02 नवंबर 2007

भगत सिंह के कुछ पत्रः-

घर को अलविदा : पिता जी के नाम पत्र:-

( सन् 1923 में भगतसिंह, नेशनल कालेज, लाहौर के विद्यार्थी थे। जन-जागरण के लिए ड्रामा-क्लब में भी भाग लेते थे। क्रान्तिकारी अध्यापकों और साथियों से नाता जुड़ गया था। भारत को आजादी कैसे मिले, इस बारे में लम्बा-चौड़ा अध्ययन और बहसें जारी थीं।
घर में दादी जी ने अपने पोते की शादी की बात चलायी। उनके सामने अपना तर्क न चलते देख पिता जी के नाम यह पत्र लिख छोड़ा और कानपुर में गणेशशंकर विद्यार्थी के पास पहु¡चकर `प्रताप´ में काम शुरू कर दिया। वहीं बी.के. दत्त, िशव वर्मा, विजयकुमार सिन्हा-जैसे क्रान्तिकारी साथियों से मुलाकात हुई। उनका कानपुर पहु¡चना क्रान्ति के रास्ते पर एक बड़ा कदम बना। पिता जी के नाम लिखा गया भगतसिंह का यह पत्र घर छोड़ने सम्बन्धी उनके विचारों को सामने लाता है।


पूज्य पिता जी,
नमस्ते।
मेरी जिन्दगी मकसदे आला यानी आजादी-ए-हिन्द के असूल के लिए वक्फ हो चुकी है। इसलिए मेरी जिन्दगी में आराम और दुनियावी खाहशात बायसे किशश नहीं है।
आपको याद होगा कि जब मैं छोटा था, तो बापू जी ने मेरे यज्ञोपवीत के वक्त ऐलान किया था कि मुझे खिदमते वतन के लिए वक्फ कर दिया गया है। लिहाजा मैं उस वक्त की प्रतिज्ञा पूरी कर रहा हू¡।

आपका ताबेदार
भगतसिंह



कुलतार के नाम अन्तिम पत्र:-

सेण्ट्रल जेल,
3 मार्च,1931


प्यारे कुलतार,
आज तुम्हारी आ¡खों में आ¡सू देखकर बहुत दुख पहु¡चा। आज तुम्हारी बातों में बहुत दर्द था। तुम्हारे आ¡सू मुझसे सहन नहीं होते। बरखुरदार, हिम्मत से विद्या प्राप्त करना और स्वास्थ्य का ध्यान रखना। हौसला रखना, और क्या कहू¡-



उसे यह फिक्र है हरदम नया तर्जे-जफ़ा क्या है,
हमें यह शौक़ है देखें सितम की इन्तहा क्या है।

दहर से क्यों ख़फ़ा रहें, चर्ख़ का क्यों गिला करें,
सारा जहा¡ अदू सही, आओ मुक़ाबला करें।

कोई दम का मेहमा¡ हू¡ ऐ अहले-महिफ़ल,
चराग़े- सहर हू¡ बुझा चाहता हू¡।

हवा में रहेगी मेरे ख्याल की बिजली,
ये मुश्ते-ख़ाक है फानी, रहे रहे न रहे।

अच्छा रूख़सत। खुश रहो अहले-वतन, हम तो स़फर करते हैं। हिम्मत से रहना।
नमस्ते।
तुम्हारा भाई,
भगतसिंह



बलिदान से पहले साथियों को अन्तिम पत्र:-
22मार्च,1931

साथियों,
स्वाभाविक है कि जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए, मैं इसे छिपाना नहीं चाहता। लेकिन मैं एक शर्त पर जिन्दा रह सकता हू¡, कि मैं कैद होकर या पाबन्द होकर जीना नहीं चाहता।
मेरा नाम हिन्दुस्तानी क्रान्ति का प्रतीक बन चुका है और क्रान्तिकारी दल के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊँचा उठा दिया है- इतना ऊँचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊँचा मैं हर्गिज नहीं हो सकता।
आज मेरी कमजोरिया¡ जनता के सामने नहीं है। अगर मैं फा¡सी से बच गया तो वे जाहिर हो जायेंगी और क्रान्ति का प्रतीक-चिन्ह मिद्धम पड़ जायेगा या सम्भवत: मिट ही जाये। लेकिन दिलेराना ढंग से हसते-हसते मेरे फासी चढ़ने की सूरत में हिन्दुस्तानी माताए¡ अपने बच्चों के भगतसिंह बनने की आरजू किया करेंगी और देश की आजादी के लिए कुर्बानी देनेवालों की तादाद इतनी बढ़ जायेगी कि क्रान्ति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी।
हा¡, एक विचार आज भी मेरे मन में आता है कि देश और मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थीं, उनका हजारवा¡ भाग भी पूरा नहीं कर सका। अगर स्वतन्त्र, जिन्दा रह सकता तब शायद इन्हें पूरा करने का अवसर मिलता और मैं अपनी हसरतें पूरी कर सकता।
इसके सिवाय मेरे मन में कभी कोई लालच फा¡सी से बचे रहने का नहीं आया। मुझसे अधिक सौभाग्यशाली कौन होगा? आजकल मुझे स्वयं पर बहुत गर्व है। अब तो बड़ी बेताबी से अन्तिम परीक्षा का इन्तजार है। कामना है कि यह और नजदीक हो जाये।
आपका साथी,
भगतसिंह



असेम्बली बम काण्ड:-

असेम्बली हॉल में फेंका गया पर्चा
(8 अप्रैल,सन् 1929 को असेम्बली में बम फेंकने के बाद भगतसिंह और दत्त द्वारा बाटें गये अंग्रजी पर्चे का हिन्दी अनुवाद)

`हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातािन्त्रक सेना´
सूचना


``बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊ¡ची आवाज की आवश्यकता होती है´´ प्रसिद्ध फ्रांसीसी अराजकतावादी शहीद वैलिया¡ के यह अमर शब्द हमारे काम के औचित्य के साक्षी हैं।
पिछले दस वषोंZ में ब्रिटिश सरकार ने शासन-सुधार के नाम पर इस देश का जो अपमान किया है उसकी कहानी दोहराने की आवश्यकता नहीं और न ही हिन्दुस्तानी पार्लियामेण्ट पुकारी जानेवाली इस सभा ने भारतीय राष्ट्र के सिर पर पत्थर फेंककर उसका जो अपमान किया है, उसके उदाहरणों को याद दिलाने की आवश्यकता है। यह सब सर्वविदित और स्पष्ट है। आज फिर जब लोग `साइमन कमीशन´ से कुछ सुधारों के टुकड़ों की आशा में आखें फैलाये हैं और इन टुकड़ों के लोभ में आपस में झगड़ रहे हैं, विदेशी सरकार `सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक´ (पब्लिक सेटी बिल) और `औद्योगिक विवाद विधेयक´ (ट्रेड्स डिस्प्यूट्स बिल) के रूप में अपने दमन को और भी कड़ा कर लेने का यत्न कर रही है। इसके साथ ही आनेवाले अधिवेशन में `अखबारों द्धारा राजद्रोह रोकने का कानून´ (प्रेस सैडिशन एक्ट) जनता पर कसने की भी धमकी दी जा रही है। सार्वजनिक काम करनेवाले मजदूर नेताअो की अन्धाधुन्ध गिरतारिया¡ यह स्पष्ट कर देती हैं कि सरकार किस रवैये पर चल रही है।
राष्ट्रीय दमन और अपमान की इस उत्तेजनापूर्ण परिस्थिति में अपने उत्तरदायित्व की गम्भीरता को महसूस कर `हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातन्त्र संघ´ ने अपनी सेना को यह कदम उठाने की आज्ञा दी है। इस कार्य का प्रयोजन है कि कानून का यह अपमानजनक प्रहसन समाप्त कर दिया जाये। विदेशी शोषक नौकरशाही जो चाहे करे परन्तु उसकी वैधनिकता की नकाब फाड़ देना आवश्यक है।
जनता के प्रतिनिधियों से हमारा आग्रह है कि वे इस पार्लियामेण्ट के पाखण्ड को छोड़ कर अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों को लौट जायें और जनता को विदेशी दमन और शोषण के विरूद्ध क्रान्ति के लिए तैयार करें। हम विदेशी सरकार को यह बतला देना चाहते हैं कि हम
`सार्वजनिक सुरक्षा´ और `औद्योगिक विवाद´ के दमनकारी कानूनों और लाला लाजपत राय की हत्या के विरोध में देश की जनता की ओर से यह कदम उठा रहे हैं।
हम मनुष्य के जीवन को पवित्र समझते हैं। हम ऐसे उज्जवल भविष्य में विश्वास रखते हैं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण शान्ति और स्वतन्त्रता का अवसर मिल सके। हम इन्सान का खून बहाने की अपनी विवशता पर दुखी हैं। परन्तु क्रान्ति द्वारा सबको समान स्वतन्त्रता देने और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को समाप्त कर देने के लिए क्रन्ति में कुछ-न-कुछ रक्तपात अनिवार्य है।
इन्कलाब जिन्दाबाद! कमाण्डर इन चीफ बलराज

1 टिप्पणी:

  1. बंधु, शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के चंद पत्र मुझे फिर से पढ़वाकर आपने बड़ा उपकार किया है.
    हाँ, मैं भाषा-विशेषज्ञ तो नहीं हूँ लेकिन एक बात का ध्यान दिलाना चाहता हूँ कि 'दुनियाँ' लिखना सही नहीं माना जाता, इसे 'दुनिया' लिखा जाना चाहिए---विजयशंकर चतुर्वेदी.

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