारा समाधान के लिए कौन-सी राजनीतिक प्रक्रिया चलायी जा रही है ? आपके राज्य छत्तीसगढ़ में तो आलम यह है कि बक़ौल गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार, " सरकार और माओवादियों की लड़ाई में आदिवासी मारे जा रहे हैं और विस्थापित हो रहे हैं . हिंसा का रास्ता छोड़ बातचीत के ज़रिए ही कोई हल निकाला जाना चाहिए , जिसकी पहल न राज्य कर रहा है , न माओवादी. " 'द पब्लिक एजेंडा ' के कार्यालय संवाददाता ( दिल्ली ) अजय प्रकाश के अनुसार-----"हिमांशु कुमार की यही साफ़गोई उनके लिए घातक साबित हुई है और दंतेवाड़ा प्रशासन ने 17 मई , 2009 को उनका आश्रम ढहा दिया . दंतेवाड़ा से लौटकर सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पांडेय बताते हैं ,'हिमांशु के बारे में पूरा क्षेत्र जानता है कि ' सलवा जुडूम ' अभियान से विस्थापित और उजड़े आदिवासियों के पुनर्वास जैसा महत्त्वपूर्ण काम कर रहे हैं. लेकिन सरकार हिमांशु को माओवादियों का शुभचिन्तक बताकर दंतेवाड़ा से खदेड़ने की फिराक में है. " लगता है कि " खदेड़ना " छत्तीसगढ़ पुलिस-प्रशासन का तकियाकलाम बन गया है , उसकी केन्द्रीय रणनीति . हिटलर के ' फ़ाइनल सॉल्यूशन ' की तरह . उसका कहना था कि 'जो लोग तुम्हें पसंद न हों , उन्हें ख़त्म कर दो .' यहाँ यह कहा जा रहा है कि जो लोग तुम्हारे आड़े आते हों , उन्हें " खदेड़ " दो ! हालत यह है कि अगर कोई गाँधीवादी भी आपसे असहमत है , तो आपके मुताबिक़ वह "माओवादी " है ! छत्तीसगढ़ में जो सरकार के बताये रास्ते पर बिना कुछ सोचे-समझे नहीं चल रहा है ; वह इन दिनों माओवादी या नक्सली के तौर पर ' ब्रांडेड ' किये जाने , पुलिस उत्पीड़न झेलने , वहाँ से बेदख़ल किये जाने या " खदेड़ " दिये जाने और सज़ा भुगतने को अभिशप्त है. इस ट्रेजेडी का सबसे ज्वलंत उदाहरण डॉ. बिनायक सेन हैं , जो एक डॉक्टर के नाते छत्तीसगढ़ की आम जनता , ख़ास तौर पर वहाँ के आदिवासियों की चिकित्सा-सेवा में संलग्न थे. लेकिन प्रशासन और पुलिस ने उन पर नक्सलियों और माओवादियों का साथ देने का इल्ज़ाम मढ़ते हुए उन्हें जेल पहुँचा दिया. क़रीब तीन साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें यह कहते हुए रिहा किया कि उनके खिलाफ़ कोई सुबूत नहीं पाये गये . मगर यह फ़ैसला आने तक एक निर्दोष और जन-सेवी डॉक्टर 3 साल जेल की सज़ा काट चुका था. इससे पुलिस-प्रशासन की अपरिमित दमनकारी ताक़त की कल्पना ही की जा सकती है. मुझे यह पता चला है कि आप कविता भी लिखते हैं . इसलिए मेरी यह जिग्यासा है कि अपने इस क़िस्म के सरकारी काम और कवि -कर्म के बीच क्या आपको कोई यातनाप्रद द्वंद्व महसूस नहीं होता या कहीं ऐसा तो नहीं है कि कोई अंतर्विरोध या द्वंद्व हो ही नहीं ? श्री प्रमोद वर्मा , जिनके नाम पर यह आयोजन हो रहा है और पुरस्कार बाँटे जा रहे हैं -----------पहला सवाल तो यह है कि अगर वे कहीं हैं , तो उन्हें कैसा लग रहा होगा ? दूसरी बात यह कि उपर्युक्त सरकारी कृत्यों पर पर्दा डालने के लिए ही क्या यह आयोजन नहीं किया जा रहा है ? कैसी विडम्बना है कि आपने इस संगोष्ठी में " आलोचना का प्रजातंत्र " शीर्षक एक पूरा सत्र ही रखा हुआ है ; जबकि आपके निज़ाम में न आलोचना की कोई वास्तविक गुंजाइश है और न निरीह प्रजा की ही कोई सुनवाई ! यह भी कोई महज़ संयोग नहीं कि पुरस्कृत और उपकृत करने के लिए आपने आलोचकों को ही निशाना बनाया ; जिससे 'आलोचना ' का रहा-सहा साहस , संवेदनशीलता, मूल्य्निष्ठता , प्रश्नाकुलता और विवेक का भी अपहरण किया जा सके और उसे निष्प्रभ एवं निस्तेज बनाया जा सके ! इस सन्दर्भ में मुझे रघुवीर सहाय की एक मशहूर कविता याद आ रही है ; जिसमें उन्होंने लिखा है----- "
आतंक कहाँ जा छिपा भागकर जीवन से
जो कविता की पीड़ा में अब दिख नहीं रहा ?
हत्यारों के क्या लेखक साझीदार हुए
जो कविता हम सबको लाचार बनाती है ?
" जहाँ तक मुझे मालूम है , श्री प्रमोद वर्मा , मुक्तिबोध के काफ़ी निकट थे. इसलिए इसे एक काव्य-न्याय ही मानता हूँ कि मुक्तिबोध की इन काव्य-पंक्तियों की स्मृति ने मुझे उपर्युक्त कार्यक्रम में शामिल होने से आखिरकार रोक लिया-----
" भीतर तनाव हो
विचारों का घाव हो
कि दिल में एक चोट हो आये
-दिन ठंडी इन रगों को गर्मी की खोज है
वैसे यह ज़िन्दगी भोजन है , मौज है । "
आदर और शुभकामनाओं के साथ ;
आपका ,
पंकज चतुर्वेदी कानपुर

06 जुलाई 2009

छत्तीसगढ़ व उड़ीसा के बंधुआ/विस्थापित मजदूरों के अध्ययन की एक संक्षिप्त रपट

समय के साथ चीजों को बदलना था, गुलामी खत्म होनी थी, समाज में व्याप्त जड. प्रवृत्तियां बदलनी थी. अंग्रेजी सत्ता से मुक्ति के बाद देश के एक बडे़ मनोजगत का यही सोचना था. पर अफसोस कि अंग्रेजों से मुक्ति जिसे आज़्ाादी कहा गया, महज़्ा सत्ता बदलाव तक ही सीमित रही यानि सामाजिक संरचना में कोई खास बदलाव नहीं आया छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के कुछ जिलों में बंधुआ मजदूरों पर किये गये अध्ययन के दौरान निकलकर आये तथ्य तो यही कहते हैं.
अंग्रेजी सत्ता से मुक्ति के बाद जनता को स्वतंत्र्ाता, समता व अन्य कई मौलिक अधिकार दिये गये, जिनका मिलना अपने को लोकतांत्र्ािक कहे जाने वाले देश में लाज़्ामी था. इन कानूनों के होने के बाद भी स्थिति ये रही कि देश के कई इलाकों में बंधुआ मजदूरी की प्रथा जारी रही अतः 19 फरवरी 1976 को बंधुआ मजदूर जो कि दुर्बल वर्ग के होते थे या आज भी हैं के शारीरिक व आर्थिक शोषण से मुक्ति हेतु ’बंधित श्रम प्रथा उन्मूलन नियम 1976’ सत्ता हस्तांतरण के 27 वर्ष बाद बनाया गया. इसके पश्चात अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति 1989 अधिनियम भी बनाया गया, जिसका सम्बंध बंधुआ मजदूरों से जुड़ा हुआ है, क्योंकि देश में चल रही बंधुआ प्रथा में एक अंकडे के मुताबिक 98 प्रतिशत से अधिक अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के लोग प्रताड़ित होते हैं.
कानूनी तौर पर बंधुआ मजदूरों को लेकर कुछ अन्य नियम भी बनाये गये जैसे बंधुआ मजदूर व प्रवासी बंधुआ मजदूर जो किसी अन्य राज्य में जाकर बंधुआ के रूप में कार्य करते हैं उनके लिये जिले में सतर्कता समिति के गठन का भी सुझाव दिया गया और समिति निर्माण का कार्य जिला अधिकारी को दिया गया. साथ में बंधुआ मजदूरी कराने वाले व्यक्ति नियोक्ता ठेकेदार आदि को दंडित करने का नियम भी बनाया गया जो 3 वर्ष तक कारावास व 2000 रूपये जुर्माने के रूप में थी. सरकार द्वारा बंधुआ मजदूरों के सम्बंध में राहत राशि की व्यवस्था भी की गयी जो 25,000 रूपये उनके पुनर्वास हेतु व पानी भूमि आदि के रूप में की गयी.जिसे छत्तीसगढ के कुछ जिलों में जिनमे महासमुंद, रायपुर व उड़ीसा के बरगड़ नवापाड़ा आदि में गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा बंधुआ मजदूरों को इंगित कर उनमे से कुछ को यह सुविधा प्रदान कराई गयी पर कई बंधुआ मजदूरों को यह अभी तक नही मिली.
प्रस्तुत रिपोर्ट प्रथम व द्वितीय श्रोतों के अध्ययन का एक संक्षिप्तीकरण है. जिसमे यह बात गौर करने की है कि कानूनों के दबाव व नियमों को ध्यान में रखते हुए राज्यों में बंधुआ मजदूरों का स्वरूप बदल गया है. अध्ययन के दौरान इस बात का पता लगा कि बंधुआ मजदूरों को लेकर स्वामी अग्निवेश के अंदोलन के प्रभाव से बंधुआ मजदूरों की स्थिति में बदलाव आया या कहा जाय कि उनका स्वरूप बदल गया क्योंकि उनके प्रभाव में आकर राज्य के कई संस्थाओं व कार्यकर्ताओं ने बंधुआ मुक्ति अंदोलन चलाया जिनमें छत्तीसगढ़ बंधुआ मुक्ति मोर्चा ने महती भूमिका निभाई है.कारणवस जो पारंपरिक स्वरूप था वह बहुत कम दिखता है परंतु यह बदले हुए स्वरूप में बड़ी मात्र्ाा में मौजूद है. मसलन छत्तीसगढ़ में विस्थापन एक बड़ी समस्या के रूप में रहा है और अधिकांसतः यह बधुआ मजदूरों के रूप में ही होता है. 1981 में मध्यप्रदेश के एक कमिश्नर (तब छत्तीसगढ़ अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में नही आया था ) लोहानी ने आब्रजन कानून बनाया ताकि यहां से बंधुआ बनकर जाने वाले मजदूरों को रोका जा सके जबकि उनके कारणों की खोज कर निदान करने का प्रयास नहीं किया गया.
अध्ययन के दौरान बंधुआ बनकर विस्थापित होने वाले मजदूरों के संदर्भ में जो कारण निकल कर आये वे कई आयामों के साथ हैं.
एक तो छत्तीसगढ़ के किसान जो भूमि युक्त हैं या जो छोटे किसान हैं बारिस के बाद यानि धान की फसल लगाने के पश्चात उनके पास अन्य फसल लगाने के अवसर नहीं होते हैं. अत बारिस के बाद वे खाली हो जाते हैं, उनके पास संग्रहित धान इतने नहीं होते कि वे वर्ष भर इससे अपनी आजीविका चला सकें. न ही राज्य में मजदूरी की इतनी उप्लब्धता जिस वज़्ाह से वे अपनी आजीविका हेतु किसी अन्य राज्य मसलन उत्तर प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, जम्मू-काष्मीर, हरियाणा, पंजाब, कर्नाटक आदि राज्यों में पलायन कर जाते हैं जिस वर्ष छत्तीसगढ़ मे सूखा पड़ता है यह पलायन की दर और बढ़ जाती है. एक अंकडे़ के मुताबिक 2001 में पडे़ सूखे की वज़्ाह से 20,000 गांव से 6 लाख से अधिक मजदूरों का पलायन हुआ था.
वहीं 18 लाख के आस-पास यहां भूमिहीन मजदूर भी हैं खासतौर से पलायन जिन जिलों से अधिक होता है उनमें बिलासपुर, जांजी-चाम्पा, महासमुंद आदि हैं यहां जमीन प्रति एकड़ से भी कम है ऐसी स्थिति में ठेकेदार इन्हें एडवांस देकर लेजाते हैं और दिन-रात काम के बदले अपने मन मुवाफ़िक रकम ही देते हैं. कई बार दिया हुआ एडवांस चुकता नही होने पर इन्हें फिर से उसी रकम पर वहीं जाना पड़ता है या फिर नियोक्ता इन्हे आने की अनुमति ही नहीं देता. ऐसी स्थिति में महिलाओं के साथ दुवर््यवहार भी होता है. कुछ मामले ऐसे भी हैं जिनमे मजदूर बंधक बनकर गये और उन्हें छोड़ने के लिये परिजनों से पैसा भी मांगा गया.
बंधक बनकर जाने वाले मजदूरों के दवा पानी राशन आदि की सुविधा कई नियोक्ता करते भी हैं तो अंत मे उनकी मजदूरी जो प्रायः अनुबंधित मजदूरी से कम होती है उसमें से काट लिया जाता है. मजदूर अनपढ़ होते हैं अतः उन्हें सही-सही पता नहीं चल पाता कि उन्हें कितना मिलना चाहिये कितना नहीं. नियोक्ता लौटते वक्त जितना देता है उतना ही लेने के लिये वे मजबूर रहते हैं. विस्थापित होने वाले ज्यादातर बंधुआ मजदूर ईंट भट्ठों पर काम के लिये अपने परिवार के साथ जाते हैं जिन्हें 1000 ईंट बनाने का 120-130 रूपये दिया जाता है पर यह दर सभी के लिये समान रूप से लागू नहीं होती यह उनके द्वारा लिये गये दादेन ( एडवांस) पर निर्भर करती है कई बार वे मुफ्त में भी काम करते हैं .
कई मामले ऐसे भी हैं जहां उनके मजदूरी का पैसा एक वर्ष के लिये रोक लिया जाता है यानि इस वर्ष का अगले बरस. इससे होता यह है कि मजदूर अगली बार नियोक्ता तक खुद पहुंच जाता है और उससे बंधने के लिये मजबूर होता है. यह पलायन अक्टूबर माह से चालू होता है और मई तक मजदूर लौट कर फिर अपने गांव आते हैं.
छत्तीसगढ़ व अध्ययन के लिये चुने गये उड़ीसा के जिले आधिकांसतः आदिवासी बाहुल्य हैं. सतत क्रम में अध्ययन के दौरान यह पाया गया कि आदिवासियों का विस्थापन हाल के वर्षों में बढ़ा है, इससे पहले उनका विस्थापन कम होता था. सरकारी तौर पर हाल में काफी सख्ती विस्थापित होने वाले मजदूरों को लेकर बरती गयी. मसलन गांव के स्तर पर समितियां भी बनायी गयी, ग्राम उत्कर्ष योजना के तहत विस्थापन के समय में गांव में कार्य हेतु पैसे आबंटित किये गये, स्टेशन बस स्टैंड पर पुलिस तैनात की गयी. पर पुलिस मजदूरों के साथ ज्यादती नही करती. वह 10 रूपये प्रति व्यक्ति के हिसाब से ठेकेदारों से ले लेती है और मजदूरों को जाने देती है.
बंधुआ मजदूर अक्सर सपरिवार ही पलायित करते हैं. गांव में केवल बूढे़ बचते हैं जो फसल से उपजे धान से अपनी जीविका चलाते हैं. अध्ययन के दौरान यह भी पाया गया कि पलायित होने वाले बंधुआ मजदूर अधिकांशतः अनुसूचित जाति या जन जाति के हैं जिनमे बहुतों के पास न तो घर के जमीन का पट्टा है न ही खेत का, वे जंगल की जमीन पर रहते हैं.
वे अपने युवा बेटियों को कम ले जाते हैं क्योकि उनके साथ दुर्वयवहार होने की आशंका रहती है अतः एडवांस या दादेन लेकर उनकी शादी जल्दी कर देते हैं. ईट भट्ठों पर काम करने वाले मजदूर अक्सर जोड़ों के रूप में ही काम करते हैं. इन्हें किसी तरह की छुट्टी नही दी जाती जिस दिन नियोक्ता इन्हें पैसा देता है उस दिन सामान खरीदने जाने की छूट होती है. न तो नियोक्ता द्वारा इनके लिये किसी शौचालय की व्यवस्था होती है, न ही इन्हें बेतन कार्ड दिया जाता है, बच्चों के लिये पालना घर जैसी कोई सुविधा नहीं होती काम करते वक्त ये अपने बच्चों को साथ लिये होते हैं. इनके घर इनके द्वारा बनाये गये कच्चे ईंट पर घास लगाकर तैयार किये जाते हैं. और अधिकांश मजदूरों को सरकार के द्वारा तय की गयी मजदूरी का पता भी नहीं होता. अतः पलायित मजदूर असुरक्षा के बीच घोर अमानवीय व्यवस्था में जीते हैं.
अध्ययन के दौरान यह पाया गया कि राज्य के कुछ जिलों में अभी भी ऐसे बंधुआ मजदूर मौजूद हैं जो पारंपरिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी बंधुआ बने हुए हैं. और ये अपने को बंधुआ मानते भी हैं. ये अपने पूरे परिवार के साथ नियोक्ता यानि मालिक के घर पर काम करते हैं और प्रति दिन 700 ग्राम धान प्राप्त करते हैं. ये पूरी तरह से अपने मालिकों के संरक्षण में रहते हैं साथ ही जब इनकी अगली पीढ़ी बड़ी होती है तो वह भी वही काम करने लगती है प्रायः ये खेती, किसानी व घरेलू काम ही करते हैं व मालिक द्वारा कहीं पर भेज कर भी काम करवाया जाता है. जिसका पैसा मालिक खुद प्राप्त करता है. बीमार होने पर मालिक की तरफ से दवा करवा दी जाती है पर यह बीमारी पर निर्भर करता है. किसी गंभीर बीमारी की वज़्ाह से कई बार इनके सदस्यों की मृत्यु भी हो जाती है.
छत्तीसगढ़ के कई जिले ऐसे हैं जिनका विकास औद्योगिक क्षेत्र्ा के रूप में हुआ है. मसलन सिलतरा, उर्ला, भिलाई, दुर्ग राजनांदगांव आदि इन औद्योगिक ईकाईयों में राज्य व राज्य के बाहर से मजदूर लाखों की संख्या में काम करते हैं. पिछले कुछ दशकों से यहां नियमित मजदूरों की संख्या घटी है और ठेकेदारी प्रथा को बढ़ावा मिला है. स्वयं भिलाई स्टील प्लांट में 90 के दशक में जहां पहले 96,000 के आस-पास मजदूर थे, उनकी संख्या घटकर महज़्ा 27,000 के आस-पास पहुंच गयी है, और इतने ही के आस्-पास संख्या में मजदूर ठेकेदारों की नियुक्ति पर काम करते हैं. बाकी संख्या के मजदूर मशीनीकरण की वज़्ाह से हटा दिये गये. ठेकेदारों के मातहत काम करने वाले मजदूर एडवांस लेकर उनके बंधुआ बनते हैं जबकि उर्ला व सिलतरा क्षेत्र्ा में जहां स्पंज आयरन व पावर प्लांट की बहुलता है वहां अधिकांस संख्या में ठेकेदारी प्रथा लागू है जो कि एडवांस देकर बधुआ बने मजदूरों पर आधारित है. आने वाले बंधुआ मजदूर बस्तर, व दांतेवाडा जैसे जंगलों के आदिवासी भी हैं जो पहले अपनी आजीविका जंगलों में खोज लिया करते थे पर कम होते व कटते जंगलों से इनके आजीविका की समस्या बढ़ रही है और ये पलायित होने व बंधुआ बनने को मजबूर हो रहे हैं. इन मजदूरों के लिये न ही कोई षौचालय की व्यवस्था की गयी है न ही पीने के साफ पानी की आस-पास के तालाबों में ये स्नान करते हैं, जहां का जल इन कम्पनियों के प्रदूषण से काला हो चुका है. स्थिति ये है कि आधे घंटे सड़क पर रहने के बाद कई कि.मी. के इलाके में फैले प्रदूषण की वज़्ाह से मुंह पर कालिख जम जाती है. यहां की फसलें काली होने की वज़्ाह से बिक्री में भी समस्या होती है कई बार मजबूर होकर सरकार खरीदती है. अन्यथा किसानों के यहां सड़ जाता है. इन काम करने वाले मजदूरों को ठेकेदार 1500 से 2000 रूपये मासिक देता है और 12 घंटे से ज्यादा काम करना पड़ता है.प्रायः ये अकुशल श्रमिक के रूप में देखे जाते हैं यही हालत अन्य कई क्षेत्र्ा में काम करने वाले ठेकेदारों द्वारा बंधक मजदूरों के साथ भी है जो सड़क निर्माण से लेकर चावल मिल में काम करते हैं दृ अतः ठेकेदारी की बड़ती प्रथा ने बंधुआ मजदूरों के स्वरूप को बदल दिया है. जिससे बंधुआ का जो संवैधानिक विश्लेषण है उसके तहत इन्हें पहचानना मुश्किल है.
चन्द्रिका