कुछ दिनों पहले जब दिल्ली में भारत के 17 राज्यों के साम्प्रदायिकता के शिकार लोगों की जनसुनवाई हुई तो उसमें सागर जिले के एक गांव से पहुंचे मोहम्मद इकबाल ने अपनी जो आपबीती सुनायी, उससे साम्प्रदायिकता के फासीवादी जुड़ावों की जटिलता स्पष्ट होती है। मोहम्मद इकबाल मरे हुए जानवरों के चमड़े का धंधा करने वाला एक गरीबी की वास्तविक रेखा के नीचे बसर करने वाला इंसान है। इस धंधे में हिन्दू और मुसलमान, दोनोें ही किस्म के व्यापारी शामिल रहते हैं। पिछले कुछ वक्त में हुआ यूं है कि अगर मुसलमान व्यापारी ने जानवर या मरे हुए जानवर खरीदे और उन्हें ट्रक में चढ़ाकर गंतव्य के लिए रवाना किया तो रास्ते में बजरंग दल, विहिप या हिन्द रक्षक जैसे किसी संघी संगठन के लोग उसे पकड़कर, उसमें गोमांस होने का या जिंदा गायों को मारने के लिए ले जाने का इल्जाम लगाकर तोड़फोड़, उपद्रव करते हैं। इसलिए उन्हें स्थानीय पुलिस, प्रभावशाली राजनीतिक सत्ताधारी पार्टी भाजपा आदि का समर्थन भी हासिल होता है। ट्रक में लदे जानवर गाय हैं या नहीं, वो मांस गाय का है या नहीं, क्या वह वैधानिक रूप से इस गोश्तफरोशी के लिए लाइसेंसशुदा लोगों द्वारा है या नहीं, इत्यादि सवालों के जवाब भले ही संघी संगठनों के आरोपों को पूरी तरह झुठलाने वाले हों, लेकिन यह सब तो साबित होते- होते ही होता है। इस बीच जो हो गया होता है, वह बारीक मार है। मुस्लिम व्यापारी खरीदे गये जानवरों का भुगतान कर चुका होता है और जिस माल को आगे बेचकर उसे मुनाफा कमाना था, वो माल लूटा या बर्बाद किया जा चुका होता है। मोहम्मद इकबाल इस धंधे की सबसे निचली पायदान पर खड़े लोगों में से एक हैं। ऐसे अरबों लोगौं की जिंदगी का धर्म से इतना ही वास्ता होता है कि वे किसी अटूट शक्ति से कभी कुछ बेहतर हो जाने के चमत्कार की प्रार्थना अनथक करते रहते हैं- ताजिंदगी। या फिर अपनी बदहाली के लिए तकदीर को कोस सकते हैं। तो मोहम्मद इकबाल को पता ही नहीं था कि उन्होंने कभी कोई गैरकानूनी काम में हिस्सेदारी की है। अचानक उन पर गौ हत्या के इल्जाम वाले आरोपों की जानकारी देती हुई पुलिस उन्हें पकड़ने पहुंची। जमानत। पेशी। कोर्ट फिर नया इल्जाम। फिर जमानत। पेशी। अदालत।... सागर तक जाने- आने में उन्हें 60 रुपये का खर्च आता है, और वो पैसा उनके पास नहीं है तो थोड़े दिनों की मशक्कत के बाद उन्होंने पेशी पर जाना छोड़ दिया। इससे पुलिस का डर और भी बढ़ गया। इस डर से वे अक्सर घर से बाहर रहने लगे और मारे- मारे यहां- वहां भटकने लगे। घरवाले घर में रहे। इधर पुलिस का दबाव, पैसों की तकलीफ, काम का टोटा और 16 साल की लड़की बीमार हो गयी कोई अस्पताल, दवा- दारू का ठीक इंतजाम नहीं होने से मर गयी। मोहम्मद इकबाल बुंदेलखण्डी बोलते हैं, आम मजदूरों जैसे कपड़े पहनते हैं, चेहरे की शिकनों से वे खालिस हिन्दुस्तान, पूरा का पूरा लगते हैं, नफासत से बोलना नहीं आता सो आखिर में उनकी मिचमिचाई आंखों में आंसू तैरने लगते हैं। यह सागर ही नहीं, देश के तमाम इलाकों में एक समुदाय की गुजर- बसर की रीढ़ को तोड़ देने की सोची समझी साजिश की तरह जारी है, जिसका एक कामयाब प्रयोग गुजरात में 2002 में किया जा चुका है। और इसमें हिन्दू होने के नाते जुड़ते जा रहे समर्थन के पीछे वजह भी यही है कि इस धर्म में शामिल अन्य हिन्दू स्वार्थी व्यापारी, मुसलमान व्यापारियों से खाली होने वाली जगह पर खुद का मुनाफा बढ़ता देखते हैं। एक खास पहचान वाले समूह को चिन्हित कर उसकी आर्थिक रीढ़ को तोड़ देना और उसके विरूध्द एक दूसरी पहचान को घोषित कर उसके मध्यम व्यापारी वर्ग को, छोटे-छोटे नफे की खातिर भी अपने साथ जोड़कर नफरत का समाजीकरण कर देना फासीवाद की एक प्रमुख पहचान है। जब दिमिनोव ने फासीवाद को जर्मनी और इटली के संदर्भ में परिभाषित किया, वे जान चुके ते कि स माज में क्षैतिज और गहराई में नफरत फैलाने के लिए मध्यम पूंजीपति तबके के हितों को साधकर पूंजीवादी समाज को गलत पहचानों में बांटकर निर्बाध धन संचय करना चाहता है। यानी अगर हमारे देश में रास्ते में एक भीड़ पकड़कर किसी अकेले आदमी को मार रही है तो मुमकिन है कि देखने वालों में से कुछ इस गुंडागर्दी को रोकने की कोशिश करें, या पुलिस ही इसे रोके और पिटते आदमी को भले वह चोर, उठाईगीरा ही क्यों न हो, सुरक्षा दे और गिरफ्तार कर कानूनी कार्रवाई करे। लेकिन अगर पिटने वाला ईसाई है, या मुसलमान है तो फिर इन सारी संभावनाओं की जगह नहीं रहती। जादू के जोर से लोग इस गुंडागर्दी को धर्मरक्षा का कृत्य मान स्वीकृति दे देते हैं। जबलपुर में हाल में प्रार्थना करने वाले ईसाइयों पर हुए हमले, भोपाल में चर्च में तोड़फोड़, झाबुआ में इंदौर में, गुजरात में और हाल में राजस्थान में उस तरह की घटनाओं का एक खास पैटर्न पर तीव्र गति से बढ़ना और इसे राज्य की मशीनरी का संरक्षण प्राप्त होना समाज के भविष्य के लिए बेहद खतरनाक संकेत है। इसी तरह धार, उौन, इंदौर, खरगौन, खंडवा, सागर, भोपाल, शाजापुर, नरसिंहगढ़ जैसे छोटे- बड़े हर तरह के मध्यप्रदेश के इलाकों में, मुस्लिमों को लक्ष्य करके पनपाई जा रही नफरत और अलहदगी को दोनों ही धार्मिक संप्रदायों ने कुछ हद तक स्वीकार कर लिया है। मुंबई और गुजरात में हम देख चुके हैं कि साम्प्रदायिकता का इस्तेमाल, पूंजी और अपराध के गठजोड़ का कुछ उत्पाद होता है। भूमाफियाओं और धर्म के आधार पर बनी राजसत्ता ने मिलकर बर्बरता की हदें पार कीं। फिर गुजरात 2002 का नरसंहार यानी बर्बरता के अपने ही रिकॉर्ड को तोड़ता यह आपराधिक गठजोड़ इस दफा अपने माथे पर नृशंसता का गौरव लिए खुलेआम घूम रहा है। मणिपुर समेत उत्तरपूर्वी भारत के तमाम राज्यों, कश्मीर में विशेष सशस्त्र ब सुरक्षा अधिनियम (आफ्स्पा) के जरिये आम नागरिकों पर किये जा रहे अत्याचारों से लेकर सोहराबुद्दीन और कौसर बी की हत्याओं में फिर एक बार जाहिर हुई पुलिस, प्रशासन व राजसत्ता की बेगैरत हैवानियत और वहां से लेकर विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) बनाने के लिये पूंजी की खातिर इंसानों के साथ किया जा रहा क्रूर सलूक और विकास की चुहलबाजियों में दबती- पिसती जा रही आदिवासियों- ग्रामीणों, विस्धापितों की चीखें इन सबका एक समग्र है। फासीवाद महज हिन्दू- मुस्लिम या हिन्दू सिख किस्म की ही नहीं होती। हर वो तंत्र जिसमें धीरे- धीरे करके किसी न किसी तबके की लोकतांत्रिक स्पेस को दबाया जाए और जिसका अनिवार्य संबंध पूंजी, मुनाफे से हो, वो फासीवाद की ओर ही बढ़ता है। जो साम्प्रदायिकता के खिलाफ मोर्चा लगाये लोग हैं, उन्हें ये जानना बेहद जरूरी है कि यह लड़ाई महज दो धार्मिक संप्रदायों के बीच सामंजस्य के सवाल पर नहीं रूकती, रूक ही नहीं सकती, ये लड़ाई पूंजी के मुनाफा कमाने के बुनियादी चरित्र के खिलाफ लड़कर ही जीती जा सकती है।
विनीत तिवारी
(लेखक प्रगतिशील लेखन संघ की मध्यप्रदेश इकाई के महासचिव हैं।)
चंद्रिका जी, संयोग से आपकी पोस्ट देख नहीं पाया। महत्वपूर्ण रिपोर्ट है। आपने भोजपुरी की सीतागाथा पर अपनी टिप्पणी के रूप में मेरे चिट्ठे पर स्याही लगाने की इच्छा जताई थी। आपका बहुत-बहुत स्वागत है। स्याही क्या, आप वहां आकर बाकायदा होली खेलें- आपका घर है।
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