रियाज़ उल हक़
मलकपुर शिविर, शामली. अपनी बीमार मां और हताश पिता से बीच चार लोगों के परिवार के लिए आटा गूंधते हुए निसा कैमरा देख कर रुकती नहीं. बस मुस्कुरा देती है. पास के खाट पर उसकी मां की सांसें दमे से उखड़ रही हैं और पिता धुआं उगलते चूल्हे में आग जलाने की कोशिश कर रहे हैं.
बिना दीवारों वाली यह एक ऐसी जगह है जहां रातों में तापमान दो डिग्री तक गिर जाता है. हवा से बचाने के लिए उनके पास पॉलिथीन की चादरों, फटे कपड़ों और चीथड़े हो चुके कंबलों के अलावा कुछ नहीं है. आसपास गन्ने की सूखी हुई पत्तियां हैं, लकड़ी की चिन्नियां हैं, न्यूमोनिया से मरते बच्चों की फेहरिश्त है, खाली पेट दिन गुजारने की मजबूरियां हैं और अपने घर से बेदखल कर दिए जाने की जलील यादें हैं. इन सबके बीच वह कौन सी चीज है जो उन्हें कैमरे के सामने मुस्कुरा उठने के लिए तैयार करती है?
क्या यह सिर्फ कैमरे के आगे खड़े होकर मुस्कुराने की आदत भर है?
लेकिन यह मुमकिन नहीं है. मुजफ्फरनगर, शामली, मेरठ, सहारनपुर और बागपत के जो एक लाख से ज्यादा लोग अपने घरों से उजाड़ दिए गए हैं, गुजर बसर की आखिरी उम्मीदें भी जिनसे छीन ली गई हैं, जिनकी हरेक पुरानी चीज को उनकी जिंदगी से बाहर कर दिया गया है- यह सिर्फ एक आदत भर नहीं हो सकती कि वे कैमरे के आगे मुस्कुराएं.
इसका संबंध काफी हद तक इससे है कि वे अपनी जिंदगी में फोटोग्राफ्स को किस तरह लेते आए हैं.
यह यकीन किया जाता है कि फोटोग्राफ किसी एक चुने हुए पल को हमेशा के लिए, या कम से कम लंबे समय तक के लिए, सहेज कर रख लेता है. वक्त गुजर जाता है, आदमी गुजर जाते हैं, जगहें बदल जाती हैं, लेकिन तस्वीरों में बचा कर रखा हुआ वह पल ज्यों का त्यों बना रहता है. बदले हुए हालात में वह उस जिंदगी की यादगार के रूप में मौजूद रहता है. फोटोग्राफ द्वारा यह भूमिका अपना लेने के कारण इंसानी याद्दाश्त पर उस खास मौके को हमेशा ज्यों का त्यों बचा कर रखने की जिम्मेदारी नहीं रहती. और चूंकि एक फोटोग्राफ भौतिक रूप में मौजूद रहता है न कि महज किसी की याद में, इसलिए वह सबके लिए सार्वजनिक रूप से उपलब्ध होता है. इस सहूलियत के कारण फोटोग्राफ्स को उन हालात के एक सच्चे सबूत की तरह लिया जाता है, जिनसे एक खास वक्त में जिंदगी को गुजरना पड़ा था.
यानी ये आदतें नहीं बल्कि यादें हैं, जो इन हालात में फोटोग्राफ के लिए तैयार होने को सहज बनाती हैं.
वे यादें खौफ और आतंक में डूबी हुई रातों की यादें हैं. जब मुजफ्फरनगर, शामली, मेरठ, सहारनपुर और बागपत जिलों के दूर दराज के उनके गांवों में प्रभुत्वशाली हिंदू भू-स्वामी जातियों तथा खाप पंचायतों के नेतृत्व में दक्षिणपंथी सांप्रदायिक ताकतों द्वारा जनसंहार, औरतों पर यौन हमले, आगजनी और लूटपाट की गई. झूठी खबरों और अफवाहों के बूते पूरे मुस्लिम समुदाय के खिलाफ ऐसा माहौल बनाया गया कि उनका गांवों में रहना मुमकिन नहीं रह गया. मुस्लिम आबादी वाले मुहल्लों पर हमले हुए, उनकी दुकानें और मकान लूट लिए गए. औरतों के खिलाफ किए गए अमानवीय अपराधों की ऐसी शिकायतें हैं, जिन पर एकबारगी यकीन नहीं होता. आरा मशीन पर उन्हें चीर देने की शिकायतें. कांच के टुकड़ों पर, निर्वस्त्र करके नाचने पर मजबूर करने की शिकायतें. मुस्लिम गोरी औरतों को हमलावरों द्वारा जबरन अपने घर में कैद कर रख लेने की शिकायतें.
शामली जिले के फुगाना गांव में मेहरदीन की नंगी लाश पिंकू जाट के घर में बल्लियों से लटकी हुई मिली. एक दूसरे गांव में घटना की पड़ताल करने दिल्ली से गई एक टीम को कहा गया कि इससे क्या फर्क पड़ता है कि मुसलमान कितनी संख्या में मार दिए गए? उनके तो बच्चे ज्यादा होते हैं.
सचमुच कोई फर्क नहीं पड़ता. कम से कम उस व्यवस्था को तो बिल्कुल ही नहीं, जिसे बटन दबा कर बदल देने के दावों की गूंज अभी ठीक से खत्म भी नहीं हुई है. मेहरदीन की तरह सीधे हमले में मार दिए गए लोगों की तादाद सरकारी तौर पर अधिक से अधिक 80 है लेकिन गैर सरकारी तौर पर यह संख्या 130 के ऊपर जाती है. जो इन हमलों में जीवित बच गए वे एक अनिश्चित भविष्य में दाखिल हुए. उनमें से ज्यादातर पिछले चार महीनों से ज्यादा वक्त इन शिविरों में गुजार चुके हैं, जहां बाहर से आ रही नाकाफी मदद किसी तरह जिंदा रख पा रही है. कभी कभी वह भी नहीं. जैसे कि चित्तमखेड़ी, बागपत से आईं महबूबा के लिए अपनी बच्ची को भूल पाना मुश्किल हो रहा है. 2 दिसंबर को बुखार और उल्टी शुरू हुई तो उन्होंने पाया कि उसे ठंड लगी है. अगले दिन सवेरे वे उसे पास के कैराना कस्बे में एक डॉक्टर को दिखाने ले गईं. इंजेक्शन देकर इंतजार करने के बाद भी जब उसकी हालत नहीं सुधरी तो डॉक्टर ने उन्हें लौटा दिया. उस रात दो बजे उनकी बच्ची गुजर गई. खुशनुमा! अब बस यह एक नाम बचा रह गया है, एक खाली जगह की शक्ल में, जो यह महसूस कराता है कि वह बच्ची कभी इस दुनिया में हुआ करती थी.
महबूबा के पति फावड़े की मजदूरी करते हैं. यानी जमीन के मालिक प्रभुत्वशाली तबके के गन्ने के खेतों में काम करते हैं. उनके पास अपनी जमीन नहीं हुई कभी. सांप्रदायिक हमलों में परिवार के उजड़ जाने और रोजगार खो बैठने के बाद उनके पास कुछ भी नहीं है, सिवाय इस तंबू के, जूट की रस्सियों से बुनी हुई एक खाट के, दर्जन पर कपड़ों के और कुछ बरतनों के. आप इसे एक दुस्वप्न भरी जिंदगी कह सकते हैं, जो पिछले साल सितंबर में शुरू हुई.
लेकिन महबूबा के लिए इसकी शुरुआत कभी हुई ही नहीं. वे इसे हमेशा से जीते आए हैं. अपनी सात साल की बेटी के बाल ठीक करते हुए वे बताती हैं, ‘कई साल पहले मेरे ससुर बारू को बीच मोहल्ले में मार दिया गया पीट पीट कर. न कोई केस बना न किसी को सजा हुई. जिन्होंने मारा वे ऊंची जाति के हैं. जमीन उनकी है, पुलिस और सरकार में उनका रोब-दाब है. हम कौन हैं? हम तो उनकी हाजिरी में जीने वाले लोग हैं. हमारी कोई ताकत नहीं है.’ इस साल जब रमजान का महीना चल रहा था, जबरन उन्हीं तबकों से आने वाले लोगों ने मस्जिद पर से लाउडस्पीकर उतरवा दिया, जिस पर अजान दी जाती थी और रोजा खोलने के वक्त का ऐलान होता था. कोई कुछ न कर सका. महबूबा कहती हैं, ‘बच्चे पूछते हैं कि हम मुसलमान क्यों हैं? हम जिस तरह जीना चाहते हैं, हमें इसकी आजादी क्यों नहीं है? हमारे पास आज तक एक मस्जिद तक नहीं है. बस एक चबूतरा है, जिसे हम मस्जिद कहते हैं.’
और अब महबूबा से वह गांव भी छूट गया है जिसमें एक चबूतरेनुमा मस्जिद हुआ करती थी. और अगर सरकार की चली तो यह शिविर भी छूट जाएगा. प्रेस और अदालतों में राहत शिविरों की दुर्दशा की खबरों की चर्चा के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने जबरन शिविरों को बंद कराया जाने लगा है. साल के पहले हफ्ते में, जब मुजफ्फरनगर और शामली जिलों में तापमान शून्य के आसपास गिर गया था, पुलिस और प्रशासन ने जबरन शिविरों को खाली कराया. जिस वक्त महबूबा अपनी बच्ची के बाल संवार रही थीं, सरकारी अधिकारियों की गाड़ियों का एक काफिला मलकपुर शिविर से धूल उड़ाता हुआ रवाना हुआ. वे इस शिविर को खाली कराने के लिए 12 घंटे में दूसरी बार आए थे. पहली बार वे आधी रात के बाद उस वक्त आए थे जब उन्हें उम्मीद थी कि लोग सो रहे होंगे. लेकिन परिवारों के मर्द और बच्चे सड़क को घेरे हुए रात भर बैठे रहे थे, ताकि पुलिस को जबरन शिविर में घुसने से रोका जा सके. अगले दिन दोपहर में जब वे दोबारा आए तो फिर लोगों ने उन्हें घेर कर वापस लौटा दिया. इलाके में लगभग सभी शिविरों में यह कहानी थोड़े-बहुत अंतर से दोहराई गई.
मलकपुर, नूरपुन खुरगान, सुनेठी और लोई जैसे करीब 25 राहत शिविरों में रह रहे तीस हजार से अधिक लोगों के पास कोई विकल्प नहीं है. शिविर छोड़ कर वे जाएंगे कहां? जिन लोगों ने पिछले चार महीनों में कभी अपने पुराने गांव लौटने की कोशिश की, उन्हें अपमान और धमकियां सहनी पड़ीं. खेड़ी गांव, जिला शामली के मो. सलीम दिसंबर में एक बार अपने गांव लौटे थे. उनके मकान पर प्रभुत्वशाली जाट समुदाय के लोगों ने कब्जा कर लिया है. सलीम को देख कर उन्होंने गाली गलौज की और कहना शुरू किया कि ‘मुल्ले फिर आ गए. देखते हैं कि ये कैसे यहां रहते हैं.’ डरे हुए और अपमानित सलीम लौट आए.
राज्य या केंद्र, किसी भी सरकार ने इनको फिर से बसाने की कोई कोशिश नहीं की है. लेकिन ये हमेशा के लिए विस्थापित जिंदगी जीते रहें, इसे यकीनी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई है. सरकार राहत शिविरों में रह रहे सभी लोगों को पीड़ित मानने को राजी नहीं. इसलिए उन्हें मुआवजा भी नहीं मिलेगा. अगस्त सितंबर के दौरान इन इलाकों में हुए सांप्रदायिक हमलों के कारण 162 गांवों के मुसलमान विस्थापित हुए. लेकिन सरकार महज 9 गांवों को ही ‘दंगा’-ग्रस्त स्वीकार करने को तैयार है. वे गांव हैं- लाक, लिसाढ़, बहावड़ी, कुतबा, कुतबी, मोहम्मदपुर रायसिंह, काकड़ा, फुगाना, और मुंडभर. सरकार इन गांवों के कुल 1800 परिवारों को प्रति घर पांच लाख की रकम मुआवजे के बतौर देने की बात कर रही है. लेकिन एक घर में अगर अनेक परिवार हों तब या तो यह रकम बंट कर बहुत थोड़ी सी रह जाएगी या फिर रकम किसी एक परिवार के पास ही रहेगी और बाकी परिवारों को कोई रकम नहीं मिल पाएगी. ऐसा अनेक मामलों में देखने में आया भी है.
राज्य सरकार ने अब तक जिन गिने-चुने लोगों को मुआवजा राशि दी है, उन्हें इसके लिए एक हलफनामा दायर करना पड़ा है कि वे लौट कर अपने गांव नहीं जाएंगे. अगर गए तो यह राशि उनसे उसी तरह जब्त कर ली जाएगी जैसी बकाया लगान वसूला जाता है.
बाकी 153 गांवों के विस्थापित लोगों के बारे में सरकार का कहना है कि वे मुआवजे की लालच में शिविरों में रह रहे हैं, जबकि उनका कोई नुकसान नहीं हुआ है. यह सही नहीं है. लोगों ने हमले से आतंकित होकर गांव छोड़ा और जो लोग पीछे रह गए वे मार दिए गए या लापता हैं, जैसे कि लिसाढ़ से आए अलीबान के अब्बा के साथ हुआ. अगस्त सितंबर में जब वे लोग गांव से भागे तो उनके अब्बा नसीरुद्दीन नहीं आए. उनके साथ साथ 12 दूसरे लोगों ने भी गांव छोड़ना कबूल नहीं किया. अगले दिन वे सभी 13 लोग मार दिए गए. उनमें से सिर्फ दो की लाश मिल पाई. साफ है कि अगर लोग गांव से नहीं भागते तो मार दिए जाते.
अलीबाज का एक सवाल है: ‘जिस घर में मेरे चाचा (अजमू), चाची (अलीमन) और अब्बा (नसीरुद्दीन) का कत्ल कर दिया गया, मैं वहां जाकर कैसे रह सकता हूं? मुझे यह भरोसा कौन दिलाएगा कि वहां मुझे मार नहीं दिया जाएगा?’
अलीबाज ने सिर्फ अपने परिजन ही नहीं खोए हैं. उन्होंने अपनी जिंदगी को लगातार तबाह होते देखा है. और यह एक ऐसी घटना है जिसे कैलेंडर की कुछ तयशुदा तारीखों में नहीं मापा जा सकता. यह इस व्यवस्था में धार्मिक अल्पसंख्यकों और दलितों का सामाजिक इतिहास भी बनाता है.
पच्चीस साल पहले तक अलीबाज के पास पहले अपने दो हथकरघे हुआ करते थे, जिस पर बुने कपड़ों को उनके मुहल्ले के लोग घूम घूम कर बेचा करते थे. पूंजी की कमी, सूत की महंगाई और सरकारी मदद की गैर मौजूदगी में उन्हें यह काम बंद कर देना पड़ा. इसके बाद वे शहर की दुकानों से थोक में कपड़े खरीद कर गांव गांव में बेचने लगे. लेकिन 20 साल यह काम करने के बाद इस काम को भी बंद कर देना पड़ा, क्योंकि उनके पास पर्याप्त पूंजी नहीं बच पाती थी. सो उन्होंने घूम घूम कर रद्दी-कबाड़ खरीद कर बेचना शुरू किया. इस धंधे में उनका यह तीसरा साल था. लेकिन अब धंधा भी हाथ से गया और थोड़ी बहुत जमा पूंजी भी. उनके पास कुल मिला कर 300 गज जमीन हुआ करती थी, जिस पर उनके घर के सात कमरे थे. उन्हें दुख इस बात का है कि जब हिंदू समूह ने हमला किया तो उनमें वे दलित भी थे, जिनके पास उन्हीं जितनी जमीन है. या उतनी भी नहीं. वे समझ नहीं पाते कि आखिर दलितों को उनसे क्या शिकायत थी?
अगर इलाके में जमीन के मालिकाने पर नजर डालें तो इसे समझना बहुत मुश्किल नहीं है. इलाके में ज्यादातर जमीनों के मालिक संपन्न जाट हैं. सबसे संपन्न 4.78 फीसदी लोगों के पास कुल भूमि का 26.73 फीसदी मालिकाना है, जबकि सबसे नीचे के 60 फीसदी लोगों के पास करीब 20 फीसदी जमीन है. जाहिर है इस दूसरे समूह के पास बहुत छोटी जोतें हैं-एक हेक्टेयर से भी कम. भूमिहीन लोगों में मुस्लिम और दलित सबसे बड़े दो समूह हैं. वे अपनी आजीविका के लिए जाटों के खेतों और उनके द्वारा संचालित दूसरे धंधों पर निर्भर हैं. वे एक दूसरी वजह से भी निर्भर हैं. संपन्न जाट महाजनी का एक समांतर धंधा भी करते हैं. वे 10 फीसदी तक की ऊंचे सूद पर पैसा गरीब भूमिहीनों को देते हैं. कुरमल गांव से आकर नूरपुर खुरगान में रह रहे मो. दिलशाद ने 2003 में 40000 हजार रुपए एक जमींदार सूदखोर से लिए थे, जिसके बदले में उनपर 2006 में एक लाख 80 हजार रुपए की देनदारी थी. पैसा न चुका पाने की हालत में उन्हें जमींदारों के यहां बंधुआ मजदूर के रूप में काम करना पड़ता है, जो ज्यादातर मामलों में पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है. इस प्रभुत्वशाली तबके का कानूनी और साथ साथ कानून के बाहर की राजनीतिक-सामाजिक संगठनों पर पूरा कब्जा होता है-चाहे वह पंचायतों के सरपंच हों, मुखियाहों या प्रधान या फिर खाप पंचायतें हों. उनका पुलिस और स्थानीय प्रशासन पर पूरा नियंत्रण होता है. दिशलाद ने मुसलमानों द्वारा झेले जा रहे सामंती उत्पीड़न और हमले के डर के बारे में बताया, ‘अगर हम नए कपड़े पहनें तो वे हमें गाली देते हैं और सूअर कहते हैं. वे हमारे साथ गाली के बगैर बात ही नहीं करते…और तो और वे किसी को भी कभी भी गिरफ्तार करा सकते हैं.’
खेती से होने वाले आय को सूद पर चलाने और बाजार की स्थिरता के बीच भारी मशीनी के इस्तेमाल की वजह से खेती की उत्पादकता में कोई खासी तरक्की नहीं दिखी है, राज्य की उत्पादकता में सात फीसदी वृद्धि दर के बरअक्स इस इलाके में खेती की वृद्धि दर महज 4.5 फीसदी है. जाहिर है कि बड़े किसान, जो ज्यादातर गन्ना की खेती करते हैं और जिन्हें अपर्याप्त सरकारी समर्थन मूल्य की शिकायत रही है, संकट का सामना कर रहे हैं. इस संकट का एक दूसरा पहलू भी है. इस संकट ने एक सामाजिक तनाव को पैदा किया है, जिसका नतीजा सांप्रदायिक हमले के रूप में सामने आया है और जो पूरे देश में दलितों, आदिवासियों और मुसलमानों के खिलाफ लगातार बढ़ रहे हमलों का ही एक हिस्सा है. दलित तबका आर्थिक और समाजिक रूप से संपन्न और भूस्वामी जाट तबके पर इस कदर निर्भर है, कि वह उनके दबाव से तब बाहर नहीं जा सका, जब खाप पंचायतों के जरिए आरएसएस और संपन्न तबके ने मुसलमानों पर हमले की योजना पर अमल किया.
इसलिए, जिन्हें मुआवजा नहीं मिला है, वे भी अब अपने गांव नहीं लौटना चाहते. अब दोबारा उस बंधुआ जिंदगी को जीने की चाहत उनमें नहीं है.
वे अपने गांव नहीं लौट सकते. वे शिविरों में नहीं रह सकते. उनके पास कोई संसाधन नहीं है. वे कहां जाएं?
महबूबा गुस्से में हैं, ‘आग लगा दो अपने मुआवजे में. मेरी बच्ची को जिंदा कर दो.’
जिस जगह पर उनकी बच्ची दफ्न है, उसे छोड़ कर वे कहीं नहीं जाएंगी.
याद. अपनी मरी हुई बच्ची की याद, जो इस जमीन पर दफ्न है. इसलिए वे इस जमीन से नहीं जाएंगी. इंसान किसी को क्यों याद करता है. अब हम उस जगह पर पहुंच गए हैं जहां हम यह सवाल कर सकते हैं: चीजें याद में क्यों बनी रहती हैं? खास कर अगर वो नाइंसाफी और जुल्म से, गुनाह और जुर्म से जुड़ी हुई हों? ऐसी यादों के बने रहने के साथ यह उम्मीद जुड़ी होती है कि इनका कभी इंसाफ होगा. इंसाफ की यह उम्मीद किसी हुकूमत या व्यवस्था से भी हो सकती है और किसी ऐसी ताकत से भी जिनके बारे में उन्हें यकीन हो कि वह मौजूद है और वह सबकुछ देखती और इंसाफ करती है.
हुकूमत और व्यवस्था ने उनके सामने बार बार यह साफ किया है कि वे उनसे कोई उम्मीद नहीं रखें. ठंड से ठिठुरते हुए जिन हफ्तों में उन्हें पुलिस और प्रशासन से शिविरों की हिफाजत के लिए रात-रात भर सड़कों जागते हुए बैठना पड़ा, उत्तर प्रदेश की सरकार और प्रशासन मुलायम सिंह के गांव सैफई में भव्य जलसे में जुटा हुआ था. इस आयोजन में 200 से 300 करोड़ रुपए खर्च किए जाने का अनुमान लगाया जा रहा है. इसके अलावा सात हजार की आबादी वाले इस गांव के लिए 334 करोड़ रुपए की योजनाएं मौजूदा सरकार के दौरान घोषित की गई हैं. लेकिन सांप्रदायिक हमलों में तबाह लोगों को बहाल करने की जरूरत इस सरकार को कभी महसूस नहीं हुई.
अगर सरकार और मौजूदा व्यवस्था इस इंसाफ को यकीनी नहीं बनाती तो जब तक यह इंसाफ मिल नहीं जाता, तब तक के लिए जरूरी है कि अपराध के सबूत बने रहें. और जिनके खिलाफ ये अपराध किए गए हैं, वे भी. बदहाली और तकलीफों से गुजर रही जिंदगी के बीच कैमरे के सामने अपनी मौजूदगी को दर्ज कराने में किसी झिझक के न होने के पीछे यह जिद है. राहत शिविरों में रह रहे हजारों लोग महसूस करते हैं कि उन पर किया गया हमला एक कौम के रूप में उनके अस्तित्व पर किया गया हमला है. वे महसूस करते हैं कि एक पूरे समुदाय के रूप में उनकी जिंदगी को तबाह कर देना इस हमले का मकसद है. वे यह भी बताते हैं कि यह ऐसा हमला नहीं है, जिसे महज तारीखों के साथ गिनाया जा सके. यह शायद उनके होने के साथ ही शुरू हो गया था. इसलिए, जब वे काले से डिब्बे के भीतर एक शटर के खुलने और बंद होने के बीच कैमरे की तरफ देखना चुनते हैं तो वे एक बयान दे रहे होते हैं कि एक संप्रदाय के रूप में मिटा दिए जाने की सारी कोशिशों के बावजूद वे बने हुए हैं. यहां. इस तरह. हाड़ मांस की शक्ल में. रगों में दौड़ते हुए खून और आती जाती सांसों के साथ. ताकि सनद रहे.
वे जानते हैं कि अगर यादें बनी रहीं तो इंसाफ की उम्मीदें भी बची रहेंगी. अगर उन्हें भुला दिया गया तो जुर्म का आखिरी सबूत भी मिट जाएगा. वे देखते हैं कि कैसे उनकी सारी तकलीफों को, उनके दर्द और उनकी बेदखली को पिछले चार महीनों में झुठलाने की कोशिशें हुई हैं. ये कोशिशें तब हुई हैं जब एक लाख लोग इन चार महीनों में उजड़े और राहत शिविरों में बसने को मजबूर किए गए. अगर वे यहां से चले गए तो क्या कोई मानेगा कि यहां कोई जुर्म हुआ भी था? अगर इस जुर्म के होने को स्वीकार करना है तो सबसे पहले उनकी मौजूदगी को भी स्वीकार करना होगा, जिन के खिलाफ जुर्म हुआ.
जाहिर है अब तक उन्हें निराशा ही मिली है. लेकिन इस दुनिया में चार गुना चार हाथ के तंबू के सामने अपने परिवार के लिए आटा गूंथती इस लड़की की तस्वीर जब तक रहेगी, वह इंसानी याद को इस बेचैनी से निजात दिलाती रहेगी कि इंसाफ की जरूरत को साबित करने वाली अकेली वही नहीं है. एक तस्वीर भी है.
(इस लेख में फोटोग्राफी संबंधी कुछ बुनियादी स्थापनाओं के लिए लेखक जॉन बर्जर और सूसन सॉन्टैग का आभारी है.)
मलकपुर शिविर, शामली. अपनी बीमार मां और हताश पिता से बीच चार लोगों के परिवार के लिए आटा गूंधते हुए निसा कैमरा देख कर रुकती नहीं. बस मुस्कुरा देती है. पास के खाट पर उसकी मां की सांसें दमे से उखड़ रही हैं और पिता धुआं उगलते चूल्हे में आग जलाने की कोशिश कर रहे हैं.
बिना दीवारों वाली यह एक ऐसी जगह है जहां रातों में तापमान दो डिग्री तक गिर जाता है. हवा से बचाने के लिए उनके पास पॉलिथीन की चादरों, फटे कपड़ों और चीथड़े हो चुके कंबलों के अलावा कुछ नहीं है. आसपास गन्ने की सूखी हुई पत्तियां हैं, लकड़ी की चिन्नियां हैं, न्यूमोनिया से मरते बच्चों की फेहरिश्त है, खाली पेट दिन गुजारने की मजबूरियां हैं और अपने घर से बेदखल कर दिए जाने की जलील यादें हैं. इन सबके बीच वह कौन सी चीज है जो उन्हें कैमरे के सामने मुस्कुरा उठने के लिए तैयार करती है?
क्या यह सिर्फ कैमरे के आगे खड़े होकर मुस्कुराने की आदत भर है?
लेकिन यह मुमकिन नहीं है. मुजफ्फरनगर, शामली, मेरठ, सहारनपुर और बागपत के जो एक लाख से ज्यादा लोग अपने घरों से उजाड़ दिए गए हैं, गुजर बसर की आखिरी उम्मीदें भी जिनसे छीन ली गई हैं, जिनकी हरेक पुरानी चीज को उनकी जिंदगी से बाहर कर दिया गया है- यह सिर्फ एक आदत भर नहीं हो सकती कि वे कैमरे के आगे मुस्कुराएं.
इसका संबंध काफी हद तक इससे है कि वे अपनी जिंदगी में फोटोग्राफ्स को किस तरह लेते आए हैं.
यह यकीन किया जाता है कि फोटोग्राफ किसी एक चुने हुए पल को हमेशा के लिए, या कम से कम लंबे समय तक के लिए, सहेज कर रख लेता है. वक्त गुजर जाता है, आदमी गुजर जाते हैं, जगहें बदल जाती हैं, लेकिन तस्वीरों में बचा कर रखा हुआ वह पल ज्यों का त्यों बना रहता है. बदले हुए हालात में वह उस जिंदगी की यादगार के रूप में मौजूद रहता है. फोटोग्राफ द्वारा यह भूमिका अपना लेने के कारण इंसानी याद्दाश्त पर उस खास मौके को हमेशा ज्यों का त्यों बचा कर रखने की जिम्मेदारी नहीं रहती. और चूंकि एक फोटोग्राफ भौतिक रूप में मौजूद रहता है न कि महज किसी की याद में, इसलिए वह सबके लिए सार्वजनिक रूप से उपलब्ध होता है. इस सहूलियत के कारण फोटोग्राफ्स को उन हालात के एक सच्चे सबूत की तरह लिया जाता है, जिनसे एक खास वक्त में जिंदगी को गुजरना पड़ा था.
यानी ये आदतें नहीं बल्कि यादें हैं, जो इन हालात में फोटोग्राफ के लिए तैयार होने को सहज बनाती हैं.
वे यादें खौफ और आतंक में डूबी हुई रातों की यादें हैं. जब मुजफ्फरनगर, शामली, मेरठ, सहारनपुर और बागपत जिलों के दूर दराज के उनके गांवों में प्रभुत्वशाली हिंदू भू-स्वामी जातियों तथा खाप पंचायतों के नेतृत्व में दक्षिणपंथी सांप्रदायिक ताकतों द्वारा जनसंहार, औरतों पर यौन हमले, आगजनी और लूटपाट की गई. झूठी खबरों और अफवाहों के बूते पूरे मुस्लिम समुदाय के खिलाफ ऐसा माहौल बनाया गया कि उनका गांवों में रहना मुमकिन नहीं रह गया. मुस्लिम आबादी वाले मुहल्लों पर हमले हुए, उनकी दुकानें और मकान लूट लिए गए. औरतों के खिलाफ किए गए अमानवीय अपराधों की ऐसी शिकायतें हैं, जिन पर एकबारगी यकीन नहीं होता. आरा मशीन पर उन्हें चीर देने की शिकायतें. कांच के टुकड़ों पर, निर्वस्त्र करके नाचने पर मजबूर करने की शिकायतें. मुस्लिम गोरी औरतों को हमलावरों द्वारा जबरन अपने घर में कैद कर रख लेने की शिकायतें.
शामली जिले के फुगाना गांव में मेहरदीन की नंगी लाश पिंकू जाट के घर में बल्लियों से लटकी हुई मिली. एक दूसरे गांव में घटना की पड़ताल करने दिल्ली से गई एक टीम को कहा गया कि इससे क्या फर्क पड़ता है कि मुसलमान कितनी संख्या में मार दिए गए? उनके तो बच्चे ज्यादा होते हैं.
सचमुच कोई फर्क नहीं पड़ता. कम से कम उस व्यवस्था को तो बिल्कुल ही नहीं, जिसे बटन दबा कर बदल देने के दावों की गूंज अभी ठीक से खत्म भी नहीं हुई है. मेहरदीन की तरह सीधे हमले में मार दिए गए लोगों की तादाद सरकारी तौर पर अधिक से अधिक 80 है लेकिन गैर सरकारी तौर पर यह संख्या 130 के ऊपर जाती है. जो इन हमलों में जीवित बच गए वे एक अनिश्चित भविष्य में दाखिल हुए. उनमें से ज्यादातर पिछले चार महीनों से ज्यादा वक्त इन शिविरों में गुजार चुके हैं, जहां बाहर से आ रही नाकाफी मदद किसी तरह जिंदा रख पा रही है. कभी कभी वह भी नहीं. जैसे कि चित्तमखेड़ी, बागपत से आईं महबूबा के लिए अपनी बच्ची को भूल पाना मुश्किल हो रहा है. 2 दिसंबर को बुखार और उल्टी शुरू हुई तो उन्होंने पाया कि उसे ठंड लगी है. अगले दिन सवेरे वे उसे पास के कैराना कस्बे में एक डॉक्टर को दिखाने ले गईं. इंजेक्शन देकर इंतजार करने के बाद भी जब उसकी हालत नहीं सुधरी तो डॉक्टर ने उन्हें लौटा दिया. उस रात दो बजे उनकी बच्ची गुजर गई. खुशनुमा! अब बस यह एक नाम बचा रह गया है, एक खाली जगह की शक्ल में, जो यह महसूस कराता है कि वह बच्ची कभी इस दुनिया में हुआ करती थी.
महबूबा के पति फावड़े की मजदूरी करते हैं. यानी जमीन के मालिक प्रभुत्वशाली तबके के गन्ने के खेतों में काम करते हैं. उनके पास अपनी जमीन नहीं हुई कभी. सांप्रदायिक हमलों में परिवार के उजड़ जाने और रोजगार खो बैठने के बाद उनके पास कुछ भी नहीं है, सिवाय इस तंबू के, जूट की रस्सियों से बुनी हुई एक खाट के, दर्जन पर कपड़ों के और कुछ बरतनों के. आप इसे एक दुस्वप्न भरी जिंदगी कह सकते हैं, जो पिछले साल सितंबर में शुरू हुई.
लेकिन महबूबा के लिए इसकी शुरुआत कभी हुई ही नहीं. वे इसे हमेशा से जीते आए हैं. अपनी सात साल की बेटी के बाल ठीक करते हुए वे बताती हैं, ‘कई साल पहले मेरे ससुर बारू को बीच मोहल्ले में मार दिया गया पीट पीट कर. न कोई केस बना न किसी को सजा हुई. जिन्होंने मारा वे ऊंची जाति के हैं. जमीन उनकी है, पुलिस और सरकार में उनका रोब-दाब है. हम कौन हैं? हम तो उनकी हाजिरी में जीने वाले लोग हैं. हमारी कोई ताकत नहीं है.’ इस साल जब रमजान का महीना चल रहा था, जबरन उन्हीं तबकों से आने वाले लोगों ने मस्जिद पर से लाउडस्पीकर उतरवा दिया, जिस पर अजान दी जाती थी और रोजा खोलने के वक्त का ऐलान होता था. कोई कुछ न कर सका. महबूबा कहती हैं, ‘बच्चे पूछते हैं कि हम मुसलमान क्यों हैं? हम जिस तरह जीना चाहते हैं, हमें इसकी आजादी क्यों नहीं है? हमारे पास आज तक एक मस्जिद तक नहीं है. बस एक चबूतरा है, जिसे हम मस्जिद कहते हैं.’
और अब महबूबा से वह गांव भी छूट गया है जिसमें एक चबूतरेनुमा मस्जिद हुआ करती थी. और अगर सरकार की चली तो यह शिविर भी छूट जाएगा. प्रेस और अदालतों में राहत शिविरों की दुर्दशा की खबरों की चर्चा के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने जबरन शिविरों को बंद कराया जाने लगा है. साल के पहले हफ्ते में, जब मुजफ्फरनगर और शामली जिलों में तापमान शून्य के आसपास गिर गया था, पुलिस और प्रशासन ने जबरन शिविरों को खाली कराया. जिस वक्त महबूबा अपनी बच्ची के बाल संवार रही थीं, सरकारी अधिकारियों की गाड़ियों का एक काफिला मलकपुर शिविर से धूल उड़ाता हुआ रवाना हुआ. वे इस शिविर को खाली कराने के लिए 12 घंटे में दूसरी बार आए थे. पहली बार वे आधी रात के बाद उस वक्त आए थे जब उन्हें उम्मीद थी कि लोग सो रहे होंगे. लेकिन परिवारों के मर्द और बच्चे सड़क को घेरे हुए रात भर बैठे रहे थे, ताकि पुलिस को जबरन शिविर में घुसने से रोका जा सके. अगले दिन दोपहर में जब वे दोबारा आए तो फिर लोगों ने उन्हें घेर कर वापस लौटा दिया. इलाके में लगभग सभी शिविरों में यह कहानी थोड़े-बहुत अंतर से दोहराई गई.
मलकपुर, नूरपुन खुरगान, सुनेठी और लोई जैसे करीब 25 राहत शिविरों में रह रहे तीस हजार से अधिक लोगों के पास कोई विकल्प नहीं है. शिविर छोड़ कर वे जाएंगे कहां? जिन लोगों ने पिछले चार महीनों में कभी अपने पुराने गांव लौटने की कोशिश की, उन्हें अपमान और धमकियां सहनी पड़ीं. खेड़ी गांव, जिला शामली के मो. सलीम दिसंबर में एक बार अपने गांव लौटे थे. उनके मकान पर प्रभुत्वशाली जाट समुदाय के लोगों ने कब्जा कर लिया है. सलीम को देख कर उन्होंने गाली गलौज की और कहना शुरू किया कि ‘मुल्ले फिर आ गए. देखते हैं कि ये कैसे यहां रहते हैं.’ डरे हुए और अपमानित सलीम लौट आए.
राज्य या केंद्र, किसी भी सरकार ने इनको फिर से बसाने की कोई कोशिश नहीं की है. लेकिन ये हमेशा के लिए विस्थापित जिंदगी जीते रहें, इसे यकीनी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई है. सरकार राहत शिविरों में रह रहे सभी लोगों को पीड़ित मानने को राजी नहीं. इसलिए उन्हें मुआवजा भी नहीं मिलेगा. अगस्त सितंबर के दौरान इन इलाकों में हुए सांप्रदायिक हमलों के कारण 162 गांवों के मुसलमान विस्थापित हुए. लेकिन सरकार महज 9 गांवों को ही ‘दंगा’-ग्रस्त स्वीकार करने को तैयार है. वे गांव हैं- लाक, लिसाढ़, बहावड़ी, कुतबा, कुतबी, मोहम्मदपुर रायसिंह, काकड़ा, फुगाना, और मुंडभर. सरकार इन गांवों के कुल 1800 परिवारों को प्रति घर पांच लाख की रकम मुआवजे के बतौर देने की बात कर रही है. लेकिन एक घर में अगर अनेक परिवार हों तब या तो यह रकम बंट कर बहुत थोड़ी सी रह जाएगी या फिर रकम किसी एक परिवार के पास ही रहेगी और बाकी परिवारों को कोई रकम नहीं मिल पाएगी. ऐसा अनेक मामलों में देखने में आया भी है.
राज्य सरकार ने अब तक जिन गिने-चुने लोगों को मुआवजा राशि दी है, उन्हें इसके लिए एक हलफनामा दायर करना पड़ा है कि वे लौट कर अपने गांव नहीं जाएंगे. अगर गए तो यह राशि उनसे उसी तरह जब्त कर ली जाएगी जैसी बकाया लगान वसूला जाता है.
बाकी 153 गांवों के विस्थापित लोगों के बारे में सरकार का कहना है कि वे मुआवजे की लालच में शिविरों में रह रहे हैं, जबकि उनका कोई नुकसान नहीं हुआ है. यह सही नहीं है. लोगों ने हमले से आतंकित होकर गांव छोड़ा और जो लोग पीछे रह गए वे मार दिए गए या लापता हैं, जैसे कि लिसाढ़ से आए अलीबान के अब्बा के साथ हुआ. अगस्त सितंबर में जब वे लोग गांव से भागे तो उनके अब्बा नसीरुद्दीन नहीं आए. उनके साथ साथ 12 दूसरे लोगों ने भी गांव छोड़ना कबूल नहीं किया. अगले दिन वे सभी 13 लोग मार दिए गए. उनमें से सिर्फ दो की लाश मिल पाई. साफ है कि अगर लोग गांव से नहीं भागते तो मार दिए जाते.
अलीबाज का एक सवाल है: ‘जिस घर में मेरे चाचा (अजमू), चाची (अलीमन) और अब्बा (नसीरुद्दीन) का कत्ल कर दिया गया, मैं वहां जाकर कैसे रह सकता हूं? मुझे यह भरोसा कौन दिलाएगा कि वहां मुझे मार नहीं दिया जाएगा?’
अलीबाज ने सिर्फ अपने परिजन ही नहीं खोए हैं. उन्होंने अपनी जिंदगी को लगातार तबाह होते देखा है. और यह एक ऐसी घटना है जिसे कैलेंडर की कुछ तयशुदा तारीखों में नहीं मापा जा सकता. यह इस व्यवस्था में धार्मिक अल्पसंख्यकों और दलितों का सामाजिक इतिहास भी बनाता है.
पच्चीस साल पहले तक अलीबाज के पास पहले अपने दो हथकरघे हुआ करते थे, जिस पर बुने कपड़ों को उनके मुहल्ले के लोग घूम घूम कर बेचा करते थे. पूंजी की कमी, सूत की महंगाई और सरकारी मदद की गैर मौजूदगी में उन्हें यह काम बंद कर देना पड़ा. इसके बाद वे शहर की दुकानों से थोक में कपड़े खरीद कर गांव गांव में बेचने लगे. लेकिन 20 साल यह काम करने के बाद इस काम को भी बंद कर देना पड़ा, क्योंकि उनके पास पर्याप्त पूंजी नहीं बच पाती थी. सो उन्होंने घूम घूम कर रद्दी-कबाड़ खरीद कर बेचना शुरू किया. इस धंधे में उनका यह तीसरा साल था. लेकिन अब धंधा भी हाथ से गया और थोड़ी बहुत जमा पूंजी भी. उनके पास कुल मिला कर 300 गज जमीन हुआ करती थी, जिस पर उनके घर के सात कमरे थे. उन्हें दुख इस बात का है कि जब हिंदू समूह ने हमला किया तो उनमें वे दलित भी थे, जिनके पास उन्हीं जितनी जमीन है. या उतनी भी नहीं. वे समझ नहीं पाते कि आखिर दलितों को उनसे क्या शिकायत थी?
अगर इलाके में जमीन के मालिकाने पर नजर डालें तो इसे समझना बहुत मुश्किल नहीं है. इलाके में ज्यादातर जमीनों के मालिक संपन्न जाट हैं. सबसे संपन्न 4.78 फीसदी लोगों के पास कुल भूमि का 26.73 फीसदी मालिकाना है, जबकि सबसे नीचे के 60 फीसदी लोगों के पास करीब 20 फीसदी जमीन है. जाहिर है इस दूसरे समूह के पास बहुत छोटी जोतें हैं-एक हेक्टेयर से भी कम. भूमिहीन लोगों में मुस्लिम और दलित सबसे बड़े दो समूह हैं. वे अपनी आजीविका के लिए जाटों के खेतों और उनके द्वारा संचालित दूसरे धंधों पर निर्भर हैं. वे एक दूसरी वजह से भी निर्भर हैं. संपन्न जाट महाजनी का एक समांतर धंधा भी करते हैं. वे 10 फीसदी तक की ऊंचे सूद पर पैसा गरीब भूमिहीनों को देते हैं. कुरमल गांव से आकर नूरपुर खुरगान में रह रहे मो. दिलशाद ने 2003 में 40000 हजार रुपए एक जमींदार सूदखोर से लिए थे, जिसके बदले में उनपर 2006 में एक लाख 80 हजार रुपए की देनदारी थी. पैसा न चुका पाने की हालत में उन्हें जमींदारों के यहां बंधुआ मजदूर के रूप में काम करना पड़ता है, जो ज्यादातर मामलों में पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है. इस प्रभुत्वशाली तबके का कानूनी और साथ साथ कानून के बाहर की राजनीतिक-सामाजिक संगठनों पर पूरा कब्जा होता है-चाहे वह पंचायतों के सरपंच हों, मुखियाहों या प्रधान या फिर खाप पंचायतें हों. उनका पुलिस और स्थानीय प्रशासन पर पूरा नियंत्रण होता है. दिशलाद ने मुसलमानों द्वारा झेले जा रहे सामंती उत्पीड़न और हमले के डर के बारे में बताया, ‘अगर हम नए कपड़े पहनें तो वे हमें गाली देते हैं और सूअर कहते हैं. वे हमारे साथ गाली के बगैर बात ही नहीं करते…और तो और वे किसी को भी कभी भी गिरफ्तार करा सकते हैं.’
खेती से होने वाले आय को सूद पर चलाने और बाजार की स्थिरता के बीच भारी मशीनी के इस्तेमाल की वजह से खेती की उत्पादकता में कोई खासी तरक्की नहीं दिखी है, राज्य की उत्पादकता में सात फीसदी वृद्धि दर के बरअक्स इस इलाके में खेती की वृद्धि दर महज 4.5 फीसदी है. जाहिर है कि बड़े किसान, जो ज्यादातर गन्ना की खेती करते हैं और जिन्हें अपर्याप्त सरकारी समर्थन मूल्य की शिकायत रही है, संकट का सामना कर रहे हैं. इस संकट का एक दूसरा पहलू भी है. इस संकट ने एक सामाजिक तनाव को पैदा किया है, जिसका नतीजा सांप्रदायिक हमले के रूप में सामने आया है और जो पूरे देश में दलितों, आदिवासियों और मुसलमानों के खिलाफ लगातार बढ़ रहे हमलों का ही एक हिस्सा है. दलित तबका आर्थिक और समाजिक रूप से संपन्न और भूस्वामी जाट तबके पर इस कदर निर्भर है, कि वह उनके दबाव से तब बाहर नहीं जा सका, जब खाप पंचायतों के जरिए आरएसएस और संपन्न तबके ने मुसलमानों पर हमले की योजना पर अमल किया.
इसलिए, जिन्हें मुआवजा नहीं मिला है, वे भी अब अपने गांव नहीं लौटना चाहते. अब दोबारा उस बंधुआ जिंदगी को जीने की चाहत उनमें नहीं है.
वे अपने गांव नहीं लौट सकते. वे शिविरों में नहीं रह सकते. उनके पास कोई संसाधन नहीं है. वे कहां जाएं?
महबूबा गुस्से में हैं, ‘आग लगा दो अपने मुआवजे में. मेरी बच्ची को जिंदा कर दो.’
जिस जगह पर उनकी बच्ची दफ्न है, उसे छोड़ कर वे कहीं नहीं जाएंगी.
याद. अपनी मरी हुई बच्ची की याद, जो इस जमीन पर दफ्न है. इसलिए वे इस जमीन से नहीं जाएंगी. इंसान किसी को क्यों याद करता है. अब हम उस जगह पर पहुंच गए हैं जहां हम यह सवाल कर सकते हैं: चीजें याद में क्यों बनी रहती हैं? खास कर अगर वो नाइंसाफी और जुल्म से, गुनाह और जुर्म से जुड़ी हुई हों? ऐसी यादों के बने रहने के साथ यह उम्मीद जुड़ी होती है कि इनका कभी इंसाफ होगा. इंसाफ की यह उम्मीद किसी हुकूमत या व्यवस्था से भी हो सकती है और किसी ऐसी ताकत से भी जिनके बारे में उन्हें यकीन हो कि वह मौजूद है और वह सबकुछ देखती और इंसाफ करती है.
हुकूमत और व्यवस्था ने उनके सामने बार बार यह साफ किया है कि वे उनसे कोई उम्मीद नहीं रखें. ठंड से ठिठुरते हुए जिन हफ्तों में उन्हें पुलिस और प्रशासन से शिविरों की हिफाजत के लिए रात-रात भर सड़कों जागते हुए बैठना पड़ा, उत्तर प्रदेश की सरकार और प्रशासन मुलायम सिंह के गांव सैफई में भव्य जलसे में जुटा हुआ था. इस आयोजन में 200 से 300 करोड़ रुपए खर्च किए जाने का अनुमान लगाया जा रहा है. इसके अलावा सात हजार की आबादी वाले इस गांव के लिए 334 करोड़ रुपए की योजनाएं मौजूदा सरकार के दौरान घोषित की गई हैं. लेकिन सांप्रदायिक हमलों में तबाह लोगों को बहाल करने की जरूरत इस सरकार को कभी महसूस नहीं हुई.
अगर सरकार और मौजूदा व्यवस्था इस इंसाफ को यकीनी नहीं बनाती तो जब तक यह इंसाफ मिल नहीं जाता, तब तक के लिए जरूरी है कि अपराध के सबूत बने रहें. और जिनके खिलाफ ये अपराध किए गए हैं, वे भी. बदहाली और तकलीफों से गुजर रही जिंदगी के बीच कैमरे के सामने अपनी मौजूदगी को दर्ज कराने में किसी झिझक के न होने के पीछे यह जिद है. राहत शिविरों में रह रहे हजारों लोग महसूस करते हैं कि उन पर किया गया हमला एक कौम के रूप में उनके अस्तित्व पर किया गया हमला है. वे महसूस करते हैं कि एक पूरे समुदाय के रूप में उनकी जिंदगी को तबाह कर देना इस हमले का मकसद है. वे यह भी बताते हैं कि यह ऐसा हमला नहीं है, जिसे महज तारीखों के साथ गिनाया जा सके. यह शायद उनके होने के साथ ही शुरू हो गया था. इसलिए, जब वे काले से डिब्बे के भीतर एक शटर के खुलने और बंद होने के बीच कैमरे की तरफ देखना चुनते हैं तो वे एक बयान दे रहे होते हैं कि एक संप्रदाय के रूप में मिटा दिए जाने की सारी कोशिशों के बावजूद वे बने हुए हैं. यहां. इस तरह. हाड़ मांस की शक्ल में. रगों में दौड़ते हुए खून और आती जाती सांसों के साथ. ताकि सनद रहे.
वे जानते हैं कि अगर यादें बनी रहीं तो इंसाफ की उम्मीदें भी बची रहेंगी. अगर उन्हें भुला दिया गया तो जुर्म का आखिरी सबूत भी मिट जाएगा. वे देखते हैं कि कैसे उनकी सारी तकलीफों को, उनके दर्द और उनकी बेदखली को पिछले चार महीनों में झुठलाने की कोशिशें हुई हैं. ये कोशिशें तब हुई हैं जब एक लाख लोग इन चार महीनों में उजड़े और राहत शिविरों में बसने को मजबूर किए गए. अगर वे यहां से चले गए तो क्या कोई मानेगा कि यहां कोई जुर्म हुआ भी था? अगर इस जुर्म के होने को स्वीकार करना है तो सबसे पहले उनकी मौजूदगी को भी स्वीकार करना होगा, जिन के खिलाफ जुर्म हुआ.
जाहिर है अब तक उन्हें निराशा ही मिली है. लेकिन इस दुनिया में चार गुना चार हाथ के तंबू के सामने अपने परिवार के लिए आटा गूंथती इस लड़की की तस्वीर जब तक रहेगी, वह इंसानी याद को इस बेचैनी से निजात दिलाती रहेगी कि इंसाफ की जरूरत को साबित करने वाली अकेली वही नहीं है. एक तस्वीर भी है.
(इस लेख में फोटोग्राफी संबंधी कुछ बुनियादी स्थापनाओं के लिए लेखक जॉन बर्जर और सूसन सॉन्टैग का आभारी है.)
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