23 मई 2007

क्या पंचायती व्यवस्था में परिवर्तन संभव है

यह बात अक्सर उठती है कि जो लोग इस व्यवस्था की खिलाफत करते है वे क्यों करते है ?सरकार से बात क्यों नहीं करते ?गोल्डी.एम.जार्ज एक दलित चिंतक हैं उन्होंने प्रयास किया है इस प्रश्न को समझने का

'' भाईचारा एक सैध्दांतिक पहलू नहीं है बल्कि यह एक भावनात्मक सत्य है। ऐसे अनेक उदाहरण छत्तीसगढ़ में है, जहां लोग पंचायत में संयुक्त रूप से बैठकर संवाद के द्वारा आपसी भाईचारे को कामय रखा है। इसका मतलब यह नहीं है कि परिवर्तन संपन्न हो गया लेकिन यह उस प्रक्रिया का हिस्सा जरूर है। '' लगभग डेढ़ सौ साल पहले कार्लमार्क्स ने 'दुनिया के मजदूर एक हो' का नारा दिया। यह नारा न केवल उस काल में प्रासंगिक था, बल्कि आज भी उसकी प्रासंगिकता में कोई घटौती नहीं आई है। फ्रांस की क्रांति के बाद पूरे यूरोप में औद्योगिक क्रांति के माध्यम से फैल रही पूंजीवाद के खिलाफ यह नारा परिवर्तन की एक लहर को लाने में सशक्त था। दुनिया की सबसे बड़ी विसंगति आज यह है, कि दुनिया के मजदूर जितने बटे-बिखरे, अनेक, असंगठित हैं इसका कोई और मिसाल नहीं है। दूसरी ओर तमाम उद्योगपति व पूंजीपति एक-दूसरे के साथ मिलकर अपने संगठन और ताकत को बढ़ाए जा रहे हैं। चाहे हसिया से लेकर हथियार तक बेचने वाली कंपनी हो या फिर सब्जी से लेकर सीमेंट तक बेचने वाली कंपनी हो, यह सब आपसी तकरार व मतभेद को दूर कर एक मंच में बैठने लगे हैं। लगभग कार्लमार्क्स के ही तर्ज पर बाबा साहब अंबेडकर ने भी भारत में पीड़ित मूलवासियों को एक साथ लाने का प्रयास किया था, उन्होंने अछूत, शुद्र एवं आदिवासियों को एक साथ लाकर मिलजुलकर सामूहिकता के साथ रहने की परिकल्पना की थी। आधुनिक भारत के इतिहास में नि:संदेह ही यह समाजिक परितर्वन की पहली पहल थी। एक रूप से देखा जाए तो दुनिया के पीड़ितों एवं गुलामों को वैचारिक एवं सैध्दांतिक आधार अंबेडकर ने दिया। जिस प्रकार से दुनिया में मजदूरों का हश्र हुआ है। उसी प्रकार आज भारत में दलित, आदिवासी, पिछड़े लोग अनेक दल, धर्म व अपनी-अपनी जातियों में बंटी हुई है। वास्तव में यदि परिश्रम के साथ प्रयास किया जाए तो भारत में भी परिवर्तन संभव है। यदि अमरीका जैसे देश में काले और गोरे के बीच के भेद को सशक्त आंदोलन एवं सामुदायिक मंचों का प्रयोग कर तीस-चालीस सालों के अंदर कमजोर किया जा सकता है तो निश्चित ही बदलाव का कोई न कोई स्वरूप भारत में भी असंभव नहीं था।
आखिर भारत में परिवर्तन क्याें नहीं आया? क्या परिवर्तन लाने की जिम्मेदारी केवल एक विभाग या वर्ग का ही है? परिवर्तन के मापदंड क्या होंगे? उसका माध्यम क्या होगा अथवा हो सकता है? इन तमाम सवालों का जवाब खोजना अतिआवश्यक है। अन्यथा समाज में बुनियादी परितर्वन संभव नहीं है। जब तक समाज में सभी लोगों का बराबरी की हिस्सेदारी व भागीदारी नहीं होगी, तब तक स्थितियां वैसी की वैसी ही रह जाएंगी। भारतीय समाज मूलत: ग्रामीण इलाकों में बसी हुई है इसलिए कोई भी परिवर्तन का जड़ भी यहीं से मजबूत हो सकती है। भारत के गांव के बारे में डॉ. अंबेडकर की यह मान्यता थी, कि यह सवर्ण और अवर्ण के तकरार का गुफा है। इसका मतलब यह हुआ कि चातुवर्ण के आधार पर जाति व्यवस्था का पोषक एवं संरक्षक भारत के गांव ही है, जिसमें कोई शक नहीं है। यह स्थिति पूरे देश में एक ही प्रकार से व्याप्त है। 1920 के दशक में केरल के पुलिया समाज में परिवर्तन की लहर फूंकने वाले कर्मठ दलित योध्दा ऐय्यंकाली ने उस समय गांव की व्यवस्था को तोड़ा था, जब रास्ते से दलितों का चलना भी वर्जित था। ऐय्यंकाली का नाम केरल के बाहर कितने लोग जानते हैं, यह मुझे नहीं मालूम। लेकिन केरल के पुलया, परया, कुरवा इत्यादि समुदायों के बीच उनके सम्मान और प्रतिष्ठा की स्थापना करने वाले महात्मा के रूप में आज भी मानते हैं। महत्वपूर्ण बात यह है, कि ऐय्यंकाली का पूरा आंदोलन अपने-अपने गांवों में सम्मान, इात व जीविकोपार्जन खोजने के तर्ज पर था। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि भारत की भूमि में परिवर्तन की परिभाषा गांव से आरंभ हो। इसी प्रकार से यदि देखा जाए तो छत्तीसगढ़ में भी गुरु घासीदास जी के द्वारा गैरबरारी एवं छुआछूत के खिलाफ एक नए ढंग से परिवर्तन का प्रयास हुआ था। यह प्रयास अत्यंत सफल भी रहा। घासीदास के परिवर्तन की प्रक्रिया को यदि समझा जाए तो वे भी गांव स्तर से ही इसका आरंभ किए थे। यह परितर्वन इतना तेज और तीव्रता के साथ हुआ कि अंग्रेजी हुकूमत भी घबराने लगी थी और यही वजह था कि वे सतनामी को एक 'क्रिमिनल ट्राइब' के रूप में घोषित किए थे। इस पूरे विश्लेषण से दो बातें साफ होती हैं। पहला यह कि भारत में परिवर्तन अनिवार्य है, दूसरा यह कि भारत में कोई भी बुनियादी परिवर्तन गांव से ही संभव है। अब यदि गांव से ही परितर्वन आनी है तो उसका माध्यम क्या हो सकता है? \n\u003cbr\>इसमें कोई दो मत नहीं होनी चाहिए कि पंचायती राज ग्रामीण स्तर पर बदलाव लाने में एक प्रबल माध्यम के रूप में है। अब सवाल यह उठता है कि पंचायती राज के माध्यम से किस तरह से छुआछूत, भेदभाव, जातिगत हिंसा जैसे सवालों को उठाया जाए? इसमें कोई दो मत नहीं होनी चाहिए कि पंचायती राज ग्रामीण स्तर पर बदलाव लाने में एक प्रबल माध्यम के रूप में है। अब सवाल यह उठता है कि पंचायती राज के माध्यम से किस तरह से छुआछूत, भेदभाव, जातिगत हिंसा जैसे सवालों को उठाया जाए? भारत में परिवर्तन क्याें नहीं आया? क्या परिवर्तन लाने की जिम्मेदारी केवल एक विभाग या वर्ग का ही है? परिवर्तन के मापदंड क्या होंगे? उसका माध्यम क्या होगा अथवा हो सकता है? इन तमाम सवालों का जवाब खोजना अतिआवश्यक है। अन्यथा समाज में बुनियादी परितर्वन संभव नहीं है। जब तक समाज में सभी लोगों का बराबरी की हिस्सेदारी व भागीदारी नहीं होगी, तब तक स्थितियां वैसी की वैसी ही रह जाएंगी। भारतीय समाज मूलत: ग्रामीण इलाकों में बसी हुई है इसलिए कोई भी परिवर्तन का जड़ भी यहीं से मजबूत हो सकती है। भारत के गांव के बारे में डॉ. अंबेडकर की यह मान्यता थी, कि यह सवर्ण और अवर्ण के तकरार का गुफा है। इसका मतलब यह हुआ कि चातुवर्ण के आधार पर जाति व्यवस्था का पोषक एवं संरक्षक भारत के गांव ही है, जिसमें कोई शक नहीं है। यह स्थिति पूरे देश में एक ही प्रकार से व्याप्त है। 1920 के दशक में केरल के पुलिया समाज में परिवर्तन की लहर फूंकने वाले कर्मठ दलित योध्दा ऐय्यंकाली ने उस समय गांव की व्यवस्था को तोड़ा था, जब रास्ते से दलितों का चलना भी वर्जित था। ऐय्यंकाली का नाम केरल के बाहर कितने लोग जानते हैं, यह मुझे नहीं मालूम। लेकिन केरल के पुलया, परया, कुरवा इत्यादि समुदायों के बीच उनके सम्मान और प्रतिष्ठा की स्थापना करने वाले महात्मा के रूप में आज भी मानते हैं। महत्वपूर्ण बात यह है, कि ऐय्यंकाली का पूरा आंदोलन अपने-अपने गांवों में सम्मान, इात व जीविकोपार्जन खोजने के तर्ज पर था। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि भारत की भूमि में परिवर्तन की परिभाषा गांव से आरंभ हो। इसी प्रकार से यदि देखा जाए तो छत्तीसगढ़ में भी गुरु घासीदास जी के द्वारा गैरबरारी एवं छुआछूत के खिलाफ एक नए ढंग से परिवर्तन का प्रयास हुआ था। यह प्रयास अत्यंत सफल भी रहा। घासीदास के परिवर्तन की प्रक्रिया को यदि समझा जाए तो वे भी गांव स्तर से ही इसका आरंभ किए थे। यह परितर्वन इतना तेज और तीव्रता के साथ हुआ कि अंग्रेजी हुकूमत भी घबराने लगी थी और यही वजह था कि वे सतनामी को एक 'क्रिमिनल ट्राइब' के रूप में घोषित किए थे। इस पूरे विश्लेषण से दो बातें साफ होती हैं। पहला यह कि भारत में परिवर्तन अनिवार्य है, दूसरा यह कि भारत में कोई भी बुनियादी परिवर्तन गांव से ही संभव है। अब यदि गांव से ही परितर्वन आनी है तो उसका माध्यम क्या हो सकता है? इसमें कोई दो मत नहीं होनी चाहिए कि पंचायती राज ग्रामीण स्तर पर बदलाव लाने में एक प्रबल माध्यम के रूप में है। अब सवाल यह उठता है कि पंचायती राज के माध्यम से किस तरह से छुआछूत, भेदभाव, जातिगत हिंसा जैसे सवालों को उठाया जाए? इसमें कोई दो मत नहीं होनी चाहिए कि पंचायती राज ग्रामीण स्तर पर बदलाव लाने में एक प्रबल माध्यम के रूप में है। अब सवाल यह उठता है कि पंचायती राज के माध्यम से किस तरह से छुआछूत, भेदभाव, जातिगत हिंसा जैसे सवालों को उठाया जाए?
पंचायत राज गांव के सभी वर्गों को एक साथ बैठने का मौका प्रदान करता है और यही एक माध्यम है जहां पर आपसी मतभेद को संवाद के द्वारा कम कर सकते हैं। पंचायत में आपसी भाईचारा को भी बढ़ाने का मंच भी उपलब्ध है। भाईचारा एक सैध्दांतिक पहलू नहीं है बल्कि यह एक भावनात्मक सत्य है। ऐसे अनेक उदाहरण छत्तीसगढ़ में है, जहां लोग पंचायत में संयुक्त रूप से बैठकर संवाद के द्वारा आपसी भाईचारे को कामय रखा है। इसका मतलब यह नहीं है कि परिवर्तन संपन्न हो गया लेकिन यह उस प्रक्रिया का हिस्सा जरूर है। इसके लिए थोड़ा ज्यादा समय लग सकता है किंतु यह धीरे-धीरे आगे बढ़ेगा। सामाजिक क्रांति में पंचायतीराज में जो आरक्षण की व्यवस्था कायम है, वह अति महत्वपूर्ण है क्योंकि परितर्वन का मतलब कमजोर के लिए स्थान बनाना ही है।

पंचायत राज गांव के सभी वर्गों को एक साथ बैठने का मौका प्रदान करता है और यही एक माध्यम है जहां पर आपसी मतभेद को संवाद के द्वारा कम कर सकते हैं। पंचायत में आपसी भाईचारा को भी बढ़ाने का मंच भी उपलब्ध है। भाईचारा एक सैध्दांतिक पहलू नहीं है बल्कि यह एक भावनात्मक सत्य है। ऐसे अनेक उदाहरण छत्तीसगढ़ में है, जहां लोग पंचायत में संयुक्त रूप से बैठकर संवाद के द्वारा आपसी भाईचारे को कामय रखा है। इसका मतलब यह नहीं है कि परिवर्तन संपन्न हो गया लेकिन यह उस प्रक्रिया का हिस्सा जरूर है। इसके लिए थोड़ा ज्यादा समय लग सकता है किंतु यह धीरे-धीरे आगे बढ़ेगा। सामाजिक क्रांति में पंचायतीराज में जो आरक्षण की व्यवस्था कायम है, वह अति महत्वपूर्ण है क्योंकि परितर्वन का मतलब कमजोर के लिए स्थान बनाना ही है।
देशबंधु से साभार-

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