हम डरे हुए हैं. डरे हुए
वे भी हैं. हमारा यह वक्त डरे हुओं का वक्त है. वे डरे हुए हैं कि अब भी हम बचे
हुए हैं. हम, जो उनके झूठ को सच कहने से इनकार कर रहे हैं. वे जिसे नायक और नायक
से महानायक कह रहे हैं. हम उसे अपराधी और हत्यारा लिख रहे हैं. उनकी बढ़ी हुई ताकतें
हमारे साहस को कम न पर पा रहीं. वे हमारी यादों से गुजरात और गुजरात जैसी कई रात
की कालिख़ मिटाना चाहते हैं और हम उस कालिख़ को अपने दवात की स्याही बनाना चाहते
हैं.
हम जो हमारी उम्र में
राष्ट्रद्रोही होने की सोच में ऊब रहे हैं. हम जो जाने कितनी फाजिल की बहसों में
हर रोज डूब रहे हैं. हम जिनकी डायरियों में कुछ और लिखा जाना था. कुछ और कहा जाना
था. जहां पुरानी प्रेमिकाओं की यादें उतरनी थी. उन डायरियों में उनके फैलाए जा रहे
झूठ से फैली परेशानियां उतर रही हैं. ऐसे ही वक्त की यह डायरी है. जिसे दोस्त
मिथिलेश प्रियदर्शी ने लिखा है. जेएनयू वाली ‘एन्टीनेशनल’ डायरी. जे.एन.यू. के उन
दिनों को बयान करती हुई जब अपने दोस्तों को जेएनयू का सच बताना ‘पाकिस्तान’ हो
जाना था. जिसका एक छोटा हिस्सा यहां पढ़ सकते हैं. बाकी पूरा पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.
डायरी का एक हिस्सा
कैलेंडर की हर तारीख के पास बताने के लिए बहुत कुछ महत्वपूर्ण नहीं
होता. पर जेएनयू के 9 फरवरी के हिस्से कुछ ऐसा आया था, जिसके बारे में सभी जानना
चाहते थे.
यह साबरमती ढाबे की घटना थी. ‘ढाबा संस्कृति’ जेएनयू की जान है.
जेएनयू से अगर ढाबों को हटा दिया जाए तो जेएनयू उतना ही बचेगा जितना गीत हटा देने
के बाद बिहार की शादियां. बहसों-मुबाहिसों के केंद्र ये ढाबे शाम होते ही जीवंत हो
उठते हैं, जो देर रात तक गतिशील रहते हैं. बैठकें, पोस्टर-प्रदर्शनी, विरोध
प्रदर्शन, नुक्कड़-नाटक, गीत-संगीत आदि कई सारे कार्यक्रम इन्हीं ढाबों पर होते
हैं. खुले आसमान के नीचे अच्छी संख्या में चाय-पकौड़ियां टूंगते विद्यार्थी इन
कार्यक्रमों में हमेशा मौजूद होते हैं.
9 फरवरी को साबरमती ढाबे पर कश्मीर को लेकर एक कार्यक्रम था, ‘द कंट्री विदाउट अ
पोस्ट ऑफिस’. यह शीर्षक आगा शाहिद अली के 1997 में आये कविता संग्रह से
लिया गया था. 1990 में कश्मीर में करीब सात महीनों तक कोई चिट्ठी नहीं
बांटी गयी थी. यह ठीक आज के उन हालातों की तरह था, जब मोबाईल और इंटरनेट की सुविधा
घाटी में कभी भी बंद कर दी जाती है, व्हाट्सअप ग्रुप रजिस्टर करवाने के लिए थाने
को बताना पड़ता है, मोबाईल से सामूहिक संदेशों का भेजा जाना रोक दिया जाता है और
कश्मीर पूरी दुनिया से कटकर एक टापू में तब्दील हो जाता है. उस रोज़ उस कार्यक्रम में कश्मीर
में मौजूदा नारकीय जीवन से मुक्ति के लिए गीत गाए जा रहे थे. घाटी के गायब हुए उन
युवाओं को याद किया जा रहा था, जो अपने पीछे एक अंतहीन और बेहद दर्दीला इंतज़ार छोड़
अनुपस्थित हो गए हैं. उन आधी विधवाओं को याद किया जा रहा था, जिन्हें यह तक नहीं
मालूम कि उनके पति ज़िंदा भी हैं या नहीं. सेना द्वारा कश्मीरियों पर किये जा रहे
अत्याचारों, बलात्कार और छद्म मुठभेड़ों पर बात हो रही थी, जो इस कदर आम है कि
यह बच्चों के खेल में शामिल हो गया है. साथ ही, अफ़जल की फांसी पर बात हो रही थी,
जिसे इस
देश के ‘सामूहिक अंतःकरण की संतुष्टि’ के लिए मार दिया गया. आफ्सपा पर बात हो
रही थी, जिसके अमानवीय कानूनों ने कश्मीरियों का जीवन सीमित कर दिया है. इस
कार्यक्रम में कई लोग आफ़्सपा, सेना की ज्यादतियों, बलात्कार के मामले, अफ़जल
आदि के मसलों पर सहमति की वजह से इसमें शामिल हुए थे जो जेएनयू की जनवादी राजनीतिक
परम्परा के अनुरूप था. इस मामले में जेनयू की एक 'वाल्तेयराना' परम्परा
रही है कि तमाम असहमतियों के बावज़ूद किसी के अपनी बात रखने के अधिकार की रक्षा के
लिए लोग खड़े होते हैं. खासकर, किसी भी कार्यक्रम में एबीवीपी की गुंडई से
होने वाले व्यवधानों से बचाने की एक ज़िम्मेदारी के तहत भी दूसरे छात्र संगठन घेरा
बनाकर उसमें शामिल होते हैं. इस कार्यक्रम में भी वाम संगठनों की भागीदारी की
मुख्य वज़ह जेएनयू की यही 'वाल्तेयराना' परम्परा थी. पिछले साल 'मुज़फ्फरनगर
बाकी है' डाक्यूमेंट्री का प्रदर्शन भी इसी वजह से हो पाया था. अन्यथा
एबीवीपी की संघी मानसिकता जेएनयू में इस किस्म का एक कार्यक्रम न होने दे.
इधर गीत गाये जा रहे थे, गिटार बजाया जा रहा था, उधर एबीवीपी के
सदस्य इस कार्यक्रम के ख़िलाफ़ ढाबे के बगल की सड़क पर बैठकर प्रदर्शन कर रहे थे. वे
बेहद आक्रामक अंदाज़ में 'खून बहेगा सड़कों पर, जो अफ़जल की बात करेगा, वो
अफ़जल की मौत मरेगा, कश्मीर मांगोगे तो चीर देंगे’ जैसे नारे लगा रहे थे. पर
इसी बीच कुछ ऐसा हुआ कि जेएनयू पर हमले के लिए तैयार बैठे लोगों को मौक़ा मिल गया.
अब तक ढाबे पर झुटपुटा सा अंधेरा उतर गया था. अचानक कार्यक्रम में
चार-पांच लोगों का एक समूह नमूदार होता है. उनके चेहरे रूमाल से ढंके होते हैं. वो
एक छोटा सा घेरा बनाते हैं और नारे लगाने लगते हैं. कश्मीर की आज़ादी के लिए नारे
लगाता वह समूह अचानक भारत की बर्बादी के नारे लगाने लगता है. बस यहीं से सब कुछ
बदल जाता है. वहां मौजूद लोग असहज हो उठते हैं. उन्हें रोका जाता है. सब एक दूसरे
से उनकी बाबत पूछ रहे होते हैं. उनके किसी अन्य विभाग/सेंटर से होने का अनुमान लगा
रहे होते हैं पर उनके बारे में ठीक-ठीक कोई नहीं जानता. बाद में स्पष्ट होता है,
वो यहाँ किसी सेंटर के नहीं थे. तब सवाल आता है, वो कौन थे और कहां से आये थे और
कहाँ गायब हो गए?
इस बीच कार्यक्रम एक जुलूस में तब्दील हो जाता है, जिसे गंगा ढाबा
पर समाप्त होना होता है. देखादेखी एबीवीपी के लोग भी ‘मार देंगे, काट देंगे,
गोलियों से आरती करेंगे’ जैसी धमकियों वाले नारे लगाते हुए सामानांतर जुलूस
निकालते हैं. जुलूस के दौरान बार-बार टकराव की स्थिति आती है. जुलूस के समापन के
साथ ही उस वक्त तो यह मामला ख़त्म हो जाता है. यही जेएनयू की संस्कृति भी है. यहाँ
हर कोई अपनी बात रखने को स्वतन्त्र है. लोग धैर्य से सुनते हैं, अगर सहमत हुए तो
तालियाँ बजाकर उत्साहवर्धन करते हैं, अन्यथा मुस्कुराकर चल देते हैं. और मामला
खत्म हो जाता है. पर इस बार यह महज़ जेएनयू के भीतर की बात नहीं थी. दिलचस्पी लेने
वाले लोग बाहर के थे. इस पूरे प्रकरण में जी न्यूज का एक रिपोर्टर वहां शुरू से ही
मौजूद होता है, जो एबीवीपी के आमंत्रण पर आता है. दिलचस्प सवाल यह कि इन्हें कैसे
पता होता है कि जेएनयू में कुछ बिल्कुल अलग घटने जा रहा है? दिल्ली के एक भाजपा
नेता जेएनयू में हुए कार्यक्रम को लेकर तुरंत एक मुकदमा लिखवा देते हैं. और
कार्रवाई के मामले में ‘सेलेक्टिव कैरेक्टर’ वाली पुलिस फ़ौरन से पेश्तर जेएनयू
छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार को गिरफ्तार कर लेती है.
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