पिछली कुछ शताब्दियों के दौरान भारत में सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक परिवर्तन लाने में मध्य वर्ग की क्रांतिकारी भूमिका रही थी, लेकिन अब उसी मध्य वर्ग ने परिवर्तन के प्रबल विरोधी का चरित्र अख्तियार कर लिया है। वह प्रतिक्रियावादी हो गया है, वह आज ऐसे किसी भी बदलाव के पक्ष में तत्पर नहीं होता जो उसकी मौजूदा स्थिति के लिए असुविधाजनक हो। उसने परंपरागत कुलीन वर्ग को सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक सत्ता से बेदखल कर उस पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली है और अब वह समाज का सबसे महत्वपूर्ण वर्ग बन गया है। सभी प्रकार के बौद्धिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विमर्श के केंद्र में वही है। समाज, राष्ट्र और व्यवस्था-तंत्र की नियति उसी की इच्छाओं-अपेक्षाओं के आधार पर निर्धारित होती है।
भारत में जिस मध्य वर्ग का विकास हुआ है, उसका मौजूदा चरित्र विरोधाभासों और विडंबनाओं से युक्त है। वह एक तरफ यथास्थितिवाद का पक्षधर है और दूसरी तरफ वह पश्चिमोन्मुख भी है। भारतीय मध्य वर्ग ने यूरोपीय मध्य वर्ग की तरह प्रगतिशील उदारवादी सोच तो अपना ली, लेकिन आर्थिक क्रांति के अभाव में उसकी प्रगतिशीलता एकांगी और अधूरी ही बनी रही। यूरोप में औद्योगिक क्रांति और वैचारिक क्रांति—दोनों साथ-साथ हुई थी। आधुनिक लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था का उदय भी उसके साथ ही हुआ। लेकिन भारत में यह सब एक साथ नहीं हो सका। उन्नीसवीं शताब्दी में वैचारिक-सांस्कृतिक आंदोलन तो यहाँ कई चले, लेकिन विदेशी शासन की वजह से आर्थिक और लोकतांत्रिक क्रांति की परिस्थितियाँ नहीं बन सकीं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था तो लागू हो गई, लेकिन आर्थिक क्रांति का सपना अधूरा ही रहा। हमारे समाज में व्याप्त वर्ण व्यवस्था, जातिभेद, अशिक्षा और महिलाओं की उपेक्षित स्थिति प्रगतिशीलता और सामाजिक गतिशीलता की राह में बहुत बड़ी बाधा रही है।
आज के भारतीय मध्य वर्ग के चरित्र और आचार-व्यवहार को देखते हुए ऐसा लगता है कि 1835 ई. में लॉर्ड मैकाले ने रक्त और रंग की दृष्टि से भारतीय मगर रुचि, विचार, आचरण तथा बुद्धि की दृष्टि से अंग्रेज व्यक्तियों का जो वर्ग तैयार करने का उद्देश्य घोषित किया था, उस दिशा में वह काफी हद तक सफल रहा। इस मध्य वर्ग को मैकाले के मानसपुत्र की संज्ञा इसीलिए दी जाती है। विडंबना की बात यह है कि भारतीय मध्य वर्ग में पश्चिमपरस्ती की यह प्रवृत्ति स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अपेक्षाकृत ज्यादा तेजी से बढ़ी है और 1990 के दशक में भूमंडलीकरण का दौर शुरु होने के बाद वह अपने भारतीयपन को ही पूरी तरह से भूल जाने की कोशिश में जुट गया है।
जिस मध्य वर्ग ने भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन में केन्द्रीय भूमिका निभाई थी और जिसने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान मानवतावादी नैतिक दृष्टिकोण और सत्य एवं अहिंसा के आदर्शों के अनुरूप व्यापक सामाजिक एवं राष्ट्रीय हितों के लिए त्याग और परिवर्तनवादी संघर्ष का रास्ता अपनाया था, आज वह इतना अवसरवादी, स्वार्थी, भ्रष्टाचार में लिप्त और यथास्थितिवादी कैसे होता जा रहा है? उसके नैतिक मूल्य कहाँ और क्यों लुप्त हो गए? एक वजह तो इसकी यह है कि ब्रिटिश पराधीनता के दिनों में मध्य वर्ग को खुद अपनी पराधीनता और बदहाली विशेष रूप से खलती थी, क्योंकि वह आधुनिक शिक्षा, सभ्यता और विचारों के संपर्क में आ रहा था और उसके प्रभाव से वह शासक वर्ग की तुलना में अपनी हीन स्थिति के कारणों को समझने लगा था। वह यह भी देख रहा था कि भारतीय समाज के उच्च वर्ग यानी जमींदार, भूस्वामी और राजे-महाराजाओं के हित विदेशी शासक के हितों के साथ मेल खाते हैं और इसीलिए वे उसी का साथ दे रहे हैं। मध्य वर्ग इस स्थिति को बदलना चाहता था और खुद सत्ता हासिल करना चाहता था। इसलिए महान राष्ट्रवादी नेताओं के नेतृत्व में उसने राष्ट्रीय आंदोलन में तन-मन-धन से भाग लिया। लेकिन स्वतंत्रता हासिल होने के बाद स्थिति पहले जैसी नहीं रही। अब खुद मध्य वर्ग के नेता ही सत्ता पर आसीन थे। इन नेताओं ने उन आदर्शों और नैतिक मूल्यों से अपना पल्ला झाड़ लिया, जो हमने राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान हासिल किए थे। उनका लक्ष्य येन केन प्रकारेन सत्ता में बने रहना हो गया। वे उपेक्षित आम जनता की चिंताओं से अधिकाधिक दूर होते गए।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय समाज में विभिन्न वर्गों के बीच जीवन-स्तर का भेद तेजी से बढ़ने लगा। उच्च वर्ग एवं उच्च-मध्य वर्ग के बच्चों के लिए अंग्रेजी माध्यम वाले मँहगे पब्लिक स्कूल खुलने लगे, जबकि निम्न वर्ग एवं निम्न-मध्यम वर्ग के बच्चों के लिए बिना छत और न्यूनतम सुविधाओं से भी वंचित विद्यालय रह गए। राजनीतिक-आर्थिक सत्ता पर काबिज वर्ग ने उपनिवेशी शासकों की भाषा और रंग-ढंग को अपना लिया। इस वर्ग के लोगों ने महानगरों और राजधानियों में रहना शुरू कर दिया। इनकी बिजली और पानी संबंधी जरूरतों के लिए बड़े-बड़े बाँध और नहरें बनाई गईं, लेकिन सुदूरवर्ती ग्रामीण आबादी के हितों और जरूरतों की अनदेखी की जाती रही। राजनीति केवल खोखले नारों और वोट बैंक के गणित पर आधारित हो गई। उसका वास्तविक सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की प्रक्रिया से कोई सरोकार न रहा। सत्ताधारी वर्ग समाज में किसी भी मूलभूत परिवर्तन की कोशिश के सख्त खिलाफ हो गया। चाहे कोई भी राजनीतिक पार्टी सत्ता में हो, सबका बुनियादी चरित्र एक जैसा हो गया।
राजनीतिज्ञों ने जाति और धर्म के अर्थहीन मुद्दों को राजनीति में घसीट कर जनता के हित के वास्तविक मुद्दों से उनका ध्यान हटा दिया। इस तरह उन्होंने साजिशपूर्ण तरीके से जनशक्ति को क्रांति के विपरीत दिशा में मोड़ दिया। उच्च वर्ग और उच्च-मध्यम वर्ग के हित अमरीका और यूरोप की नवसाम्राज्यवादी शक्तियों के साथ फिर से जुड़ गए। इन नवसाम्राज्यवादी शक्तियों और उनके सहयोगियों के लिए नैतिक मूल्यों और आदर्शों का कोई मायने नहीं है। भ्रष्टाचार और अप्रत्यक्ष आर्थिक शोषण के नए-नए तरीकों से ये ताकतें बड़ी तेजी से अधिकाधिक आर्थिक संसाधनों पर नियंत्रण करने में सफल होती जा रही हैं। इसी के साथ उनकी जीवन-शैली, रहन-सहन और कार्य-व्यवहार में भी बदलाव आता जा रहा है। उनकी देखादेखी नीचे के वर्गों में भी इसी स्तर की संपन्नता और चकाचौंध वाली जीवन-शैली अपनाने की ललक पैदा होने लगी है। इसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ है कि निम्न वर्ग के लोगों ने भी नैतिक मूल्यों की परवाह छोड़कर तेजी से पैसा बनाने की होड़ में सभी प्रकार के उचित-अनुचित साधनों को अपनाना शुरू कर दिया है। इसके चिंताजनक परिणाम भी हमारे सामने हैं।
आजादी के बाद से ही मध्य वर्ग को कभी सही मार्गदर्शन नहीं मिल सका। सरकार ने राष्ट्र निर्माण में शिक्षा के केन्द्रीय महत्व को नहीं समझा। देश के एक बड़े भूभाग में भूमि सुधार प्रक्रिया विफल रही। सामाजिक न्याय के नारों के बल पर राजनीति करने वाले नेताओं ने भी सत्ता में लंबे समय तक रहने के बावजूद आम मध्य वर्ग की वास्तविक स्थिति को सुधारने का कोई प्रयत्न नहीं किया और वे उसे गुमराह करते रहे। यहाँ तक कि वामपंथी पार्टियों ने भी संगठित क्षेत्र के एक छोटे-से मजदूर-किसान वर्गों को छोड़कर असंगठित क्षेत्र के अधिसंख्यक निम्न वर्ग एवं निम्न-मध्य वर्गीय जनता के हितों के लिए काम करने की जहमत कभी नहीं उठाई।
कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की राजनीति तो हमेशा बुर्जुआ हितों को लेकर ही चलती रही है। अपने नेताओं के छद्म करिश्मे के बल पर आम जनता का भाग्य बदल देने का झांसा देने वाली ये पार्टियाँ कभी उनकी स्थिति में वास्तविक सुधार लाने की बात नहीं सोचतीं।
उन्नीसवीं शताब्दी में धार्मिक सुधार आंदोलनों की मध्यवर्गीय प्रगतिशील विचारधारा के विकास में सकारात्मक भूमिका रही थी, लेकिन आज जिस तरीके से स्वघोषित गुरुओं और संतों की फौज आधुनिक प्रचार माध्यमों की सहायता से कर्म फल और पूर्वजन्म के सिद्धांतों में विश्वास करने का उपदेश देने में दिन-रात जुटी हुई है, उसने भी आम मध्य वर्ग को अपनी दशा सुधारने के लिए परिवर्तनकारी संघर्ष करने के मार्ग से विमुख करने का काम किया है।
जाहिर है कि भारतीय मध्य वर्ग ने सामाजिक परिवर्तन की धुरी बनने की अपनी क्षमता अब काफी हद तक खो दी है। आज उसकी शक्ति को संगठित करने और इसे नैतिक प्रेरणा से संचालित करने वाला कोई समर्थ नेतृत्व उसके पास नहीं है। राजनीतिज्ञों और नवसाम्राज्यवादी ताकतों के साझे षड्यंत्र का वह शिकार बनकर रह गया है। वह अपने सामूहिक वर्गगत हितों को छोड़कर व्यक्तिवादी प्रतिस्पर्धा और अपने निजी स्वार्थों को पूरा करने की होड़ में शामिल हो गया है। मार्क्स ने मध्य वर्ग के इस त्रासदीपूर्ण हश्र की कभी कल्पना भी नहीं की होगी।
स्रजन संवाद से साभार
धन्यवाद, आशा है आप आगे भी ऐसे यथार्थ लेख से हमारी आंखे खोलते रहेंगे।
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