16 जनवरी 2008

फिल्मी दुनिया केज्यादातर लोग कम पढ़े-लिखे हैं


साहित्य अकादेमी अवार्ड, इकबाल सम्मान, बहादुर शाह जफर अवॉर्ड, गालिब अवॉर्ड, राजभाषा अवॉर्ड, उदूü अकादमी अवॉर्डü, फिराक सम्मान आदि से नवाजे जा चुके `गमन´, `उमराव जान´, `अंजुमन´ जैसी फिल्मों में गीत लिख चुके और स्थानीय जनवादी लेखक संघ के 15 वषोZ से अध्यक्ष शहरयार आज हिंदुस्तानी शायरी की पहचान बन चुके हैं। इन पर कई पीएचडी हो चुकी हैं, तो कई विश्वविद्यालयों में (जहां मॉडनü पोएट्री है) एमए में उनको पढ़ाया जाता है। यह इत्तेफाक ही है कि जिस फिल्म के लिए उन्होंने अनमने से गीत लिखे, उसी ने उन्हें शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया। पहला संग्रह छपा, उस समय भारत-पाक जंग शुरू हो गई थी। मगर उनकी शायरी को सीमाओं के दायरे पड़ोसी देश पहुंचने से नहीं रोक सके और वाया लंदन उनकी किताब पाकिस्तान भी पहुंच गई। अलीगढ़ में उनके आवास पर हुई बातचीत के अंश प्रस्तुत हैं :

शहरयार साफ-साफ बात कहने और सुनने में विश्वास करते हैं। उनकी रचनाएं संवेदना और समय का भरा-पूरा दस्तावेज हैं। अब तक उन्हें साहित्य जगत के अनेक पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। गजलगो शहरयार हिंदुस्तानी शायरी का एक चेहरा बन गए हैं।

`दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिए´ और `जिंदगी जब भी तेरी बज्म में लाती है हमें´ जैसी गजलों का रचनाकार आज एक फ्लैट में सीमित होकर रह गया। क्या फिल्मों में आगे काम नहीं मिला या आपको फिल्मों का काम पसंद नहीं आया?


दरअसल, मुझे बहुत जल्द पता चल गया कि वहां की जिंदगी के लिए मैं बना ही नहीं हूं। वहां फिल्में बनाने और बेचने वाले अधिकांश लोग कम पढ़े-लिखे और छोटे जेहन के लगे। वहां मौलिकता की गुंजाइश भी नहीं थी। जिनसे वास्ता पड़ता था, उनकी बातेें बहुत सतही होती थीं। एक प्रोडKूसर मिला, जो बमुश्किल दस्तखत कर सकता था। संक्षेप में कहूं, तो `दुपट्टा मेरा´ टाइप गाने की फरमाइश मैं पूरी नहीं कर सकता था।


दूसरा कारण था कि जिस मुकाम पर आकर मुझे फिल्मों में काम करने का मौका मिला, वहां तक पहुंचकर मैं पूरी तरह सुकून की जिंदगी गुजारने का आदी हो गया था। मैं परिवार छोड़कर नहीं रह सकता था। मैंने देखा है कि लोगों ने पैसे तो बहुत कमा लिए, मगर उनके बच्चे गुमराह हो गए। मैं पिता का रोल बच्चों के साथ रहकर अदा करना चाहता था। (एक क्षण रुककर) जो कमियां बचपन में मेरे साथ रहीं, वह अपने बच्चों के साथ होते नहीं देखना चाहता था।


आपने फिल्मों तक का रास्ता कैसे तय किया?

मुजफ्फर अली पेंटर थे और अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय में मेरे जूनियर भी। वे शायरी पसंद करते थे। उन दिनों (वर्ष 1965 में) मेरा पहला गजल संग्रह `इस्मे आजम´ छपा, जो उनके पास था। उससे वे प्रभावित थे। पांच-छह साल बाद उनका एक खत मिला कि वे `गमन´ फिल्म में मेरी दो गजलें रखना चाहते हैं।


सीने में जलन आंखों में तूफान-सा क्यों है


इस शहर में हर शख्स परेशान-सा क्यों है


और दूसरी...


अजीब सानिहा मुझ पर गुजर गया यारो


मैं अपने साये से कल रात डर गया यारो


इस तरह ये गजलें सुरेश वाडकर और हरिहरन ने गाईं, जो उनकी भी बेस्ट रहीं।


उमराव जान में गाने का प्रस्ताव कैसे मिला?


इन गजलों के कैसेट रिलीज के मौके पर मुजफ्फर ने मुझे मुंबई बुलाया और लखनवी अदब पर फिल्म बनाने की बात कही। मैं फिक्शन पढ़ाता था और उमराव जान उपन्यास उस समय बन रहा था। मैंने इस किताब की बुनियाद पर फिल्म बनाने का सुझाव दिया। इस फिल्म में मेरी पांच गजलें हैं।


ऐसी कोई बात, जो भुलाए न भूल रही हो?


मेरे गॉड फादर के समान खलीलुर्रहमान की मृत्यु...। (काफी देर चुप रहने के बाद) मैं अपनी पत्नी से 12 वषोZ से अलग हूूं, यह बात भी मुझे भुलाए नहीं भूलती।


हालांकि यह नितांत निजी मामला है और पूछने में संकोच भी हो रहा है फिर भी बात निकली है, तो क्यों न पूरी कर लें। इस अलगाव का कारण?


(बहुत ही शांत चित्त से) कुछ मेरा कुसूर है, लेकिन इसका इल्म शादी से पहले था। मेरी हर कमजोरी से पत्नी वाकिफ थीं, लेकिन एक वक्त के बाद वह चाहती थी कि वे आदतें अच्छाइयों में तब्दील हो जाएं। बात नहीं बनी और हम अलग हो गए। (एक शेर सुनाते हैं)


इस मोड़ पर अब तुमसे बिछड़ना नहीं आसान


पहले ही कहीं तुमसे जुदा हो गए होते


आखिरी व्यक्तिगत प्रश्न पूछ रहा हूं। बच्चे ऐसे में कैसा महसूस करते है?


मैंने उन्हें सिखाया है कि वे अपनी मां को पूरा सम्मान दें। क्योंकि मैंने भी अपनी मां से बहुत प्यार किया। बड़ा बेटा हम दोनों का बराबर सम्मान करता है।


(हम साहित्य पर लौटते हैं)


हिंदी कविता तमाम बंदिशों को तोड़कर आगे बढ़ रही है। छंद-लय तक सीमित न रहकर वह अर्थ-लय तक पहुंच गई मगर ऐसा लगता है कि उदूü शायरी बंदिशों से मुक्त नहीं हो पा रही है।


ऐसा नहीं है। उदूü में काम बहुत हुआ है। हिंदी और उदूü की तुलना सम्मेलनों और मुशायरों को लेकर नहीं की जा सकती। उदूü में `सीरियस´ और `पॉपुलर´ में काफी अंतर रहा है। इसकी वजह हमारी साहिçत्यक गतिविधियों का व्यावसायिक पहलू न होना है। बेदी और इस्मत चुगताई आदि की कहानियां पहले हिंदी में छपीं तब उदूü में। प्रेमचंद भी इसी कारण उदूü से हिंदी में आ गए। रही बात छंदों की, तो मीटर तोड़ने की जरूरत नहीं है। मीटर की पाबंदियों में रहकर मुख्तलिफ बातें कही जा सकती हैं। अब शायरी बदल गई है। उसके सामाजिक और नैतिक पहलू का ध्यान रखा जाने लगा है। फैज़ म$कदूम और मजरूह सुल्तानपुरी की शायरी पूरी तरह प्रोग्रेसिव है।


हिंदी में भी आज बड़े पैमाने पर गजलें लिखी जा रही हैं, जिनसे उदूü के बड़े शायर नाक-भौं सिकोड़ते हैं। आपका क्या खयाल है?

मेरा कुछ भी कहना ज्यादती होगी। हां, दुष्यंत कुमार हिंदी के बेहतरीन गजलगो हैं। कई स्थानीय शायर भी बेहतरीन काम कर रहे हैं। मैं इसके खिलाफ नहीं हूं। भाषा कोई भी हो, गजल की शतेZ उसमें बरकरार होना जरूरी है। दो लाइनें बराबर तो होनी ही चाहिए।


आपने अपनी शायरी को भाषा के स्तर पर काठ का जूता नहीं पहनाया, जबकि उदूü के अधिकांश शायर ऐसा करते रहे हैं।


मैं अपने लिए शेर नहीं कहता। शायरी लोगों की समझ में आनी चाहिए, भले ही उसे कम लोग समझ पाएं। गालिब और मीर ने भी बहुत आसान शायरी की है। (दोनों के एक-एक शेर सुनाते हैं):


इब्ने मरियम हुआ करे कोई


मेरे दुख की दवा करे कोई


या फिर


नाजुकी उसके लब की क्या कहिए


पंखुड़ी एक गुलाब की-सी है


ऐसा नहीं लगता कि पुरानी उदूü शायरी कुछ हद तक सीमित दायरे में और पूर्वाग्रह से ग्रस्त है?


शायरी में इश्क-मोहब्बत होनी ही चाहिए, यह पूर्व धारणा है। मगर यही सब कुछ नहीं है, ये अब की सोच है। मैंने शराब पर कोई शेर नहीं कहा, न ही शराब पीकर शायरी की। दरअसल शायरों के साथ कई मिथक गढ़ दिए गए हैं। जैसे शायर है, तो अनपढ़ होगा, शक्ल-ओ-सूरत खराब होगी, शराब पीता होगा, गैरजिम्मेदार होगा आदि-आदि। हालांकि ऐसा हो भी सकता है, मगर यह जरूरी भी नहीं।


आपकी अपनी पसंदीदा गजल?


किसी एक को कहना मुश्किल है, मगर मेरी एक गजल चçर्चत हुई:


जिंदगी जैसी तवक्को थी नहीं, कुछ कम है।


हर घड़ी होता है एहसास कहीं, कुछ कम है॥


घर की ताकीर तसव्वुर में ही हो जाती है।


अपने नक्शे के मुताबिक ये जमीं, कुछ कम है॥


जीवन का उद्देश्य किस तरह व्याख्यायित करेंगे?


आदमी को किसी के लिए जिंदा रहना चाहिए। जिन चीजों से अच्छाइयों को खतरा है, उनका विरोध हो।


ये सफर वो है कि रुकने का मुकाम इसमें नहीं।


मैं जो थम जाऊं, तो परछाईं को चलता देखूं॥




(ऊर्दू के मशहूर शायर शहरयार से गीतेश्वर की बातचीत)
अमर उजाला से साभारः-

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें