हालांकि चासी मुलिया आदिवासी संघ का दावा है कि घटना से एक दिन पहले अर्धसैनिक बल के जवान आसपास के गांवों में कांबिग ऑपरेशन के नाम पर आदिवासियों के साथ मारपीट कर के आये थे, जिसके खिलाफ आदिवासी अपना विरोध जताने पहुंचे थे. निहत्थे आदिवासी जब नारायणपुर थाने के थानेदार से बात कर लौट रहे थे तो उन पर पीछे से गोलियां बरसाई गईं.
पुलिस आदिवासियों पर माओवादियों के उकसावे में आ कर हिंसक कार्रवाई की बात कह रही है तो आदिवासी नेताओं का आरोप है कि पुलिस हर असहमति और विरोध को ‘माओवाद’ प्रचारित कर उसका दमन करने की कोशिश कर रही है. चासी मुलिया आदिवासी संघ इस बात से साफ इंकार करता है कि उसके माओवादियों से कोई संबंध हैं.
ताज़ा घटना के बाद आज तक पुलिस ने 72 आदिवासियों को गिरफ्तार किया है और उनमें से कम से कम 15 ऐसे लोग हैं, जिन पर माओवादी होने का शक है. लगातार चल रही इन गिरफ्तारियों से गांवों में अब सन्नाटा पसरा हुआ है. गांव में मर्द और नौजवान पुलिस के डर से भाग गये हैं. हर रोज सैकड़ों की संख्या में ग्रामीण थाने पहुंच रहे हैं और लिख कर दे रहे हैं कि चासी मुलिया आदिवासी संघ के साथ उनका कोई संबंध नहीं है.
विद्रोह, आंदोलन और सीएमएएस
इस साल की शुरुवात में सीएमएएस यानी चासी मुलिया आदिवासी संघ पहली बार तब चर्चा में आया, जब उसने नारायणपटना में 2000 एकड़ ज़मीन और बंधुगांव में 1500 एकड़ ज़मीन गैर आदिवासियों से ‘वापस’ छुड़ा कर उस पर कब्जा कर लिया. संघ का दावा था कि ये जमीनें गैर आदिवासियों ने ग़लत तरीके से हथियाए थे. संघ ने इन ज़मीनों को भूमिहीन लोगों को बांट दिया, जिनमें गैर आदिवासी भी थे. बाद में इन ज़मीनों पर सामूहिक खेती की गई. इन खेतों से जब धान की फसल कटाई शुरु हुई तो विवाद शुरु हो गया, जिसकी परिणति नारायणपटना थाना कांड के रुप में सामने आयी.
जिन खेतों के लिए सारा विवाद हुआ, उन खेतों में धान की फसल खेतों में ही खड़ी-खड़ी खराब हो रही है. संघ के लोग भागे-भागे फिर रहे हैं और दूसरी ओर इन ज़मीनों के गैर आदिवासी ‘मालिक’ भी खेत में घुसने की हिम्मत नहीं कर पा रहे हैं.
आखिर संघ चाहता क्या है ? आदिवासी और गैर आदिवासियों के बीच संघर्ष के पीछे का सच क्या है ? क्या चासी मुलिया आदिवासी संघ के पीछे सशस्त्र माओवादी हैं ? कुछ ऐसे ही सवालों के जवाब की तलाश में हम फायरिंग से कुछ ही दिन पहले पहुंचे थे नारायणपटना.
ज़मीन का सच
“ मैं बहुत खुश हूँ, क्योंकि मैं अब तक भूमिहीन खेतिहर मजदूर था लेकिन अब मैं भी 80 सेंट ज़मीन का मालिक बन गया हूँ.” हालांकि 80 सेंट ज़मीन, ज़मीन का एक छोटा-सा टुकड़ा भर है लेकिन एक भूमिहीन आदिवासी के लिए ज़मीन का महत्व क्या है, यह बात 50 साल के आदिवासी किसान मुसरी मादिंगी की आँखों की चमक से समझा जा सकता है.
नारायणपटना और बन्धुगाँव क्षेत्र में चासी मुलिया आदिवासी संघ की अगुवाई में हो रहे बहुचर्चित भूमि आन्दोलन के चलते जिन लोगों को फायदा हुआ है, उनमें मुसरी भी एक हैं. नारायणपटना-बन्धुगाँव मार्ग पर नारायणपटना से 2 किलोमीटर की दूरी पर पाचिंगी गाँव में सड़क के दाहिनी ओर मिटटी के एक खपरैल घर में अपनी 8 बेटियों, एक बेटे और पत्नी के साथ मुसरी रहते हैं.
उनकी एक बेटी की शादी हो चुकी है और एकमात्र बेटा नारायणपटना में ड्राईवर का काम करता है. अपने परिवार के गुजारे के लिए मुसरी दूसरे आदिवासियों की तरह सड़क के दूसरी ओर स्थित पहाड़ी पर मक्के की खेती करते हैं. वह साल दर साल इस ज़मीन पर खेती करते आ रहे हैं पर उस ज़मीन का उनके नाम कोई कागजात नहीं है.
“ पहले इस ज़मीन पर खेती करने की वजह से फारेस्टर हमें धमकी देने के साथ-साथ काफी परेशान करता रहा है, हमें कंध आदिवासी कह कर कई बार काफी गाली-गलौज किया है, लेकिन अब वह कुछ नहीं कह रहे हैं.” मुसरी काफी राहत के साथ एक लम्बी सांस लेते हुए यह सब बताते हैं.
चासी मुलिया आदिवासी संघ का आन्दोलन शुरू होने के बाद से स्थानीय आदिवासियों के प्रति दूसरे लोगों, खासतौर से सरकारी कर्मचारियों के रवैय्ये में आये बदलाव को महसुस करने वालों में मुसरी अकेले नहीं हैं.
“ यह संघ आने से बहुत अच्छा हुआ है साहब. हमारे जितने ज़मीन-जायदाद, पेड़-पौधे, डोंगर-पहाड़ सब सरकार और साहूकार मिलकर लूट कर ले जा रहे थे. उस पर रोक लग गयी है. हम आदिवासी तो डोंगर किसानी करके कमाने-खाने वाले लोग हैं, अब फिर से वह सब करके सब खुश हैं.” यह बात पट्टामांडा के आदिवासी किसान नारिमदिंगा ने कही.
नारिमदिंगा और उनके भाई के पास कुल 15 एकड़ ज़मीन थी, जिसमें से 5 एकड़ खेत एक गैर आदिवासी के हाथ चली गयी थी. इसके बाद नारिमदिंगा कमाने-खाने के लिए पुरी चले गये थे. आंदोलन के बाद उन्हें उनकी ज़मीन वापस मिल गयी है और अब वे फिर से खेती में जुट गये हैं.
नारीमदिंगा कहते हैं- “शराब आदि देकर गैर-आदिवासी आदिवासियों की ज़मीन हड़प लिए गये थे. कहीं कौड़ी के भाव में तो कहीं बहला-फुसलाकर. लेकिन संघ के इस आन्दोलन के चलते आदिवासी को अपनी खोयी हुयी ज़मीन वापस मिल रही है, जिससे सब एकजुट होकर किसानी कर रहे हैं.” संघ के आंदोलन के बाद से नारायणपटना और बन्धुगाँव में शराब पूरी तरह से प्रतिबंधित हो गयी है.
लेकिन जिन गैर-आदिवासियों से इन ज़मीनों को ‘छुड़ाया’ गया है, क्या वे फिर इस ज़मीन पर दावा नहीं करेंगे ? क्या फिर से भूमिहीन होने का डर नहीं है?
नारीमदिंगा तर्क गढ़ते हुए कहते हैं- “ डर किस बात की ? जिसकी ज़मीन है, उसका सबसे बड़ा हक है. यह सब हमारी ज़मीन है, जिसे ये लोग ले गए थे. हमारे गाँव में कई आदिवासी हैं, जो पुरखों से डोंगर में खेती करते आ रहे हैं पर उनका कोई पटा-परचा नहीं है. अब संघ उन लोगों को कागजात दिलाने के लिए प्रशासन से मांग कर रहा है और मांग पूरा कर के भी ला रहा है. ”
हम अब लोपेटा गाँव में थे, जहां चासी मुलिया आदिवासी संघ की बैठक होने वाली थी. यहां तक पहुंचने के लिए पैदल ही नदी पार करनी पड़ी. रास्ते में हमने देखा कि आसपास के गांवों से सैकड़ों महिला-पुरुष बैठक के लिए पहुंच रहे हैं. उनके अलावा लाल रंग की शर्ट, हॉफ पैंट और पैरों में सस्ती स्पोर्ट्स शू पहने अपने पारंपरिक तीर-धनुष से लैश युवक बैठक स्थल पहुंच रहे थे. हमें बताया गया कि ये युवक ‘घेनुआबाहिनी’ के सदस्य हैं.
आदमखोरों को मारने वाला
‘घेनुआबाहिनी’ का नामकरण उड़ीसा में कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक भगबती प्रसाद पाणिग्राही के एक प्रसिद्ध ओडिया कहानी के नायक एक हिम्मती आदिवासी युवक घेनुआ के नाम पर किया गया है, जो आदमखोर बाघों को मार कर उनके सिर लेकर आता था और अंग्रेज सरकार से ईनाम लेकर जाता था. एक दिन उसने क्षेत्र में लोगों पर अत्याचार करनेवाले एक बलात्कारी ज़मींदार का सिर कलम कर दिया और अंग्रेजों के पास उसका सिर लेकर पहुंचा. लेकिन उसे ईनाम के बजाय मौत की सजा मिली.
चासी मुलिया आदिवासी संघ का दावा है कि घेनुआबाहिनी में 5000 से ज्यादा सदस्य हैं, जो अपने को घेनुआ कहते हैं.
बैठक स्थल पर ऐसे घेनुओं ने हमें भी रोकने की कोशिश की. बैठक स्थल के आस पास लगातार नज़र रखी जा रही थी. हालांकि हमारे हाथ में कैमरा और स्टैंड था, इसके बावजूद हमसे कड़ी पूछताछ की गयी. हमारे यह कहने पर कि हम उनके नेता नाचिका लिंगा से फ़ोन में बात करके आये हैं, तब कहीं जा कर वे आश्वस्त हुये.
बैठक स्थल पर मौजूद जांगडीबसा गाँव के गांगुली ताड़ी से हमने जानना चाहा कि वह इस आन्दोलन से क्यों जुड़े हैं ? तो उन्होंने झट से जवाब दिया-“ पहले साहूकार और व्यापारी हमारे ज़मीनों को हथिया लिए हैं, हमारे परिवार की 5 एकड़ ज़मीन थी, जिसे हम अब संघ के जरिये वापस लाना चाहते हैं.”
ज़मीन से उजड़े
ऐसे सैकड़ों लोग हैं, जो अपनी ज़मीन पाने के लिए संघ और उसके आंदोलन से जुड़े हुए हैं. इस साल ज़मीन पर कब्जा करके उस पर सामूहिक खेती की जा रही है. लेकिन संघ के आंदोलन के कारण बड़ी संख्या में क्षेत्र के साहूकार, व्यापारी के अलावा छोटे और मध्यम वर्ग के लोग, जिनमें दलित भी शामिल हैं, उन्हें अपनी ज़मीनों से हाथ धोना पड़ा है. कई लोगों को तो घर और गाँव छोड़ कर जाना पड़ा है. उनमें से कई दलित परिवार कोरापुट में शरण लिए हुए हैं.
एक दलित परिवार पोदपद्र के पोस्टमास्टर का भी है, जो फिलहाल नारायणपटना में है. उनकी 4 एकड़ ज़मीन है और भाईयों की भी ज़मीन जोड़ने पर यह 16 एकड़ होती है.वे बताते हैं कि उनकी 4 एकड़ ज़मीन में 2 एकड़ सरकारी ज़मीन थी और एक एकड़ 70 सेंट ज़मीन पर भी संघ ने कब्ज़ा कर लिया है.
वह ज़मीन पहले किसकी थी ? इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा- “वह मैं कैसे कह सकता हूँ ? हो सकता है, पहले यह उन आदिवासियों की रही होगी, जिन्होंने किसी कारण से इसे बेच दिया होगा. यह ज़मीन पिछले सौ सालों से तो हमारे ही पास है. ऐसे में मैं इसे किसकी ज़मीन मानूं ? जहाँ तक एक एकड़ 70 सेंट ज़मीन का सवाल है, वह मैंने एक हरिजन चंडाल कुल्दीपिया से ख़रीदी थी.”
पास का ही एक गाँव है- पंगापोलुरु. वहां संघ ने दलितों की ज़मीन ले ली है और उनमें से 2 घरों पर हमला भी किया है. इस पर पडोसी गाँव के आदिवासी नारिमदिंगा कहते हैं- “ उन दो घरों में से एक गैरकानूनी शराब बेचता था, दूसरा पुलिस का चौकीदार था और दोनों लोगों पर जुल्म ढाते थे. उन्हें संघ ने काफी समझाया लेकिन जब वे नहीं मानें तो उन्हें गांव से खदेड़ दिया गया.”
उसी गाँव में सड़क के किनारे एक खेत में 2 महिलायें सब्जी के खेती में काम करते नजर आईं. उनसे बात करने पर पता चला कि वे भी दलित हैं और संघ ने उनकी भी ज़मीन हथिया ली है.
बहुत बेबसी के साथ मालती खुरा कहती हैं- “ हम खेती करके गुजारा करते हैं. संघ ने हमारी खेती की सारी ज़मीन ले ली. हमारे गुहार लगाने पर तरस खाते हुए ज़मीन का यह टुकड़ा हमें दिया है.”
संघ का प्रतिकार
इलाके में बड़ी संख्या में ऐसे लोग लामबंद हो रहे हैं, जो चासी मुलिया आदिवासी संघ से प्रताड़ित हुए हैं. संघ का प्रभाव आगे न बढ़े, इसलिए इसे रोकने के लिए पडोसी ब्लाकों में गैर आदिवासी एक जुट होने लगे हैं. संघ के इस विरोध को माइनिंग करने वाली कंपनियों का भी सहयोग मिल रहा है. इलाके की माइनिंग कंपनियां जानती हैं कि संघ अगर और मज़बूत हुआ तो उसके निशाने पर उनके खदान होंगे.
हालांकि इस पहलू का दूसरा सच ये भी है कि इस इलाके में बड़ी संख्या में आदिवासी माइनिंग के कारण भी अपनी ज़मीन से बेदखल कर दिये गये हैं. चासी मुलिया आदिवासी संघ के नेता नाचिका लिंगा कहते हैं- “ देखिये वह ज़मीन किसकी थी-आदिवासियों की या साहूकारों की ? अपना खून पसीना एक करके वह ज़मीन किसके बाप दादाओं ने तैयार की थी ? वह ज़मीन गैर आदिवासी के हाथ कैसे चढ़ गयी ? और उसी ज़मीन का मालिक आदिवासी किसान अब अपने ही खेत में मज़दूरी कर रहा है. जिस खेतों से सैकड़ों लोगों का घर चलता था, उन 20 से 40 परिवारों की ज़मीन को एक-एक साहुकार ने हड़प लिया. हम सरकार को बता रहे हैं कि यह ज़मीन आदिवासियों की थी और इसे किस तरह हड़पा गया. हम सरकार के सामने सच रख रहे हैं कि वह जांच करे और आदिवासियों को ज़मीन वापस मिले.”
इस आन्दोलन के बारे में जिला प्रशाशन क्या सोचती है ? कोरापुट के जिलाधीश गदाधर परिड़ा कहते हैं- “ आदिवासियों की स्वार्थ रक्षा के लिए चासी मुलिया आदिवासी संगठन का गठन हुआ है. आदिवासी अपनी ज़मीन पर अपना अधिकार की मांग कर रहे हैं, जिसे सरकार ने भी मंजूर किया है. यह कानून भी है. अगर किसी आदिवासी की ज़मीन को ठग लिया गया है तब यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह ज़मीन दुबारा कैसे उस आदिवासी के हाथ में लौटे. हम आदिवासियों से लगातार कह रहे हैं कि इस पर थोड़ा धैर्य रखें. हम काननू सम्मत हर काम करेंगे. लेकिन आदिवासी दूसरे लोगों की बात में पड़ कर आंदोलन कर गलत कदम उठा रहे हैं.”
पुलिस फायरिंग से पहले नारायणपटना आये जाने माने पत्रकार पी.साईंनाथ कहते हैं- “हमारी दुनिया की सबसे पुरानी समस्या यह है कि इसकी 85% आबादी सिर्फ 15% ज़मीन में गुजारा करने के लिए संघर्ष करती नज़र आती है तो दूसरी ओर सिर्फ 5-6 प्रतिशत लोग 60 से 70 प्रतिशत ज़मीनों के मालिक बन बैठे हैं. वह भी अनुसूचित क्षेत्र में, जहाँ किसी भी हालत में आदिवासी से उसकी ज़मीन को अलग नहीं किया जा सकता. लेकिन यहाँ पर यह सोचा ही नहीं जा रहा है कि पिछले कुछ दशकों में ही आदिवासी को उसकी ज़मीन से बेदखल कर दिया गया है.”
लेकिन साईंनाथ मुद्दे की तह में जाने पर ज़ोर देते हैं. वे कहते हैं- “ आदिवासी जिन ज़मीनों पर अपना दावा कर रहे हैं, उनमें कुछ ऐसे दलित परिवार भी हैं, जो गरीब हैं. ऐसे में बड़ी संख्या में ज़मीनों पर काबिज साहुकार और धनी लोग इस पूरे आंदोलन को आदिवासी बनाम दलित की लड़ाई के रुप में पेश करने की कोशिश कर रहे हैं. जो भी हो, आदिवासी आन्दोलनकारी जिस सिद्धांत को लेकर लड़ाई लड़ रहे हैं वह है- जो जुताई कर रहा है, ज़मीन उसकी है. गैरहाजिर ज़मीन मालिक या ज़मींदार मंजूर नहीं. आज की तारीख में आदिवासी नारायणपटना की लगभग सभी ज़मीनों पर दखल कर चुके हैं, इसलिए वहां तनाव है. इससे बचा जा सकता था, लेकिन आखिर एक न एक दिन तो यह होना ही था. आप आदिवासियों से इस तरह का व्यवहार करें और उम्मीद करें कि वह प्रतिक्रिया भी न करे, ये कैसे संभव है.”
लेकिन इसका कोई समाधान भी तो होगा ?
साईंनाथ कहते हैं-“ पहली बात तो यह है कि आदिवासियों को उनकी ज़मीन का अधिकार और उनकी मांगों का समाधान करना होगा. उन्हें अपनी ज़मीन पर उनका दखल देना होगा. खासकर उन ज़मीनों पर जो लीज के हिसाब से ली गयी हैं, या जो ज़मीन साहूकार और ज़मींदार कर्ज के बदले हड़प लिए हैं. वह सारी ज़मीन सीधा वापस लौटाने चाहिए, जिससे आप इंकार नहीं कर सकते. ऐसा कुछ राज्यों में विधान सभा में फैसला करके कानून बनाया गया है. ऐसा करने से कुछ ज़मीन आदिवासी मालिकों के पास खुद ब खुद वापस आ जायेगी. इसके अलावा आपको ज़मीन, जंगल को लेकर स्पष्ट नीति बनानी होगी.”
साईंनाथ विस्तार से कहते हैं- “हमें गैर आदिवासियों के बीच जो गरीब लोग हैं, उनके बारे में भी सोचना होगा. क्योंकि इनमें से कई लोगों के पास दादा-परदादा के ज़माने से ज़मीन होगी, जब भारत का संविधान नहीं होगा या यह क्षेत्र अनुसूचित क्षेत्र में शामिल नहीं हुआ होगा. ऐसे में उनके साथ भी न्याय हो, यह देखना होगा. पर मेरे मन में इस बात को लेकर कोई दुविधा नहीं है कि जो बड़े-बड़े ज़मींदार सैंकड़ों-सैंकड़ों एकड़ ज़मीनों के मालिक बन बैठे हैं, वह सारी ज़मीन आदिवासियों को वापस मिलनी ही चाहिए।
ज़मीन गरम है
पुरुषोत्तम ठाकुर, भुवनेश्वर से
तहलका से साभार