आनंद तेलतुंबड़े ने
अपने इस लेख में बसपा की पराजय का आकलन करते हुए एक तरफ मौजूदा व्यवस्था
के जनविरोधी चेहरे और दूसरी तरफ उत्पीड़ित जनता के लिए पहचान की राजनीति के
खतरों के बारे में बात की है. अनुवाद: रेयाज उल हक
पिछले आम चुनाव हैरानी से भरे हुए रहे, हालांकि पहले से यह अंदाजा लगाया गया था कि कांग्रेस के नतृत्व वाला संप्रग हारेगा और भाजपा के नेतृत्व वाला राजग सत्ता में आने वाला है. वैसे तो चुनावों से पहले और बाद के सभी सर्वेक्षणों ने भी इसी से मिलते जुलते राष्ट्रीय मिजाज की पुष्टि की थी, तब भी नतीजे आने के पहले तक भाजपा द्वारा इतने आराम से 272 का जादुई आंकड़ा पार करने और संप्रग की सीटें 300 के पार चली जाने की अपेक्षा बहुत कम लोगों ने ही की होगी. खैर, भाजपा ने 282 सीटें हासिल कीं और संप्रग को 336 सीटें. महाराष्ट्र में शरद पवार, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह, बिहार में नीतीश कुमार जैसे अनेक क्षेत्रीय क्षत्रप मुंह के बल गिरे. लेकिन अब तक चुनाव नतीजों का सबसे बड़ा धक्का यह रहा कि बहुजन समाज पार्टी का उत्तर प्रदेश की अपनी जमीन पर ही पूरी तरह सफाया हो गया. लोग तो यह कल्पना कर रहे थे, और बसपा के नेता इस पर यकीन भी कर रहे थे, कि अगर संप्रग 272 सीटें हासिल करने नाकाम रहा तो इसके नतीजे में पैदा होने वाली राजनीतिक उथल-पुथल में मायावती हैरानी में डालते हुए देश की प्रधानमंत्री तक बन सकती हैं. इस कल्पना को मद्देनजर रखें तो बसपा का सफाया स्तब्ध कर देने वाला है. आखिर हुआ क्या?
नतीजे आने के बाद एक संवाददाता सम्मेलन में मायावती ने दावा किया कि दलितों और निचली जातियों में उनका जनाधार बरकरार है और चुनावों में खराब प्रदर्शन की वजह भाजपा द्वारा किया गया सांप्रदायिक ध्रुवीकरण है. उन्होंने कहा कि जबकि ऊंची जातियों और पिछड़ी जातियों को भाजपा ने अपनी तरफ खींच लिया और मुसलमान समाजवादी पार्टी की वजह से बिखर गए. बहरहाल उन्होंने इसके बारे में कोई व्याख्या नहीं दी कि ये चुनावी खेल अनुचित कैसे थे. मतों के प्रतिशत के लिहाज से यह सच है कि बसपा उत्तर प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर पर तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है. राष्ट्रीय स्तर पर इसे 2.29 करोड़ वोट मिले जो कुल मतों का 4.1 फीसदी है. 31.0 फीसदी मतों के साथ भाजपा और 19.3 फीसदी मतों के साथ इससे आगे हैं और 3.8 फीसदी मतों के साथ सापेक्षिक रूप से एक नई पार्टी ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस इससे पीछे है. 15वीं लोकसभा में बसपा की 21 सीटें थीं जिनमें से 20 अकेले उत्तर प्रदेश से थीं. बसपा से कम मत प्रतिशत वाली अनेक पार्टियों ने इससे कहीं ज्यादा सीटें जीती हैं. मिसाल के लिए तृणमूल कांग्रेस को मिले 3.8 फीसदी मतों ने उसे 34 सीटें दिलाई हैं और ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम को इससे भी कम 3.3 फीसदी मतों पर तृणमूल से भी ज्यादा, 37 सीटें मिली हैं. यहां तक कि आम आदमी पार्टी (आप) महज 2.0 फीसदी मतों के साथ चार सीटें जीतने में कामयाब रही. उत्तर प्रदेश में बसपा को 19.6 फीसदी मत मिले हैं जो भाजपा के 42.3 फीसदी और सपा के 22.2 फीसदी के बाद तीसरी सबसे बड़ी हिस्सेदारी है. इसमें भी एक खास बात है: चुनाव आयोग के आंकड़े दिखाते हैं कि बसपा इस विशाल राज्य की 80 सीटों में 33 पर दूसरे स्थान पर रही.
लेकिन देश में तीसरी सबसे ज्यादा वोट पाने वाली पार्टी का संसद में कोई वजूद नहीं होने की सबसे बड़ी वजह हमारी चुनावी व्यवस्था है, जिसके बारे में बसपा कभी भी कोई शिकायत नहीं करेगी. सबसे ज्यादा वोट पाने वाले उम्मीदवार को विजेता घोषित करने वाली यह चुनावी व्यवस्था (एफपीटीपी) हमें हमेशा ही हैरान करती रही है, इस बार इसने कुछ ज्यादा ही हैरान किया. भाजपा कुल डाले गए वोटों में से महज 31.0 फीसदी के साथ कुल सीटों का 52 फीसदी यानी 282 सीटें जीत सकी. चुनाव आयोग के आंकड़े के मुताबिक कुल 66.36 फीसदी वोट डाले गए, इसका मतलब है कि भाजपा को जितने वोट मिले उनमें कुल मतदाताओं के महज पांचवें हिस्से (20.5 फीसदी) ने भाजपा को वोट दिया. इसके बावजूद भाजपा का आधी से ज्यादा सीटों पर कब्जा है. इसके उलट, हालांकि बसपा तीसरे स्थान पर आई लेकिन उसके पास एक भी सीट नहीं है. जैसा कि मैं हमेशा से कहता आया हूं, एफपीटीपी को चुनने के पीछे हमारे देश के शासक वर्ग की बहुत सोची समझी साजिश रही है. तबके ब्रिटिश साम्राज्य के ज्यादातर उपनिवेशों ने इसी चुनाव व्यवस्था को अपनाया. लेकिन एक ऐसे देश में जो निराशाजनक तरीके से जातियों, समुदायों, नस्लों, भाषाओं, इलाकों और धर्मों वगैरह में ऊपर से नीचे तक ऊंच-नीच के क्रम के साथ बंटा हुआ है, राजनीति में दबदबे को किसी दूसरी चुनावी पद्धति के जरिए यकीनी नहीं बनाया जा सकता था. एफपीटीपी हमेशा इस दबदबे को बनाए रखने में धांधली की गुंजाइश लेकर आती है. इस बात के व्यावहारिक नतीजे के रूप में राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस या भाजपा का दबदबा इसका सबूत है. अगर मिसाल के लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व (पीआर) व्यवस्था अपनाई गई होती, जो प्रातिनिधिक लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं द्वारा चुनावों के लिए अपनाई गई अधिक लोकप्रिय और अधिक कारगर व्यवस्था है, तो सभी छोटे समूहों को अपना ‘स्वतंत्र’ प्रतिनिधित्व मिला होता जो इस दबदबे के लिए हमेशा एक खतरा बना रहता. दलितों के संदर्भ में, इसने आरक्षण कहे जाने वाले सामाजिक न्याय के बहुप्रशंसित औजार की जरूरत को भी खत्म कर दिया होता, जिसने सिर्फ उनके अस्तित्व के अपमानजनक मुहावरे का ही काम किया है. कोई भी दलित पार्टी एफपीटीपी व्यवस्था के खिलाफ आवाज नहीं उठाएगी. बसपा तो और भी नहीं. क्योंकि यह उन सबके नेताओं को अपने फायदे के लिए धांधली करने में उसी तरह सक्षम बनाती है, जैसा यह शासक वर्गीय पार्टियों को बनाती आई है.
दूसरी वजह पहचान की राजनीति का संकट है, जिसने इस बार पहचान की राजनीति करने वाली बसपा से इसकी एक भारी कीमत वसूली है. बसपा की पूरी कामयाबी उत्तर प्रदेश में दलितों की अनोखी जनसांख्यिकीय उपस्थिति पर निर्भर रही है, जिसमें एक अकेली दलित जाति जाटव-चमार कुल दलित आबादी का 57 फीसदी है. इसके बाद पासी दलित जाति का नंबर आता है, जिसकी आबादी 16 फीसदी है. यह दूसरे राज्यों के उलट है, जहां पहली दो या तीन दलित जातियों की आबादी के बीच इतना भारी फर्क नहीं होता है. इससे वे प्रतिद्वंद्वी बन जाते हैं, जिनमें से एक आंबेडकर के साथ खुद को जोड़ता है तो दूसरा जगजीवन राम या किसी और के साथ. लेकिन उत्तर प्रदेश में जाटवों और पासियों के बीच में इतने बड़े फर्क के साथ इस तरह की कोई प्रतिद्वंद्विता नहीं है और वे एक साझे जातीय हित के साथ राजनीतिक रूप से एकजुट हो सकते हैं. इसके बाद की तीन दलित जातियों – धोबी, कोरी और वाल्मीकि – को भी उनके साथ मिला दें तो वे कुल दलित आबादी का 87.5 फीसदी बनते हैं, जो राज्य की कुल आबादी की 18.9 फीसदी आबादी है. कुल मतदाताओं में भी इन पांचों जातियों का मिला जुला प्रतिशत भी इसी के आसपास होगा. यह बसपा का मुख्य जनाधार है. इन चुनावी नतीजों में कुल वोटों में बसपा का 19.6 फीसदी वोट हासिल करना दिखाता है कि बसपा का मुख्य जनाधार कमोबेश बरकरार रहा होगा.
दूसरे राज्यों के दलितों के उलट जाटव-चमार बाबासाहेब आंबेडकर के दिनों से ही आर्थिक रूप से अच्छे और राजनीतिक रूप से अधिक संगठित रहे हैं. 1957 में आरपीआई के गठन के बाद, आरपीआई के पास महाराष्ट्र के बाद उत्तर प्रदेश में सबसे मजबूत इलाके रहे हैं, कई बार तो महाराष्ट्र से भी ज्यादा. यह स्थिति आरपीआई के टूटने तक रही. महाराष्ट्र में आरपीआई के नेताओं की गलत कारगुजारियों के नक्शेकदम पर चलते हुए उत्तर प्रदेश में आरपीआई के दिग्गजों बुद्ध प्रिय मौर्य और संघ प्रिय गौतम भी क्रमश: कांग्रेस और भाजपा के साथ गए. इस तरह जब कांशीराम ने उत्तर प्रदेश में कदम रखे तो एक दशक या उससे भी अधिक समय से वहां नेतृत्व का अभाव था. उनकी रणनीतिक सूझ बूझ ने उनकी बहुजन राजनीति की संभावनाओं को फौरन भांप लिया. उन्होंने और मायावती ने दलितों को फिर से एकजुट करने और पिछड़ों और मुसलमानों के गरीब तबकों को आकर्षित करने के लिए भारी मेहनत की. जब वे असल में अपनी इस रणनीति की कामयाबी को दिखा पाए, तो उन्होंने पहले से अच्छी तरह स्थापित दलों को एक कड़ी टक्कर दी और उसके बाद सीटें जीतने में कामयाब रहे. इससे राजनीतिक रूप से अब तक किनारे पर रहे सामाजिक समूह भी बसपा के जुलूस में शामिल हो गए. मायावती ने यहां से शुरुआत की और उस खेल को उन्होंने समझदारी के साथ खेला, जो उनके अनुभवी सलाहकार ने उन्हें सिखाया था. जब वे भाजपा के समर्थन के साथ मुख्यमंत्री बनीं, तो इससे बसपा और अधिक मजबूत हुई. ताकत के इस रुतबे पर मायावतीं अपने फायदे के लिए दूसरे राजनीतिक दलों के साथ बातचीत करने लगीं.
कुछ समझदार दलित बुद्धिजीवियों ने इस पर अफसोस जाहिर किया है कि बसपा ने दलितों के उत्थान के लिए कुछ नहीं किया है. लेकिन इस मामले की असल बात यह है कि इस खेल का तर्क बसपा को ऐसा करने की इजाजत नहीं देता है. जैसे कि शासक वर्गीय दलों के लिए यह बेहद जरूरी है कि वे जनसमुदाय को पिछड़ेपन और गरीबी में बनाए रखें, मायावती ने यही तरीका अख्तियार करते हुए उत्तर प्रदेश में दलितों को असुरक्षित स्थिति में बनाए रखा. वे भव्य स्मारक बना सकती थीं, दलित नायकों की प्रतिमाएं लगवा सकती थीं, चीजों के नाम उन नायकों के नाम पर रख सकती थीं और दलितों में अपनी पहचान पर गर्व करने का जहर भर सकती थीं लेकिन वे उनकी भौतिक हालत को बेहतर नहीं बना सकती थीं वरना ऐसे कदम से पैदा होने वाले अंतर्विरोध जाति की सोची-समझी बुनियाद को तहस नहस कर सकते थे. स्मारक वगैरह बसपा की जीत में योगदान करते रहे औऱ इस तरह उनकी घटक जातियों तथा समुदायों द्वारा हिचक के साथ वे कबूल कर लिए गए. लेकिन भेद पैदा करने वाला भौतिक लाभ समाज में ऐसी न पाटी जा सकने वाली खाई पैदा करता, जिसे राजनीतिक रूप से काबू में नहीं किया सकता. इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि एक दलित या गरीब परस्त एजेंडा नहीं बनाया जा सकता था. राजनीतिक सीमाओं के बावजूद वे दिखा सकती थीं कि एक ‘दलित की बेटी’ गरीब जनता के लिए क्या कर सकती है. लेकिन उन्होंने न केवल अवसरों को गंवाया बल्कि उन्होंने लोगों के भरोसे और समर्थन का अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया.
बाद में उनकी बढ़ी हुई महत्वाकांक्षाएं उन्हें बहुजन से सर्वजन तक ले गईं, जिसमें उन्होंने अपना रुख पलटते दिया और उनमें दलितों के लिए जो भी थोड़ा बहुत सरोकार बचा था, उसे और खत्म कर दिया. तब अनेक विश्लेषकों ने यह अंदाजा लगाया था कि दलित मतदाता बसपा से अलग हो जाएंगे, लेकिन दलित उन्हें हैरानी में डालते हुए मायावती के साथ पहले के मुकाबले अधिक मजबूती से खड़े हुए और उन्हें 2007 की अभूतपूर्व सफलता दिलाई. इसने केवल दलितों की असुरक्षा को ही उजागर किया. वे बसपा से दूर नहीं जा सकते, भले ही इसकी मुखिया चाहे जो कहें या करें, क्योंकि उन्हें डर था कि बसपा के सुरक्षात्मक कवच के बगैर उन्हें गांवों में सपा समर्थकों के हमले का सामना करना पड़ेगा. अगर मायावती इस पर गर्व करती हैं कि उनके दलित मतदाता अभी भी उनके प्रति आस्थावान हैं तो इसका श्रेय मायावती को ही जाता है कि उन्हें दलितों को इतना असुरक्षित बना दिया है कि वे इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं अपना सकते. निश्चित रूप से इस बार भाजपा ने कुछ दलित जातियों को लुभाया है और वे संभवत: गोंड, धानुक, खटिक, रावत, बहेलिया, खरवार, कोल आदि हाशिए की जातियां होंगी जो दलित आबादी का 9.5 फीसदी हिस्सा हैं. मुसलमान भी ऐसे ही एक और असुरक्षित समुदाय हैं जिन्हें हमेशा अपने बचाव कवच के बारे में सोचना पड़ता है. इस बार बढ़ रही मोदी लहर और घटती हुई बसपा की संभावनाओं को देखते हुए वे सपा के इर्द-गिर्द जमा हुए थे उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ा. 2007 के चुनावों में उत्तर प्रदेश की सियासी दुनिया में फिर से दावेदारी जताने को बेकरार ब्राह्मणों समेत ये सभी जातियां बसपा की पीठ पर सवार हुईं और उन्होंने बसपा को एक भारी जीत दिलाई थी, लेकिन बसपा उनकी उम्मीदों पर खरी नहीं उतर सकी. तब वे उससे दूर जाने लगे जिसका नतीजा दो बरसों के भीतर, 2009 के आम चुनावों में दिखा जब बसपा की कुल वोटों में हिस्सेदारी 2007 के 30.46 फीसदी से गिरकर 2009 में 27.42 फीसदी रह गई. इस तरह 3.02 फीसदी वोटों का उसे नुकसान उठाना पड़ा. तीन बरसों में यह नुकसान 1.52 फीसदी और बढ़ा और 2012 के विधानसभा चुनावों में कुल वोटों की हिस्सेदारी गिरकर 25.90 पर आ गई. और अब 2014 में यह 19.60 फीसदी रह गई है जो कि 6.30 फीसदी की गिरावट है. यह साफ साफ दिखाता है कि दूसरी जातियां और अल्पसंख्यक तेजी से बसपा का साथ छोड़ रहे हैं और यह आने वाले दिनों की सूचना दे रहा है जब धीरे धीरे दलित भी उन्हीं के नक्शेकदम पर चलेंगे. असल में मायावती की आंखें इसी बात से खुल जानी चाहिए कि उनका राष्ट्रीय वोट प्रतिशत 2009 के 6.17 से गिर कर इस बार सिर्फ 4.1 फीसदी रह गया है.
जबकि जाटव-चमार वोट उनके साथ बने हुए दिख रहे हैं, तो यह सवाल पैदा होता है कि वे कब तक उनके साथ बने रहेंगे. मायावती उनकी असुरक्षा को बेधड़क इस्तेमाल कर रही हैं. न केवल वे बसपा के टिकट ऊंची बोली लगाने वालों को बेचती रही हैं, बल्कि उन्होंने एक ऐसा अहंकार भी विकसित कर लिया है कि वे दलित वोटों को किसी को भी हस्तांतरित कर सकती हैं. उन्होंने आंबेडकरी आंदोलन की विरासत को छोड़ कर 2002 के बाद के चुनावों में मोदी के लिए प्रचार किया जब पूरी दुनिया मुसलमानों के जनसंहार के लिए उन्हें गुनहगार ठहरा रही थी. उन्होंने अपने राजनीतिक गुरु कांशीराम के ‘तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’ जैसे नारों को भी छोड़ दिया और मौकापरस्त तरीके से ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है’ जैसे नारे चलाए. लोगों को कुछ समय के लिए पहचान का जहर पिलाया जा सकता है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे बेवकूफ हैं. लोगों को मायावती की खोखली राजनीति का अहसास होने लगा है और वे धीरे धीरे बसपा से दूर जाने लगे हैं. उन्होंने मायावती को चार बार उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया लेकिन उन्होंने जनता को सिर्फ पिछड़ा बनाए रखने का काम किया और अपने शासनकालों में उन्हें और असुरक्षित बना कर रख दिया. उत्तर प्रदेश के दलित विकास के मानकों पर दूसरे राज्यों के दलितों से कहीं अधिक पिछड़े बने हुए हैं, बस बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश और राजस्थान के दलित ही उनसे ज्यादा पिछड़े हैं. मायावती ने भ्रष्टाचार और पतनशील सामंती संस्कृति को बढ़ाना देने में नए मुकाम हासिल किए हैं, जो कि बाबासाहेब आंबेडकर की राजनीति के उल्टा है जिनके नाम पर उन्होंने अपना पूरा कारोबार खड़ा किया है. उत्तर प्रदेश दलितों पर उत्पीड़न के मामले में नंबर एक राज्य बना हुआ है. यह मायावती ही थीं, जिनमें यह बेहद गैर कानूनी निर्देश जारी करने का अविवेक था कि बिना जिलाधिकारी की इजाजत के दलितों पर उत्पीड़न का कोई भी मामला उत्पीड़न अधिनियम के तहत दर्ज नहीं किया जाए. ऐसा करने वाली वे पहली मुख्यमंत्री थीं.
जातीय राजनीति की कामयाबी ने बसपा को इस कदर अंधा कर दिया था कि वह समाज में हो रहे भारी बदलावों को महसूस नहीं कर पाई. नई पीढ़ी उस संकट की आग को महसूस कर ही है जिसे नवउदारवादी आर्थिक नीतियों ने उनके लिए पैदा की हैं. देश में बिना रोजगार पैदा किए वृद्धि हो रही है, और सेवा क्षेत्र में जो भी थोड़े बहुत रोजगार पैदा हो रहा है उन्हें बहुत कम वेतन वाले अनौपचारिक क्षेत्र में धकेल दिया जा रहा है. सार्वजनिक और सरकारी क्षेत्रों के सिकुड़ने से आरक्षण दिनों दिन अप्रासंगिक होते जा रहे हैं. दूसरी तरफ सूचनाओं में तेजी से हो रहे इजाफे के कारण नई पीढ़ी की उम्मीदें बढ़ती जा रही हैं. उन्हें जातिगत भेदभाव की वैसी आग नहीं झेलनी पड़ी है जैसी उनके मां-बाप ने झेली थी. इसलिए वे ऊंची जातियों के बारे में पेश की जाने वाली बुरी छवि को अपने अनुभवों के साथ जोड़ पाने में नाकाम रहते हैं. उनमें से अनेक बिना दिक्कत के ऊंची जातियों के अपने दोस्तों के साथ घुलमिल रहे हैं. हालांकि वे अपने समाज से रिश्ता नहीं तोड़ेंगे लेकिन जब कोई विकास के बारे में बात करेगा तो यह उन्हें अपनी तरफ खींचेगा. और यह खिंचाव पहचान संबंधी उन बातों से कहीं ज्यादा असरदार होगा जिसे वे सुनते आए हैं. दलित नौजवान उदारवादी संस्कृति से बचे नहीं रह सकते हैं, बल्कि उन्हें व्यक्तिवाद, उपभोक्तावाद, उपयोगवाद वगैरह उन पर असर डाल रहे हैं, इनकी गति हो सकता है कि धीमी हो. यहां तक कि गांवों में भीतर ही भीतर आए बदलावों ने निर्वाचन क्षेत्रों की जटिलता को बदल दिया है, जिसे हालिया अभियानों में भाजपा ने बड़ी महारत से इस्तेमाल किया जबकि बसपा और सपा अपनी पुरानी शैली की जातीय और सामुदायिक लफ्फाजी में फंसे रहे. बसपा का उत्तर प्रदेश के नौजवान दलित मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाना साफ साफ दिखाता है कि दलित वोटों में 1.61 करोड़ के कुल इजाफे में से केवल 9 लाख ने ही बसपा को वोट दिया.
भाजपा और आरएसएस ने मिल कर दलित और पिछड़ी जातियों के वोटों को हथियाने की जो आक्रामक रणनीति अपनाई, उसका असर भी बसपा के प्रदर्शन पर दिखा है. उत्तर प्रदेश में भाजपा के अभियान के संयोजक अमित शाह ने आरएसएस के कैडरों के साथ मिल कर विभिन्न जातीय नेताओं और संघों के साथ व्यापक बातचीत की कवायद की. शाह ने मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक हमले का इस्तेमाल पिछड़ी जातियों को अपने पक्ष में लुभाने के लिए किया. उसने मोदी की जाति का इस्तेमाल ओबीसी वोटों को उत्साहित करने के लिए किया कि उनमें से ही एक इंसान भारत का प्रधानमंत्री बनने जा रहा है. इस रणनीति ने उन इलाकों की पिछड़ी जातियों में सपा की अपील को कमजोर किया, जो सपा का गढ़ मानी जाती थीं. इस रणनीति का एक हिस्सा बसपा के दलित आधार में से गैर-जाटव जातियों को अलग करना भी था. भाजपा ने जिस तरह से विकास पर जोर दिया और अपनी सुनियोजित प्रचार रणनीति के तहत बसपा की मौकापरस्त जातीय राजनीति को उजागर किया, उसने भी बसपा की हार में एक असरदार भूमिका अदा की. लेकिन किसी भी चीज से ज्यादा, बसपा की अपनी कारगुजारियां ही इसकी बदतरी की जिम्मेदार हैं. यह उम्मीद की जा सकती है कि इससे पहले कि बहुत देर हो जाए बसपा आत्मविश्लेषण करेगी और खुद में सुधार करेगी.
पिछले आम चुनाव हैरानी से भरे हुए रहे, हालांकि पहले से यह अंदाजा लगाया गया था कि कांग्रेस के नतृत्व वाला संप्रग हारेगा और भाजपा के नेतृत्व वाला राजग सत्ता में आने वाला है. वैसे तो चुनावों से पहले और बाद के सभी सर्वेक्षणों ने भी इसी से मिलते जुलते राष्ट्रीय मिजाज की पुष्टि की थी, तब भी नतीजे आने के पहले तक भाजपा द्वारा इतने आराम से 272 का जादुई आंकड़ा पार करने और संप्रग की सीटें 300 के पार चली जाने की अपेक्षा बहुत कम लोगों ने ही की होगी. खैर, भाजपा ने 282 सीटें हासिल कीं और संप्रग को 336 सीटें. महाराष्ट्र में शरद पवार, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह, बिहार में नीतीश कुमार जैसे अनेक क्षेत्रीय क्षत्रप मुंह के बल गिरे. लेकिन अब तक चुनाव नतीजों का सबसे बड़ा धक्का यह रहा कि बहुजन समाज पार्टी का उत्तर प्रदेश की अपनी जमीन पर ही पूरी तरह सफाया हो गया. लोग तो यह कल्पना कर रहे थे, और बसपा के नेता इस पर यकीन भी कर रहे थे, कि अगर संप्रग 272 सीटें हासिल करने नाकाम रहा तो इसके नतीजे में पैदा होने वाली राजनीतिक उथल-पुथल में मायावती हैरानी में डालते हुए देश की प्रधानमंत्री तक बन सकती हैं. इस कल्पना को मद्देनजर रखें तो बसपा का सफाया स्तब्ध कर देने वाला है. आखिर हुआ क्या?
नतीजे आने के बाद एक संवाददाता सम्मेलन में मायावती ने दावा किया कि दलितों और निचली जातियों में उनका जनाधार बरकरार है और चुनावों में खराब प्रदर्शन की वजह भाजपा द्वारा किया गया सांप्रदायिक ध्रुवीकरण है. उन्होंने कहा कि जबकि ऊंची जातियों और पिछड़ी जातियों को भाजपा ने अपनी तरफ खींच लिया और मुसलमान समाजवादी पार्टी की वजह से बिखर गए. बहरहाल उन्होंने इसके बारे में कोई व्याख्या नहीं दी कि ये चुनावी खेल अनुचित कैसे थे. मतों के प्रतिशत के लिहाज से यह सच है कि बसपा उत्तर प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर पर तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है. राष्ट्रीय स्तर पर इसे 2.29 करोड़ वोट मिले जो कुल मतों का 4.1 फीसदी है. 31.0 फीसदी मतों के साथ भाजपा और 19.3 फीसदी मतों के साथ इससे आगे हैं और 3.8 फीसदी मतों के साथ सापेक्षिक रूप से एक नई पार्टी ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस इससे पीछे है. 15वीं लोकसभा में बसपा की 21 सीटें थीं जिनमें से 20 अकेले उत्तर प्रदेश से थीं. बसपा से कम मत प्रतिशत वाली अनेक पार्टियों ने इससे कहीं ज्यादा सीटें जीती हैं. मिसाल के लिए तृणमूल कांग्रेस को मिले 3.8 फीसदी मतों ने उसे 34 सीटें दिलाई हैं और ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम को इससे भी कम 3.3 फीसदी मतों पर तृणमूल से भी ज्यादा, 37 सीटें मिली हैं. यहां तक कि आम आदमी पार्टी (आप) महज 2.0 फीसदी मतों के साथ चार सीटें जीतने में कामयाब रही. उत्तर प्रदेश में बसपा को 19.6 फीसदी मत मिले हैं जो भाजपा के 42.3 फीसदी और सपा के 22.2 फीसदी के बाद तीसरी सबसे बड़ी हिस्सेदारी है. इसमें भी एक खास बात है: चुनाव आयोग के आंकड़े दिखाते हैं कि बसपा इस विशाल राज्य की 80 सीटों में 33 पर दूसरे स्थान पर रही.
लेकिन देश में तीसरी सबसे ज्यादा वोट पाने वाली पार्टी का संसद में कोई वजूद नहीं होने की सबसे बड़ी वजह हमारी चुनावी व्यवस्था है, जिसके बारे में बसपा कभी भी कोई शिकायत नहीं करेगी. सबसे ज्यादा वोट पाने वाले उम्मीदवार को विजेता घोषित करने वाली यह चुनावी व्यवस्था (एफपीटीपी) हमें हमेशा ही हैरान करती रही है, इस बार इसने कुछ ज्यादा ही हैरान किया. भाजपा कुल डाले गए वोटों में से महज 31.0 फीसदी के साथ कुल सीटों का 52 फीसदी यानी 282 सीटें जीत सकी. चुनाव आयोग के आंकड़े के मुताबिक कुल 66.36 फीसदी वोट डाले गए, इसका मतलब है कि भाजपा को जितने वोट मिले उनमें कुल मतदाताओं के महज पांचवें हिस्से (20.5 फीसदी) ने भाजपा को वोट दिया. इसके बावजूद भाजपा का आधी से ज्यादा सीटों पर कब्जा है. इसके उलट, हालांकि बसपा तीसरे स्थान पर आई लेकिन उसके पास एक भी सीट नहीं है. जैसा कि मैं हमेशा से कहता आया हूं, एफपीटीपी को चुनने के पीछे हमारे देश के शासक वर्ग की बहुत सोची समझी साजिश रही है. तबके ब्रिटिश साम्राज्य के ज्यादातर उपनिवेशों ने इसी चुनाव व्यवस्था को अपनाया. लेकिन एक ऐसे देश में जो निराशाजनक तरीके से जातियों, समुदायों, नस्लों, भाषाओं, इलाकों और धर्मों वगैरह में ऊपर से नीचे तक ऊंच-नीच के क्रम के साथ बंटा हुआ है, राजनीति में दबदबे को किसी दूसरी चुनावी पद्धति के जरिए यकीनी नहीं बनाया जा सकता था. एफपीटीपी हमेशा इस दबदबे को बनाए रखने में धांधली की गुंजाइश लेकर आती है. इस बात के व्यावहारिक नतीजे के रूप में राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस या भाजपा का दबदबा इसका सबूत है. अगर मिसाल के लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व (पीआर) व्यवस्था अपनाई गई होती, जो प्रातिनिधिक लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं द्वारा चुनावों के लिए अपनाई गई अधिक लोकप्रिय और अधिक कारगर व्यवस्था है, तो सभी छोटे समूहों को अपना ‘स्वतंत्र’ प्रतिनिधित्व मिला होता जो इस दबदबे के लिए हमेशा एक खतरा बना रहता. दलितों के संदर्भ में, इसने आरक्षण कहे जाने वाले सामाजिक न्याय के बहुप्रशंसित औजार की जरूरत को भी खत्म कर दिया होता, जिसने सिर्फ उनके अस्तित्व के अपमानजनक मुहावरे का ही काम किया है. कोई भी दलित पार्टी एफपीटीपी व्यवस्था के खिलाफ आवाज नहीं उठाएगी. बसपा तो और भी नहीं. क्योंकि यह उन सबके नेताओं को अपने फायदे के लिए धांधली करने में उसी तरह सक्षम बनाती है, जैसा यह शासक वर्गीय पार्टियों को बनाती आई है.
दूसरी वजह पहचान की राजनीति का संकट है, जिसने इस बार पहचान की राजनीति करने वाली बसपा से इसकी एक भारी कीमत वसूली है. बसपा की पूरी कामयाबी उत्तर प्रदेश में दलितों की अनोखी जनसांख्यिकीय उपस्थिति पर निर्भर रही है, जिसमें एक अकेली दलित जाति जाटव-चमार कुल दलित आबादी का 57 फीसदी है. इसके बाद पासी दलित जाति का नंबर आता है, जिसकी आबादी 16 फीसदी है. यह दूसरे राज्यों के उलट है, जहां पहली दो या तीन दलित जातियों की आबादी के बीच इतना भारी फर्क नहीं होता है. इससे वे प्रतिद्वंद्वी बन जाते हैं, जिनमें से एक आंबेडकर के साथ खुद को जोड़ता है तो दूसरा जगजीवन राम या किसी और के साथ. लेकिन उत्तर प्रदेश में जाटवों और पासियों के बीच में इतने बड़े फर्क के साथ इस तरह की कोई प्रतिद्वंद्विता नहीं है और वे एक साझे जातीय हित के साथ राजनीतिक रूप से एकजुट हो सकते हैं. इसके बाद की तीन दलित जातियों – धोबी, कोरी और वाल्मीकि – को भी उनके साथ मिला दें तो वे कुल दलित आबादी का 87.5 फीसदी बनते हैं, जो राज्य की कुल आबादी की 18.9 फीसदी आबादी है. कुल मतदाताओं में भी इन पांचों जातियों का मिला जुला प्रतिशत भी इसी के आसपास होगा. यह बसपा का मुख्य जनाधार है. इन चुनावी नतीजों में कुल वोटों में बसपा का 19.6 फीसदी वोट हासिल करना दिखाता है कि बसपा का मुख्य जनाधार कमोबेश बरकरार रहा होगा.
दूसरे राज्यों के दलितों के उलट जाटव-चमार बाबासाहेब आंबेडकर के दिनों से ही आर्थिक रूप से अच्छे और राजनीतिक रूप से अधिक संगठित रहे हैं. 1957 में आरपीआई के गठन के बाद, आरपीआई के पास महाराष्ट्र के बाद उत्तर प्रदेश में सबसे मजबूत इलाके रहे हैं, कई बार तो महाराष्ट्र से भी ज्यादा. यह स्थिति आरपीआई के टूटने तक रही. महाराष्ट्र में आरपीआई के नेताओं की गलत कारगुजारियों के नक्शेकदम पर चलते हुए उत्तर प्रदेश में आरपीआई के दिग्गजों बुद्ध प्रिय मौर्य और संघ प्रिय गौतम भी क्रमश: कांग्रेस और भाजपा के साथ गए. इस तरह जब कांशीराम ने उत्तर प्रदेश में कदम रखे तो एक दशक या उससे भी अधिक समय से वहां नेतृत्व का अभाव था. उनकी रणनीतिक सूझ बूझ ने उनकी बहुजन राजनीति की संभावनाओं को फौरन भांप लिया. उन्होंने और मायावती ने दलितों को फिर से एकजुट करने और पिछड़ों और मुसलमानों के गरीब तबकों को आकर्षित करने के लिए भारी मेहनत की. जब वे असल में अपनी इस रणनीति की कामयाबी को दिखा पाए, तो उन्होंने पहले से अच्छी तरह स्थापित दलों को एक कड़ी टक्कर दी और उसके बाद सीटें जीतने में कामयाब रहे. इससे राजनीतिक रूप से अब तक किनारे पर रहे सामाजिक समूह भी बसपा के जुलूस में शामिल हो गए. मायावती ने यहां से शुरुआत की और उस खेल को उन्होंने समझदारी के साथ खेला, जो उनके अनुभवी सलाहकार ने उन्हें सिखाया था. जब वे भाजपा के समर्थन के साथ मुख्यमंत्री बनीं, तो इससे बसपा और अधिक मजबूत हुई. ताकत के इस रुतबे पर मायावतीं अपने फायदे के लिए दूसरे राजनीतिक दलों के साथ बातचीत करने लगीं.
कुछ समझदार दलित बुद्धिजीवियों ने इस पर अफसोस जाहिर किया है कि बसपा ने दलितों के उत्थान के लिए कुछ नहीं किया है. लेकिन इस मामले की असल बात यह है कि इस खेल का तर्क बसपा को ऐसा करने की इजाजत नहीं देता है. जैसे कि शासक वर्गीय दलों के लिए यह बेहद जरूरी है कि वे जनसमुदाय को पिछड़ेपन और गरीबी में बनाए रखें, मायावती ने यही तरीका अख्तियार करते हुए उत्तर प्रदेश में दलितों को असुरक्षित स्थिति में बनाए रखा. वे भव्य स्मारक बना सकती थीं, दलित नायकों की प्रतिमाएं लगवा सकती थीं, चीजों के नाम उन नायकों के नाम पर रख सकती थीं और दलितों में अपनी पहचान पर गर्व करने का जहर भर सकती थीं लेकिन वे उनकी भौतिक हालत को बेहतर नहीं बना सकती थीं वरना ऐसे कदम से पैदा होने वाले अंतर्विरोध जाति की सोची-समझी बुनियाद को तहस नहस कर सकते थे. स्मारक वगैरह बसपा की जीत में योगदान करते रहे औऱ इस तरह उनकी घटक जातियों तथा समुदायों द्वारा हिचक के साथ वे कबूल कर लिए गए. लेकिन भेद पैदा करने वाला भौतिक लाभ समाज में ऐसी न पाटी जा सकने वाली खाई पैदा करता, जिसे राजनीतिक रूप से काबू में नहीं किया सकता. इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि एक दलित या गरीब परस्त एजेंडा नहीं बनाया जा सकता था. राजनीतिक सीमाओं के बावजूद वे दिखा सकती थीं कि एक ‘दलित की बेटी’ गरीब जनता के लिए क्या कर सकती है. लेकिन उन्होंने न केवल अवसरों को गंवाया बल्कि उन्होंने लोगों के भरोसे और समर्थन का अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया.
बाद में उनकी बढ़ी हुई महत्वाकांक्षाएं उन्हें बहुजन से सर्वजन तक ले गईं, जिसमें उन्होंने अपना रुख पलटते दिया और उनमें दलितों के लिए जो भी थोड़ा बहुत सरोकार बचा था, उसे और खत्म कर दिया. तब अनेक विश्लेषकों ने यह अंदाजा लगाया था कि दलित मतदाता बसपा से अलग हो जाएंगे, लेकिन दलित उन्हें हैरानी में डालते हुए मायावती के साथ पहले के मुकाबले अधिक मजबूती से खड़े हुए और उन्हें 2007 की अभूतपूर्व सफलता दिलाई. इसने केवल दलितों की असुरक्षा को ही उजागर किया. वे बसपा से दूर नहीं जा सकते, भले ही इसकी मुखिया चाहे जो कहें या करें, क्योंकि उन्हें डर था कि बसपा के सुरक्षात्मक कवच के बगैर उन्हें गांवों में सपा समर्थकों के हमले का सामना करना पड़ेगा. अगर मायावती इस पर गर्व करती हैं कि उनके दलित मतदाता अभी भी उनके प्रति आस्थावान हैं तो इसका श्रेय मायावती को ही जाता है कि उन्हें दलितों को इतना असुरक्षित बना दिया है कि वे इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं अपना सकते. निश्चित रूप से इस बार भाजपा ने कुछ दलित जातियों को लुभाया है और वे संभवत: गोंड, धानुक, खटिक, रावत, बहेलिया, खरवार, कोल आदि हाशिए की जातियां होंगी जो दलित आबादी का 9.5 फीसदी हिस्सा हैं. मुसलमान भी ऐसे ही एक और असुरक्षित समुदाय हैं जिन्हें हमेशा अपने बचाव कवच के बारे में सोचना पड़ता है. इस बार बढ़ रही मोदी लहर और घटती हुई बसपा की संभावनाओं को देखते हुए वे सपा के इर्द-गिर्द जमा हुए थे उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ा. 2007 के चुनावों में उत्तर प्रदेश की सियासी दुनिया में फिर से दावेदारी जताने को बेकरार ब्राह्मणों समेत ये सभी जातियां बसपा की पीठ पर सवार हुईं और उन्होंने बसपा को एक भारी जीत दिलाई थी, लेकिन बसपा उनकी उम्मीदों पर खरी नहीं उतर सकी. तब वे उससे दूर जाने लगे जिसका नतीजा दो बरसों के भीतर, 2009 के आम चुनावों में दिखा जब बसपा की कुल वोटों में हिस्सेदारी 2007 के 30.46 फीसदी से गिरकर 2009 में 27.42 फीसदी रह गई. इस तरह 3.02 फीसदी वोटों का उसे नुकसान उठाना पड़ा. तीन बरसों में यह नुकसान 1.52 फीसदी और बढ़ा और 2012 के विधानसभा चुनावों में कुल वोटों की हिस्सेदारी गिरकर 25.90 पर आ गई. और अब 2014 में यह 19.60 फीसदी रह गई है जो कि 6.30 फीसदी की गिरावट है. यह साफ साफ दिखाता है कि दूसरी जातियां और अल्पसंख्यक तेजी से बसपा का साथ छोड़ रहे हैं और यह आने वाले दिनों की सूचना दे रहा है जब धीरे धीरे दलित भी उन्हीं के नक्शेकदम पर चलेंगे. असल में मायावती की आंखें इसी बात से खुल जानी चाहिए कि उनका राष्ट्रीय वोट प्रतिशत 2009 के 6.17 से गिर कर इस बार सिर्फ 4.1 फीसदी रह गया है.
जबकि जाटव-चमार वोट उनके साथ बने हुए दिख रहे हैं, तो यह सवाल पैदा होता है कि वे कब तक उनके साथ बने रहेंगे. मायावती उनकी असुरक्षा को बेधड़क इस्तेमाल कर रही हैं. न केवल वे बसपा के टिकट ऊंची बोली लगाने वालों को बेचती रही हैं, बल्कि उन्होंने एक ऐसा अहंकार भी विकसित कर लिया है कि वे दलित वोटों को किसी को भी हस्तांतरित कर सकती हैं. उन्होंने आंबेडकरी आंदोलन की विरासत को छोड़ कर 2002 के बाद के चुनावों में मोदी के लिए प्रचार किया जब पूरी दुनिया मुसलमानों के जनसंहार के लिए उन्हें गुनहगार ठहरा रही थी. उन्होंने अपने राजनीतिक गुरु कांशीराम के ‘तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’ जैसे नारों को भी छोड़ दिया और मौकापरस्त तरीके से ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है’ जैसे नारे चलाए. लोगों को कुछ समय के लिए पहचान का जहर पिलाया जा सकता है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे बेवकूफ हैं. लोगों को मायावती की खोखली राजनीति का अहसास होने लगा है और वे धीरे धीरे बसपा से दूर जाने लगे हैं. उन्होंने मायावती को चार बार उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया लेकिन उन्होंने जनता को सिर्फ पिछड़ा बनाए रखने का काम किया और अपने शासनकालों में उन्हें और असुरक्षित बना कर रख दिया. उत्तर प्रदेश के दलित विकास के मानकों पर दूसरे राज्यों के दलितों से कहीं अधिक पिछड़े बने हुए हैं, बस बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश और राजस्थान के दलित ही उनसे ज्यादा पिछड़े हैं. मायावती ने भ्रष्टाचार और पतनशील सामंती संस्कृति को बढ़ाना देने में नए मुकाम हासिल किए हैं, जो कि बाबासाहेब आंबेडकर की राजनीति के उल्टा है जिनके नाम पर उन्होंने अपना पूरा कारोबार खड़ा किया है. उत्तर प्रदेश दलितों पर उत्पीड़न के मामले में नंबर एक राज्य बना हुआ है. यह मायावती ही थीं, जिनमें यह बेहद गैर कानूनी निर्देश जारी करने का अविवेक था कि बिना जिलाधिकारी की इजाजत के दलितों पर उत्पीड़न का कोई भी मामला उत्पीड़न अधिनियम के तहत दर्ज नहीं किया जाए. ऐसा करने वाली वे पहली मुख्यमंत्री थीं.
जातीय राजनीति की कामयाबी ने बसपा को इस कदर अंधा कर दिया था कि वह समाज में हो रहे भारी बदलावों को महसूस नहीं कर पाई. नई पीढ़ी उस संकट की आग को महसूस कर ही है जिसे नवउदारवादी आर्थिक नीतियों ने उनके लिए पैदा की हैं. देश में बिना रोजगार पैदा किए वृद्धि हो रही है, और सेवा क्षेत्र में जो भी थोड़े बहुत रोजगार पैदा हो रहा है उन्हें बहुत कम वेतन वाले अनौपचारिक क्षेत्र में धकेल दिया जा रहा है. सार्वजनिक और सरकारी क्षेत्रों के सिकुड़ने से आरक्षण दिनों दिन अप्रासंगिक होते जा रहे हैं. दूसरी तरफ सूचनाओं में तेजी से हो रहे इजाफे के कारण नई पीढ़ी की उम्मीदें बढ़ती जा रही हैं. उन्हें जातिगत भेदभाव की वैसी आग नहीं झेलनी पड़ी है जैसी उनके मां-बाप ने झेली थी. इसलिए वे ऊंची जातियों के बारे में पेश की जाने वाली बुरी छवि को अपने अनुभवों के साथ जोड़ पाने में नाकाम रहते हैं. उनमें से अनेक बिना दिक्कत के ऊंची जातियों के अपने दोस्तों के साथ घुलमिल रहे हैं. हालांकि वे अपने समाज से रिश्ता नहीं तोड़ेंगे लेकिन जब कोई विकास के बारे में बात करेगा तो यह उन्हें अपनी तरफ खींचेगा. और यह खिंचाव पहचान संबंधी उन बातों से कहीं ज्यादा असरदार होगा जिसे वे सुनते आए हैं. दलित नौजवान उदारवादी संस्कृति से बचे नहीं रह सकते हैं, बल्कि उन्हें व्यक्तिवाद, उपभोक्तावाद, उपयोगवाद वगैरह उन पर असर डाल रहे हैं, इनकी गति हो सकता है कि धीमी हो. यहां तक कि गांवों में भीतर ही भीतर आए बदलावों ने निर्वाचन क्षेत्रों की जटिलता को बदल दिया है, जिसे हालिया अभियानों में भाजपा ने बड़ी महारत से इस्तेमाल किया जबकि बसपा और सपा अपनी पुरानी शैली की जातीय और सामुदायिक लफ्फाजी में फंसे रहे. बसपा का उत्तर प्रदेश के नौजवान दलित मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाना साफ साफ दिखाता है कि दलित वोटों में 1.61 करोड़ के कुल इजाफे में से केवल 9 लाख ने ही बसपा को वोट दिया.
भाजपा और आरएसएस ने मिल कर दलित और पिछड़ी जातियों के वोटों को हथियाने की जो आक्रामक रणनीति अपनाई, उसका असर भी बसपा के प्रदर्शन पर दिखा है. उत्तर प्रदेश में भाजपा के अभियान के संयोजक अमित शाह ने आरएसएस के कैडरों के साथ मिल कर विभिन्न जातीय नेताओं और संघों के साथ व्यापक बातचीत की कवायद की. शाह ने मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक हमले का इस्तेमाल पिछड़ी जातियों को अपने पक्ष में लुभाने के लिए किया. उसने मोदी की जाति का इस्तेमाल ओबीसी वोटों को उत्साहित करने के लिए किया कि उनमें से ही एक इंसान भारत का प्रधानमंत्री बनने जा रहा है. इस रणनीति ने उन इलाकों की पिछड़ी जातियों में सपा की अपील को कमजोर किया, जो सपा का गढ़ मानी जाती थीं. इस रणनीति का एक हिस्सा बसपा के दलित आधार में से गैर-जाटव जातियों को अलग करना भी था. भाजपा ने जिस तरह से विकास पर जोर दिया और अपनी सुनियोजित प्रचार रणनीति के तहत बसपा की मौकापरस्त जातीय राजनीति को उजागर किया, उसने भी बसपा की हार में एक असरदार भूमिका अदा की. लेकिन किसी भी चीज से ज्यादा, बसपा की अपनी कारगुजारियां ही इसकी बदतरी की जिम्मेदार हैं. यह उम्मीद की जा सकती है कि इससे पहले कि बहुत देर हो जाए बसपा आत्मविश्लेषण करेगी और खुद में सुधार करेगी.
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