आनंद तेलतुंबड़े बता रहे हैं कि किस तरह नोटबंदी के फैसले ने लोगों के लिए अभूतपूर्व परेशानियां खड़ी की हैं और यह भाजपा के लिए वाटरलू साबित होनेवाली है. अनुवाद: रेयाज़ उल हक
प्रधानमंत्री मोदी द्वारा 500 और 1000 रुपए के करेंसी नोटों को बंद करने के फैसले से होने वाली तबाही और मौतों की खबरें पूरे देश भर से आ रही हैं. एक ऐसे देश में जहां कुल लेनदेन का 97 फीसदी नकदी के ज़रिए किया जाता है, कुल करेंसी में से 86.4 फीसदी मूल्य के नोटों को अचानक बंद करने से अफरा-तफरी पैदा होना लाजिमी था. अभी तक 70 मौतों की खबरें आ चुकी हैं. पूरी की पूरी असंगठित अर्थव्यवस्था ठप पड़ी हुई है, जो भारत की कुल कार्यशक्ति के 94 फीसदी और सकल घरेलू उत्पाद का 46 फीसदी का हिस्सेदार है. पहले से बदहाली झेल रही ग्रामीण जनता इस बात से डरी हुई है कि उसके बचाए हुए पैसे रद्दी कागज में तब्दील हो रहे हैं. उनमें से कइयों ने तो कभी बैंक का मुंह भी नहीं देखा है. बैंकों के बाहर अपनी खून-पसीने की कमाई को पकड़े हुए लोगों की लंबी कतारें पूरे देश भर में देखी जा सकती हैं. मध्य वर्ग और मोदी भक्तों की शुरुआती खुशी हकीकत की कठोर जमीन पर चकनाचूर हो गई. लेकिन अब तक की सबसे कठोर टिप्पणी मनमोहन सिंह की ओर से आई है, जिनके पास रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के पूर्व गवर्नर, पूर्व वित्त मंत्री और दो बार पूर्व प्रधानमंत्री रहने के नाते मोदी के इस तुगलकी फरमान का जायजा लेने के लिहाज से एक ऐसी साख है जो और किसी के पास नहीं है. उन्होंने नोटबंदी के इस कदम को “भारी कुप्रबंधन” कहा और इसे “व्यवस्थित लूट और कानूनी डाके” का मामला बताते हुए राज्य सभा उन्होंने कहा कि यह देश के जीडीपी को दो फीसदी नीचे ले जाएगा. ऐसा कहने वाले वे अकेले नहीं हैं. अर्थशास्त्रियों, जानकारों और चिंतकों की एक बड़ी संख्या ने भारत की वृद्धि में गिरावट की आशंका जताई है. उनमें से कुछ ने 31 मार्च 2017 को खत्म हो रही छमाही के लिए इसमें 0.5 फीसदी गिरावट आने का अनुमान लगाया है. लेकिन आत्ममुग्ध मोदी पर इन सबका कोई असर नहीं पड़ेगा, उल्टे वह उन सभी लोगों को राष्ट्र-विरोधी बता देंगे जो इस तबाही लाने वाले कदम पर सवाल उठा रहे हैं. यह सब देख कर सैमुअल जॉनसन की वह मशहूर बात याद आती है कि देशभक्ति लुच्चे-लफंगों की आखिरी पनाहगाह होती है.
इस अजीबोगरीब दुस्साहस के असली मकसद के बारे में किसी को कोई संदेह नहीं है. यह उत्तर प्रदेश, पंजाब, गोवा और मणिपुर में आनेवाले चुनावों के लिए उनकी छवि को मजबूत करने के लिए चली गई एक तिकड़म थी. चुनाव के पहले किए गए सभी वादे अधूरे हैं, तथाकथित सर्जिकल स्ट्राइक समेत उनके सभी कदम बुरी तरह नाकाम रहे हैं, जनता खाली जुमलेबाजियों और बड़बोलेपन से ऊब गई है. ऐसे में अब कुछ नाटकीय हरकत जरूरी थी. विपक्षी दल चुनावों के दौरान जनता को मोदी के इस चुनावी वादे की याद जरूर दिलाते कि उन्होंने 100 दिनों के भीतर स्विस बैंकों में जमा सारा गैरकानूनी धन लाकर हरेक के खाते में 15 लाख रुपए डालने की बात की थी. यह कार्रवाई यकीनन इस दलील की हवा निकालने के लिए और यह दिखाने के लिए ही की गई कि सरकार अर्थव्यवस्था को भ्रष्टाचार मुक्त करने के लिए साहसिक कदम उठाने की ठान चुकी है. अफसोस कि इसने पलट कर उन्हीं को बुरी तरह नुकसान पहुंचाया. इसने लोगों के लिए जैसी अभूतपूर्व परेशानियां खड़ी की हैं, उससे यह बात पक्की है कि इससे भाजपा को आने वाले चुनावों में भारी नुकसान उठाना पड़ेगा. भले ही वह विपक्षी दलों की जमा नकदी को रद्दी बना देने और इस तरह उन्हें कमजोर करने में कामयाब रही है.
जाली अर्थव्यवस्था
मोदी ने गैरकानूनी धन और भ्रष्टाचार पर चोट करने, नकली नोटों के नाकाम करने और आतंक पर नकेल कसने का दावा किया है. अब तक अनेक अर्थशास्त्रियों ने इन दावों की बेईमानी को बखूबी उजागर किया है. जैसा कि छापेमारी के आंकड़े दिखाते हैं, आय से अधिक संपत्तियों में नकदी का हिस्सा महज 5 फीसदी है. इनमें जेवर भी शामिल हैं जिनका हिसाब नकदी के रूप में लगाया जाता है. अगर नोटबंदी का कोई असर पड़ा भी तो इससे गैरकानूनी धन का बहुत छोटा सा हिस्से प्रभावित होगा. यह थोड़ी सी नकदी अमीरों के हाथ में होती है, जो इसका इस्तेमाल गैर कानूनी धन को पैदा करने और चलाने वाली विशालकाय मशीन के कल-पुर्जों में चिकनाई के रूप में करते हैं. गैरकानूनी धन असल से कम या ज्यादा बिलों वाली विदेशी गतिविधियों (बिजनेसमेन), किराए, निवेश और बॉन्ड आदि गतिविधियों (राजनेता, पुलिस, नौकरशाह) और आमदनी छुपाने के अनेक तरीकों (रियल एस्टेट कारोबारी, निजी अस्पताल, शिक्षा के सेठ) के जरिए बनाया जाता है. इस धन को कानूनी बनाने के अनेक उपाय हैं, जिनका इस्तेमाल करते हुए छुटभैयों (कागजों पर चलने वाली अनेक खैराती संस्थाएं यही काम करती हैं) से लेकर बड़ी मछलियां तक करों की छूट वाले देशों के जरिए भारत में सीधे विदेशी निवेश के रूप में वापस ले आती हैं. गैर कानूनी धन पैदा करने और चलाने के इन उपायों पर नोटबंदी का कोई असर नहीं पड़ेगा.
नोटबंदी से नकली नोटों की समस्या पर काबू पाया जा सकता है, अगर यह उतनी बड़ी समस्या हो. लेकिन कोलकाता स्थित भारतीय सांख्यिकी संस्थान (आईएसआई) की रिपोर्ट के मुताबिक जितनी करेंसी चलन में है, उसका महज 0.002 फीसदी मूल्य के नोट यानी 400 करोड़ रुपए ही नकली नोटों में हैं, जो इतने ज्यादा नहीं है कि उनसे अर्थव्यवस्था की सेहत पर कोई असर पड़े. आईएसआई रिपोर्ट में कभी भी नकली नोटों से निजात पाने के लिए नोटबंदी का सुझाव नहीं दिया. अगर सरकार को नकली नोटों की चिंता थी, तो नोटबंदी के बाद आने वाले नए नोटों में सुरक्षा के बेहतर उपाय होते. लेकिन ऐसा भी नहीं किया गया. रिजर्व बैंक ने खुद कबूल किया है कि 2000 के नए नोटों को बिना किसी अतिरिक्त सुरक्षा विशेषता के ही जारी किया जा रहा है. आतंकवादियों के पैसों की दलील पूरी तरह खोखली है. अगर आतंकवादियों के पास नकदी हासिल करने का कोई ज़रिया है, तो वे नए नोटों से निबटने के रास्ते भी उनके पास होंगे. इस तरह नोटबंदी के पीछे मोदी के आर्थिक दावे पूरी तरह धोखेबाजी हैं. इसके अलावा नए नोटों को छापने पर अंदाजन 15,000-18,000 करोड़ रुपए का खर्च अलग से हुआ और फिर हंगामे से अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान भी हुआ और यह स्थिति तब तक बनी रहेगी जब हालात स्थिर नहीं होते.
‘स्वच्छ भारत’
शगूफे छोड़ते हुए मोदी ने नोटबंदी के फैसले को अपने स्वच्छ भारत अभियान से जोड़ दिया, जबकि उन्हें अच्छी तरह पता है कि इस अभियान का भी कोई खास नतीजा नहीं निकल पाया है. अगर उन्होंने इस अभियान पर खर्च होने वाली कुल रकम का आधा भी भारत को रहने के लायक बनाने वाले दलितों को दे दिया होता तो बहुत कुछ हासिल किया जा सकता था. लेकिन जहां दलितों द्वारा मैला ढोने की प्रथा के खात्मे की मांग के लिए संघर्ष जारी है, मोदी अपने स्वच्छ भारत का ढोल पीट रहे हैं. वे भारत को भ्रष्टाचार और गंदे धन से मुक्त कराने का दावा करते हैं. उनके सत्ता में आने के लिए वोट मिलने की वजहों में से एक संप्रग दो सरकार के दौरान घोटालों की लहर भी थी, जिसका कारगर तरीके से इस्तेमाल करते हुए उन्होंने देश को पारदर्शी बनाने और ‘बहुत कम सरकारी दखल के साथ अधिकतम प्रशासन’ का वादा किया था. वे अपना आधा कार्यकाल बिता चुके हैं और उनके शासन में ऊंचे किस्म के भ्रष्टाचार की फसल भरपूर लहलहाती हुई दिख रही है. भ्रष्टाचार के मुहाने यानी राजनीतिक दल अभी भी अपारदर्शी हैं और सूचना का अधिकार के दायरे से बाहर हैं. ‘पनामा लिस्ट’ में दिए गए 648 गद्दारों के नाम अभी भी जारी नहीं किए गए हैं. उनकी सरकार ने बैंकों द्वारा दिए गए 1.14 लाख करोड़ रुपए के कॉरपोरेट कर्जों को नन परफॉर्मिंग असेट्स (एनपीए) कह कर माफ कर दिया है. सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का एनपीए 11 लाख करोड़ है, लेकिन कॉरपोरेट लुटेरों के खिलाफ कोई भी कार्रवाई नहीं की जा रही है. कॉरपोरेट अरबपतियों का सीधा कर बकाया 5 लाख करोड़ से ऊपर चला गया है, लेकिन मोदी ने कभी भी इसके खिलाफ ज़ुबान तक नहीं खोली. पिछले दशक के दौरान उनको करों से छूट 40 लाख करोड़ से ऊपर चली गई, जिसकी सालाना दर मोदी के कार्यकाल के दौरान 6 लाख करोड़ को पार कर चुकी है, जो संप्रग सरकार के दौरान 5 लाख करोड़ थी. मोदी अपने आप में कॉरपोरेट भ्रष्टाचार के भारी समर्थक रहे हैं, जो गैरकानूनी धन का असली जन्मदाता है.
यहां तक कि यह भी संदेह किया जा रहा है कि नोटबंदी में भी भारी भ्रष्टाचार हुआ है. इस फैसले को लेकर जो नाटकीय गोपनीयता बरती गई, वह असल में लोगों को दिखाने के लिए थी. इस फैसले के बारे में भाजपा के अंदरूनी दायरे को पहले से ही पता था, जिसमें राजनेता, नौकरशाह और बिजनेसमेन शामिल हैं. इसको 30 सितंबर को खत्म होने वाली तिमाही के दौरान बैंकों में पैसे जमा करने में आने वाली उछाल में साफ-साफ देखा जा सकता है. खबरों के मुताबिक भाजपा की पश्चिम बंगाल ईकाई ने घोषणा से कुछ घंटों पहले अपने बैंक खाते में कुल 3 करोड़ रुपए जमा किए. एक भाजपा नेता ने नोटबंदी के काफी पहले ही 2000 रु. के नोटों की गड्डियों की तस्वीरें पोस्ट कर दी थी और एक डिजिटल पेमेंट कंपनी ने 8 नवंबर 2016 की रात 8 बजे होने वाली घोषणा की अगली सुबह एक अखबार में नोटबंदी की तारीफ करते हुए पूरे पन्ने का विज्ञापन प्रकाशिक कराया. असल में, नोटबंदी ने बंद किए गए नोटों को कमीशन पर बदलने का एक नया धंधा ही शुरू कर दिया है. इसलिए इसमें कोई हैरानी नहीं है कि ट्रांस्पेरेंसी इंटरनेशनल द्वारा भारत की रैंकिंग में मोदी के राज में कोई बदलाव नहीं आया है जो 168 देशों में 76वें स्थान पर बना हुआ है.
आत्ममुग्ध बेवकूफी
सिर्फ एक पक्का आत्ममुग्ध ही ऐसी बेवकूफी कर सकता है. इससे भारत के संस्थागत चरित्र का भी पता लगता है, जो सत्ता के आगे झुकने को तैयार रहता है. मोदी को छोड़ दीजिए, यह वित मंत्रालय के दिग्गजों और खास कर आरबीआई के गवर्नर उर्जित पटेल की हैसियत को भी उजागर करता है, जो न सिर्फ अपने पद की प्रतिष्ठा को बनाए रखने में नाकाम रहे हैं, बल्कि जिन्होंने यह बदनामी भी हासिल की है कि वे पेशेवर रूप से अक्षमता हैं. ऐसा मुमकिन नहीं होगा कि आरबीआई के मुद्रा विशेषज्ञ इस फैसले के दोषपूर्ण हिसाब-किताब को नहीं देख पाए होंगे, लेकिन जाहिर है कि वे साहेब की मर्जी के आगे झुक गए. नोटबंदी भ्रष्टाचार का इलाज नहीं है, लेकिन इतिहास में कई शासक इसे आजमा चुके हैं. हालांकि उन्होंने जनता के पैसे के साथ इसे कभी नहीं आजमाया. आखिरी बार मोरारजी देसाई ने 1978 में 1000 रुपए के नोट को बंद किया था, जो आम जनता के बीच आम तौर पर चलन में नहीं था. अपनी क्रयशक्ति में यह आज के 15,000 रुपयों के बराबर था. यह तब प्रचलित धन का महज 0.6 फीसदी था, जबकि आज की नोटबंदी ने कुल प्रचलित धन के 86.4 फीसदी को प्रभावित किया है.
अपनी विदेश यात्राओं के दौरान मोदी हमेशा ही अपनी जन धन योजना की उपलब्धियों की शेखी बघारते रहे हैं, जो संप्रग सरकार की वित्तीय समावेश नीतियों का ही महज एक विस्तार है. उन्होंने सिर्फ गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रेकॉर्ड्स के लिए बैंकों को खाते खोलने पर मजबूर किया. जुलाई 2015 में किए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक 33 फीसदी ग्राहकों ने बताया कि जन धन योजना का खाता उनका पहला खाता नहीं था और विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक 72 फीसदी खातों में एक भी पैसा नहीं था. विश्व बैंक-गैलप ग्लोबल फिनडेक्स सर्वे द्वारा किए गए एक और सर्वेक्षण में दिखाया गया कि कुल बैंक खातों का करीब 43 फीसदी निष्क्रिय खाते हैं. यहां तक कि रिजर्व बैंक भी कहता है कि सिर्फ 53 फीसदी भारतीयों के पास बैंक खाते हैं और उनका सचमुच उपयोग करने वालों की संख्या इससे भी कम है. ज्यादातर बैंक शाखाएं पहली और दूसरी श्रेणी के शहरों में स्थित हैं और व्यापक ग्रामीण इलाके में सेवाएं बहुत कम हैं. ऐसे हालात में सिर्फ एक आत्ममुग्ध इंसान ही होगा जो भारत में बिना नकदी वाली एक कैशलेस अर्थव्यवस्था के सपने पर फिदा होगा. यह सोचना भारी बेवकूफी होगी कि ऐसे फैसलों से भाजपा लोगों का प्यार पा सकेगी.
कहने की जरूरत नहीं है कि दलितों और आदिवासियों जैसे निचले तबकों के लोगों को इससे सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा है और वे भाजपा को इसके लिए कभी माफ नहीं करेंगे. भाजपा ने अपने हनुमानों (अपने दलित नेताओं) के जरिए यह बात फैलाने की कोशिश की है कि नोटबंदी का फैसला असल में बाबासाहेब आंबेडकर की सलाह के मुताबिक लिया गया था. यह एक सफेद झूठ है. लेकिन अगर आंबेडकर ने किसी संदर्भ में ऐसी बात कही भी थी, तो क्या इससे जनता की वास्तविक मुश्किलें खत्म हो सकती हैं या क्या इससे हकीकत बदल जाएगी? बल्कि बेहतर होता कि भाजपा ने आंबेडकर की इस अहम सलाह पर गौर किया होता कि राजनीति में अपने कद से बड़े बना दिए गए नेता लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा होते हैं.
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