- दिलीप ख़ान
ट्राई ने 12 अगस्त को मीडिया ओनरशिप पर लंबी-चौड़ी रिपोर्ट दी जिस पर मीडिया में चर्चा नहीं हुई। फोटो- मिंट से साभार |
भारत में मीडिया को लेकर हाल के वर्षों में जो चिंता जताई गई है उस पर मीडिया के बाहर और भीतर लगातार चर्चा हुई, लेकिन उसे दुरुस्त करने की दिशा में कदम ना के बराबर उठे। पिछले पांच-छह वर्षों में बड़े निगमों ने जिस स्तर पर मीडिया में निवेश किया है उसकी वजह से इसका चरित्र भी तेज़ी से बदला है। बिल्कुल नई क़िस्म की चुनौतियां इसके सामने खड़ी हुईं जो पहले या तो नहीं थीं, या फिर थीं भी तो सतह पर नहीं दिखती थीं। लेकिन इसके सूक्ष्म चारित्रिक बदलाव को अगर छोड़ भी दें तो तीन-चार ऐसे विचलन हैं जो असल में मीडिया की संरचना के साथ सीधे तौर पर जुड़े हुए हैं। इनमें मीडिया के मालिकाने में आया बदलाव, निजी संधियां और पेड न्यूज़ सबसे अहम हैं। इन तीन समस्याओं के इर्द-गिर्द ही बाक़ी मुश्किलों की झोपड़ियां बसती हैं। इन तीनों के संबंध को भी अगर आपस में तलाशा जाए तो मीडिया ओनरशिप सबसे अहम चुनौती के तौर पर दिखता है। अब सवाल ये है कि जब मीडिया में इन बदलावों को साफ़ तौर पर चौतरफ़ा नोटिस किया जा रहा है तो इस पर लगाम कसने की कोई ठोस रणनीति क्यों नहीं बन पा रही? क्या सरकार और संसद की तरफ़ से कोताही बरती जा रही है या फिर मीडिया नाम के उद्योग की संरचना को लेकर ये पसोपेश कायम है कि इसे बाक़ी उद्योगों से अलग किस रूप में अलगाया जाए? ज़्यादा पीछे ना जाए तो पिछले 6 साल में संसद, सरकार और इसके अलावा कुछ अन्य महत्वपूर्ण संस्थाओं ने मीडिया को लेकर दर्ज़न भर से ज़्यादा रिपोर्ट्स जारी की हैं, पचासों टिप्पणियां की हैं और सैंकड़ों बार चिंता जताई हैं।
अभी हाल में 12 अगस्त को भारतीय दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण (ट्राई) ने मीडिया ओनरशिप पर अपनी सिफ़ारिश सूचना और प्रसारण मंत्रालय को सौंप दी। इस मसले पर ट्राई का ये तीसरा अध्ययन है। सबसे पहले साल 2008 में मंत्रालय ने ट्राई को मीडिया ओनरशिप के पैटर्न का अध्यन करने के बाद सुझाव देने को कहा था। 25 फ़रवरी 2009 को प्राधिकरण ने मीडिया पर चंद लोगों के नियंत्रण से उपजे हालात और क्रॉस मीडिया ओनरशिप पर अपने सुझाव सौंप दिए। इसमें ख़ास तौर पर क्रॉस मीडिया ओनरशिप के ख़तरों से मंत्रालय को अवगत कराया गया था और बताया गया था कि देश के भीतर इसके चलते ख़बरों और विचारों की बहुलता किस तरह प्रभावित हो रही है। साथ ही विदेशों में इस पर बने नियम-क़ायदों से भी मंत्रालय को अवगत कराया गया था। 16 मई 2012 को मंत्रालय ने ट्राई को अपने इन सुझावों का पुनर्वालोकन करने को कहा जिसमें कुछ तकनीकी मसलों पर विस्तार देने की बात अंतर्निहित थी।
मूल रूप से जनसत्ता में प्रकाशित |
देश में अख़बारों, टीवी चैनलों और रेडियो स्टेशनों की बड़ी तादाद के बावजूद ये महसूस किया गया है कि असर और प्रसार के मामले में सब बराबर नहीं हैं। प्राधिकरण ने भी अपनी रिपोर्ट में इस बात का ज़िक्र किया है। रिपोर्ट में दिल्ली से निकलने वाले अख़बारों के उदाहरण से बताया गया है कि भले ही यहां दर्जन भर से ज़्यादा अख़बार निकलते हो, लेकिन दो-तीन अख़बार यहां के बाज़ार पर वर्चस्व बनाए हुए है, इसलिए उसकी तुलना छोटे-मझोले अख़बारों से करना ख़बरों की विविधता के अर्थ में बेमानी है। विविधता के मसले और कॉरपोरेट ओनरशिप के साथ-साथ धार्मिक व्यक्तियों और संस्थाओं तथा राजनीतिक ओनरशिप पर विस्तार से टिप्पणी की गई है। ये बात देश में अब शिद्दत से महसूस की जा रही है कि यदि किसी ख़ास राजनीतिक पार्टी से जुड़े किसी व्यक्ति के हाथ में मीडिया हो तो वो उसका इस्तेमाल अपनी छवि चमकाने या फिर विरोधी पार्टी के ख़िलाफ़ प्रोपेगैंडा के लिए करता है। आंध्र प्रदेश में दो-तीन महीने पहले टीवी चैनलों और केबल प्रसारण पर राजनीतिक पार्टियों के बीच तकरार इतना तेज़ हो गया था कि तेलंगाना और आंध्र के कुछ इलाकों में हिंसक झड़पों के साथ-साथ ये मसला संसद में भी उठा। राजनीतिक मालिकाने को आम तौर पर दक्षिण भारत और उत्तर पूर्व के साथ लोग जोड़कर देखते हैं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में ये अख़िल भारतीय चलन के तौर पर उभरा है।
रिलायंस का 'इंडिपेंडेंट मीडिया ट्रस्ट' क्रॉस मीडिया ओनरशिप की बड़ी मिसाल है। फोटो- इंडिया टुडे से साभार |
पार्टी मुखपत्र को लोग उसी राजनीतिक दायरे और पार्टी लाइन का मानते हुए पढ़ते हैं, लिहाजा मुखपत्र में छपी बातों पर वो अपने तर्कों के ज़रिए राजनीतिक विभेद ढूंढ लेते हैं, लेकिन सामान्य समाचार मीडिया ने जो अपनी साख स्थापित की है, उसमें सेंधमारी के ज़रिए अगर कोई राजनेता ख़बरों को मरोड़ता है तो एक दर्शक/पाठक के लिए उसको नकार पाना बहुत मुश्किल होता है। लेकिन ये सब ना सिर्फ़ जारी है, बल्कि इसे लगातार विस्तार दिया जा रहा है। ट्राई की सिफ़ारिश में इसको तत्काल प्रभाव से बंद करने की बात कही गई है और बताया गया है कि अगर पहले से कोई ऐसा मीडिया चालू हालात में है तो उसे बंद करने के रास्ते निकाले जाए।
रिपोर्ट में होरिजोंटल और वर्टिकल क्रॉस मीडिया ओनरशिप पर भी एक हद तक पाबंदी की बात कही गई है। इसमें दो-तीन फॉर्मूलों के जरिए नियंत्रण की बात कही गई है और सुझाया गया है कि अगर प्रसारण और वितरण दोनों में किसी समूह का 32 प्रतिशत से ज़्यादा शेयर है तो किसी एक में उसे घटाकर 20 प्रतिशत के स्तर तक लाना होगा। इसी तरह अगर एक से अधिक मीडिया में उसका निवेश है तो उसे ‘प्रासंगिक बाज़ार में उसके असर’ को देखते हुए कतरा जाना चाहिए। प्रासंगिक बाज़ार की परिभाषा इस तरह की है कि अगर कोई मीडिया तेलुगू माध्यम का है तो ग़ैर-तेलुगू लोगों के लिए उसका कोई महत्व नहीं है, क्योंकि वो मीडिया ग़ैर-तेलुगू भाषी लोगों को प्रभावित नहीं कर सकता। इसलिए भाषावार और क्षेत्रवार ऐसे प्रासंगिक बाज़ार तलाशे गए हैं। इसमें हिंदी बाज़ार के दायरे में 10 राज्यों को रखा गया है। लेकिन मुश्किल ये है कि प्राधिकरण की इस सिफ़ारिश से छोटे बाज़ार में सक्रिय मीडिया उद्यमियों पर तो लगाम लग जाएगा, लेकिन जो बड़े समूह है और जिनका एक साथ हिंदी, अंग्रेज़ी से लेकर दो-तीन भाषाओं के बाज़ार में दख़ल है उसके लिए मुश्किल उतनी बड़ी नहीं होगी क्योंकि उनके लिए हर बाज़ार में अलग-अलग हिस्सा तय होगा।
मीडिया में जिस तरह गुपचुप तरीके से निवेश का चलन बढ़ा है उससे कई दफ़ा असली मालिक का पता लगाना मुश्किल हो जाता है। इसको देखते हुए भारतीय प्रतियोगिता आयोग ने रिलायंस के मीडिया समूह इंडिपेंडेंट मीडिया ट्रस्ट का उदाहरण देते हुए दो साल पहले ये कहा था कि मीडिया उद्योग में ‘नियंत्रण’ को भी ओनरशिप की तरह देखा जाना चाहिए। अगर अध्ययनों का ही ज़िक्र किया जाए तो भारतीय प्रेस परिषद की 2009 में आई पेड न्यूज़ की रिपोर्ट के बाद संसद की स्थायी समिति ने पिछले साल इसी मसले पर लंबी-चौड़ी रिपोर्ट सौंपी। विधि आयोग ने मई 2014 में इस पर एक परामर्श पत्र दिया। एडमिनिस्ट्रेटिव स्टाफ कॉलेज ऑफ इंडिया ने अपने अध्ययन के ज़रिए इस पर रोशनी डाली। भारतीय प्रतियोगिता आयोग ने इस चलन पर नए क़िस्म के तौर-तरीके अपनाने की वकालत की।
एक ही मालिक के हाथ में सारे मीडिया होने के चलते विचारों की बहुलता ख़त्म हो रही |
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