25 जनवरी 2008

संविधान में मौलिक अधिकारों की प्रासंगिकता-


संविधान को लागू हुये 58 वर्ष बीत चुके है तब से तीन थके हुये रंगों को एक पहिया ढो रहा है। हर वर्ष 26 जनवरी को परेडों और जुलुसों के बीच राष्ट्र की संमप्रभुता और संविधान में प्रदत्त नागरिक अधिकारों का गुणगाण किया जाता है। पर इतने वर्षो बाद आम जन को ये अधिकार कितने मिल पायें है इसके विष्लेषण की जरूरत हैं। 1789 में मानवाधिकारों या मौलिक अधिकारों कों अपने नागरिकों के लिए सुनििष्चत करने वाला पहला राज्य फ्रांस था। भारतीय संविधान में नागरिकों के 7 मौलिक अधिकार अनुच्छेद 12 से 35 तक वणीZत किये गये है। परंतु 1975 के 44 वे संषोधन में संपत्ति का अधिकार समाप्त होने के बाद 6 अधिकार ही बचे। और इन अधिकारों क® लेकर 13 के खंड 2 मेें इस बात का वर्णन किया गया है कि राज्य कोइ भी ऐसा कानून नहीं बनायेगा जो इन अधिकारों को छीनती है या कम करती है और बनायी गयी प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक षून्य होंगी। भारतीय संविधान द्वारा नागरिकों को जो अधिकार प्रदत्त किये गये उनकी कुछ सीमायें थी, सीमायें ही नहीं वरन उनमें इस तरह की व्यवस्था रखी गयी कि राज्य का कोई हस्तक्षेप न होते हुये भी राज्य की इच्छा के अनुरूप ही यह अधिकार मिल सके और नागरिकों के मूल अधिकारों का हनन होता रहा।

समानता का अधिकार
अनुच्छेद 14 से 18 में नागरिकों को समानता का अधिकार प्रदान किया गया है। जिनमें कई तरह की समानता नागरिकों को देने की बात कहीं गयी है। इनमे कानूनों के समक्ष समानता, अवसर की समानता, सामाजिक समानता, अस्पृष्यता का निषेध, उपाधियों का निषेध आदि षामिल है। पर गौर करने की बात यह है कि संविधान में वणिZत दिखावे की यह समानता है। आज भी समाज में वर्चस्ववादी वर्ग के लोगों का ही बोलबाला है। समाज में अवसर लाभ उसी को मिलता है जिसका समाज में वर्चस्व है। व्यवस्था में षिर्षस्थ स्थान पर वही लोग बैठे है जो पीढी दर पीढी से सारी परिस्थितियों को अपने अनुकूल रखे हुयें है। ऐसी स्थिती में आरक्षण की व्यवस्था होने के बाद भी सामाजिक परिस्थितीयों ने दमित व षोषित वर्ग को वंचित ही बनाके रखा है। थोडे बहुत परिवर्तन यदि आये भी तो उन्ही के पास जिन्होने इस वर्चस्ववादी जन से समझौता किया है। पर वे परिवर्तन कहीं से भी अस्पृष्यता निषेध या जातिविहीन समाज बनाने में मददगार साबित नही लगते।

स्वतंत्रता का अधिकार
मूल संविधान के अनुच्छेद 19 द्वारा नागरिकों को जो स्वतंत्रतायें प्रदान की गयी। जिनमें विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, अस्त्र षस्त्र रहित षांतिपूर्ण संमेलन, संघ तथा समुदाय बनाना, देष में कही भी भ्रमण, देष के किसी भी क्षेत्र मे निवास तथा व्यापार व व्यवसाय की स्वतंत्रता है। परंतु नागरिकों को ये स्वतंत्रता प्रदान करने के बाद कुछ प्रतिबंध भी लगाये गये यदि कोई व्यक्ति राज्य की सुरक्षा, विदेषी राज्यों से मैत्रिपुर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, षिष्टाचार या सदाचार, न्यायालय अवमानना, मानहानि या अपराध या फिर 1963 के 16 वे संषोधन में एक नया प्रतिबंध जोडा गया कि किसी क्षेत्र को भारत से अलग करने की मांग कोई करता है तो उसपर प्रतिबंध लगाया जा सकता है। इन प्रतिबंधों के बाद अब ऐसा कुछ भी व्यक्त करने को नहीं बचता जिसके लिए आप स्वतंत्र है, और जो बचता है वह है राज्य की इच्छा की अनुरूप अभिव्यक्ति या राज्य की पक्षधरता अन्यथा इनकी व्याख्या करके राज्य किसी भी व्यक्ति की अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध लगा सकता है यदि वह उसके उनुरूप न हो। अस्त्र षस्त्र रहित षांतिपूर्ण सम्मेलनों की व्याख्या राज्य किन रूपों में करेंगी। इसका कोई आधार नहीं है। लाठी या डंडे को अस्त्र माना जा सकता है। परंतु एके 47 लेकर रैलियों में सामूहिक प्रदषZन और गोलीबारी करने पर कोई प्रतिबंध नही लगता जैसा की पिछले दिनों उत्तर प्रदेष मेें मायावती सरकार की जीत के जष्न में उनके एक विधायक ने किया था।

शोषण के विरूद्ध अधिकार
अनुच्छेद 23-24 में वणिZत ये अधिकार व्यक्ति की गरिमा को सुनिष्चत करने के लिए बनायें गये हैं जिसके पीछे कारण यह था कि भारत में बेगार लेने या मजदूरों को गुलाम बनाने की प्रथा थी। परंतु जीवन की मूलभूत जरूरतों को पूरी करने के लिए रोटी, कपडा और प्रश्रय के अभाव में एक बडी जनसंख्या जी रही है। जो पहले दास के रूप में गुलाम बनकर अपना जिवन यापन करती थी। आज उसका स्वरूप थोडा बदल गया है। औद्योगिकरण के बाद उन दास का केंद्रीकरण हुआ है और वे किसी कंपनी में पूंजी घराने के दास बने हुये हैं और अपने श्रम को सस्ते दामों पर बेचने के लिए मजबूर हैं। जिसका मुनाफा उस निजी पूंजी घराने को जा रहा है। यही नहीं दूर दराज के गांव में आज भी यह व्यवस्था थोडे बहुत परिवर्तनों के साथ मौजूद है और मजदूर के रूप में सामंतों की जमीनों की जोत के बदले एक बडा तबका दास बनने को अभिसप्त है। यह अधिकार संविधान की किताब में लिखे चंद हफोंZ के अलावे कुछ नहीं दिखते।

धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार
अनुच्छेद 25 से 28 तक दिए गये इन अधिकारों में नागरिकों को किसी भी धर्म को अंगीकार करने तथा उसके प्रचार करने की स्वतंत्रता प्रदान की गयी थी। जिसमें यह भी बात कही गयी थी कि उस नागरिक को राज्य कर देने के लिए बाध्य नहीं कर सकता जो किसी विषेष धर्म अथवा धार्मिक संप्रदाय की उन्नति या पोषण में व्यय करने के लिए विषेष रूप से सुनििष्चत किया हो। जिसका परिणाम यह हुआ की एक बडा व्यवसायी व संपन्न वर्ग इसकी आड में पूंजी का केंद्रीकरण करता रहा तथा आम जनता को धार्मिकता से ओतप्रोत करता रहा। जिसका फायदा आगे उठाकर धार्मिक कट्टरपंथियों ने लोगों की धार्मिक संवेदनाओं को सांप्रदायिकता के हद तक पहुचाया। लोगों को अपने धर्म के प्रति कट्टर बनाया और ताकिZक चिंतन और वैज्ञानिक चिंतन की परंपरा को भी कुंद करने का काम किया। कारणवष धर्म और धर्मगं्रथों में वणिZत व्यवस्थायें जो सामंती समाज आधारित थी उनको भी पुष्टी मिली और समाज में वर्णव्यवस्था वा विषमता को बरकरार रखने को बल मिला। सांप्रदायिक दंगों को भी अपरोक्ष रूप से आधार प्रदान किया गया और अल्पसंख्यकों के हितों का अनदेखा होता रहा।

संस्कृति और षिक्षा संबंधी अधिकार
अनुच्छेद 29-30 में संस्कृति और षिक्षा संबंधी अधिकारों का मूल उद्देष्य था कि अल्पसंख्यकों को इस बात से आष्वस्त करना कि उनके मामले में किसी भी प्रकार का अनावष्यक एवं अनुचित हस्तक्षेप नही किया जायेगा तथा भारतीय संघ किसी भी आधार पर भेदभाव नही करेगा। परंतु देष की सत्ता में विराजमान अधिकांषत: व सत्ता चरित्र के मुताबिक अपनी संस्कृति का निर्माण किया गया जो व्यवस्था को किसी भी रूप में स्थायित्व प्रदान कर सके। विभिन्न पार्टीयों ने वोट की राजनीति के लिए अपने हित के अनुरूप संस्कृति बनायी और उसे पोषित किया। पूंजी के इस युग में लोककला-संस्कृति को तरजीह देने के बजाय साम्राज्यवादी संस्कृति के रूप में उपभोक्तावादी संस्कृति का विकास किया गया। गुजरात में आज यदि अल्पसंख्यक के रूप में रह रहा मुस्लिम इतना भयभीत है कि वह गाडी, दुकान में हिंदू देवों की मुर्तिया लगा रहा है, अपने वेषभूषा को हिंदुओं के मुताबिक ढाल कर चलने को मजबूर है। तो उसके मौलिक अधिकार कहां है और उनकी रक्षा करने वाला कौन?

संवैधानिक उपचारों का अधिकार
अनुच्छेद 32 से 35 को अंबेडकर ने संविधान की आत्मा कहा जिसके अंतर्गत न्यायपालिका- व्यवस्थापिका व कार्यपालिका की ऐसे सभी काननों और कार्याे को असंवैधानिक घोषित कर देगी जो मौलिक अधिकारों को अनुचित रूप से प्रतिबंधित करते है। किंतु गौरतलब बात यह है कि न्यायपालिका में बैठा हुआ न्यायाधीष वर्तमान लोकतंत्र के फासीवादी चरित्रपर सिर्फ नकाब पहना रहा है। जबकि इन अधिकारों का हनन करने वाले कितने ऐसे कानूनों- पोटा, आस्पा, छत्तीसगढ जनसुरक्षा अधिनियम आदि बनाये गये है। और हाल के कई फैसलों ने यह सिद्ध किया है कि न्यायपालिका-कार्यपालिका व व्यवस्थापिका के कायोZं पर परदा डाल कर लोकतंत्र या जनता पर न्यायपूर्ण षासन का ढोंग कर रही है।

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