08 अप्रैल 2017

लोकतंत्र की नाकामी से उपजता उन्माद



अब तक भेदभाव खत्म हो जाने थे. धर्म और रेस के आधार पर हत्याएं बंद हो जानी थी. तीन सौ बरस से भी पहले दुनिया में आए लोकतंत्र की प्रेक्टिस को इतना तो करना ही था. पर हत्याएं बढ़ गई हैं और नफरत कई गुना ज्यादा उभर कर सामने आ रही है. यह सिर्फ हमारे अपने देश की हालात नहीं हैं, यह पूरी दुनिया में हो रहा है. अमेरिका में भी जहां लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सबसे पहली भागीदारी हुई थी वहां भी लोग इसी तरह की नफरत दिखा रहे हैं. इतने लम्बे वक्त के बाद इस तरह की घटनाओं का होना कहीं न कहीं उस नाकामयाबी को दिखा रहा है जो लोकतंत्र से मिलनी थी. जिन मूल्यों के साथ लोकतंत्र आया था वह घटता जा रहा है. सबके लिए सब बराबर नहीं हो पा रहा. हमें तलाशी लेनी चाहिए. अपने देश के राजनीतिक विकास की, दुनिया के राजनीतिक विकास की. शायद पूरे लोकतंत्र के प्रणाली की ही तलाशी लेनी चाहिए. हमे यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि क्यों समता, समानता और बंधुत्व दुनिया में कमजोर पड़ रहा है.  

अलग-अलग देशों में इसके अलग-अलग रूप देखने को मिल रहे हैं. पर समग्रता में देखें तो लोगों में असहिष्णुता सब जगह बढ़ी है. हाल ही में ट्रंप सरकार आने के बाद अमेरिका में नस्लीय हमले बढ़े हैं. गैर-अमेरिकियों में एक असुरक्षाबोध पैदा हुआ है. जो एक मॉडर्न राष्ट्र के रूप में देखा जाता है और जहां लोग बेहतर जीवन और नौकरियों के लिए जाते रहे हैं रेस आधारित हिंसा और घटनाओं ने वहां लोगों में भय पैदा कर दिया है. ट्रंप जब चुनाव लड़ रहे थे तो उनके चुनावी अभियान में भी यह विभेद उनके भाषणों के तहत देखने में आ रहा था. अमेरिकी और गैर-अमेरिकी को मुद्दा बनाया जा रहा था. शायद वहां के लोगों ने इसे स्वीकार किया और उन्हें अपना मत दिया. जीतने के बाद जिसका प्रतिफल हम देख रहे हैं. लोगों के द्वारा इस तरह की नफरत को स्वीकार किया जाना ही इस बात को दिखाता है कि संरचना के तौर पर एक लोकतांत्रिक व्यवस्था का होना और लोगों में लोकतंत्र के मूल्य का स्थापित हो पाना दोनों अलग-अलग चीजें हो गई हैं. लोगों में वे लोकतांत्रिक मूल्य नहीं निर्मित हो पा रहे हैं जो रेस, जाति, धर्म को बराबरी से देख सकें. सबके साथ समानता का बर्ताव कर सकें.  

अमेरिका में जब दिन्दुस्तानियों पर हमला होता है तो हिन्दुस्तानियों के लिए यह शोक और दुख की बात होती है. उन्हें लगता है कि यह ग़लत हुआ. पर जब हिन्दुस्तान में नाइजिरिया और साउथ अफ्रीकन देशों के लोगों पर हमले होते हैं तो वे इन घटनाओं को ठीक वैसे नहीं देख पाते जैसे कि अमेरिका में गैर-अमेरिकी पर हुए हमले को देखते हैं. महाराष्ट्र में मनसे और शिवसेना बिहारियों के नाम पर उत्तर भारतीयों पर हमले करती रही है. मद्रासी कह के दक्षिण भारतीयों को निशाना बनाया जाता रहा है. नेपाली के नाम पर नॉर्थ-ईस्ट के लोगों को प्रताड़ित किया जाता रहा है. मुसलमानों को तो पूरी दुनिया में अलग-अलग तरह से हमले किए जा रहे हैं. उनके कई मुल्कों को तबाह कर दिया गया. इन सारे हमलों को हम अलग-अलग देशों और अलग-अलग संदर्भों के साथ देख सकते हैं. जबकि हम इसके मूल में जाएंगे तो एक ही कारण समझ में आएगा. बदले हुए अर्थतंत्र ने जो असुरक्षा पैदा की है उस असुरक्षा ने लोगों को उन्मादी बना दिया है. उसी असुरक्षा ने मुल्क की सरकारों को भी उन्मादी बना दिया है. बड़े मुल्क छोटे मुल्कों पर हमले कर रहे हैं और स्थानीय और ताकतवर लोग गैर-स्थानीय और कम ताकतवर पर हमले कर रहे हैं. यह बड़े पैमाने से लेकर छोटे पैमाने पर हितों की लड़ाई है.  

इन हमलों की वजह कई बार बहुत साफ तौर पर दिखती है. कई बार ये हमले बहुत अपरोक्ष होते हैं. कारण कोई और गिनाया जाता है लेकिन उसके पीछे की वजह कोई और ही होती है. इसे हमे समझने की कोशिश करनी चाहिए. पूरे दुनिया के स्तर पर अर्थव्यावस्था इस तरह से गड़बड़ हुई है कि राज्य अपने लोगों को रोजगार देने की स्थिति में नहीं है. दो करोड़ प्रति वर्ष नौकरियों का दावा करने के बाद भी हमारी केन्द्र सरकार कुछ हजार नौकरियां देने में भी असफल रही है. तकनीकी विकास ने कई प्राइवेट संस्थानों व अन्य संस्थाओं में भी नौकरियां कम कर दी हैं. ऐसे में लोग बेरोजगार और बेहाल स्थिति में हैं. कम से कम लोगों द्वारा ज्यादा से ज्यादा काम कराना ही इस मुनाफे की व्यवस्था के लिए लाभकारी है. यह वित्तिय व्यवस्था जितना ज्यादा और बढ़ेगी बड़ी पूजी और कम लोगों के हाथों में सिमटती जाएगी. रोजगार और कम होते जाएंगे. पूजी का डिस्ट्रीब्यूशन भी और कम होता जाएगा.

इस बेहाली के लिए राजनैतिक पार्टियां अलग-अलग तरह के वायदे लेकर आती हैं पर उनके लिए बेरोजगारी को दूर करना मुश्किल हो रहा है. ऐसे में वे बेरोजगारी की वजहों को बदल देती हैं और लोगों को दिग्भ्रमित करने का प्रयास करती हैं. वे यह बताने के बजाय कि राज्य अपनी नीतियों के कारण रोजगार देने में असफल हो रहा है यह बताती हैं कि स्थानीय की नौकरियां गैर-स्थानीय के हाथों में जा रही हैं. इस तरह से स्थानीय और गैर-स्थानीय के बीच एक नफरत को पैदा किया जाता है. सरकार खुद हमले न करके लोगों के भीतर इस तरह का भाव पैदा करती है कि वे ख़तरनाक हो जाते हैं. उन्हें उनका हित जाता हुआ दिखता है. वे सरकार की नीतियों पर सोचने के बजाय दूसरों के लिए नफरत की रणनीतियां तैयार करने लगते हैं. वे उन्मादी हो जाते हैं.
भारत के संदर्भ में यदि हम देखें तो जो उन्माद दिख रहा है वह सिर्फ भाजपा के सत्ता में आने का उन्माद नहीं है. कांग्रेस के वक्त भी वे उन्मादी थे. बस यह उन्माद थोड़ा और बढ़ गया है. अमेरिका से लेकर नोएडा तक और दादरी से लेकर बाबरी तक जो लकीर खींची जा रही है. वह हमारे इतिहास के पन्नों से कई लाइने काट रही है. वह लोकतंत्र और संविधान की लाइन को भी काट रही है जिसके तहत हमे धर्मनिर्पेक्षता और बंधुत्व का एक मूल्य मिला हुआ है. अमरीका में भारतीय महफूज नहीं हैं. यह हमे अपने मुल्क में रहते हुए दिखता है. जबकि अमेरिका से कई देश महफूज नहीं हैं. क्योंकि बड़ी अर्थव्यवस्था को बनाना और उसे टिकाए रखने के लिए जरूरी हो गया है कि किसी न किसी तरीके से गैर मुल्कों पर कब्जेदारी बनी रहे. वहां के संसाधनों को अपने लिए उपयोग किया जा सके.

लोकतंत्र और उसके बाद ग्लोबलाइजेशन का यह परिणाम तो नहीं सोचा गया था कि अमेरिका में गैर अमरीकी मारा जाएगा. अस्ट्रेलिया में भारतीय मारा जाएगा. और भारत में नाइजीरियन और साउथ अफ्रीकन मारा जाएगा. यह सब कबीलाई समाजों के इतिहास सा हो रहा है. जो अपने कबीले में दूसरे कबीले को नहीं घुसने देते थे. पर फिर से हमारे समाजों में हत्या और नफरत के जो आधार बन रहे हैं वे ऐसा समाज बना रहे हैं जहां ग्लोबलाइजेशन भी है और कबीले का पुरानापन भी है.

2 टिप्‍पणियां: