08 फ़रवरी 2014

बीजेपी: प्रतीक, रणनीति और हिंदुत्व

-दिलीप ख़ान

हाल में संपन्न पांच विधानसभा चुनावों में से तीन राज्यों में बीजेपी को अपनी जीत से ज़्यादा कांग्रेस के लद्धड़ प्रदर्शन ने आश्वस्त किया होगा। राजनीतिक गलियारों से लेकर मीडिया के मंचों में इस चुनाव को लोकसभा के सेमीफाइनल की तरह देखा गया। जाहिर है इसके नतीजे से मिली ऊर्जा के बल पर राजनीतिक पार्टियां 2014 को देख रही है। पहली मर्तबा इसी चुनाव के आस-पास से लोकसभा पर नज़र गड़ाते हुए बीजेपी ने अपना प्रचार अभियान शुरू किया। पार्टी के भीतर नेतृत्व और भूमिका को लेकर पोजिशन साफ़ है और किसी भी तरह की असहमति और विभेद को या तो अलग-थलग कर दिया गया है या फिर मान-मनौव्वल और फुसलाहट के जरिए उन्हें कोई दूसरी ज़िम्मेदारी समझा दी गई।
56 इंच सीने की चाहत

पांच राज्यों में हुए विधान सभा चुनाव की हम बात इसलिए कर रहे हैं क्योंकि मौजूदा राजनीतिक विमर्श को इसने वाकई एक मज़बूत मोड़ दिया है। अचानक छोटी सी दिखने वाली आम आदमी पार्टी दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में बीजेपी और कांग्रेस सहित बाकी राजनीतिक पार्टियों के लिए चुनौती पेश करने का दावा करने लग गई है। बीजेपी की तरफ़ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी ने जब विधानसभा चुनाव प्रचार के लिए दिल्ली में रैली की थी तो अपने दो भाषणों में उन्होंने आम आदमी पार्टी का नाम तक नहीं लिया था। जाहिर है उस वक़्त बीजेपी के निशाने के दायरे में सिर्फ़ कांग्रेस थी। फ़िलवक़्त दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार है और बीजेपी के निशाने पर सबसे प्रमुखता से यही पार्टी है। हां, दिल्ली से बाहर बीजेपी निश्चित तौर पर कांग्रेस को सबसे मज़बूत विपक्ष मानते हुए राजनीतिक बिसात बिछा रही है।

बहरहाल, टीवी मीडिया में दिख रहे ज़्यादातर ओपिनियन पोल बीजेपी के पक्ष में दिख रहे हैं और पार्टी नेताओं की शारीरिक भाषा अभी से विजेता की तरह ठसक से भरी हुई दिखने लगी है, लेकिन 2014 के लिए बीजेपी कोई नई रणनीति, कोई नया मुद्दा या फिर कोई नया नज़रिया लेकर लोगों के बीच नहीं जा रही है। हां, गुजरात में बन रहे बल्लभ भाई पटेल की मूर्ति को ज़रूर राष्ट्रवाद के नए प्रतीक के तौर पर इस बार बीजेपी और ख़ासकर नरेन्द्र मोदी प्रचारित कर रहे हैं। फ़िलहाल वाकई बीजेपी के समूचे राजनीतिक विमर्श को इस प्रतीक के आइने में देखने की दरकार है। इसको भूल जाइए कि पटेल बीजेपी के लिए प्रतिनिधि चेहरा हो सकते हैं या नहीं। हर पार्टी किसी इतिहास पुरुष का उतना हिस्सा अपने पक्ष में नोंच लेती है जो उसके राजनीतिक दर्शन में फिट हो। इसलिए भगत सिंह पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी अपनी दावेदारी ठोकता है। 

एकीकरण की नीति के चलते पटेल को बीजेपी अपनी कश्मीर पर उग्र राय और वाया कश्मीर पाकिस्तान विरोधी राजनीति और इस तरह मुस्लिम विरोधी राजनीति में फिट कर सकती है। इसके लिए वो एक मुफ़ीद चेहरा होंगे। लेकिन पटेल के रूप में चित्त भी मेरी, पट भी मेरी का नायाब सिक्का बीजेपी को हाथ लग गया है। एक तरफ़ उग्र हिंदुत्व के प्रतिनिधि चेहरा, नरेन्द्र मोदी, को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाकर हिंदू वोट को गोलबंद करने की पूरी कोशिश है, दूसरी तरफ़ पटेल के भीतर धर्मनिरपेक्षता के तत्त्व देखेन वाला तबका भी इस संतोष में बीजेपी के साथ हो सकता है कि इसी बहाने भारत की ज़मीन पर दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति लगने वाली है। सामान्य ज्ञान में सबसे ऊंचा, सबसे बड़ा और सबसे लंबा में भारत का नाम आने पर गर्वानुभूति महसूस करने वाला तबका देश में छोटा नहीं है! इनमें से एक हिस्सा तो वो है जिन्हें राजनीतिक तौर पर किसी भी खेमे में जाने में कोई मुश्किल नहीं होती।
हुंकार, फुफकार जैसी रैलियों के मॉनिटर!

बहरहाल, एक सवाल ये है कि क्या बीजेपी इस चुनाव में नई रणनीति लेकर सामने आ रही है? क्या बीजेपी अपने पुराने राजनीतिक दर्शन में संशोधन के साथ 2014 के मैदान में उतर रही है? इस कसौटी पर अगर बीजेपी की गतिविधियों को देखें तो आश्वस्त करने वाले जवाब नहीं मिलते हैं। राम मंदिर की आवाज़ मुखर न होने के कारण अगर कोई इस चुनाव में ये समझ रहा है कि बीजेपी ने उग्र-हिंदुत्व की राजनीति से अपना काफिला आगे बढ़ा लिया है, तो उसे ठहरकर सोचना चाहिए। नरेन्द्र मोदी के गुजरात में नंबर-2 अमित शाह को देश के सबसे बड़े राज्य, उत्तर प्रदेश, का प्रभारी बनाया गया। उसके बाद उत्तर प्रदेश की राजनीतिक तस्वीर जिस तरह बदली है उसकी व्याख्या न करते हुए सिर्फ़ इतना देखे कि किस पार्टी के पक्ष में वो ज़्यादा झुकी हुई दिख रही है तो निश्चित तौर पर उसमें बीजेपी को फायदा मिलता दिख रहा है। 

मुज़फ़्फ़रनगर में हुए सांप्रदायिक दंगों में बीजेपी नेताओं की भूमिका सार्वजनिक होने के बाद आगरा के मंच पर उन्हें जिस तरह सम्मानित किया गया, उसमें काफी संदेश छिपा हुआ था। उसी मंच पर 2014 के लोकसभा चुनाव के लिहाज से बीजेपी के सबसे बड़े नेता नरेन्द्र मोदी भी भाषण देने पहुंचे थे। राम मंदिर के आह्वान की हिंदुत्ववादी राजनीति से कहीं आगे बढ़कर बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में इस बार मुस्लिम-विरोधी हिंसक विचारधारा को खाद-बीज मुहैया कराया है और ये साफ़ है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिकता के आर-पार वोट का बंटवारा बीजेपी को फायदा पहुंचाती दिख रहा है।

मौजूदा चुनाव प्रचार में न सिर्फ़ हिंदुत्व बल्कि मर्दवाद और आक्रामकता भी बीजेपी के प्रतीक के तौर पर सामने आ रही है। 29 सितंबर को दिल्ली के रोहिणी में हुई रैली में समूची दिल्ली में लगे पोस्टरों में नरेन्द्र मोदी को ‘भारत मां का शेर’ के तौर पर संबोधित किया गया। नरेन्द्र मोदी ने हाल ही में अपनी एक रैली में 56 इंच के सीने का जुमला उछाला। जुमले और चेतावनी के लिहाज से ही सही मोदी अगर सीने की चौड़ाई से प्रधानमंत्री की योग्यता का परीक्षण कर रहे हैं तो जाहिर तौर पर इस मर्दवादी प्रतीक के जरिए वो महिलाओं की आधी आबादी के बारे में सोच तक नहीं रहे।  उनकी रैलियों के नाम हुंकार और महागर्जना वगैरह होते हैं। नरेन्द्र मोदी जब ‘देहाती औरत’ जैसे जुमलों का इस्तेमाल करते हुए व्यंग्य कसते हैं तो एकबारगी न सिर्फ़ महिला क़ौम को बल्कि समूचे देहात का निषेध करते हुए दिखते हैं। 
'महागर्जना'

वैसे भी मोदी के भाषण में शहरी चमक-दमक ही दिखाई-सुनाई पड़ता है। गांव देहातों का ज़िक्र वो गाहे-बगाहे ही करते हैं। कॉरपोरेट्स उन्हें पसंद करते हैं और वे कॉरपोरेट्स को। सहानुभूति के लिए ‘चाय बेचने’ की बात अब हर मंच से वो दोहराते हैं। राहुल गांधी के पिता और दादी की शहादत पर लोगों से सहानुभूति की काट के तौर पर चाय बेचने की कहानी नरेन्द्र मोदी सुनाते हैं। लेकिन चाय कंपनियों के मालिक मोदी के पक्ष में बोलते नज़र आते हैं। यानी वोट ‘चाय बनाने और बेचने’ वालों से मेल खाते लोगों से मिले और नीतिगत फ़ैसला चाय कंपनियों के मालिकों के पक्ष में दिए जाए। नरेन्द्र मोदी की राजनीतिक प्रमेय को इस रूप में देखा जाना चाहिए और मोदी के जरिए बीजेपी के राजनीतिक दर्शन को।

फ़िलहाल,  बीजेपी के सामने नरेन्द्र मोदी का कोई विकल्प नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में जिस प्रचार अभियान के कंधों पर सवार होकर मोदी ने ख़ुद को देशभर में फैलाया है उसके सामने आडवाणी, सुषमा, जेटली और राजनाथ सिंह टिक नहीं पा रहे। बीजेपी के तरकश में मोदी है, हिंदुत्व है, ‘गुजराती विकास-मॉडल’ है और यूपीए सरकार के अनगिनत भ्रष्टाचार की कहानियां हैं। सबसे ख़ास बात कांग्रेस में उपाध्यक्ष बने राहुल गांधी जैसे कमज़ोर राजनीतिक से मुख्य टक्कर है। इसके अलावा कालाधन मार्का बाबा रामदेव है। बीजेपी के पास भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन के प्रमुख चेहरे अण्णा हज़ारे और किरण बेदी से अपनी प्रशंसा करवाने की राजनीतिक बढ़त है। पूर्व सेना प्रमुख वीके सिंह जैसे प्रशंसक हैं जिनके पास एक साथ कई मंचों पर समान अधिकार से बैठते हुए एक ही साल में एक साथ राजनीतिक और अराजनीतिक होने का हुनर है!

बहरहाल, बीजेपी संख्या, समीकरण और राजनीतिक नफ़ा-नुकसान पर पूरी नज़र गड़ाए हुए है। दक्षिण भारत में कर्नाटक के हाथ से निकलने के बाद पार्टी के पास और कोई चारा नहीं था, लिहाजा येदियुरप्पा को वापस पार्टी में मिला लिया गया। लेकिन, बीजेपी की राजनीतिक कल्पनाशीलता में दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर प्रमुख नहीं है। उनका समूचा ज़ोर हिंदी पट्टी पर है और हिंदी पट्टी के मिजाज़ को मेल खाती राजनीति के जरिए ही वो 2014 को साधना चाहती है।
मुज़फ़्फ़रनगर: शिविर में सिमटी ज़िंदगी

बावजूद इसके, बीजेपी सतह पर इस बार हिंदुत्व को लाने से बचना चाहती है। उनके भाषण में हिंदुत्व कम है, तरक्की ज़्यादा है। हिंदुत्व के जिस चेहरे को प्रधानमंत्री का दावेदार बनाया गया है उसको लेकर पार्टी के भीतर ही कई फाड़ देखने को मिल रहे हैं, लिहाजा पार्टी नेतृत्व के सामने बड़ा सवाल ये है कि अगर पूर्ण बहुमत नहीं मिला और गठबंधन के आसर हुए तो सामाजिक सौहार्द्र में ज़रा भी यक़ीन करने वाली पार्टी बीजेपी से छिटक जाएगी। इसलिए रणनीति के तौर पर झंडे, पोस्टर, बैनर और भाषण से हिंदुत्ववादी स्वर कम उठ रहे हैं। इस तरह राजनीतिक पार्टियों के सामने बीजेपी ख़ुद को इस मामले में नरम बताने की कोशिश कर रही है और वोटरों के सामने मुज़फ़्फ़रनगर की सांप्रदायिक हिंसा में शामिल विधायक का स्वागत करके ये बताने की कोशिश कर रही है कि उसने अपनी राजनीतिक लाइन बदली नहीं है।

(सबलोग के नए अंक के लिए लिखा गया लेख।) 

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