07 फ़रवरी 2008

कब लौटेंगे हुसैन अपने घरः-



93 साल के मकबूल फिदा हुसैन अपने-आप में एक चलता-फिरता इतिहास हैं. अपनी पेंटिंग्स पर उठे विवादों और उन पर चल रहे अदालती मामलों के बाद पिछले कुछ समय से उन्हें दुबई में रहना पड़ रहा है. इन विवादों को लेकर वो क्या सोचते हैं? अपने विरोधियों को कहने के लिए उनके पास क्या है? ऐसे कुछ सवालों को टटोलता शोमा चौधरी का लेख .


मकबूल फिदा हुसैन को भारत रत्न दिया जाए या नहीं, खबरिया चैनल एनडीटीवी द्वारा इस सवाल पर एसएमएस पोल चलाने के विरोध में 19 जनवरी को जब कुछ लोग चैनल के अहमदाबाद स्थित दफ्तर में तोड़फोड़ कर रहे थे तो ये फनकार दुबई स्थित अपने घर में उस्ताद अमजद अली खान के बेटे की शादी के निमंत्रण पत्र के लिए दो घोड़ों का स्केच बनाने में तल्लीन था. उनके ब्रश की आवाज कमरे में पसरी शांति को तोड़ने के बजाय और गहरा कर रही थी. हुसैन जब चित्रकारी कर रहे होते हैं तो उनके ध्यान में कोई भी चीज बाधा नहीं डाल सकती. उनकी जिंदगी के पिछले 70 साल चित्रों के भक्त के रूप में गुजरे हैं. इन 70 सालों में उन्होंने हिंदू दर्शन और संस्कृति को आत्मसात किया है. रामायण पर चित्रकारी करते हुए आठ साल बिताए हैं. महाभारत को भी इतना ही वक्त दिया है. हुसैन ने गणेश, शिव, पार्वती, हनुमान, राग, नाट्य और बनारस की सैकड़ों तसवीरें बनाई हैं. भारत के बारे में दुनिया की समझ को समृद्ध करने के लिए उन्होंने सारी दुनिया की यात्रा की है. उन्हीं हुसैन को अब धर्मविरोधी करार दे कर उनके नाम पर तोड़फोड़ की जा रही है.

हुसैन कहते हैं, “ये इतिहास का बस एक लम्हा है, क्या कर सकते हैं.” दुबई में उन्होंने अपने सभी बच्चों के लिए फ्लैट खरीदे हैं. उन्होंने अपने लिए दो विशाल अपार्टमेंट्स भी खरीदे हैं जिनसे समुद्र को निहारा जा सकता है. इनमें से एक में वो अपने भतीजे फिदा, उसके परिवार और दो नौकरों के साथ रहते हैं. दूसरे को उन्होंने संग्रहालय में तब्दील कर दिया है .

हालांकि हुसैन के लिए निर्वासन कड़वा अनुभव नहीं क्योंकि ऐसा होना उनके विरोधियों की जीत और उनकी हार जैसा होगा. वो ठाठ और मजे के साथ जीने में यकीन रखते हैं. दुबई में उन्होंने अपने सभी बच्चों के लिए फ्लैट खरीदे हैं. उन्होंने अपने लिए दो विशाल अपार्टमेंट्स भी खरीदे हैं जिनसे समुद्र को निहारा जा सकता है. इनमें से एक में वो अपने भतीजे फिदा, उसके परिवार और दो नौकरों के साथ रहते हैं. दूसरे को उन्होंने संग्रहालय में तब्दील कर दिया है जिसकी भव्यता देखते ही बनती है. इसके तीन कमरे उन्होंने अपनी कला को समर्पित किए हैं—एक कमरे में 1950 के दशक में बनाई गई पेंटिग्स रखी गई हैं. इनमें अपने आप में एक कहानी ‘मारिया कलेक्शन’ भी शामिल है. दूसरे कमरे में पेंटिंग्स की एक श्रंखला, जिसे वो ‘हुसैन डिकोडेड’ कहते हैं, मौजूद है. तीसरे में मुगले-आज़म पर आधारित पेंटिंग्स रखी गई हैं.

इन दो अपार्टमेंट्स के बीच हुसैन अपनी जिंदगी उस ऊर्जा, उत्साह और सक्रियता के साथ जी रहे हैं जो उनसे एक तिहाई उम्र के लोगों को भी शर्मिंदा कर दे. वो सुबह सात बजे उठते हैं और रात को दो बजे तक जागे रहते हैं. उन्हें शानदार कारों का शौक है और उनके बेड़े में फेरारी, बेंटली, जगुआर और सात करोड़ में खरीदी गई बुगाटी शामिल है. हुसैन हंसते हुए कहते हैं, “लोग मूर्तियां खरीदते हैं, मैं कारें खरीदता हूं.”

शरारत उनके खून में है. फिदा की पत्नी साहिबा कहती हैं, “जब चाचा घर पर होते हैं तो सांस लेने की भी फुरसत नहीं होती.” हुसैन ने उन सबकी जिंदगी का कायाकल्प कर दिया है. फिल्में, पॉपकॉर्न, समारोह, मेहमान, महंगी जगहों पर भोजन, सस्ते रवि ढाबा पर दिन का खाना, एक मालाबारी होटल की चाय जैसी चीजों में ही उनका वक्त बीत रहा है.

पेंटिंग के इतर भी हुसैन सतत चलायमान रहते हैं. उनकी उंगलियां लगातार किसी काल्पनिक तबले पर थिरक रही होती हैं. वो एक दिन आबूधाबी में होते हैं तो दूसरे दिन कतर में. हर साल गर्मियों के महीने वो लंदन जाते हैं. इन दिनों वो अरबी भाषा भी सीख रहे हैं. इसके अलावा वो एक साथ चार प्रोजेक्ट्स पर भी काम कर रहे हैं. कतर की रानी के लिए वो अरबी सभ्यता पर 99 पेंटिंग्स बना रहे हैं. लक्ष्मी निवास मित्तल के लिए भी वो इसी स्तर की एक श्रंखला तैयार कर रहे हैं. इसके अतिरिक्त हुसैन भारतीय सिनेमा के इतिहास और मुगले आजम को भी चित्रबद्ध करने में लगे हुए हैं.

अकूत धनसंपदा का ये मालिक आज भी पहले की ही तरह अपने ड्राइंग रूम में बिछे एक साधारण गद्दे पर सोता है. हुसैन अकेले यात्रा करना पसंद करते हैं. 93 साल की उम्र के इस शख्स की शारीरिक फुर्ती और मानसिक क्षमता देखकर हैरत होती है. लगता है जैसे उन्हें कोई दिव्य वरदान मिला हुआ है.

हुसैन एक तरह से जीता-जागता इतिहास और राष्ट्रीय धरोहर हैं. जिस दिन एनडीटीवी के अहमदाबाद आफिस में बीस लोग तोड़-फोड़ करते हैं उसी शाम हम उस्ताद अमजद अली खान और उनके बेटों के संगीत आयोजन में जाते हैं. लोगों की भीड़ उन्हें ऐसे घेर लेती है जैसे वो एक फिल्म स्टार हों. बार-बार सुनने को मिलता है, “दुबई का सौभाग्य है कि आप यहां हैं.” लोग उन्हें छूने, उनका ऑटोग्राफ लेने और उनके साथ फोटो खिंचवाने की कोशिश करते हैं. उस्ताद के सरोद का संगीत अब भी माहौल में गूंज रहा है. कुछ देर पहले हमने उनकी गणेश वंदना का आनंद लिया है. विविधताओं से बनी भारत की जिस मजबूत संस्कृति पर हम गर्व करते हैं वो ऐसे ही लोगों में बसती है. इस माहौल में भी रह-रहकर भारत में हो रही घटनाओं पर ध्यान चला जाता है. बाद में मालाबार रेस्टोरेंट में चाय पीते हुए हुसैन इस बारे में मानो कुछ सोचते हुए कहते हैं, “गालिब ने एक बार बहुत परेशान होकर कहा था कि या तो मेरे श्रोताओं को समझ दे या फिर मेरी आवाज बदल दे.” वो एक साथ चार प्रोजेक्ट्स पर भी काम कर रहे हैं. कतर की रानी के लिए वो अरबी सभ्यता पर 99 पेंटिंग्स बना रहे हैं. लक्ष्मी निवास मित्तल के लिए भी वो इसी स्तर की एक श्रंखला तैयार कर रहे हैं. इसके अतिरिक्त हुसैन भारतीय सिनेमा के इतिहास और मुगले आजम को भी चित्रबद्ध करने में लगे हुए हैं.


हुसैन की आत्मकथा ‘अपनी जबान में’ में एक घटना है. एक बच्चा मिट्टी से खेलता हुआ कुछ आकृतियां बना रहा है. मक़बूल नाम का एक नौजवान आता है और इन्हें चटख रंगों में रंग देता है. कोई भी इन आकृतियों में दिलचस्पी नहीं लेता. इसके बाद एम एफ हुसैन नाम का एक शख्स आता है और उन पर अपने हस्ताक्षर कर देता है. अचानक ही आकृतियों को खरीदने के लिए भीड़ टूट पड़ती है. हुसैन कहते हैं, “तीनों पात्र मैं ही हूं. कला की कीमत बढ़ाने के लिए मैंने एम एफ हुसैन को सोचसमझकर एक ब्रांड के रूप में तब्दील किया. मैं चाहता था कि कला के बारे में लोगों की जागरूकता बढ़े. मेरे लिए ये एक मिशन था.”

एम एफ हुसैन ब्रांड को लोगों ने हाथों-हाथ लिया. कला के बाजारीकरण से कई नाराज भी हुए मगर इसने भारतीय कला को विश्व स्तर पर प्रसिद्धि दिलाई. 90 के दशक में जब हुसैन ने अपनी एक कलाकृति का मूल्य 40 हजार से बढ़ाकर एक लाख रुपये किया था तो लोगों ने इसे आत्मघाती कदम बताया. आखिर में जीत हुसैन की ही हुई और ये पांच लाख रुपये में बिकी. अगली बार उन्होंने अपने काम की कीमत पांच लाख लगाई, फिर दस लाख और इसके बाद आया एक करोड़ का मुकाम. इसे कामयाब बनाने के लिए उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी. उन्होंने इस आयोजन को सिटीबैंक से प्रायोजित करवाया और चुनिंदा दर्शकों को ही आमंत्रित किया. फिर उन्होंने एक तमाशा किया. संगीत की धुन और नर्तकों के थिरकते कदमों के बीच उनका कैनवास मखमल के किसी पर्दे की तरह लहराते हुए नीचे आया. इससे पहले वो ऐसा ही तामझाम भरा एक आयोजन वो माधुरी दीक्षित के साथ कर चुके थे. हुसैन कहते हैं, “मैंने माधुरी से पूछा कि क्या वो भारतीय कला को मशहूर बनाने के मिशन में मेरा साथ देंगी. आयोजन में हमने रंगों से पोता हुआ एक सफेद घोड़ा रखा हुआ था. शानदार लिमोजीन में बैठकर हम जानबूझकर आयोजन में देर से आए. लोगों को ये तमाशा खूब पसंद आया.”

हंसते हुए हुसैन कहते हैं, “लेकिन मैंने खुद को बचाए रखा है. मेरे भीतर वो बच्चा और चित्रकार मकबूल अब भी जिंदा है. मकबूल के बिना एम एफ हुसैन का वजूद नहीं होता.”

हुसैन के एक प्रशंसक और करीबी मित्र पूछते हैं, “हुसैन अपने काम के जरिये अपना गुस्सा क्यों जाहिर नहीं करते.” हुसैन जवाब देते हैं, “मैं वास्तव में कोई कड़वाहट महसूस ही नहीं करता. मेरा जिंदगी भर का काम ही मेरा जवाब है. बतौर कलाकार मैं अपनी ऊंचाई 1950 के दशक में छू चुका हूं. मेरा बाकी का काम उसी का प्रतिबिंब है. जब मेरी बीवी फाज़िला का भाई बंटवारे के वक्त पाकिस्तान चला गया तो कई दशक तक मैंने उससे कोई संपर्क नहीं रखा. मैं हमेशा से राष्ट्रवादी रहा हूं. मगर मुझे जगहों से कोई जुड़ाव महसूस नहीं होता. मां का प्यार आपके दिल में घर का अहसास पैदा करता है...आपको बांधकर रखता है. मैं बस डेढ़ साल का था जब मेरी मां चल बसी इसलिए मैंने इस तरह का लगाव भी कभी महसूस नहीं किया. मेरा पहला बच्चा शब्बीर तीन साल की उम्र में ही चल बसा. मैंने खुद एक गटर से उसकी लाश बाहर निकाली. इसके बाद खोने के लिए बाकी क्या रह जाता है.”

हुसैन के विचारों से आपको एक तरह की बुद्धिमत्ता की झलक मिलती है. इस उम्र में भी उनके भीतर खुद को दूसरी जगह जमाने और जिंदगी को फिर से गढ़ने की हिम्मत है. वो इसे इतना आसान बना देते हैं कि आपको ये बात बहुत हल्की लग सकती है. एक प्रशंसक और करीबी मित्र पूछते हैं, “हुसैन अपने काम के जरिये अपना गुस्सा क्यों जाहिर नहीं करते.” हुसैन जवाब देते हैं, “मैं वास्तव में कोई कड़वाहट महसूस ही नहीं करता. मेरा जिंदगी भर का काम ही मेरा जवाब है.

लेकिन अगर सिर्फ एक निगाह भर डालें तो उनके निर्वासन से जुड़ा बेतुकापन खुलकर सामने आ जाता है. यहां एक ऐसा व्यक्ति है जिसने लगभग एक सदी से भारत के हर पक्ष को बहुत नजदीक से देखा है. 1955 तक वह एक स्थापित कलाकार हो चुके थे और पद्मश्री से सम्मानित भी. 1971 तक उन्हें साओ पाओलो में पाब्लो पिकासो के साथ आमंत्रित किया जाने लगा था. 1986 में वह राज्यसभा सांसद भी बने. और ये सब महज ऊपर-ऊपर की बातें हैं—अगर ये सोचा जाए कि उन्होंने भारत के हर छोटे-बड़े रंग को 10,000 से ज्यादा चित्रों में उकेरा है तो ये बेतुकापन बिल्कुल नग्न हो जाता है.

एम एफ हुसैन एक चलता-फिरता इतिहास है. एक राष्ट्रीय धरोहर. और हमने उन्हें क्या दिया? देशनिकाला.

दुबई में हुसैन के साथ तीन दिन बिताने के बाद मैं भारत वापस आई. मैंने हुसैन के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर करने वाले अपोलो अस्पताल के एंडोक्राइनोलॉजिस्ट डा. राम प्रताप सिंह को फोन किया. फोन उठाते ही जैसे उन्हें बिजली का झटका लगा. डॉ. सिंह निहायत ही गर्ममिजाज आदमी हैं. बात शुरू करते ही वो फट पड़े, "मैं आप जैसे लोगों को अच्छी तरह जानता हूं. आप मुझसे सवाल क्यों पूछ रही हैं? आप लोग हमेशा हमें लतियाने की फिराक में रहते हैं." मैंने कहा, "आप किस 'हम' की बात कर रहे हैं डॉ. सिंह? मैं भी एक हिंदू हूं. ठीक है आप हुसैन से सहमति नहीं रखते हैं, लेकिन आप एक पढ़े-लिखे आदमी हैं इसलिए मैं सिर्फ इतना पूछना चाहती हूं क्या आप लोग ऑफिसों में तोड़फोड़, कला दीर्घाओं में आगजनी रोक नहीं सकते हैं. क्या आप तांत्रिक कला की परंपरा के बारे में नहीं जानते और कृष्ण राधा, शिव पार्वती के कामुक प्रेम चित्रण को बताने की जरूरत नहीं है..." आप मुझे पढ़ा लिखा आदमी कह रही हैं? आप लोग हमेशा हमें गालियां देते हैं.. मुझसे सवाल पूछने वाली आप होती कौन हैं? मैं आपसे तंत्र या फिर किसी चीज़ के बारे में बात नहीं करूंगा. आप लोग हमारे साथ सम्मान के साथ क्यों नहीं रहते? आप जैसे लोग इस देश में सिर्फ एक फीसदी हैं, हम आपके साथ भी वही करेंगे...”

डॉ. सिंह की याचिका हुसैन के खिलाफ उन सात याचिकाओं में शामिल है जिनकी जानकारी हुसैन के वकील अखिल सिब्बल को है. सबको एक में ही दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा समाहित कर दिया गया है. सिब्बल ने बताया, "इसके अलावा अब मेरी जानकारी में उनके खिलाफ कोई और अदालती कार्रवाई नहीं चल रही है. लेकिन अक्सर हमें इसके बारे में जानकारी मीडिया के जरिए ही मिलती है."

हुसैन ने 2006 में उस वक्त हमेशा के लिए भारत छोड़ दिया था जब दक्षिणपंथियों के हमलावर रुख के बाद हरिद्वार की कोर्ट ने उनके खिलाफ ग़ैर ज़मानती वारंट जारी कर दिया था और इसमें भारत के भीतर उनकी सभी संपत्तियों की कुर्की का निर्देश भी था. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश पर रोक लगा दी लेकिन बीते साल में ही हुसैन की पेंटिंग्स का कई हिंसक विरोधों से सामना हो चुका है. 2006 में लंदन के एशिया हाउस में आयोजित एक प्रदर्शनी में एक कट्टरपंथी हिंदू गुट ने जमकर तोड़फोड़ मचाई. यही कहानी अमेरिका के पीबॉडी एसेक्स संग्रहालय में लगी उनकी महाभारत श्रृंखला की पेंटिग्स के साथ भी दोहराई गई. ऐसा ही कुछ पिछले साल इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में देखने को मिला जब केरल सरकार को दबाव में राजा रवि वर्मा पुरस्कार स्थगित करना पड़ा. मई 2007 में एबीएन एमरो बैंक को भी दबाव में अपने प्लेटिनम क्रेडिट कार्ड से हुसैन की कृति हटानी पड़ी. एक डरावने और बेतुके घटनाक्रम में लखनऊ में एक स्वघोषित हिंदू पर्सनल लॉ बोर्ड ने हुसैन का सिर लाने वाले को 51 करोड़ रूपये, आंखों के लिए 11 लाख और हाथ के बदले एक किलो सोना इनाम में देने की घोषणा की. एनडीटीवी के ऑफिस पर हमला इसी श्रंखला की ताज़ा कड़ी है. दुबई में हुसैन के साथ तीन दिन बिताने के बाद मैं भारत वापस आई. मैंने हुसैन के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर करने वाले अपोलो अस्पताल के एंडोक्राइनोलॉजिस्ट डा. राम प्रताप सिंह को फोन किया. फोन उठाते ही जैसे उन्हें बिजली का झटका लगा.

अगर डॉ. राम प्रताप सिंह की जबान में ही बोला जाए तो ऐसे लोग भारत की आबादी का दशमलव कुछ फीसदी हिस्सा भी नहीं है. और भावनाओं का अनियंत्रित उफान भी नहीं है. उदाहरण के तौर पर गुजरात मामले को ही लें. बेरोजगार, कुंठित और बजरंग दल द्वारा दुत्कार दिया गया अशोक शर्मा किसी भी तरह से नाम कमाना चाहता था. अहमदाबाद के संयुक्त पुलिस कमिश्नर सतीश शर्मा भी इसका समर्थन करते हुए उसे ‘आवारा’ बताते हैं. इंटरनेट पर भी ये अभियान सुनियोजित तरीके से चलाया जा रहा है लेकिन इसके बाद भी इस तरह की खुराफातों में हिस्सा लेने वाले लोग गिनती के ही हैं. तरस खाने वाली बात ये है कि ये गिने चुने, असहिष्णु, किसी तरह की बात में विश्वास न रखने वाले और क़ानूनों की बेशर्मी से धज्जी उड़ाने वाले लोग ही हमारे सार्वजनिक जीवन की दिशा तय करने लगे हैं. और इन मामलों में कोई भी गिरफ्तारी नहीं होती जबकि सिब्बल बताते हैं कि राज्य, कोर्ट और पुलिस के पास सिर्फ शक्तियां ही नहीं है बल्कि उनकी जिम्मेदारी भी बनती है कि उनकी जानकारी में क़ानूनों का उल्लंघन करने की बात आए तो तो खुद-ब-खुद हस्तक्षेप करें. इस मसले पर हमने बीजेपी के अरुण जेटली से राय जानने की कोशिश की मगर उनका कहना था कि मीडिया से बात करना बंद कर रखा है. कांग्रेस के अभिषेक मनु सिंघवी से पूछिए आपको रटी रटाई लाइन सुनने को मिलेगी, “हुसैन के महत्व पर किसी को शक नहीं है, लेकिन भारत एक लोकतांत्रिक देश है और सबको विरोध और असहमति जताने का हक़ है. उनका शोषण नहीं होना चाहिए आदि...“ जहां तक सड़क पर जो हिंसा होती है उसका क्या? “अगर कोई ग़लत काम करते पकड़ा जाता है तो निश्चित रूप से उसे गिरफ्तार करना चाहिए लेकिन क़ानून व्यवस्था का मसला राज्य सरकार के जिम्मे है”

अपनी तरह का विशिष्ट और हाईप्रोफाइल मामला होने की वजह से हुसैन का निर्वासन देश के सामने भी चुनौती बन गया है. तस्लीमा नसरीन, सलमान रश्दी, तैयब मेहता, अकबर पद्मसी, मृदुला गर्ग, हबीब तनवीर, विजय तेंदुलकर, दीपा मेहता... हिंदू और मुस्लिम असहिष्णु गुटों द्वारा सताए गए लोगों की गिनती करते करते उंगलियों में दर्द होने लगता है. कलाकारों के ऊपर बातचीत के जरिए नहीं बल्कि मारपीट के जरिए प्रतिबंध थोपा गया. खुद तहलका भी प्रतिष्ठित छायाकार रघु राय की एक नग्न महिला की फोटो प्रकाशित करने के आरोप में मुंबई में इसी तरह के एक मामले का सामना कर रही है. हर बार जब सुनवाई होती है प्रधान संपादक को कोर्ट में हाज़िर होकर फिर से ज़मानत करवानी पड़ती है.

इन सभी मामलों में सभ्यता से जुड़े चार बड़े सवाल पैदा होते हैं. अश्लीलता की परिभाषा क्या है? धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाला वो बिंदु क्या है (इन दिनों ये बहुत आसानी से चोट खा जाता है) जिसे पार करने से बचना चाहिए? लेखक और कलाकार की समाज में भूमिका क्या है? और, एक सभ्य समाज में हमें किस तरह से अपना विरोध जताना चाहिए? एम एफ हुसैन 2006 में तब प्रमुखता से ख़बरो में आ गए जब उनकी एक बिना नाम वाली पेंटिंग जिसमें एक नग्न युवती के रूप में देश का चित्रण किया गया था, का प्रदर्शन शैरोन एपारोस सैफ्रोनॉर्ट द्वारा किया गया. एक निष्पक्ष आदमी के लिए ये प्रेरक और सुंदर काम था. कुछ हिंदू गुटों ने इस पर हल्ला मचाना शुरू कर दिया. हुसैन को केरल अवार्ड दिए जाने का विरोध करने वाले रवि वर्मा बताते हैं, "हुसैन ने ये काम देश के 80 करोड़ हिंदुओं और इसके अलावा विदेशों में बसने वाले लाखों हिंदुओं की भावनाओं को जानबूझ कर चोट पहुंचाने की नीयत से किया है." ये पूछना ही बेकार है कि इतनी बड़ी संख्या की भावनाओं के बारे में वो कैसे दावा कर सकते हैं. सिब्बल के शब्दों में, "भारत माता पर किसी एक समुदाय का अधिकार नहीं है और क़ानूनों के मुताबिक खुद वर्मा के आरोप सांप्रदायिक और विभाजनवादी हैं."

इसके अलावा हुसैन द्वारा 1988 में बनायी गई सरस्वती पेंटिंग पर रूढ़िवादियों ने भौहें तरेरी थी. इसे निजी रूप से ही खरीदा गया था और इसका प्रकाशन भी टाटा स्टील द्वारा प्रकाशित एक पुस्तक के सीमित संस्करणों में ही हुआ था. भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में जिस हद तक उत्तेजना का पुट होता है इस पेंटिंग में उसका एक चौथाई भी नहीं है. लेकिन अगर आप इस बात को कुछ देर के लिए छोड़ भी दें तो भी अश्लीलता पर जब हम बहस करते हैं तो एक अहम सवाल उठता है कि ये किस सीमा तक सार्वजनिक है? हुसैन का मामला हो, या किसी कलाकार का इन सभी मामलों में सभ्यता से जुड़े चार बड़े सवाल पैदा होते हैं. अश्लीलता की परिभाषा क्या है? धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाला वो बिंदु क्या है (इन दिनों ये बहुत आसानी से चोट खा जाता है) जिसे पार करने से बचना चाहिए? लेखक और कलाकार की समाज में भूमिका क्या है? और, एक सभ्य समाज में हमें किस तरह से अपना विरोध जताना चाहिए?
, वो अपना काम आपके ऊपर थोपते नहीं हैं, वो अपने काम का प्रचार बड़ी बड़ी होर्डिंग्स के सहारे नहीं करते जिनसे आपका सामना हर दिन होता है और आपके पास और भी विकल्प होते हैं. छोटी सी बात है, अगर आपको उनका काम पसंद नहीं है तो उसे मत देखिए. गैलरी में मत जाइए, किताबें मत खरीदिए. किसी समान विचारधारा वाले मीडिया में इसके खिलाफ अपने लेख प्रकाशित कीजिए. ये विरोध का एक सभ्य तरीका हो सकता है.

एक कलाकार या लेखक की तमाम जिम्मेदारियों में एक काम ये भी है कि वो समाज के विचारों की सीमा को आगे बढ़ाए. अगर उन्हें इस तरह से दबाया जाएगा तो फिर सारी कलाधर्मिता रुक जाएगी. खुशी की बात ये है कि बीते सालों में सुप्रीम कोर्ट ने बारीकी से आम ज़िंदगी में अश्लीलता का निर्धारण करने की कोशिश की है. रंजीत डी उदेशी बनाम महाराष्ट्र सरकार(1965), अजय गोस्वामी बनाम भारत सरकार(2005), समरेश बोस बनाम अमल मित्रा(1985) जैसे तमाम मामलों में अदालत ने ये राय दी है कि कला में सेक्स और नग्नता को अश्लीलता के दायरे में नहीं रखा जा सकता, न ही भद्देपन की समानता अश्लीलता से की जा सकती है. सिर्फ उन स्थितियों को, जिनमें जानबूझकर किसी का चरित्र बिगाड़ने या फिर भ्रष्ट करने की कोशिश की गई हो या कामुकता को भड़काने और दर्शक की यौन भावनाओं को उघाड़ने की कोशिश हो, ही अश्लीलता के दायरे में रखा जाना चाहिए. कोर्ट ने कहा कि अश्लीलता की सीमा निर्धारित करने में वो अतिसंवेदनशील व्यक्तियों की सोच को इस्तेमाल नहीं कर सकता.

इसके पीछे का आशय काफी मायने रखता है. इन उदाहरणों के आगे हुसैन के खिलाफ मामले कहीं खड़े नहीं हो सकते. 10,000 कैनवास के जखीरे में बमुश्किल तीन पेंटिंग विवाद में हैं. क्या उनका मकसद अपमान करने का है? बजाय इसके उनका संपूर्ण काम ही उनके समर्पण को दर्शाता है. कला इतिहासकार अल्का पाण्डेय कहती हैं, "हुसैन असली मास्टर है. चित्र उकेरने की उनकी विशिष्ट कला, उनका बड़े पैमाने पर किया गया काम, खुद ही सीखने का गुण--ये सब अतुलनीय हैं. जहां तक कामुकता का सवाल है तो ये हमेशा से हमारे दर्शन और सौंदर्यप्रधान संस्कृति का हिस्सा रहे हैं. हुसैन इसी मिट्टी में सांस लेकर बड़े हुए हैं. उनकी कला भी इसी का नमूना है. उनका विरोध लज्जाजनक है.” ऐसा समर्थन उन्हें खूब मिलता है लेकिन इसका तब तक कोई मतलब नहीं है जब तक कि कोई उनकी लड़ाई को लड़ने के लिए आगे नहीं आता. हुसैन खुद कुछ नहीं कहेंगे. वो एक उक्ति पर जीते हैं, “न कोई सफाई, न कोई बुराई”

4 टिप्‍पणियां:

  1. खुदा करे वो फ़िर से कुछ अशलील तसवीरे बनाये और आपकी माताजी/बहनजी व आपका नाम लिखे ,तब हम फ़िर से आपका लेखन उन तसवीरो के साथ यहा देखना चाहेगे..?
    बुरा लगा ना ..?
    दूसरे को भाषण देना आसान है और अपनी टीआर पी बढाने के लिये इस तरह की घटिया हरकते करना भी..

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  2. @ gayab aur darpok aadmi anonymous!!
    Sahab aapke paas kuvvat naih hai apni baat ko sahi dhang se rakhne ki to kyun vyaktigat tippani kar rahe hian. hitalar ki mansikta bi aisi hi thi jisne khud ko antim samay me goli se uda liya. baat ko kahne ka hausal rakhte hain to naam sahit likhiye @ gayab, aur swasth bahas kariye.

    aur aap kisi ki asahmati ko bhasan kah rahe hian to aap pravachan kar rahe hain kya?

    sawasthy bhasha me jawab dene par aapka jawab diya jaayega aur hum to aapke jaise ghatiya logon ki baaten bhi sun lete hain.

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  3. thanku anil,app jaise hinduo se hi ham is kagar par hai,kahiye husain ko ki vo kuran ulta likhar toylat per dikhaye.

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  4. husan ka vitod ve log kartec jo kudmagaj he vo kohi bhe dharam ke ho . art ke bare me vo kuvh nahi jante . augar indian tradition ki bat kare (vaise hum world tradition ko he apni bat ka adhar mante he)to art ki mukmal tradition he hamare pas . kamsutre,khuroho,kamayakan,puran ya tamam arts .
    rahi bat state ki to secular state ko jo kam karn vo vaha kare . agra vo nahi karraha to phir saval to hoga he.

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