05 फ़रवरी 2014

नया दल बनने का आधार



अनिल चमड़िया
नौवें दशक यानी 1990 से पहले के साल पुरानी राजनीति के बिखराव और नई राजनीति के बनने के थे। इतिहास में एक लम्हा ऐसा आता है जब राजनीतिक बिखराव और निर्माण का नया स्वरूप तैयार होता है। सोवियत संघ के टूटने का दुनिया भर में कम्युनिस्ट विचारधारा और उसके संगठनों पर सीधा असर तो हुआ ही, तमाम बने-बनाए राजनीतिक स्वरूप भी उससे प्रभावित हुए। भारत की पूरी राजनीतिक प्रक्रिया इससे प्रभावित हुई। इसे दो तरह की स्थितियों के रूप में भी देख सकते हैं। एक तो भ्रष्टाचार के खिलाफ संसदीय पार्टियों में बिखराव और निर्माण की प्रक्रिया थी। रक्षा मंत्रालय के बोफर्स तोप सौदे में दलाली के मुद्दे को विश्वनाथ प्रताप सिंह ने उठाया और भारत के संसदीय इतिहास में सबसे ज्यादा सीटें जीतने वाले राजीव गांधी की कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया। जनता दल संसद में ही अल्पमत में नहीं था, बल्कि जनता दल के भीतर विश्वनाथ प्रताप सिंह भी देवीलाल के मुकाबले अल्पमत में थे, लेकिन ऐसी स्थिति में भी भाजपा और वामपंथी पार्टियों पर उन्हें समर्थन देने का एक जन-दबाव था। उनकी सरकार तब तक भ्रष्टाचार-विरोधी भावना के साथ केंद्र में बनी रही जब तक कि उन्होंने कुछ बुनियादी राजनीतिक मुद््दों को नहीं उठाया। इनमें मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करना भी शामिल है।
देश के बड़े हिस्से में प्रभाव रखने वाला नक्सलवादी संगठन संसदीय राजनीति में प्रवेश कर रहा था। उसके नेतृत्व में देश भर में विभिन्न तरह के समूहों और समुदायों में आंदोलन चलाने वाले संगठनों का मोर्चा बिखर रहा था। तब उस संगठन के एक बड़े नेता ने हैरान कर देने वाला यह सुझाव दिया कि उक्त संगठन को भंग कर देना चाहिए और विभिन्न तरह के समूहों और समुदायों के आंदोलनों के साथ जुड़ जाना चाहिए। एक नई राजनीति के निर्माण के लिए विभिन्न स्तरों पर होने वाले आंदोलनों के साथ ही उक्त संगठन के नेता और कार्यकर्ता अपना रिश्ता जोड़ लें। यह इस देश और संगठन की सीमाओं के संदर्भ में एक राजनीतिक दूरदृष्टि थी। यह बिखराव नहीं, एक नए निर्माण की प्रक्रिया से जुड़ा कार्यकलाप था, जो कि बेहद जटिल था और जिसके पूरा होने की संभावनाओं को देख पाना लगभग असंभव था।
दोनों ही प्रक्रियाओं के आगे नहीं बढ़ पाने के बाद की स्थितियां हमारे सामने हैं। पीवी नरसिंह राव के नेतृत्व में कांग्रेस की अल्पमत सरकार ने भूमंडलीकरण की परियोजना को स्वीकार किया। लेकिन उसके साथ उनकी यह घोषणा महत्त्वपूर्ण थी कि भूमंडलीकरण का विरोध संसदीय राजनीति करने वाली कोई पार्टी सत्ता में आकर नहीं कर सकती। जैसे विश्व व्यापार संगठन के प्रमुख ने कहा कि भूमंडलीकरण दुनिया भर में लोकतंत्र के मौजूदा स्वरूप के साथ नहीं चल सकता है। संसदीय व्यवस्था की बुनियादी शर्त विपक्ष का मौजूदा होना है। लेकिन राव की विपक्ष के खत्म होने की घोषणा यह भी स्पष्ट कर रही थी कि संसदीय राजनीति में जो विपक्ष की भूमिका दिखेगी, वे केवल दृश्य होंगे जो कैमरे के काम सकते हैं। मसलन सड़कों पर जुलूस, प्रदर्शन, सदनों में हो-हल्ला आदि विपक्ष के कार्यक्रमों का एक ढर्रा दिखेगा। वे नीतियों के स्तर पर प्रभावित करने से दूर होंगे। बाद के दौर में तो यह सामने आया कि मुख्य विपक्षी भारतीय जनता पार्टी वास्तव में भूमंडलीकरण की नीतियों की विरोधी होने के बजाय नई आर्थिक नीतियों को और हमलावर तरीके से लागू करने के लिए सत्ताधारी पार्टी को कोसती रही है। एक तरह से सभी राजनीतिक दलों के दो चेहरे हो गए। आखिरकार दो मुख्य पार्टियों के रूप में भूमंडलीकरण समर्थक कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी ही सामने नजर आती हैं। जो सत्ता में होता है उसे लोकतांत्रिक और आम आदमी के पक्ष में दिखने वाले कुछेक कार्यक्रमों का सहारा लेना पड़ता है और जो विपक्ष में होता है उसे नीतियों के बजाय भावनाओं का उत्पाद थमा कर भीड़ जुटाने और विपक्ष में होने का दृश्य बनाना होता है। मजे की बात यह भी है कि यह राजनीतिक प्रक्रिया यहां तक पहुंची कि भाजपा और कांग्रेस के एकीकरण का भी सुझाव दिया जाने लगा। राजनीतिक प्रक्रिया खंडों में नहीं बंटी होती है। वह एक लंबी कड़ी होती है। नीतियों का संबंध राजनीतिक मूल्यों के उत्पाद या विरासत पर प्रहार और परंपराओं को मजबूत करने और खत्म करने के परिणाम से होता है। ऐसा नहीं हो सकता कि विपरीत नीतियों से अपने राजनीतिक मूल्यों और राजनीतिक प्रक्रिया को बचाए रखा जा सकता है। विपरीत नीतियों ने बेहद सूक्ष्म स्तर पर संसदीय संस्थाओं और उनके आचार-व्यवहार को बुरी तरह प्रभावित किया। मानवीय मूल्यों का राजनीति से लगभग निष्कासन हुआ।
एक उदाहरण इंडियन एक्सप्रेस के संवाददाता रह चुके हेमेंद्र नारायण ने दिया। उन्होंने मिजोरम के पांचवीं बार मुख्यमंत्री का एक पुराना बयान सुनाया। मिजोरम में लगभग बीस हजार की आबादी वाली ब्रु जाति को उस राज्य से बेदखल कर दिया गया। मुख्यमंत्री ने उनके बारे में कहा कि उनकी तो भगवान भी मदद नहीं कर सकता है। यानी संसदीय राजनीति में जो समूह अपने संख्याबल से संसदीय पार्टियों की सत्ता में भागीदारी को प्रभावित नहीं कर सकता हो वह राजनीतिक सरोकार के दायरे से ही बाहर हो गया। दूसरा उदाहरण हाल के दिनों में देखने को मिला, जब लक्ष्मणपुर बाथे हत्याकांड में किसी को सजा नहीं होने की स्थिति पर चिंता जाहिर करते हुए तीस लाख लोगों के हस्ताक्षर के साथ हजारों लोग देश के राष्ट्रपति से मिलने पहुंचे। राष्ट्रपति से मिलने का उन्हें मौका नहीं मिला। राष्ट्रपति को देश का प्रथम नागरिक माना जाता है, उनके पद की गरिमा का बखान संसदीय व्यवस्था में किया जाता रहा है। लेकिन राजनीति में मानवीय मूल्यों के क्षरण को समझने के लिए इस उदाहरण को देखा जा सकता है।

आमतौर पर यह देखने को मिलेगा कि लोगों के पत्रों के जवाब सत्ता संस्थानों से मिलने बंद होते चले गए। जनप्रतिनिधि तक के पत्रों और संसद में पूछे गए सवालों के साथ भी यही सलूक होता रहा है। शिकायतों की सुनवाई लगभग बंद हो गई है। यानी संसदीय व्यवस्था को तर्कसंगत बनाए रखने के जो छोटे-छोटे औजार थे वे सभी भोथरे हो गए। लोगों के साथ राजनीतिक पार्टियों के व्यवहार का आकलन करें। पार्टियों की सक्रियता का दायरा सिमटता गया है। संसदीय राजनीति में अपने वजूद को बनाए रखने के लिए समाज के एक हिस्से या कुछेक हिस्सों की भीड़ का किसी हद तक समर्थन हासिल करने का मकसद पार्टियों के भीतर विचार के रूप में जम गया। दूसरी तरफ गैरसरकारी संगठनों का एक ऐसा ढांचा विकसित हुआ, जो सीमित दायरों में रही अपनी सक्रियता से आगे बढ़ कर फैल गया। वे संगठन राजनीतिक प्रक्रियाओं से निकले कार्यकर्ताओं को वेतनभोगी सेवक के रूप में दिखने लगे। उन्हें नई आर्थिक नीतियों के लाभ के दायरे में ला दिया गया। राजनीतिक पार्टियों का लोगों के साथ इस स्तर का कटाव हुआ कि उनके बरक्स गैरसरकारी संगठनों की वैधता स्थापित हुई। पार्टियों में भी उन संगठनों के साथ जुड़ने और उनके साथ दिख कर अपने राजनीतिक अस्तित्व को बनाए रखने की एक प्रतिस्पर्धा पैदा हो गई। यहां तक कि सत्ताधारी कांग्रेस को अपना आम आदमी का हितैषी चेहरा दिखाने के लिए ऐसे ही संगठनों की सलाहकार परिषद बनानी पड़ी। इसे इस रूप में भी देखा जा सकता है कि राजनीतिक प्रक्रिया के बिखरने की स्थिति में पार्टियों की अपनी नेतृत्व-क्षमता चुकती गई। वे सभी पिछलग्गू बनने की होड़ में खड़ी हो गर्इं। इस संकुचन को लगातार उनके अप्रासंगिक होने के तौर पर देखा जाना चाहिए। कुल मिलाकर आम आदमी भले राजनीतिक मुहावरे में रहा, लेकिन उसके साथ संवाद के तमाम रास्ते बंद हो गए। अस्सी के दशक में एक नए राजनीतिक निर्माण की जो संभावनाएं दिख रही थीं वे विचारों के स्तर पर घुमड़ती रही हैं। विचार एक अनौपचारिक संगठन के रूप में निर्मित होते रहते हैं। उनकी पहचान करना और उन्हें एक दिशा में निर्देशित करना ही राजनीतिक कौशल होता है। राजनीतिक कुशलता किसी प्रबंधन संस्थान की डिग्री से नहीं आती। उस पर स्थापित संगठनों का एकाधिकार नहीं होता। जैसे कि दिल्ली में बिल्कुल नए राजनीतिकर्मियों ने नई पार्टी बना कर सत्ता हासिल कर ली।
यह सही है कि राजनीतिक कुशलता दो स्तरों पर दिख सकती है। यानी एक स्तर पर राजनीतिक कौशल यह हो सकता है कि समय की पहचान करके एक विपक्ष का आभास दिया जाए और सत्ता द्वारा पैदा की गई ऊब को दूर करने की कोशिश की जाए। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने बत्तीस वर्षों से ज्यादा समय से सत्ता पर काबिज वाममोर्चे को सत्ता से बाहर कर दिया। उन्होंने हवाई चप्पल पहन कर वाम के मुकाबले अपने आम आदमी के चेहरे को स्थापित कर लिया। लंबे समय से पश्चिम बंगाल में जो स्थितियां बन रही थीं उन्हें ममता बनर्जी ने विपक्ष की तरफ ले जाने में सफलता हासिल की। आम आदमी पार्टी भी उभरी है और गौर करें कि एक नई पार्टी के बनने की जो अनुकूल स्थितियां विकसित हो रही थीं उन्हें उसने एक संसदीय राह दी। आम आदमी पार्टी के बनने से पहले उसके नेतागण दावा करते रहे कि वे राजनीतिक दल का गठन नहीं करेंगे। स्थितियां और परिस्थितियां ही वास्तविक विपक्ष हैं। इसीलिए आम आदमी पार्टी बनने की पूरी प्रक्रिया पर नजर डालें तो आंदोलन के संस्थापक नेता बाहर निकलते गए, फिर भी कोई फर्क नहीं पड़ा। तकनीकी तौर पर यह गैरसरकारी संगठनों के राजनीतिक एकीकरण का रूप दिख रहा है, लेकिन वह यहीं तक सीमित नहीं है। संसदीय राजनीतिक प्रक्रिया से तमाम स्तरों पर जो ऊब और घुटन पैदा हुई है वह अपने लिए वैचारिक रास्ते की तलाश में है और फिलहाल इस मायने में आम आदमी पार्टी ही अकेली सामने है। उसके साथ प्रतिस्पर्द्धा में कोई नहीं है। नई राजनीति के निर्माण की स्थितियां बनी हैं। ईमानदार शासन की जरूरत, सत्ता की चमक-दमक को ठुकराने, सादगी की संस्कृति को राजनीति में वापस लाने की आम आदमी पार्टी की अपील लोगों को प्रभावित करने में कामयाब हुई है। पिछले पच्चीस सालों में नई पार्टी की जरूरत का अहसास कराने वाली स्थितियां तो बनी हैं, पर इसकी परिवर्तनकारी संभावनाओं को आगे ले जाने के साहस की कमी दिखती है।

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