18 अप्रैल 2007

सआदत हसन मंटो की बहुचर्चित कहानी "टोबा टेक सिंह"

बँटवारे के दो-तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदुस्तान की हुकूमतों कोख़्याल आया कि अख़्लाक़ी क़ैदियों की तरह पागलों का भी तबादला होनाचाहिए, यानी जो मुसलमान पागल हिंदुस्तान के पागलख़ानों में हैं, उन्हेंपाकिस्तान पहुँचा दिया जाए और जो हिंदू और सिख पाकिस्तान के पागलख़ानोंमें हैं, उन्हें हिंदुस्तान के हवाले कर दिया जाए. मालूम नहीं, यह बातमाक़ूल थी या ग़ैर माक़ूल, बहरहाल दानिशमंदों के फ़ैसले के मुताबिक़इधर-उधर ऊँची सतह की कान्फ्रेंसें हुईं और बिलआख़िर पागलों के तबादले केलिए एक दिन मुक़र्रर हो गया.अच्छी तरह छानबीन की गई- वे मुसलमान पागल जिनके लवाहिक़ीन हिंदुस्तान हीमें थे, वहीं रहने दिए गए; जितने हिंदू-सिख पागल थे, सबके-सब पुलिस कीहिफाज़त में बॉर्डर पह पहुंचा दिए गए.उधर का मालूम नहीं लेकिन इधर लाहौर के पागलख़ाने में जब इस तबादले कीख़बर पहुंची तो बड़ी दिलचस्प चिमेगोइयाँ (गपशप) होने लगीं.एक मुसलमान पागल जो 12 बरस से, हर रोज़, बाक़ायदगी के साथ "ज़मींदार"पढ़ता था, उससे जब उसके एक दोस्त ने पूछा: "मौलबी साब, यह पाकिस्तान क्याहोता है...?" तो उसने बड़े ग़ौरो-फ़िक़्र के बाद जवाब दिया: "हिंदुस्तानमें एक ऐसी जगह है जहाँ उस्तरे बनते हैं...!" यह जवाब सुनकर उसका दोस्तमुतमइन हो गया.इसी तरह एक सिख पागल ने एक दूसरे सिख पागल से पूछा: "सरदार जी, हमेंहिंदुस्तान क्यों भेजा जा रहा है... हमें तो वहाँ की बोली नहीं आती..."दूसरा मुस्कराया; "मुझे तो हिंदुस्तोड़ों की बोली आती है, हिंदुस्तानीबड़े शैतानी आकड़ आकड़ फिरते हैं..."एक दिन, नहाते-नहाते, एक मुसलमान पागल ने "पाकिस्तान: जिंदाबाद" का नाराइस ज़ोर से बुलंद किया कि फ़र्श पर फिसलकर गिरा और बेहोश हो गया.बाज़ पागल ऐसे भी थे जो पागल नहीं थे; उनमें अक्सरीयत (बहुतायत) ऐसेक़ातिलों की थी जिनके रिश्तेदारों ने अफ़सरों को कुछ दे दिलाकर पागलख़ानेभिजवा दिया था कि वह फाँसी के फंदे से बच जाएँ; यह पागल कुछ-कुछ समझते थेकि हिंदुस्तान क्यों तक़्सीम हुआ है और यह पाकिस्तान क्या है; लेकिन सहीवाक़िआत से वह भी बेख़बर थे; अख़बारों से उन्हें कुछ पता नहीं चलता था औरपहरेदार सिपाही अनपढ़ और जाहिल थे, जिनकी गुफ़्तुगू से भी वह कोई नतीजाबरामद नहीं कर सकते थे. उनको सिर्फ़ इतना मालूम था कि एक आदमी मुहम्मदअली जिन्नाह है: जिसको क़ायदे-आज़म कहते हैं; उसने मुसलमानों के लिए एकअलहदा मुल्क बनाया है जिसका नाम पाकिस्तान है; यह कहाँ है, इसकामहल्ले-वुक़ू (भौगोलिक स्थिति) क्या है, इसके मुताल्लिक़ वह कुछ नहींजानते थे- यही वजह है कि वह सब पागल जिनका दिमाग़ पूरी तरह माऊफ़ नहींहुआ था, इस मख़मसे में गिरफ़्तार थे कि वह पाकिस्तान में है याहिंदुस्तान में; अगर हिंदुस्तान में है तो पाकिस्तान कहाँ है; अगरपाकिस्तान में हैं तो यह कैसे हो सकता है कि वह कुछ अर्से पहले यहीं रहतेहुए हिंदुस्तान में थे.एक पागल तो हिंदुस्तान और पाकिस्तान, पाकिस्तान और हिंदुस्तान के चक्करमें कुछ ऐसा गिरफ़्तार हुआ कि और ज़्यादा पागल हो गया. झाड़ू देते-देतेवह एक दिन दरख़्त पर चढ़ गया और टहने पर बैठकर दो घंटे मुसलसल तक़रीरकरता रहा, जो पाकिस्तान और हिंदुस्तान के नाज़ुक मसले पर थी... सिपाहियोंने जब उसे नीचे उतरने को कहा तो वह और ऊपर चढ़ गया. जब उसे डराया-धमकायागया तो उसने कहा: "मैं हिंदुस्तान में रहना चाहता हूं न पाकिस्तान में...मैं इस दरख़्त ही पर रहूंगा..."एक पागल तो हिंदुस्तान और पाकिस्तान, पाकिस्तान और हिंदुस्तान के चक्करमें कुछ ऐसा गिरफ़्तार हुआ कि और ज़्यादा पागल हो गया. झाड़ू देते-देतेवह एक दिन दरख़्त पर चढ़ गया और टहने पर बैठकर दो घंटे मुसलसल तक़रीरकरता रहा, जो पाकिस्तान और हिंदुस्तान के नाज़ुक मसले पर थी... सिपाहियोंने जब उसे नीचे उतरने को कहा तो वह और ऊपर चढ़ गया. जब उसे डराया-धमकायागया तो उसने कहा: "मैं हिंदुस्तान में रहना चाहता हूं न पाकिस्तान में...मैं इस दरख़्त ही पर रहूंगा..." बड़ी देर के बाद जब उसका दौरा सर्द पड़ातो वह नीचे उतरा और अपने हिंदू-सिख दोस्तों से गले मिलकर रोने लगा- उसख्याल से उसका दिल भर आया था कि वह उसे छोड़कर हिंदुस्तान चले जाएँगे...एक एमएससी पास रेडियो इंजीनियर में, जो मुसलमान था और दूसरे पागलों सेबिलकुल अलग-थलग बाग़ की एक ख़ास रविश पर सारा दिन ख़ामोश टहलता रहता था,यह तब्दीली नुमूदार हुई कि उसने अपने तमाम कपड़े उतारकर दफ़ेदार के हवालेकर दिए और नंग-धड़ंग सारे बाग़ में चलना-फिरना शुरू कर दिया.चियौट के एक मोटे मुसलमान ने, जो मुस्लिम लीग का सरगर्म कारकुन रह चुकाथा और दिन में 15-16 मर्तबा नहाया करता था, यकलख़्त यह आदत तर्क कर दीउसका नाम मुहम्मद अली था, चुनांचे उसने एक दिन अपने जंगल में एलान करदिया कि वह क़ायदे-आज़म मुहम्मद अली जिन्नाह है; उसकी देखा-देखी एक सिखपागल मास्टर तारा सिंह बन गया- इससे पहले कि ख़ून-ख़राबा हो जाए, दोनोंको ख़तरनाक पागल क़रार देकर अलहदा-अलहदा बंद कर दिया गया.लाहौर का एक नौजवान हिंदू पकील मुहब्बत में नाकाम होकर पागल हो गया; जबउसने सुना कि अमृतसर हिंदुस्तान में चला गया है तो बहुत दुखी हुआ. अमृतसरकी एक हिंदू लड़की से उसे मुहब्बत थी जिसने उसे ठुकरा दिया था मगरदीवानगी की हालत में भी वह उस लड़की को नहीं भूला था-वह उन तमाम हिंदू औरमुसलमान लीडरों को गालियाँ देने लगा जिन्होंने मिल-मिलाकर हिंदुस्तान केदो टुकड़े कर दिए हैं, और उनकी महबूबा हिंदुस्तानी बन गई है और वहपाकिस्तानी…जब तबादले की बात शुरू हुई तो उस वकील को कई पागलों ने समझयाकि दिल बुरा न करे… उसे हिंदुस्तान भेज दिया जाएगा, उसी हिंदुस्तान मेंजहाँ उसकी महबूबा रहती है- मगर वह लाहौर छोड़ना नहीं चाहता था; उसकाख़याल था कि अमृतसर में उसकी प्रैक्टिस नहीं चलेगी.योरोपियन वार्ड मं दो एंग्लो इंडियन पागल थे. उनको जब मालूम हुआ किहिंदुस्तान को आज़ाद करके अंग्रेज़ चले गए हैं तो उनको बहुत सदमा हुआ; वहछुप-छुपकर घंटों आपस में इस अहम मसले पर गुफ़्तुगू करते रहते किपागलख़ाने में अब उनकी हैसियत किस क़िस्म की होगी; योरोपियन वार्ड रहेगाया उड़ा दिया जाएगा; ब्रेक-फ़ास्ट मिला करेगा या नहीं; क्या उन्हें डबलरोटी के बजाय ब्लडी इंडियन चपाटी तो ज़हर मार नहीं करनी पड़ेगी?।।।।।।।।।एक सिख था, जिसे पागलख़ाने में दाख़िल हुए 15 बरस हो चुके थे. हर वक़्तउसकी ज़ुबान से यह अजीबो-ग़रीब अल्फ़ाज़ सुनने में आते थे : "औपड़ दि गड़गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी लालटेन…" वह दिन कोसोता था न रात को.पहरेदारों का यह कहना था कि 15 बरस के तलीव अर्से में वह लहज़े के लिए भीनहीं सोया था; वह लेटता भी नहीं था, अलबत्ता कभी-कभी दीवार के साथ टेकलगा लेता था- हर वक़्त खड़ा रहने से उसके पाँव सूज गए थे और पिंडलियाँ भीफूल गई थीं, मगर जिस्मानी तकलीफ़ के बावजूद वह लेटकर आराम नहीं करता था.हिंदुस्तान, पाकिस्तान और पागलों के तबादले के मुताल्लिक़ जब कभीपागलख़ाने में गुफ़्तुगू होती थी तो वह ग़ौर से सुनता था; कोई उससे पूछताकि उसका क्या ख़याल़ है तो वह बड़ी संजीदगी से जवाब देता : "औपड़ दि गड़गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट…!" लेकिन बाद में "आफ़ दि पाकिस्तान गवर्नमेंट " की जगह "आफ़ दि टोबा सिंहगवर्नमेंट!" ने ले लीहिंदुस्तान, पाकिस्तान और पागलों के तबादले के मुताल्लिक़ जब कभीपागलख़ाने में गुफ़्तुगू होती थी तो वह ग़ौर से सुनता था; कोई उससे पूछताकि उसका क्या ख़याल़ है तो वह बड़ी संजीदगी से जवाब देता : "औपड़ दि गड़गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट…!" लेकिन बाद में "आफ़ दि पाकिस्तान गवर्नमेंट " की जगह "आफ़ दि टोबा सिंहगवर्नमेंट!" ने ले ली, और उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू कर दिया किटोबा टेक सिंह कहाँ है, जहाँ का वह रहने वाला है. किसी को भी मालूम नहींथा कि टोबा सिंह पाकिस्तान में है... या हिंदुस्तान में; जो बताने कीकोशिश करते थे वह ख़ुद इस उलझाव में गिरफ़्तार हो जाते थे कि सियालकोटपहले हिंदुस्तान में होता था, पर अब सुना है पाकिस्तान में है. क्या पताहै कि लाहौर जो आज पाकिस्तान में है... कल हिंदुस्तान में चला जाए... यासारा हिंदुस्तान ही पाकिस्तान बन जाए... और यह भी कौन सीने पर हाथ रखकरकह सकता है कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान, दोनों किसी दिन सिरे से ग़ायब हीहो जाएँ...!इस सिख पागल के केश छिदरे होकर बहुत मुख़्तसर रह गए थे; चूंकि बहुत कमनहाता था, इसलिए दाढ़ी और सिर के बाल आपस में जम गए थे. जिसके बायस उसकीशक्ल बड़ी भयानक हो गई थी; मगर आदमी बे-ज़रर था. 15 बरसों में उसने कभीकिसी से झगड़ा-फसाद नहीं किया था. पागलख़ाने के जो पुराने मुलाज़िम थे,वह उसके मुताल्लिक़ इतना जानते थे कि टोबा टेक सिंह में उसकी कई ज़मीनेंथीं; अच्छा खाता-पीता ज़मींदार था कि अचानक दिमाग़ उलट गया, उसकेरिश्तेदार उसे लोहे की मोटी-मोटी ज़ंजीरों में बाँधकर लाए और पागलख़ानेमें दाख़िल करा गए.महीने में एक मुलाक़ात के लिए यह लोग आते थे और उसकी ख़ैर-ख़ैरियतदरयाफ़्त करके चले जाते थे; एक मुद्दत तक यह सिलसिला जारी रहा, पर जबपाकिस्तान, हिंदुस्तान की गड़बड़ शुरू हुई तो उसका आना-जाना बंद हो गया.उसका नाम बिशन सिंह था मगर सब उसे टोबा टेक सिंह कहते थे. उसको यह क़त्अनमालूम नहीं था कि दिन कौन सा है, महीना कौन सा है या कितने साल बीत चुकेहैं; लेकिन हर महीने जब उसके अज़ीज़ो-अकारिब उससे मिलने के लिए आने केक़रीब होते तो उसे अपने आप पता चल जाता; उस दिन वह अच्छी तरह नहाता, बदनपर ख़ूब साबुन घिसता और बालों में तेल डालकर कंघा करता; अपने वह कपड़े जोवह कभी इस्तेमाल नहीं करता था, निकलवाकर पहनता और यूँ सज-बनकर मिलनेवालों के पास जाता. वह उससे कुछ पूछते तो वह ख़ामोश रहता या कभी-कभार"औपड़ दि गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी लालटेन..."कह देता.उसकी एक लड़की थी जो हर महीने एक ऊँगली बढ़ती-बढ़ती 15 बरसों में जवान होगई थी. बिशन सिंह उसको पहचानता ही नहीं था-वह बच्ची थी जब भी अपने बाप कोदेखकर रोती थी, जवान हुई तब भी उसकी आँखों से आँसू बहते थे.पाकिस्तान और हिंदुस्तान का क़िस्सा शुरू हुआ तो उसने दूसरे पागलों सेपूछना शुरू किया कि टोबा टेक सिंह कहाँ है; जब उसे इत्मीनानबख़्श जवाब नमिला तो उसकी कुरेद दिन-ब-दिन बढ़ती गई. अब मुलाक़ात भी नहीं आती थी;पहले तो उसे अपने आप पता चल जाता था कि मिलनेवाले आ रहे हैं, पर अब जैसेउसके दिल की आवाज़ भी बंद हो गई थी जो उनकी आमद की ख़बर दे दिया करतीथी-उसकी बड़ी ख़्वाहिश थी कि वह लोग आएँ जो उससे हमदर्दी का इज़हार करतेथे और उसके लिए फल, मिठाइयाँ और कपड़े लाते थे. वह आएँ तो वह उनके पूछेकि टोबा टेक सिंह कहाँ है... वह उसे यक़ीनन बता देंगे कि टोबा टेक सिंहवहीं से आते हैं जहाँ उसकी ज़मीनें हैं.पागलख़ाने में एक पागल ऐसा भी था जो ख़ुद को ख़ुदा कहता था. उससे जब एकरोज़ बिशन सिंह ने पूछा कि टोबा टेक सिंह पाकिस्तान में है या हिंदुस्तानमें तो उसने हस्बे-आदत क़हक़हा लगाया और कहा : "वह पाकिस्तान में है नहिंदुस्तान में, इसलिए कि हमने अभी तक हुक्म ही नहीं दिया...!"बिशन सिंह ने उस ख़ुदा से कई मर्तबा बड़ी मिन्नत-समाजत से कहा कि वहहुक्कम दे दे ताकि झंझट ख़त्म हो, मगर ख़ुदा बहुत मसरूफ़ था, इसलिए किउसे और बे-शुमार हुक्म देने थे.एक दिन तंग आकर बिशन सिंह ख़ुदा पर बरस पड़ा: " औपड़ दि गड़ गड़ दिअनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ वाहे गुरु जी दा ख़ालसा एंड वाहेगुरु जी दि फ़तह...!" इसका शायद मतलब था कि तुम मुसलमानों के ख़ुदा हो,सिखों के ख़ुदा होते तो ज़रूर मेरी सुनते.तबादले से कुछ दिन पहले टोबा टेक सिंह का एक मुसलमान जो बिशन सिंह कादोस्त था, मुलाक़ात के लिए आया; मुसलमान दोस्त पहले कभी नहीं आया था. जबबिशन सिंह ने उसे देखा तो एक तरफ़ हट गया, फिर वापिस जाने लगा मगरसिपाहियों ने उसे रोका: "यह तुमसे मिलने आया है...तुम्हारा दोस्तफ़ज़लदीन है...!"बिशन सिंह ने फ़ज़लदीन को एक नज़र देखा और कुछ बड़बड़ाने लगा.बिशन सिंह ने फ़ज़लदीन ने आगे बढ़कर उसके कंधे पर हाथ रखा : "मैं बहुतदिनों से सोच रहा था कि तुमसे मिलूँ लेकिन फ़ुरसत ही न मिली... तुम्हारेसब आदमी ख़ैरियत से हिंदुस्तान चले गए थे... मुझसे जितनी मदद हो सकी,मैंने की... तुम्हारी बेटी रूपकौर..." वह कहते-कहते रुक गया.बिशन सिंह कुछ याद करने लगा : "बेटी रूपकौर..."फ़ज़लदीन ने फिर कहना शुरू किया : उन्होंने मुझे कहा था कि तुम्हारीख़ैर-ख़ैरियत पूछता रहूँ... अब मैंने सुना है कि तुम हिंदुस्तान जा रहेहो... भाई बलबीर सिंह और भाई वधावा सिंह से मेरा सलाम कहना और बहनअमृतकौर से भी... भाई बलबीर से कहना कि फ़ज़लदीन राज़ीख़ुशी है...दो भूरीभैसें जो वह छोड़ गए थे, उनमें से एक ने कट्टा दिया है... दूसरी के कट्टीहुई थी, पर वह 6 दिन की होके मर गई...और... मेरे लायक़ जो ख़िदमत हो,कहना, मैं वक़्त तैयार हूँ... और यह तुम्हारे लिए थोड़े-से मरोंडे लायाहूँ...!"बिशन सिंह ने मरोंडों की पोटली लेकर पास खड़े सिपाही के हवाले कर दी औरफ़ज़लदीन से पूछा : "टोबा टेक सिंह कहाँ है..."फ़ज़लदीन ने क़दरे हैरत से कहा : "कहाँ है... वहीं है, जहाँ था!"बिशन सिंह ने फिर पूछा : "पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में...""हिंदुस्तान में... नहीं, नहीं पाकिस्तान में...! " फ़ज़लदीन बौखला-सागया. बिशन सिंह बड़बड़ाता हुआ चला गया : "औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दिबेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी पाकिस्तान एंड हिंदुस्तान आफ़ दी दुरफ़िटे मुँह...! "तबादले की तैयारियाँ मुकम्मल हो चुकी थीं, इधर से उधर और उधर से इधरआनेवाले पागलों की फ़ेहरिस्तें पहुँच चुकी थीं और तबादले का दिन भीमुक़र्रर हो चुका था.सख़्त सर्दियाँ थीं जब लाहौर के पागलख़ाने से हिंदू-सिख पागलों से भरीहुई लारियाँ पुलिस के मुहाफ़िज़ दस्ते के साथ रवाना हुई, मुताल्लिक़ाअफ़सर भी हमराह थे. वागह के बौर्डर पर तरफ़ैन के सुपरिटेंडेंट एक-दूसरेसे मिले और इब्तिदाई कार्रवाई ख़त्म होने के बाद तबादला शुरू हो गया, जोरात भर जारी रहा.पाकिस्तानी सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और दूसरी तरफ़ ले जाने लगे, मगरउसने चलने से इनकार कर दिया : "टोबा टेक सिंह यहाँ है..! " और ज़ोर-ज़ोरसे चिल्लाने लगा : "औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दिदाल आफ़ दी टोबा टेक सिंह एंड पाकिस्तान...! "पागलों को लारियों से निकालना और उनको दूसरे अफ़सरों के हवाले करना बड़ाकठिन काम था; बाज़ तो बाहर निकलते ही नहीं थे, जो निकलने पर रज़ामंद होतेथे, उनको संभालना मुश्किल हो जाता था, क्योंकि उन्हें फाड़कर अपने तन सेजुदा कर देते-कोई गालियाँ बक रहा है... कोई गा रहा है... कुछ आपस मेंझगड़ रहे हैं... कुछ रो रहे हैं, बिलख रहे हैं-कान पड़ी आवाज़ सुनाई नहींदेती थी- पागल औरतों का शोरो-ग़ोग़ा अलग था, और सर्दी इतनी कड़ाके की थीकि दाँत से दाँत बज रहे थे.पागलों की अक्सरीयत इस तबादले के हक़ में नहीं थी, इसलिए कि उनकी समझ मेंनहीं आ रहा था कि उन्हें अपनी जगह से उख़ाड़कर कहाँ फेंका जा रहा है; वहचंद जो कुछ सोच-समझ सकते थे, "पाकिस्तान : ज़िंदाबाद" और "पाकिस्तान :मुर्दाबाद" के नारे लगा रहे थे ; दो-तीन मर्तबा फ़साद होते-होते बचा,क्योंकि बाज़ मुसलमानों और सिखों को यह नारे सुनकर तैश आ गया था.जब बिशन सिंह की बारी आई और वागन के उस पार का मुताल्लिक़ अफ़सर उसका नामरजिस्टर में दर्ज करने लगा तो उसने पूछा : "टोबा टेक सिंह कहाँ है...पाकिस्तान में या हिंदुस्तान में.... ?"मुताल्लिक़ा अफ़सर हँसा : "पाकिस्तान में...! "यह सुनकर बिशन सिंह उछलकर एक तरफ़ हटा और दौड़कर अपने बाक़ीमादा साथियोंके पास पहुंच गया.पाकिस्तानी सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और दूसरी तरफ़ ले जाने लगे, मगरउसने चलने से इनकार कर दिया : "टोबा टेक सिंह यहाँ है..! " और ज़ोर-ज़ोरसे चिल्लाने लगा : "औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दिदाल आफ़ दी टोबा टेक सिंह एंड पाकिस्तान...! "उसे बहुत समझाया गया कि देखो, अब टोबा टेक सिंह हिंदुस्तान में चलागया... अगर नहीं गया है तो उसे फ़ौरन वहाँ भेज दिया जाएगा, मगर वह नमाना! जब उसको जबर्दस्ती दूसरी तरफ़ ले जाने की कोशिश की गई तो वहदरमियान में एक जगह इस अंदाज़ में अपनी सूजी हुई टाँगों पर खड़ा हो गयाजैसे अब उसे कोई ताक़त नहीं हिला सकेगी... आदमी चूंकि बे-ज़रर था, इसलिएउससे मज़ीद ज़बर्दस्ती न की गई ; उसको वहीं खड़ा रहने दिया गया, औरतबादले का बाक़ी काम होता रहा.सूरज निकलने से पहले साकितो-सामित (बिना हिलेडुले खड़े) बिशन सिंह केहलक़ के एक फ़लक शिगाफ़(गगनभेदी) चीख़ निकली.इधर-उधर से कई अफ़सर दौड़े आए और उन्होंने देखा कि वह आदमी जो 15 बरस तकदिन-रात अपनी दाँगों पर खड़ा रहा था, औंधे मुँह लेटा है-उधर ख़ारदारतारों के पीछे हिंदुस्तान था, इधर वैसे ही तारों के पीछे पाकिस्तान ;दरमियान में ज़मीन के उस टुकड़े पर जिसका कोई नाम नहीं था, टोबा टेक सिंहपड़ा था.

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