-दिलीप ख़ान
पिछले दिनों कुछ टेलीविज़न चैनलों पर एक साथ कई
पत्रकारों ने इस बात को लेकर चिंता जाहिर की कि मौजूदा प्रधानमंत्री विदेश यात्रा
पर पत्रकारों को साथ नहीं ले जा रहे। अलग-अलग मसलों पर शामिल स्टूडियो परिचर्चा
में जो सूत्र इन पत्रकारों को जोड़ता है वो यही बात है। चिंता ये जताई गई कि इससे
पत्रकारिता को नुकसान पहुंच रहा है और ‘फर्स्ट हैंड ऑब्जर्वेशन’ के अभाव के चलते आधिकारिक बयानों का ही सहारा लेना
पड़ रहा है। एक हद तक इस बात से सहमति जताई जा सकती है कि किसी इवेंट में
पत्रकारों की मौजूदगी नहीं होने के चलते ख़बरों के संकलन पर इसका असर पड़ सकता है,
लेकिन मीडिया उद्योग के लिए इस सवाल के सिरे को पलट कर देखना चाहिए।
अगर चिंता पत्रकारिता
संबंधी है तो फिर पूरे साल नफ़ा-नुकसान की गणना करने वाले मालिक के मन में अचानक
रिपोर्टिंग की भावना कैसे पनप जाती है? दूसरी
बात ये कि अगर चिंता सचमुच पत्रकारिता और ख़बरों के संकलन की है तो मीडिया
संस्थानों को सत्ता गलियारे की रिपोर्टिंग के अलावा देश-विदेश के बाक़ी मुद्दों की
खोज-बीन पर साल भर ध्यान देना चाहिए। लेकिन देश के कथित राष्ट्रीय टीवी चैनलों का
कोई भी स्थायी रिपोर्टर पड़ोस के किसी भी देश में नहीं है और ना ही देश के सभी
राज्यों में। रिपोर्टिंग के ख़र्च को जिस तरह कतरब्यौंत किया जा रहा है उससे वो
पत्रकार भी सहमत दिखते हैं जो विदेश यात्रा पर पत्रकारों को नहीं ले जाने को लेकर
चिंताभाव प्रकट कर रहे हैं।
फोटो राज्य सभा टीवी से साभार |
क्या लगातार विस्तार पा
रहा भारत का मीडिया उद्योग किसी इवेंट में शिरकत के लिए ख़ुद अपने बूते पत्रकार
नहीं भेज सकता?
क्या वजह है कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री सहित किसी भी मंत्री के साथ विदेश दौरे
पर जाने के लिए मीडिया संस्थान उत्साही रवैया दिखाता है? क्या ये महज पत्रकारिता के लिए ख़बरों के संकलन तक सीमित मामला है या फिर
इसके जरिए सैर-सपाटा, सत्ता के गलियारे में जान-पहचान और व्यावसायिक गुणा-गणित भी
साधने की कोशिश होती है। इस बात को प्रमुखता से इसलिए भी कहा जा सकता है क्योंकि
इन दौरों पर कई मौक़ों पर सक्रिय पत्रकार के बदले मीडिया संस्थान के मालिक ख़ुद
शामिल हो जाते हैं।
जापान में मोदी. फोटो- Salon.com से साभार |
पिछले 5-6 साल में भारत
का मीडिया उद्योग लगभग दोगुना विस्तार पा चुका है। केपीएमजी और फ़िक्की के आंकड़ों
के मुताबिक़ 2008 में मीडिया का कुल बाज़ार 58,000 करोड़ रुपए का था, जो 2013 में
बढ़कर 91,800 करोड़ तक पहुंच गया। अनुमान है कि 2018 में यह बाज़ार 1,78,600 करोड़
तक पहुंच जाएगा। अगर बाज़ार इतना विस्तार पा रहा है तो पत्रकारिता के सिमटते दायरे
का सवाल इस धंधे में लगे मालिकों के सामने उछाला जाना चाहिए। विश्व कप फुटबॉल कवर
करने अगर कोई मीडिया संस्थान दो-तीन रिपोर्टर भेज सकता है तो इराक़-सीरिया कवर
करने एक अदना रिपोर्टर क्यों नहीं भेज सकता? अगर विदेशों की रिपोर्टिंग प्रधानमंत्री दौरे के इंतज़ार में स्थगित रहती है
तो ये मीडिया उद्योग में घटते पेशेवर रवैये पर सवाल है। दूसरी बात ये कि मीडिया
संस्थान अगर अपने ख़र्च से पत्रकारों को इन दौरों की रिपोर्टिंग के लिए भेजते हैं
तो उसकी वस्तुनिष्ठता कहीं अलहदा क़िस्म की होगी। लिहाजा सवाल करने और असंतोष
प्रकट से पहले ये बेहद ज़रूरी है कि वो वाक़ई ईमानदार क़िस्म की हो और जिस उद्योग की
तरफ़ से सवाल उठाए जा रहे हैं उसके भीतर भी सवाल उठे।
[राज्य सभा टीवी से साभार]
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