28 सितंबर 2007

लोकतंत्र : किसका, किसके लिए ?

देवाशीष प्रसून जी महत्मा गांधी अंतरराष्तीय हिन्दी विश्वविद्यालय के छात्र है आज देश में चल रहे लोकतंत्र को ढोंग के रूप में देखते है सवाल है कि लोकतंत्र किसका है क्योंकि कोई भी सत्ता किसी एक वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है तो आज का लोकतंत्र किस वर्ग की छाँव में पल रहा है? किसका प्रतिनिधित्व कर रहा है? कुछ मौजू़ सवालों को उठाया है.....
सरकार नामक संस्था का निर्माण जन-सामान्य के हितों के लिये होता है। ऐसी ही परिकल्पना एक लोकतांत्रिक राष्ट्र में सरकार की होती है, बिना भेदभाव के सबके विकास को ध्यान में रख कर ऐसी नीतियों को बनाना और लागू करना, जिससे सामाज का हर तबका ,देश के सभी क्षेत्र और राष्ट्र की प्रत्येक जातियों और धर्मो को समान रूप से लाभान्वित किया जा सके। शायद एक सफल सरकार का यही कार्य होता है। कम से कम सही अर्थों में एक लोकतांत्रिक राष्ट्र में सरकारो का सही अर्थों में लोकतांत्रिक प्रयोग है, कि इस विश्व में कई ऐसे लोकतांत्रिक राष्ट्र हुए हैं जहॉ लोकहितों का कोई ख्याल नहीं रखा गया है,उनका प्रयोग सिर्फ सत्ता कायम करते वक्त मत एकत्र करने हेतु किया जाता है ,ताकि दुनिया के सामने लोकतांत्रिक होने का ढोग किया जा सके, उदाहरण है कि जिस तरह का लोकतंत्र अफगानिस्तान ,पाकिस्तान में है और जो सद्दाम के समय इराक में था, अभी जो अमेरीका नियंत्रित है क्या उन्हें सही अर्थों में लोकतंत्र कहा जा सकता है ?
भारत की स्थिति भी लोकतंत्र के मामले में दूध की धुली नहीं है, भारतीय लोकतंत्र में कहने को तो भारत में छह दशको से लोकतंत्र है ,फिर भी आज बढती जन-सामान्य विरोधी नीतियों और सरकार में बढ़ती प्रतिरोध के प्रति असहिष्णुता से अदांज लगता है कि भारत की लोकतांत्रिक सरकार किस दिशा में जा रही है, आज भारत विकाससील से विकसित राष्ट्र बनने की बात करता है, विकास के क्या मायने है? क्या यह राष्ट्रीय संपत्ति का विकस है या चुनिंदा पूंजीपतियॉ का विकास या फिर जन सामान्य का विकास? यह सोचने की जरूरत है, जन सामान्य का विकास तो अब बस राजनीतिक घटनाओं तक ही सीमित रह गया है, सरकार कितनी उदासीन है जन सामान्य के प्रति, आराम से यह बात समझ में आती है, कि भारतीय सरकार संस्था बहुसंख्यक आम जनता के प्रति गंभीर नहीं है। भारत सरकार की नीतियॉं अलोकतांत्रिक हो रही है? भले कुछ लोग इसे लोकतंत्र कहें लेकिन इस लिबरल लोकतंत्र से जन सामान्य का हित गौण है।

सरकारी नजरिया

ग्यारहवी पंचवर्षीय योजना के उददेश्य पत्र की रूपरेखा पर विचार करने और उसे मंजूरी दिलाने के लिये आयोजित विकास परिसद की 52 वीं बैठक में उद्धाटन के उपरांत प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह यह ज़ाहिर करते हैं कि कृषी क्षेत्र इस समय संकट में है और विकास के पथ पर केंद्र और राज्य सरकारों को कुछ कठिन फैसले लेने होंगे।
प्रधानमंत्री को यह जवाब देना चाहिए कि क्यों कृषी क्षेत्र संकट में है? क्या कृषी के प्रति सरकार की लापरवाही इसके लिए जिम्मेवार नहीं है? क्या कृषी के प्रति सरकार का व्यवहार सौतेला नहीं है?
कृषी क्षेत्र, वह क्षेत्र जिस पर बहुसंख्यक आम जनता निर्भर है, संकट में हैं। केंद्र और राज्य सरकारें कृषी की उन्नति और किसानों के हित के प्रति उदसीन है। हर फैसले में किसानों, खेतिहर-मज़दूरों और कृषी-आश्रितों के हित को हाशिये पर रखा जा रहा है?

विषेश आर्थिक क्षेत्र

आर्थिक विकास का सिगूफा छोड़ते हुए विषेश आर्थिक क्षेत्र अधिनियम 2005 लागू कर किसका भला किया गया है और किसको भाले की नोक पर रहने की स्थिति में ला दिया गया है, यह स्पष्ट है। इस अधिनियम ने काफी हद तक किसानों को विस्थापन के लिए मज़बूर किया, कृषी-क्षेत्र और संकटों में आ घिरा है। कृषी को हाशिये पर रख उद्योगों को उन्नत करना कैसा अर्थषास्त्र है? समझ में नहीं आता। वह भी ऐसे उद्योगों को उन्नत करना जिससे मुट्ठीभर पूंजीपतियों को लाभ हो... इसे पूरा करने में सरकार अपनी पूरी उर्जा झोंक रही है।
विषेश आर्थिक क्षेत्र के नाम पर पूंजीपतियों को कर में छूट दी जा रही है और उनकी मनमानी के लिए यह क्षेत्र ऐसे अभ्यारण्य के रूप में विकसित करने की परियोजना है, जहॉं कोई भी श्रम कानून नहीं हो। यदि विषेश आर्थिक क्षेत्र राष्टीय विकास के लिए इतने आवश्यक भी है तो उन्हें उन स्थानों पर होना चाहिए था, जो कृषी के लिए अयोग्य भूमि हो। लेकिन अरबों - खरबों रूपयों की पूंजी लगाने वाली ये कंपनियॉं निम्नस्तरीय भूमि को नहीं स्वीकार करतीं, इसलिए सरकार किसानों की उपजाऊ जमीनों को अपने विषेशाधिकार से जबरन अधिग्रहित कर औने-पौने दाम में इन कंपनियों के चरणों में सौंपने लगी है, तो कृषी-क्षेत्र संकट में क्यों नहीं आयेगा?

सलवा जुडुम
सन 2005 में छत्तीसगढ़ सरकार ने एस्सार और टाटा समूह के साथ समझौते किये, जिसमें सूचना के अधिकार को ताख़ पर रखते हुए यह उपवाक्य है कि किसी तीसरे पार्टी को शर्त एवं नियम का उद्धाटन नहीं होना चाहिए। फिर भी सरकार और कंपनियां अपनी प्रतिबद्धताओं को दावे के साथ कहती है, कि औद्योगिक घरानों के माध्यम से राज्य का औद्योगिक विकास होगा। जिसमें सरकार भूमि, खनिज, बिजली और पानी उपलब्ध करायेगी।
छत्तीसगढ़ के 16 जिलों में खनिज संपदा और उपजाऊ भूमि का धनी दांतेवाडा जिला की भूमि का 80 फीसदी आदिवासियों का है। कानूनन प्राकृतिक संसाधनों पर इन्हीं आदिवासियों का अधिकार है। सरकार ने इनको नक्सलियों का भय दिखा कर इनकी भूमि से विस्थापित कर इन्हें शिविरों मे रहने को मज़बूर किया है। सरकार इनके हाथों में हथियार दे नक्सलियों से लड़ने का काम करती हैं।
दो-चार प्रश्न स्वभाविक हैं-
पहला, नक्सल से लड़ने में क्या राज्य की सुरक्षा व्यवस्था इतनी लाचार है, जो आम नागरिकों के हाथ में हथियार डाल रही है?
दूसरा, जिन आदिवासियों को अपने पारंपारिक रोजगारों में व्यस्त रहना चाहिये था, क्या उनके पहचान को नष्ट नहीं किया जा रहा है? तीसरा, पिछले डेढ़ साल से जबरन शिविरों में रख और उन्हे विस्थापित कर उनकी ज़मीन हडपने का तो इरादा नहीं है?
इन प्रश्न के उत्तर की अब तक प्रतीक्षा है। आम जनता क्या सोचती है, इन विषयों पर? सरकार के इस रवैये पर भारत कि लोकतांत्रिक चेतना क्या कहती है?
यदि ग़ौर से देखें, तो पूजी के नवसाम्राज्यों के हाथों देश का सौदा हो रहा है और फिर देश गुलामी की जंजीर में जकड़ता जा रहा है। आज स्थिति और भी बदतर है, जब लड़ने के लिए कोई विदेशी शासन नहीं। बल्कि लिबरल लोकतांत्रिक व्यवस्था के मुखौटे में छुपी नवसाम्राज्यवाद की गुलामी होंगी।

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