12 फ़रवरी 2008

दक्षिण एशिया के देशों में अमेरिका की दिलचस्पी बढ़ी है इसी के साथ यहां ‘शांति खत्म हुई है





आनंद स्वरूप वर्मा दक्षिण एषिया देषों के जानकार हैं और विषेशतर नेपाल और भूटान की घटनाओं पर नजर रखते हैं उनका मानना है कि जबसे भारत, श्रीलंका, नेपाल, बांगलादेष, भूटान यानि दक्षिण एषिया के देषो में अमेरिका की दिलचस्पी बढ़ी है इसी के साथ यहां ‘शांति खत्म हुई है। सन 1997 में पैट्रिक ºयूज की एक रिर्पोट आयी जिसमें कहा गया की आने वाले समय में चीन अमेरिका का सबसे बड़ा दुष्मन होगा। यह रिर्पोट काफी चर्चा में रही। रिर्पोट का कहना था कि एषिया के देष अमेरिका की मिलेटरी को कम आंक रहे हैं और अमेरिका के खिलाफ एक आयडिओलॉजी पनप रही हैं। उसी समय डिफेंस मिनिस्टर डोनाल्ड रम्सफील्ड ने कहा कि यूरोप पर उतना ध्यान देने की जरूरत नही है जितना की साऊथ एषिया में।
ये सारी चीजें 1997 में घटित हो रही थी और 13 फरवरी 1996 में माओवादीओं ने नेपाल में पीपुल्सवार की घोशणा की गयी थी। इन सारी बातों को एक साथ देखने की जरूरत है। इसके बाद 2001 में स्टेट फॉर कि रिर्पोट आयी जिसमे दक्षिण एषिया को केंद्र में रखते हुए कहा गया की दक्षिण एषिया में माओवादीओं का उभार अमेरिका के लिये खतरा है। स्टेट फॉर की रिर्पोट मे यह भी कहा गया की यदि नेपाल माओवादीओं के हाथ में चला जाता है जैसा की हो चुका है तो उसका सम्बध चीन से अधिक प्रगाढ़ होगा न कि अमेरिका से जबकि चीन के लोग नेपाली माओवादीओं को न तो समर्थन करते हैं और न ही माओवादी विचार का मानते हैं उसी समय डोनाल्ड कैम ने यह कहा कि नेपाली माओवादीओं से अमेरिका के राश्ट्रहित को खतरा है। इसमें कई चीजें जुड़ी थी एक तो अमेरिका जिस बात का प्रचार कर रहा था इन्ड ऑफ आयडियोलॉजी विचार धारा की समाप्ति, क्लैस ऑफ सिविलाईजेषन यानी सभ्यता का टकराव वह नेपाल में उभता हुआ दिख रहा था। जो उनके लिये खतरा था। अत: आप देखे 2001 मे जब नेपाल में ‘शांतिवार्ता ‘शुरु हुई उसी समय अप्रेल में जसवंत सिंह अमेरिका गये हुए थे और भारत के ऐसे पहले विदेष मंत्री थे जिन्हें गार्ड ऑफ ऑनर से नवाजा गया था और जार्ज बुष ने उन्हें विषेश तव्वज्जो दी थी।
उसी समय हेनरी साल्टन की भारत यात्रा भी हुई। अत: कहीं-न-कहीं से अमेरिका भारत से अच्छे सम्बध बनाने के फिराक मे जुटा था जिसके पीछे की मंषा हम समझ सकते हैं। पंरतु नेपाल में अमेरिका को सेट बैक मिला क्योंकि जिन माओवादीओं को वे आतंकवादी लिस्ट में रखते हैं आज वे मंत्री हैं कल प्रधान मंत्री भी हो सकते हैं। भारत को लेकर 1998 में जब आडवानी गृह मंत्री थे तब हैदराबाद में एक मीटिंग हुई जिसमें भारत के 8 राज्यो को माओवादी प्रभावित क्षेत्र माना गया फिर 2005 में 13 राज्य, उसके बाद 14 राज्यों और अभी हाल की मीटिंग में 16 राज्यों के मुख्यमंत्री को इस बैठक में सम्मलित किया गया। यदि पूर्वोत्तर के राश्ट्रवादी आंदोलन कष्मीर, असम के आंदोलनों को लें तो कुल 16 और 8 मिलाकर 24 राज्यों में देष की सरकार इस तरह के विरोध को झेल रही है। तो क्या मात्र 4 राज्य ही ऐसे हैं जिनमे वह ‘शासन कर पा रही है, क्या यही लोकतंत्र है?
दरसल वजह यह है कि माओवादी आंदोलन या अन्य आंदोलनों से जूझते हुए राज्यों को केन्द्र से विषेश पैकेज मिलता है। जिसका इस्तेमाल वे आंतरिक मिलेट्राइजेषन में करते हैं। और इसी बहाने जनता के किसी भी तरह के प्रतिरोध को कुचलने में सहायता मिलती है। उदाहण के तौर पर प्रषांत राही वरिश्ठ पत्रकार उंतराखंड, विनायक सेन मानवाधिकार कार्यकर्ता छत्तीसगढ़, प्रफुल झा....... आदि गिरतार किये गये। इसी बहाने माकेZट फोर्स, पूंजी घराने की रक्षा की जा सकती है। यह इस लिए भी हो रहा है क्योंकि नयी बाजार की तलाष में कम्पनिंया जब गावं में जायेगी तो गावं में पनपते असंतोश को भी इन आंदोलनों के बहाने कुचला जा सके।
भूटान को देखें तो अभी वहां चुनाव हो रहा है और वहां का राजा मीडिया के व्दारा लोकतांत्रिक होनें का ढोंग रच रहा है। ‘शायद यह नेपाल की स्थितियों को देखते हुये। भूटान में जो लोग रियल डेमोकै्रसी की मांग कर रहे थे उन्हे देष से बाहर रियूजी की तरह घूमना पड़ रहा है। एक लाख 50 हजार से ज्यादा लोग भारत में हैं और जब वे जाने की बात करते हैं तो भारतीय पुलिस उनका दमन कर रही है। अमेरिकन और भारतीय सरकार यह चाहती है कि भूटान मे कुछ ऐसे आंदोलन ‘शुरु हों जिन्हें आतंकवादी, नक्सलवादी, माओवादी जैसा नाम देकर उनका दमन कर सकें और अपनी पैठ बना सकें।

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