14 सितंबर 2007
बाजारवाद की गिरफ्त में हिन्दी:-
आज हिन्दी दिवस है,अन्य ढेर सारे दिवसों की ही तरह......
विवेक जी महत्मा गांधी हिन्दी विश्वविद्यालय के छात्र है, हिन्दी को बाजार में किस तरह से यूज किया जा रहा है? उसके क्या कारण है? हिन्दी के विकास की क्या संभावना है? कुछ गहरी चिन्ताओं के साथ इन्होंने अपनी सोच दखल के पाठकों तक रखनी चाही है, आज जब इंटरनेट से ब्लाग की दुनियाँ के लोग क्राति कर रहे है. हिन्दी में बहुत सारे ब्लाग प्रकाशित हो रहे है तो इनकी चिन्ता उन जमीन के लोगों से है जो इंटरनेट को दुनियाँ का अजूबा मानते है....
विवेक जायसवाल
बाजारवाद और ग्लोबल विषय के इस दौर में जब अंग्रेजी का दबदबा लगातार बढ़ता जा रहा है तो एक सवाल शिद्दत से उठ रहा है, कि आखिर हिन्दी की जरूरत किसे है? आज से दस साल पहले जवान हुई, वह पीढ़ी जिसने गांवों में जन्म लिया और गांव के टाट-पट्टी वाले स्कूलों में शिक्षा ग्रहण की, परन्तु आज भी वह अंग्रेजी व उसके साम्राज्यवादी जंजीरों से मुक्त नहीं हो पाई है। जिस देश की राजभाषा हिन्दी हो, वहां ऐसी कुंठाएं उस पीढ़ी को तो चिन्तित करती हैं, लेकिन देष परेशान नहीं होता, देश के रहनुमा परेशान नहीं होते। उनके परेशान होने की वजह भी नहीं है, क्योंकि उदारवादी संरक्षण में देश लगातार विकास कर रहा है।
भारत का जनसंख्या आयोग भले ही यह कहता रहे कि अगले दो दशकों में भारत गांवो का देश नहीं रहेगा, लेकिन इस देश की अधिकतर जनसंख्या आज भी गांवों में ही रहती है और विकास की जो गति है उससे अधिकांस लोग गांवों में ही रहते रहेंगें। जनसंख्या आयोग के अनुसार 65 प्रतिशत लोग आज भी गांवों में रहते हैं, वहां टाट-पटि्टयों वाले स्कूल आज भी हैं, लेकिन अधकचरी अंग्रेजी सिखाने वाले स्कूलों में काफी इजाफा हो गया है। इसके बावजूद वहां आज भी हिन्दी आम जन-जीवन की आशा नहीं बन पाई है। वहां बाजार हाट से लेकर आपसी संवेदनाओं की अभिव्यक्ति भी हिन्दी या कई बार कहें तो अपनी स्थानीय बोलियों में ही की जाती है। यह सच है कि बाजारवादी घुसपैठ के बाद हमारे यहां अग्रेजी का बोलबाला कुछ ज्यादा ही बढ़ा। वैसे तो इस देश में अंग्रेजी का वर्चस्व पहले से ही रहा है, लेकिन बाजारवाद अमेरिकी कारपोरेट जगत को अब पता चल गया है कि महानगरों में पैठ के बावजूद गांवों में उनकी पहुच अंग्रेजी के जरिये नहीं हो सकती। आज खुदरा व्यापार की दुनिया में कदम रखने वाली अमेरिकी कम्पनी वालमार्ट, बालिया अंग्रेजी में अपना व्यापार करने जा रही है। भारत जैसे देश के लिए यह सच है कि अगर आपको यहां गांवों तक पैठ जमानी है, तो आपको हिन्दी और दूसरी क्षेत्रीय बोलियों के सहारे ही यह राह तय करनी होगी। विदेशी कम्पनियों को इसकी जरूरत महसूस होने लगी है।
पिछले दिनों एक कम्पनी को अपने प्रोडक्ट का प्रचार हिन्दी भाषी राज्यों में कराना था। उस कम्पनी ने अपनी जनसंपर्क फर्म को साफ बता दिया कि उसकी प्रोडक्ट लांचिंग में अंग्रेजी के पत्रकार नहीं चाहिए, बल्कि खालिस हिन्दी के वे पत्रकार दिखने चाहिए जिनके अखबार उस क्षेत्र विषेश में निकलते हों। विदेषी मीडिया संस्थानों को हिन्दी की इस ताकत का पूरा अहसास है, आजादी के आंदोलन के दौरान हिन्दी अखबार और पत्रिकाएं निकालने वाले अधिकांष लोगों का मकसद देश सेवा थी। इसके साथ ही छिपी थी हिन्दी को ताकतवर बनाने की मंशा, लेकिन आज हिन्दी सिर्फ बाजार की भाषा है। वैसे भाषाएं बाजार का विषय नहीं होती, वे बाजार से कहीं ज्यादा संस्कृति और सामाजिक विकास की सतत धारा से जुड़ी होती है। संस्कृति के विकास के साथ भाषा समृद्ध होती है, लेकिन कुछ वक्त के लिए हिन्दी को बाजार का विषय मान भी लें तो हिन्दी पर बाजार के नियम लागू नहीं किये जा रहे है। बाजार का भी एक नियम होता है- अपने उत्पाद को निरन्तर बेहतर बनाकर पेश करना। आज के मीडिया बाजार के लिए अगर हिन्दी एक उत्पाद भी है, तो बाजार को चाहिए कि वह अपने इस उत्पाद को निरन्तर बेहतर बनाता रहे, लेकिन दुर्भाग्य से हिन्दी के साथ बाजार के इस नियम का भी पालन नहीं हो रहा है। दरअसल, हिन्दी के साथ सिर्फ छेड़-छाड़ हो रही है और यह सब हो रहा है आम जन के नाम पर। एक जुमला खूब सुनाई देता है-``भाषा ऐसी हो जिसे रिक्सावाला भी समझ सके।´´ ऐसा कहने वाले लोग भूल जाते हैं कि हिन्दी बेल्ट में गरीबी के तमाम आंकड़ों के बावजूद हिन्दी दषZक और पाठक की दुनिया बदल गई है। षिक्षा के जरिए जो लक्ष्य हासिल किये जाने थे वे भले ही हासिल न किये जा सके हों पर इसका मतलब यह भी नहीं है कि हिन्दी अनपढ़ों और गंवारों की भाशा है। सवाल यह उठता है कि आप किस बैरोमीटर पर हिन्दी पाठक या दर्शक की समझ को नाप कर उसे संकुचित कर देते हैं? आज जिस हिन्दी का इस्तेमाल मीडिया में हो रहा है वह हिन्दी नहीं बल्कि अधकचरी हिन्दी है। ऐसे में यह प्रश्न उठाना गलत भी नहीं है कि आखिर हिन्दी का विकास क्या इसी तरह होगा? दुर्भाग्य की बात यह है कि बाजार और कारपोरेट के नियमों से जितना पश्चिमी दुनियां और उनके संस्थान बंधे हुए हैं उतना हम भारतीय नहीं। आज मीडिया अपने व्यावसायिक साम्राज्यवाद के लिए अपने अराजक होने की हद तक, भाषा, संस्कृति और समाज को विखण्डित करने से भी संकोच नहीं करेगी। उसके लिए समाज मात्र उपभोक्ता भर है। समाज उसके प्रोडक्ट की ग्राहक है। इसके साथ विडम्बना यह भी है कि सम्पूर्ण हिन्दी भाषा-भाषी समाज भी भाषा के साथ किए जा रहे ऐसे विराट छल को गूंगा बन कर देख रहा है।
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मैंने शायद times ऑफ़ india में पढ़ा था की अब हिन्दी पदों और US जाओ| खोजता हूँ, अगर मिले तो बताऊंगा
जवाब देंहटाएंकम से कम लोगों ने हिन्दी को भी बिकाऊ समझा अंग्रेज़ी की तरह.... लोक भाषा है दुसित नहीं हो पायेगी
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