गोयबल्स (पी.चिदम्बरम) अपने झूठ को दिनों दिन बदल रहे हैं और आज इन्हें सौ बार नहीं बल्कि एक बार बोलने की जरूरत है. बाकी, संचार माध्यम १०० के आंकड़े से कई गुना आगे निकल जाते हैं. पी. चिदम्बरम का अभी हाल में बयान आया कि ग्रीन हंट मीडिया द्वारा फैलाया गया गया झूठ है. पर २५ तारीख को बनवासी चेतना आश्रम के निर्देशक हिमांशु कुमार को आदिवासी विकास खण्ड सुकमा, दक्षिण बस्तर की तरफ से एक पत्र दिया गया जिसमे आश्रम के कार्यकर्ताओं को आपरेशन ग्रीन हंट चलाये जाने के कारण फील्ड में न जाने का निर्देश दिया गया है. किसी छोटे अधिकारी के बरक्स गृहमंत्री पर विश्वास किया जाना चाहिये और इस लिहाज से क्या हिमांशु कुमार को दिये गये पत्र को झूठा मान लिया जाय?
दांव पर हैं एक बेहतर समाज और जीवन की आकांक्षा आपरेशन ग्रीन हंट के नाम से जनता के खिलाफ युद्ध देश के अनेक इलाकों में शुरू हो चुका है. मीडिया में भले इसकी खबरें नहीं आ रही हों, उन इलाकों से आनेवाले अनेक लोग-जैसेकि फिल्मकार गोपाल मेनन-बताते हैं कि कैसे आदिवासियों के उत्पीडन और विस्थापन में किस तरह भयावह तीव्रता आई है. जनता के खिलाफ चल रहे इस युद्ध के विरोध में दिल्ली में फोरम अगेंस्ट वार ऑन पीपुल नाम का एक फोरम बना है, जिसमें अरुंधति राय, सरोज गिरी, गौतम नवलखा जैसे अनेक जाने-माने लोग और पीयूसीएल, पीयुडीआर, भाकपा माले (लिबरेशन), आरडीएफ़ जैसे अनेक संगठन शामिल हैं. फोरम ने एक अपील जारी की है. उसे हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं.
जनता पर युद्ध के खिलाफ अखिल भारतीय कन्वेंशनसुबह 9 बजे-शाम 6 बजे तक, 4 दिसंबर 2009 (शुक्रवार)राजेंद्र भवन, दीन दयाल उपाध्याय मार्ग, आइटीओ के नजदीक, दिल्लीजैसा कि आप आगे पढ़ेंगे, भारतीय राजसत्ता द्वारा एक नवंबर से शुरू हो चुके जनता के खिलाफ युद्ध के कई हफ्ते बीत चुके हैं। मारे जानेवाले आदिवासियों-जो भारत सरकार के इस शिकार के प्रमुख पीड़ित हैं-की संख्या बहुत बढ़ गयी है. युद्ध क्षेत्र से कभी कभार आ जानेवाली मीडिया खबरों के मुताबिक मृतकों की संख्या रोज-ब-रोज बढ़ रही है. उसी तरह जलाये गये गांवों, विस्थापितों, घायलों और गिरफ्तार लोगों की संख्या भी बढ़ रही है. हमने सुना है कि सीआरपीएफ, कोबरा, सी-60, ग्रेहाउंड्स, भारत तिब्बत सीमा पुलिस, नक्सल विरोधी टास्क फोर्स और अर्ध सैनिक बलों और पुलिस बलों के संयुक्त दल ने वायुसेना के हेलिकॉप्टरों और अमेरिकी खुफिया सैटेलाइटों की मदद से सेना के शीर्ष अधिकारियों के नेतृत्व में दंडकारण्य और इसके आसपास के इलाकों में ऑपरेशन शुरू कर दिया है. नवंबर के मध्य में 12 से अधिक गांव पूरी तरह मिटा दिये गये, उनके निवासियों को जंगल में और अधिक भीतर शरण लेने पर मजबूर किया गया. दंडकारण्य में दो अलग-अलग और उड़ीसा में एक जनसंहार की घटनाएं सामने आयीं, जिनमें 17 से अधिक आदिवासी सरकारी सैन्य बलों द्वारा मारे गये. लालगढ़ में ताजा हमले में सैकड़ों प्रतिरोधरत आदिवासियों के बेघर कर दिया है. यदि भारत सरकार इस सैन्य हमले को तुरंत नहीं रोकती है तो इसकी बहुत आशंका है कि मारे गये और घायल लोगों के साथ विस्थापित लोगों और नष्ट कर दिये गये गांवों की संख्या में आनेवाले हफ्तों में इजाफा ही होगा.भारत सरकार महीनों से इस व्यापक सैन्य हमले की तैयारी करती रही है, जिसमें लगभग एक लाख सैनिकों की तैनाती, उन्हें अत्याधुनिक हथियारों से लैस करना, वायुसेना को हवाई हमलों की इजाजत देना और भारतीय सेना को न सिर्फ प्रशिक्षण और समन्वय के लिए बल्कि ऑपरेशन के नेतृत्व के लिए और अगर जरूरी हुआ तो सक्रिय हिस्सेदारी के लिए भी तैयार करना शामिल है. ऐसी खबरें भी हैं कि अमेरिकी खुफिया और सुरक्षा अधिकारियों ने भारत सरकार को यह युद्ध चलाने के लिए 'सलाह मशविरा' दिया है. मीडिया खबरों के मुताबिक मध्य और पूर्वी भारत के पूरे जंगली इलाके को सात ऑपरेटिंग एरिया में बांटा गया है, जिसे सरकार पांच सालों के भीतर माओवादियों सहित हर तरह के प्रतिरोध से 'साफ' करना चाहती है. इस युद्ध का खर्च पहले ही 7300 करोड़ रुपये आंका जा चुका है.जनता के खिलाफ इस युद्ध के उद्देश्यों के बारे में कोई भ्रम नहीं है. यह युद्ध कॉरपोरेट्स की तरफ से उनके फायदे के लिए भारत सरकार द्वारा आदिवासियों के जीवन को निशाना बनाते हुए लड़ा जा रहा है. विश्वव्यापी साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था अभी 1929 के बाद से सबसे गंभीर संकट झेल रही है, अपनी सभी निर्भर अर्थव्यवस्थाओं को मंदी के दलदल में और गहरे तक डुबोते हुए. सैन्य औद्योगिक तंत्र-जिसमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों और भारत के बड़े व्यावसायिक हित हैं-युद्ध चाह रहा है, जिसके जरिये वह संकटग्रस्त बाजार में अपने उत्पादों के लिए एक कृत्रिम मांग पैदा कर सके. इससे भी अधिक घरेलू और विदेशी कॉरपोरेशन देश की खनिज संपदा को हथियाने के लिए बेताब हैं, जिसकी कीमत अरबों डॉलर है, जो कि मध्य और पूर्वी भारत के व्यापक जंगली इलाके में फैला हुआ है. एक बार हाथ लग जाने के बाद यह संपदा इन कॉरपोरेशनों के लिए अगले कई दशकों तक बेतहाशा मुनाफे की गारंटी कर देगी. माइनिंग कॉरपोरेशनों द्वारा राज्य सरकारों से इस इलाके की जनता की संपदा को पूरी आजादी से लूटने की इजाजत देनेवाले सैकड़ों समझौते और करार (एमओयू) पहले ही किये जा चुके हैं. कॉरपोरेशनों ने इस प्राकृतिक संपदा को हथियाने की राह में खड़ी सभी कानूनी बाधाएं आसानी से दूर कर ली हैं. एकमात्र बाधा जो उनके और इस अपार संपदा के बीच में खड़ी है, वह है जनता का हर तरह का प्रतिरोध, भले ही वह हथियारबंद हो या बिना हथियारों के. नंदीग्राम से लेकर नियमगिरी तक, लालगढ़ से दंडकारण्य तक, कोरापुट से कलिंगनगर तक जनता 'विकास' के नाम पर सरकार द्वारा थोपी जा रही नवउदारवादी नीतियों की महज शिकार होने से इनकार कर रही है. पुलिसिया दमन से लेकर सलवा जुडूम तक, हर तरह के बल प्रयोगों के बाद, जो जनता के आंदोलनों को रोक पाने में विफल रहे, भारत सरकार ने अब न सिर्फ माओवादी आंदोलन के खिलाफ-जो कि 'सबसे बड़ा आंतरिक खतरा' बताया जा रहा है-बल्कि सभी जनांदोलनों के खिलाफ, जो सरकार की नीतियों को चुनौती देते हैं, युद्ध छेड़ दिया है. ऐसा करके, वह न केवल हर तरह की असहमत आवाजों और जनवादी अधिकारों को ध्वस्त करने की कोशिश कर रही है, बल्कि एक बेहतर समाज और सम्मान के साथ एक बेहतर जीवन की शोषित-उत्पीड़ित जनता की आकांक्षाओं को भी नष्ट करना उसका उद्देश्य है. Forum Against War on People
जनता पर युद्ध के खिलाफ अखिल भारतीय कन्वेंशनसुबह 9 बजे-शाम 6 बजे तक, 4 दिसंबर 2009 (शुक्रवार)राजेंद्र भवन, दीन दयाल उपाध्याय मार्ग, आइटीओ के नजदीक, दिल्लीजैसा कि आप आगे पढ़ेंगे, भारतीय राजसत्ता द्वारा एक नवंबर से शुरू हो चुके जनता के खिलाफ युद्ध के कई हफ्ते बीत चुके हैं। मारे जानेवाले आदिवासियों-जो भारत सरकार के इस शिकार के प्रमुख पीड़ित हैं-की संख्या बहुत बढ़ गयी है. युद्ध क्षेत्र से कभी कभार आ जानेवाली मीडिया खबरों के मुताबिक मृतकों की संख्या रोज-ब-रोज बढ़ रही है. उसी तरह जलाये गये गांवों, विस्थापितों, घायलों और गिरफ्तार लोगों की संख्या भी बढ़ रही है. हमने सुना है कि सीआरपीएफ, कोबरा, सी-60, ग्रेहाउंड्स, भारत तिब्बत सीमा पुलिस, नक्सल विरोधी टास्क फोर्स और अर्ध सैनिक बलों और पुलिस बलों के संयुक्त दल ने वायुसेना के हेलिकॉप्टरों और अमेरिकी खुफिया सैटेलाइटों की मदद से सेना के शीर्ष अधिकारियों के नेतृत्व में दंडकारण्य और इसके आसपास के इलाकों में ऑपरेशन शुरू कर दिया है. नवंबर के मध्य में 12 से अधिक गांव पूरी तरह मिटा दिये गये, उनके निवासियों को जंगल में और अधिक भीतर शरण लेने पर मजबूर किया गया. दंडकारण्य में दो अलग-अलग और उड़ीसा में एक जनसंहार की घटनाएं सामने आयीं, जिनमें 17 से अधिक आदिवासी सरकारी सैन्य बलों द्वारा मारे गये. लालगढ़ में ताजा हमले में सैकड़ों प्रतिरोधरत आदिवासियों के बेघर कर दिया है. यदि भारत सरकार इस सैन्य हमले को तुरंत नहीं रोकती है तो इसकी बहुत आशंका है कि मारे गये और घायल लोगों के साथ विस्थापित लोगों और नष्ट कर दिये गये गांवों की संख्या में आनेवाले हफ्तों में इजाफा ही होगा.भारत सरकार महीनों से इस व्यापक सैन्य हमले की तैयारी करती रही है, जिसमें लगभग एक लाख सैनिकों की तैनाती, उन्हें अत्याधुनिक हथियारों से लैस करना, वायुसेना को हवाई हमलों की इजाजत देना और भारतीय सेना को न सिर्फ प्रशिक्षण और समन्वय के लिए बल्कि ऑपरेशन के नेतृत्व के लिए और अगर जरूरी हुआ तो सक्रिय हिस्सेदारी के लिए भी तैयार करना शामिल है. ऐसी खबरें भी हैं कि अमेरिकी खुफिया और सुरक्षा अधिकारियों ने भारत सरकार को यह युद्ध चलाने के लिए 'सलाह मशविरा' दिया है. मीडिया खबरों के मुताबिक मध्य और पूर्वी भारत के पूरे जंगली इलाके को सात ऑपरेटिंग एरिया में बांटा गया है, जिसे सरकार पांच सालों के भीतर माओवादियों सहित हर तरह के प्रतिरोध से 'साफ' करना चाहती है. इस युद्ध का खर्च पहले ही 7300 करोड़ रुपये आंका जा चुका है.जनता के खिलाफ इस युद्ध के उद्देश्यों के बारे में कोई भ्रम नहीं है. यह युद्ध कॉरपोरेट्स की तरफ से उनके फायदे के लिए भारत सरकार द्वारा आदिवासियों के जीवन को निशाना बनाते हुए लड़ा जा रहा है. विश्वव्यापी साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था अभी 1929 के बाद से सबसे गंभीर संकट झेल रही है, अपनी सभी निर्भर अर्थव्यवस्थाओं को मंदी के दलदल में और गहरे तक डुबोते हुए. सैन्य औद्योगिक तंत्र-जिसमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों और भारत के बड़े व्यावसायिक हित हैं-युद्ध चाह रहा है, जिसके जरिये वह संकटग्रस्त बाजार में अपने उत्पादों के लिए एक कृत्रिम मांग पैदा कर सके. इससे भी अधिक घरेलू और विदेशी कॉरपोरेशन देश की खनिज संपदा को हथियाने के लिए बेताब हैं, जिसकी कीमत अरबों डॉलर है, जो कि मध्य और पूर्वी भारत के व्यापक जंगली इलाके में फैला हुआ है. एक बार हाथ लग जाने के बाद यह संपदा इन कॉरपोरेशनों के लिए अगले कई दशकों तक बेतहाशा मुनाफे की गारंटी कर देगी. माइनिंग कॉरपोरेशनों द्वारा राज्य सरकारों से इस इलाके की जनता की संपदा को पूरी आजादी से लूटने की इजाजत देनेवाले सैकड़ों समझौते और करार (एमओयू) पहले ही किये जा चुके हैं. कॉरपोरेशनों ने इस प्राकृतिक संपदा को हथियाने की राह में खड़ी सभी कानूनी बाधाएं आसानी से दूर कर ली हैं. एकमात्र बाधा जो उनके और इस अपार संपदा के बीच में खड़ी है, वह है जनता का हर तरह का प्रतिरोध, भले ही वह हथियारबंद हो या बिना हथियारों के. नंदीग्राम से लेकर नियमगिरी तक, लालगढ़ से दंडकारण्य तक, कोरापुट से कलिंगनगर तक जनता 'विकास' के नाम पर सरकार द्वारा थोपी जा रही नवउदारवादी नीतियों की महज शिकार होने से इनकार कर रही है. पुलिसिया दमन से लेकर सलवा जुडूम तक, हर तरह के बल प्रयोगों के बाद, जो जनता के आंदोलनों को रोक पाने में विफल रहे, भारत सरकार ने अब न सिर्फ माओवादी आंदोलन के खिलाफ-जो कि 'सबसे बड़ा आंतरिक खतरा' बताया जा रहा है-बल्कि सभी जनांदोलनों के खिलाफ, जो सरकार की नीतियों को चुनौती देते हैं, युद्ध छेड़ दिया है. ऐसा करके, वह न केवल हर तरह की असहमत आवाजों और जनवादी अधिकारों को ध्वस्त करने की कोशिश कर रही है, बल्कि एक बेहतर समाज और सम्मान के साथ एक बेहतर जीवन की शोषित-उत्पीड़ित जनता की आकांक्षाओं को भी नष्ट करना उसका उद्देश्य है. Forum Against War on People
सच्चाई से अवगत कराने के लिए शुक्रिया। पर बात यही है कि यह सच “महान मीडिया” द्वारा दबा दिया जायेगा। वे इसकी भनक तक नही लगने देंगे। दूसरी ओर, आज की तारीख में सत्य का वैसा कोई खास किरदार रह नहीं गया है। इसलिए दुखद सम्भावना यही है कि “ग्रीन हंट” जारी रहेगा।
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