अभिषेक मिश्रा
अनिल जी,
अनिल जी,
आप का कहने का निहितार्थ क्या है. यह समझ में नहीं आया. एक तरफ आप उदय प्रकाश का विरोध करने का समर्थन करते हैं. साथ ही यह कहकर -- "कहीं ऐसा तो नहीं कि उदय प्रकाश पर इस बहाने जो बहस हुई, वह एक लेखक की लोकप्रियता को उठाने गिराने के एजेंडे से संचालित रही हो?" आप इस मामले में उदय प्रकाश के स्टैंड कि उनके साथ साजिश कि जा रही है. का समर्थन कर रहें हैं. यदि लेखकों ने छत्तीसगढ़ में हुए कार्यक्रम का विरोध नहीं किया तो क्या इसका आशय यह है कि उन्होंने एक फासीवादी गुंडे से उदय के सम्मानित होने का विरोध कर ठीक नहीं किया.और आपके 'इस बहाने' का क्या मतलब है? क्या आपको यह सिर्फ बहाना लगता है.दूसरी बात आप उदय प्रकाश कि माफ़ी से लगता है पूरी तरह सहमत है. ऐसा क्यों है?आपका कहना है -- "उनकी रचनाएं हमारे समय के शुभ्र, उज्ज्वला और ’वैधानिकता’ की खोल में छिपे अपराधियों की ख़ौफ़नाक कार्रवाइयों का कच्चा चिट्ठा भर ही नहीं है, बल्कि वे ऐसे तत्त्वों के ख़िलाफ़ साहसी प्रतिरोध का भी आह्वान करती हैं।"यदि ऐसा है तो खौपनाक सच्चाईओं के प्रति सचेत इस लेखक को यह पता नहीं था कि योगी आदित्यनाथ कौन है. क्या उदय कि इस बात पर विशवास किया जा सकता है कि वे "राजनीतिक निहितार्थों के बारे में वे इतने सजग और सावधान नहीं थे।"और ध्यान से देखा जाये तो उन्होंने यह भी नहीं कहा है.उन्होंने व्यावहारिक राजनीतिक निहितार्थों की बात की हैमतलब उनके लिए अब भी यह "व्यावहारिक राजनीति" का सवाल है.
दूसरी बात, आपने लिखा है -- "उनकी रचनाएं हमारे समय के शुभ्र, उज्ज्वला और ’वैधानिकता’ की खोल में छिपे अपराधियों की ख़ौफ़नाक कार्रवाइयों का कच्चा चिट्ठा भर ही नहीं है, बल्कि वे ऐसे तत्त्वों के ख़िलाफ़ साहसी प्रतिरोध का भी आह्वान करती हैं।"यह दावा तो स्वयं उदयप्रकाश भी नहीं करेंगे।आखिर उनकी किस कहानी में ऐसे तत्वों के खिलाफ साहसी प्रतिरोध का आह्वान है. जवाब है किसी में भी नहीं. यहाँ मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि उदय प्रकाश की कहानियों में कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है. मेरा विनम्र आग्रह इतना ही है कि मनगढ़ंत तरीके से उनकी कहानियों में साहसी प्रतिरोध दिखा देना कोरा भाववाद है. आप उदय प्रकाश कि कहानियों में दरअसल वह बात डाल देना चाहते है जो आपको लगता है कि किसी अच्छे कहानीकार कि कहानियों में होनी चाहिए. और उदय प्रकाश के प्रति आप इतने मोहासक्त है कि जबरन उनकी कहानियों में साहसी प्रतिरोध घुसेड रहें है.
दूसरी बात, आपने लिखा है -- "उनकी रचनाएं हमारे समय के शुभ्र, उज्ज्वला और ’वैधानिकता’ की खोल में छिपे अपराधियों की ख़ौफ़नाक कार्रवाइयों का कच्चा चिट्ठा भर ही नहीं है, बल्कि वे ऐसे तत्त्वों के ख़िलाफ़ साहसी प्रतिरोध का भी आह्वान करती हैं।"यह दावा तो स्वयं उदयप्रकाश भी नहीं करेंगे।आखिर उनकी किस कहानी में ऐसे तत्वों के खिलाफ साहसी प्रतिरोध का आह्वान है. जवाब है किसी में भी नहीं. यहाँ मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि उदय प्रकाश की कहानियों में कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है. मेरा विनम्र आग्रह इतना ही है कि मनगढ़ंत तरीके से उनकी कहानियों में साहसी प्रतिरोध दिखा देना कोरा भाववाद है. आप उदय प्रकाश कि कहानियों में दरअसल वह बात डाल देना चाहते है जो आपको लगता है कि किसी अच्छे कहानीकार कि कहानियों में होनी चाहिए. और उदय प्रकाश के प्रति आप इतने मोहासक्त है कि जबरन उनकी कहानियों में साहसी प्रतिरोध घुसेड रहें है.
तीसरी बात, यह बात एकदम सही है कि छत्तीसगढ़ के कार्यक्रम में शिरकत के प्रश्न पर चर्चा होनी चाहिए. सत्ता और बुद्धिजीविओं के बीच के सम्बन्ध के बारे में बातचीत होनी चाहिए.कृष्णमोहन जी जो वहां गए थे. यह तर्क दे रहे हैं कि कार्यक्रम में रमण सिंह के आ जाने से ही वह प्रतिक्रियावादी नहीं हो जाता है. शायद सलवा जुडूम जैसे दमन अभियान कि गंभीरता को भूल रहे हैं. वे भूल रहे हैं कि यह अपने ही नागरिकों पर वियतनाम युद्ध की शैली में छेडा गया एक बर्बर युद्ध है. वे भूल रहें हैं कि इस युद्ध का नायक और निर्माता वही 'कवि' विश्वरंजन है. जो उस कार्यक्रम का कर्ता धर्ता था.लेकिन अनिल जी, बहुत से लोग इन कृष्णमोहन जी के प्रति भी मोहासक्त हैं. और इसकी तो वजहें भी है. मुक्तिबोध जैसे कवि के सरोकारों को समझ कर उन्होंने उनके रचना कर्म पर एक अच्छी पुस्तक भी लिखी है. लेकिन क्या मुक्तिबोध के काव्य व्यक्तित्व और उनकी पक्षधरता पर लिख कर ही कोई आलोचक आज जनपक्षधर हो सकता है. मुक्तिबोध जिन षड्यंत्रों कि पड़ताल कर रहे थे -- "किसी जन क्रांति के दमन निमित्त यह मार्शल ला है". क्या मुक्तिबोध इस तरह के कार्यक्रम में संम्मिलित होते ?कहा जाता है कि साहित्य जीवन और समाज की आलोचना है. इस तरह साहित्य की आलोचना तो उस आलोचना की भी आलोचना हुई. जीवन और समाज अपने गहनतम और संश्लिष्टतम रूप में आलोचना में आलोचना में मौजूद होते हैं.लेकिन क्या किया जाय जब हिंदी के उभरते हुए और स्थापित आलोचकों को अपनी जनता के जीवन और अपने समाज में चल रहे युद्धों की बुनियादी जानकारी भी नहीं है. अकेले कृष्णमोहन ही नहीं है. विश्वरंजन को भेजे अपने पात्र में कवि- आलोचक पंकज चतुर्वेदी कहते हैं कि सलवा जुडूम और उसमें विश्वरंजन कि भूमिका का पता उन्हें एक दिन पहले ही 'द पब्लिक एजेंडा' नामक पत्रिका से हुई. हद है!३ साल हो गए हैं सलवा जुडूम को शुरू हुए. २ साल तो बिनायक सेन ने जेल में गुजारे और हिंदी के एक संभावनाशील आलोचक को उसका पता एक दिन पहले चला है।
विजय गौड़-
अनिल जी इस बिना पर कि कोई लेखक बहुत पढा जाता है या कि लेखक ने बहुत जनपक्षधर रचनाएं लिखी हैं तो वह यदि अमानवीय अत्याचारियों के साथ खडा हो तो बहुत ही भोलेपन के साथ उसके पक्ष में हम भी खडे हों,कोई ठीक बात नहीं। और न ही इसे किसी दूसरे सवाल के साथ जोड कर ही कोई बचाव किया जा सकता है। रही बात छतीसगढ वाले मामले की (जिसके बारे में मेरी जानकारी मात्र उन दो-तीन आलेखों तक ही है जो इस ब्लाग में भी पहले प्रकाशित हुए हैं- जिसमें एक पंकज जी का पत्र और दूसरा कृष्णमोहन जी का खत) तो उसमें जो सवाल आपने उठाएं हैं निश्चित ही वे जरूरी सवाल हैं। उन पर बात होनी चाहिए। लेकिन छायी हुई चुप्पी से यह समझ में आता है कि हिन्दी का रचनाजगत किस तरह से आत्ममुग्ध है जो सिर्फ़ पुरस्कार प्रकरण पर तो, वो भी आधे-अधूरे तरह से (आधे-अधूरे : क्योंकि उदय प्रकाश का नाम तो उठा, जो उठना जरूरी था, पर वहीं एक आलोचक परमानन्द श्रीवास्तव के नाम पर चुप्पी है) खूब उत्तेजित होता है, पर सत्ता के चरित्र के सवालों पर वहां वैसी बेचैनी नहीं होती।
अनिल जी इस बिना पर कि कोई लेखक बहुत पढा जाता है या कि लेखक ने बहुत जनपक्षधर रचनाएं लिखी हैं तो वह यदि अमानवीय अत्याचारियों के साथ खडा हो तो बहुत ही भोलेपन के साथ उसके पक्ष में हम भी खडे हों,कोई ठीक बात नहीं। और न ही इसे किसी दूसरे सवाल के साथ जोड कर ही कोई बचाव किया जा सकता है। रही बात छतीसगढ वाले मामले की (जिसके बारे में मेरी जानकारी मात्र उन दो-तीन आलेखों तक ही है जो इस ब्लाग में भी पहले प्रकाशित हुए हैं- जिसमें एक पंकज जी का पत्र और दूसरा कृष्णमोहन जी का खत) तो उसमें जो सवाल आपने उठाएं हैं निश्चित ही वे जरूरी सवाल हैं। उन पर बात होनी चाहिए। लेकिन छायी हुई चुप्पी से यह समझ में आता है कि हिन्दी का रचनाजगत किस तरह से आत्ममुग्ध है जो सिर्फ़ पुरस्कार प्रकरण पर तो, वो भी आधे-अधूरे तरह से (आधे-अधूरे : क्योंकि उदय प्रकाश का नाम तो उठा, जो उठना जरूरी था, पर वहीं एक आलोचक परमानन्द श्रीवास्तव के नाम पर चुप्पी है) खूब उत्तेजित होता है, पर सत्ता के चरित्र के सवालों पर वहां वैसी बेचैनी नहीं होती।
हम पढ़े लिखे सेकुलरों का एक ही काम रह गया है और वो है हन्दू विरोध तसलीमा नसरीन को जब धकियाया गया तब हिंदी से सेकुलर रहनुमा कहाँ थे ? कुछ मुस्लिम संगठनों ने गोदरेज को धमकी दी की यदि गोदरेज सलमान रुश्दी को भोज पे आमंत्रित करेंगे तो मुस्लिम समुदाय गोदरेज products का इस्तेमाल बंद कर देंगे हिंदी सेकुलर्स को सहाबुद्दीन, लालू या मुलायम से कोई दिक्कत नहीं है ये लोग सिर्फ अपनी राजनितिक रोटी सकने मैं लगे हैं मेरा ये पोस्ट देखिये शायद कुछ लोगों की आँखें खुले :
http://raksingh।blogspot.com/2009/07/blog-post_29.html
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