15 अगस्त 2012

आज़ादी की कोई तारीख नहीं होती.


वक्त की सलाख़ें इतनी नाजुक नहीं होती कि घड़ी की मामूली सी सूईयां उन्हें तोड़ सकें. आज़ादी का खयाल पराधीन समयों में और अधिक बलवती हो जाता है. वे सारी उत्कंठाएं ज्यादा उभर कर सामने आती हैं जो मुक्त अवस्था में बेहद मामूली लगती हैं. किसी भी तरह की पराधीनता शायद प्रकृति के खिलाफ एक कार्यवाही होती है. इतिहास का कलेंडर पलटते हुए किसी दिन पर उंगली रख कर यह कहना मुश्किल है कि यह दिन आज़ादी का है. क्योंकि आज़ादी के मायने तारीखों में नहीं बंधे होते. एक ऐसी महसूसियत जिसकी जरूरत समाज में हर वक्त बढ़ती रही है और इसी जरूरत ने पुरानी सभ्यताओं को जीवाश्म के रूप में परिवर्तित करते हुए उस पर नयी सभ्यता खड़ी की है.. इस एहसास को पाने की तलब ने कई बार आज़ादी के दायरे को बढ़ाया और समेटा है. इसे पाने और व्यापक बनाने की इच्छा की निरंतरता को ही किसी समाज के विकासशील होने के प्रमाण के रूप में देखा जा सकता है. यकीनन अगस्त १९४७ की कोई तारीख आज़ादी के उस एहसास को नहीं भर सकती जो मूल्यों और विचारों के रूप में किताबों में दर्ज है और किताबें हमारे जीवन की गतिशीलता में आज़ादी नहीं दे सकती. बहते पानी और हवा जैसी आज़ादी जहां तिनके की रोकावट तक न हो.
इसे जीवन जीने के सर्वोत्तम मूल्य के तौर पर बचाना और हासिल करना होता है और मांगने से ज्यादा इसे छीनना पड़ता है. शायद यह एक आदर्श देश की संकल्पना होती है जब संविधान में निहित आज़ादी वहां के लोगों की जिंदगियों में उतर जाए, जब संविधान में लिखे हुए शब्द किसी देश की नशों में पिधल कर बहने लगें, जब देश का प्रथम नागरिक और अंतिम नागरिक आज़ादी को वैसे महसूस करे जैसे एक फल की मिठास को दोनों की जीभ. अलबत्ता १४ अगस्त १९४७ की सुबह और १६ अगस्त की सुबह में एक फर्क जरूर रहा होगा. उनके लिए भी जो देश की तत्कालीन राजनीति व संघर्ष में भागीदारी निभा रहे थे और उनके लिए भी जो देश में जीवन जीने के भागीदार बने हुए थे. एक मुल्क के बंटवारे की त्रासदी और एक उपनिवेष से मुक्ति का मिला जुला एहसास. जब कोई देश किसी दूसरे देश की गुलामी से मुक्त हो जाए और पड़ोसियों, रिश्तेदारों का देश निकाला सा हो जाए यह कुछ वैसा ही रहा होगा. यह गुलामी को साथ-साथ और आज़ादी को बिछुड़कर जीने का अनुभव रहा होगा.
हमने राष्ट्र की आज़ादी से लेकर एक व्यक्ति की आज़ादी के बारे में सोचा कि दिल्ली में १५ अगस्त को देश के प्रगति व विकास के गुणगान उन दूर दराज के गांवों तक जा पाते होंगे क्या? दूसरी हरित क्रांति के आवाह्न पर शायद विदर्भ का किसान देर तक हंसता होगा या शायद चुप रहता होगा या शायद... इतनी सारी तोपों की सलामियां और जहाजों की रंगीन धुएं की उड़ानों के जश्‍न के वक्त छत्तीसगढ़ के दूर जंगलों में बैठा एक आदिवासी क्या सोचता है उस वक्त, फिलवक्त कहना मुश्किल है, हर वर्ष और इस वर्ष भी. इस बरस तो वे सैन्य बलों द्वारा सामूहिक हत्याओं का दंश झेल रहे हैं. फिर यह जो विकास की सड़क चली वह कहां रुक गयी उन पर कौन चलता है. क्या नेहरु, गांधी या भगत सिंह का भारत किसी दीवाल पर टंगे मानचित्र में ही टंगा रह गया. देश की पंक्ति में खड़ा आखिरी आदमी, उसे सुकून से सोने के लिए इन ६५ वर्षों में ६५ रातें भी नहीं मिली. दिल्ली से इतनी दूर तक महज भूख और बीमारियां ही पहुंचती हैं जिनका ज्यादातर इलाज मौत है. बासागुड़ा से लेकर सारंडा और लातेहार तक आर्थिक रूप से कमजोर एक बड़ी आदिवासी आबादी है जिसके गांवों से सरकार को सार्वाधिक खतरा महसूस हो रहा है और यह निर्धनतम लोगों का अमीरतम लोगों को खतरा है. एक वर्गीय खतरा जो १५ अगस्त के बढ़ते वर्षों के साथ बढ़ता जा रहा है. यह बड़ी आबादी राज्य द्वारा अपराधी घोषित कर दी गयी है. आखिर एक राष्ट्र की आज़ादी के क्या मायने हो सकते हैं. यह सवाल राष्ट्र की अवधारणा को भी सोचने पर मजबूर करता है कि एक राष्ट्र के ही क्या मायने है. बगैर जन के किसी राष्ट्र की परिकल्पना नहीं की जा सकती और जब जन बदहाल हो, और लगातार राष्ट्र की सुरक्षा से असुरक्षित हो तो जश्‍न-ए-आज़ादी को कौन मना रहा है.
जब कोई राष्ट्र किसी उपनिवेष से मुक्त होता है तो क्या इसे ही जन की आज़ादी के रूप में देखा जाना चाहिए. आज़ादी का एक मायने यह भी हो सकता है पर व्यापक आज़ादी एक राष्ट्र में हर व्यक्ति को मिलने वाली आज़ादी होती है. अंग्रेजी उपनिवेष से भारत की मुक्ति ने एक सम्प्रभु राष्ट्र के निर्माण में मदद की पर देश के अंदर औपनिवेषिक मुक्ति के संघर्ष के दौरान कई तरह की बहसे चल रही थी और विभिन्न दल अपने विचारों के साथ उभर रहे थे. औपनिवेषिक मुक्ति के बाद जन शासन की जो प्रणालियां लागू होंनी थी उनको लेकर राजनेताओं में मतभेद थे. ६ दशकों बाद जन के लिए आज़ादी के प्रत्यक्षतः यही मायने बचे कि गोरे चेहरों की प्रताड़नाएं भूरे चेहरों में शामिल हो गई कि अब अपने ही घर से उठकर कोई हुक्मरान बन गया और उन पर हुक्म चलाने लगा पर हुक्मरानियों में कोई कमी न आई कि एक लम्बे वक्त का संघर्ष तीन रंगों में सिमट गया. लिहाज़ा देश की राजनीतिक संरचना को एक दूसरे देश की कब्जेदारी से मुक्ति मिलने के बाद भी व्यक्ति की आज़ादी का दायरा नहीं बढ़ा. लोकतंत्र के इस दायरे को बढ़ाने के लिए देश में संविधान बनाये गये थे उसमे समानता और समता के लक्ष्य तो रखे गये पर आज तक उसे पाना सम्भव न हुआ बल्कि खाईयां और भी बढ़ी. एक वक्त बीत जाने के बाद ७० के दशक में लोगों ने ४७ की आज़ादी को नकारते हुए एक अलग नारा भी दिया कि ''यह आज़ादी झूठी है.'' संसदीय लोकतंत्र के तहत जिस ढांचे का विकास शुरु हुआ था शायद यही वह पहला वक्त था जब से देश में लोकतांत्रीकरण की प्रक्रिया चालू होनी थी. यही वह वक्त था जब देश में व्यक्ति के आज़ादी का दायरा बढ़ना शुरु होता. आज उन ६४ वर्ष से लगातार चल रहे एक दिवसीय आज़ादी के जश्‍न और उससे लोगों को मिली आज़ादी की पड़ताल की जानी चाहिए. वह जिसका स्वप्न कई जन नेताओं ने देखा था या फिर उसका जिसे वक्त के पहले ही भगत सिंह देखते हुए कुर्बान हुए थे. भारतीय जन की आज़ादी किस मुकाम पर है और वह तमाम राष्ट्रीयताओं को समेटे हुए इस मुल्क में कितना आज़ाद महसूस कर रहा है. समय के साथ मूल्यों में बदलाव आते हैं और मूल्यों के मायने भी बदलते हैं. ४७ के पहले जो राष्ट्रीय भावनाएं प्रबल हुई थी उनका विलोप बहुत कम ही वक्त में शुरु हो गया और आज देश के कई राज्य, राष्ट्र असंतुष्ट हैं. आज़ादी का एक व्यापक आशय है जिसमे स्वक्षंदता से लेकर पराधीनता की स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक आज़ादी तक सिमटी हुई है. पराधीनता की स्थिति मे जो छूट मिलती है उसे भी स्वतंत्रता के तौर पर देखा जा सकता है.
गांधी ने स्वतंत्रता के बाद व्यक्ति की आज़ादी के जो स्वप्न देखे थे उसका आधार पंक्ति के उस आखिरी आदमी के आज़ादी से था जो समाज में विभिन्न कारणों से पिछड़ा हुआ था यह एक ऐसा विचार था जो गैर बराबरी को पाटने और समानता आधारित समाज को बनाने की तरफ अग्रसर हो सकता था पर इस गैरबराबरी को पाटने के लिए जो माध्यम चुने गये जिस ढांचे का निर्माण किया गया उसने इसे और बढ़ाया. और सन ४७ के २७ वर्षों बाद जय प्रकाश नारायण को यह कहना पड़ा कि ''२७ वर्षों में जो कुछ हुआ वह उल्टा हुआ. गरीबी बढ़ती गयी और अमीरी भी और दोनों का फर्क भी बढ़ता गया.''
४७ के बाद का देश उम्मीदों से भरा हुआ था उसके पास राष्ट्र के असीमित संसाधन थे और असीमित मुश्किलें भी थी. संसाधनों का दोहन किस तौर पर किया जाय और यह मुश्किलें लगातार बढ़ती गयी क्योंकि इसको लेकर जो नीतियां शुरुआती दौर से बननी शुरु हुई उससे धीरे-धीरे यह जाहिर होने लगा कि यह आम जन मानस के हित में नही होगा. बावजूद इसके राज्य कल्याणकारी रुख अपनाता रहा पर एक वक्त के बाद राज्य के संसाधनों को निजी हांथों में सौंपने की जब खुले आम घोषणा की गयी तो उसके खिलाफ कोई व्यापक और संगठित प्रतिरोध उभर कर नहीं आया. आज देश की बृहद समस्याएं इन नीतियों की ही उत्पाद हैं. एक तरफ देश के भंडार खाद्यानों से भरे हुए हैं और दूसरी तरफ लोग भूख से भी मर रहे हैं. क्योंकि राज्य अपने कल्याणकारी उत्तरदायित्वों को निर्वाह करने में अक्षम हो गया. इस लिहाज से देश की इतनी बड़ी आबादी के लिए जो वितरण प्रणाली बनाई जानी चाहिए वह नहीं बनाई गयी. संविधान में निहित धर्मनिर्पेक्षता को लगातार होते साम्प्रदायिक दंगे खारिज करते रहे और समय के साथ जिस साम्प्रदायिकता को कमजोर होना था वह बढ़ती ग्यी. यह एक किस्म से संविधान को ही अमान्य घोषित करने जैसा था जब साम्प्रदायिक पार्टियां अपने साम्प्रदायिक उद्‍घोषों के साथ देश के तमाम राज्यों व केन्द्र की सत्ता में आई. क्योंकि समाज में एक वैज्ञानिक समझ विकसित करने के लिए राज्य ने कोई ठोस कार्य योजना विकसित नहीं की. धर्मनिरपेक्षता को धार्मिक स्वतंत्रता के रूप में देखा गया और ऐसे में बहुसंख्यकों ने धार्मिक आधार पर बाहुबली होने का परिचय कई बार दिया और लगातार दे रहे हैं. यदि वैज्ञानिक चेतना को विकसित किया जाता और एक धर्म विहीन राष्ट्र की कार्य योजना तैयार की जाती तो शायद यह राष्ट्र के लिए एक नई दिशा प्रदान करता. जातीय गैर बराबरी को दूर करने के लिए जो भी उपक्रम अपनाए गए वे दमित जातियों को आर्थिक मजबूती तो दे सके पर समाज में जातीय वर्चस्व के एहसास को बहुत कम ही खत्म कर पाये. जातीयता के आधार लोगों की मानसिकताओं से जुड़े थे और उस मानसिकता को महज आर्थिक मजबूती के आधार पर कमजोर नहीं किया जा सकता था उसके लिए वर्चस्वशाली जातियों के मनोविजान को बदलना बेहद जरूरी था. देश के कई दमित समूहों के उत्थान को लेकर एक ऐसी प्रक्रिया की शुरुआत की गयी जिसमे वे अपने मूल स्वरूप व संस्कृति को खो रहे हैं. आदिवासी समाज का एक बड़ा तबका इसी का शिकार बना यह प्रकृति के साथ बेहद नजदीकी से रिश्ता बनाकर चलने वाली जीवन शैली का प्रतीक था. मानव समाज के विकास की प्रक्रिया का वह अंश जो स्वभावतः प्रकृति के साथ अपने को बदल रहा था और विकसित हो रहा था पर आधुनिकता के नाम पर उनकी जिंदगियों में खलल डाला गया और उनके जंगलों से उन्हें विस्थापित करने के प्रयास किए जाने लगे लिहाज़ा उसका रुख मानवीय स्वभाव के अनुरूप विद्रोही होता गया और आज राष्ट्र उनके लिए और प्रधानमंत्री की भाषा में वे राष्ट्र के लिए खतरा बन गये.
वर्तमान समय में जिन आंदोलनों का उभार हुआ है वे किसी भी तरह के सामाजिक परिवर्तन के लिए नाकाफी हैं पर वे एक हद तक संसदीय लोकतंत्र की कुछ खामियों को कम जरूर कर सकते हैं. वे कम्पनियां जो बड़े-बड़े जंगलों का सफाया करवा रही हैं वही देश को हरा भरा बनाने का आवाह्न करती हुई हरे कपड़ों में युवाओं को देश में दौड़ा रही हैं जबकि यह सच्चाई है कि हरे कपड़ों में सायकिल यात्राओं से देश में कोई हरियाली नहीं आ सकती. जबकि पूरी दुनिया में आज़ादी और लोकतंत्र को लेकर आंदोलन चल रहे हैं और अरब जगत जन पर शासन की पुरातन व्यवस्था राजशाही के खिलाफ मुखरित हो चुका है. भारत संसदीय लोकतंत्र की उन खामियों से जूझ रहा है जिनका सम्पत्ति के केन्द्रीकरण के साथ सीधा रिश्ता बनता है. इसी रूप में भ्रष्टाचार एक अहम मुद्दे के तौर पर सामने उभारा जा रहा है और उसकी जड़ को लोगों की आंखों से ओझल किया जा रहा है. जिसको लेकर कई तरह के आंदोलन हाल के दिनों में देखने को मिल रहे हैं. चाहे वह अन्ना का लोकपाल बिल को लेकर चलाया गया आंदोलन हो या फिर बाबा रामदेव के द्वारा चलाया गया आंदोलन. ये आंदोलन मूल रूप में उस ढांचे पर कोई चोट नहीं कर रहे हैं जहां से भ्रष्टाचार की प्रवृत्तियां बलवती होती हैं बल्कि कई मायने में ये ये खुद उसी ढांचे में समाहित हो जाते हैं. इन्हें एक गैर राजनीतिक तौर पर जन समर्थन प्राप्त होता रहा और चंद हफ्तों में ये कमजोर भी पड़ गए. जबकि अपने आप में यह छलावा है कि कोई भी आंदोलन किसी भी तौर पर गैर राजनीतिक हों. देश का जन आज इस दुर्भाग्यपूर्ण दौर से गुजर रहा है जहां वह गैर राजनीति के नाम पर किए जाने वाले राजनीतिक अनुष्ठानों का भागीदार बन रहा है. दरअसल १९४७ के बाद ६५ वर्षों में संसदीय राजनीति से पैदा हुए विमोह ने लोगों को गैर राजनीतिक कार्यवाहियों की तरफ या गैर राजनीति के नाम पर होने वाले आंदोलनों की तरफ आकर्षित किया है. जबकि ऐसे आंदोलन के अंत को भी हम लगभग देख चुके हैं और यह समाहित हो चुका है. ऐसे में देश का भविष्य वहां होगा जहां जन का क्रोध एकत्रित हो रहा है, जहां लोग एक सूखते हुए पेड़ की जड़ में कुल्हाड़ियां चला रहे हैं. जहां वे ६५ साल की आज़ादी में अपने को लुटा महसूस करता हुआ एक नई तलाश में एकजुट हो रहे है. आज़ादी और लोकतंत्र के मायने वर्तमान में चल रहे उन्हीं आंदोलनों से उभर कर आयेंगे.
दख़ल की दुनिया आर्काइव से.

14 अगस्त 2012

एनजीओ आंदोलनों को नष्ट करता है.

अनिल चमड़िया
एनजीओ का उद्देश्य राजनीतिक विकल्प तैयार करना कतई नहीं होता है. उसकी गतिविधियां राजनैतिक विकल्प वाले आंदोलनों को कमजोर करती हैं. एनजीओ की अवधारणा पूंजीवादी देशों की तैयार की गई है. राजनीतिक विकल्प की जब हम बात करते हैं तो उसमें यह निहित होता है कि जिन लोगों द्वारा अपने हितों में व्यवस्था चलाई जा रही है, सत्ता के उस आधार को बदला जाए. जिनका शोषण हो रहा है अपनी व्यवस्था का निर्माण करें.
एनजीओ का बड़ा हिस्सा इसी वर्ग को विभिन्न तरह के वैसे कार्यक्रमों में सक्रिय करता है, जिनसे उनके जीवन का कोई हिस्सा प्रभावित होता है. अपने देश में बड़े एनजीओ विदेशों की मदद से चलते हैं.
विदेशी मदद को यहां राष्ट्रवाद के चश्मे से नहीं देखें बल्कि विदेशी सहयोग के अर्थों को पहले समझने की कोशिश करें. कई स्तरों पर एक देश दूसरे देश की मदद करते हैं और उन सबको विदेशी मदद कहा जा सकता है. लेकिन विदेशी मदद शब्द के इस्तेमाल से उसके साथ जो ध्वनि निकलती है, वह तय करती है कि उसका उस संदर्भ में क्या मायने हैं? क्या ये आरोप की शक्ल में हैं? अपने देश में राजनीतिक स्तर पर जब विदेशी मदद का आरोप लगाया जाता है तो वह राष्ट्र की सार्वभौमिकता और स्वतंत्रता में हस्तपेक्ष की कोशिश का विरोध होता है.
डा. राममनोहर लोहिया ने 11 जून से 15 जून 1962 में गोरखपुर में समाजवादियों के एक सम्मेलन को संबोधित किया और राजनीतिक तौर पर विदेशी मदद की जो व्याख्या एक घटना से की, उसे देखा जाना चाहिए. लोहिया के अनुसार 1951 में वे अमेरिका में नॉर्मन टामस से मिलें. टामस समाजवादी आंदोलनकारी थे. लोहिया की मानें तो सारी दुनिया के पैमाने पर नार्मन टामस से ज्यादा बड़ा और बढ़िया समाजवादी ढूंढना मुश्किल था.
टामस ने लोहिया से कहा कि अमरीकी समाजवादी अपने देश में सिर्फ कुछ विचार फैलाने के अलावा कुछ कर नहीं पाए हैं-“तुम्हारे यहां चुनाव आ रहा है. तुम गरीब हो लेकिन तुमसे जनता का सहयोग मिला हुआ है. अगर तुम हमारा पैसा लेकर चुनाव में ज्यादा सफलता लेते हो तो उसमें मुझे क्यों नहीं खुशी लेने देते हो कि मैंने एक समाजवादी भाई की मदद की.”
डाक्टर लोहिया ने जवाब दिया, “यह आपकी बड़ी मेहरबानी है लेकिन हमलोगों का यह तरीका नहीं है. इसके बाद राजनीति बिगड़ जाया करती है.”
लोहिया ने आग्रह किया तो कहा कि ज्यादा से ज्यादा आप आगे चलकर मान लो स्कूल के काम हैं. इसमें आदान-प्रदान के मतलब गैर हिन्दुस्तानी, अमरीकी हिन्दुस्तानी बाहर जाएं. इन सब चीजों के लिए कुछ कर सकते हो तो करो.
इस प्रसंग का थोड़ा और विस्तार है; पर वह विदेशी मदद वाली राजनीति की पैठ को समझने के लिए जरूरी है. लोहिया ने बताया कि टामस ने उनके सामने विदेशी मदद का प्रस्ताव क्यों रखा? टामस के अनुसार जब वे बम्बई (अब मुंबई) में थे, दिल्ली में थे, तब उन्होंने लोहिया के कुछ साथियों से बात की थी. उन साथियों ने ही टामस से कहा था, ‘ठीक है, पैसा दिलाना.’ विदेशी मदद से देश की राजनीति के बिगड़ने की आशंका किसी राष्ट्र की राजनीति में स्वावलंबन की जरूरत को बुनियादी मूल्य के रूप में स्पष्ट करती है.
विदेशी मदद की राजनीति ने भारतीय समाज को बहुत नुकसान पहुंचाया है. पूर्व रक्षा मंत्री जार्ज फर्नाडीस ने आरोप लगाया था कि 1967 में चुनाव में कोई भी ऐसी पार्टी नहीं थी, जो बिना विदेशी मदद के चुनाव मैदान में उतरी हो. उस विदेशी मदद की जांच के लिए एक संसदीय समिति भी बनी थी लेकिन उसकी रिपोर्ट तब से दबी पड़ी है.
सीपीएम के महासचिव प्रकाश करात ने 1984 में अपने एक लंबे लेख को विस्तार कर विदेशी मदद और स्वयंसेवी संगठन( एनजीओ) के दर्शन पर एक पुस्तिका लिखी थी. उस दौर के बाद विदेशी मदद से गैर सरकारी संगठनों की सक्रियता पर सवाल खड़े किए जाते रहे हैं.
प्रकाश करात के अनुसार स्वैच्छिक संगठनों के लिए वैचारिक आधार सातवें दशक के अंत में ही तैयार करके इस्तेमाल किया जा रहा था. तब प्रकाश करात ने अपनी सूचना के अनुसार स्वैच्छिक संगठनों और एक्शन ग्रुपों की संख्या पांच हजार बताई थी और लिखा था कि ये पश्चिमी साम्राजी मुल्कों की विभिन्न एजेंसियों से अपनी गतिविधियों के लिए पैसा पा रहे हैं. उस दौर में साम्राजी रणनीति में एक नए तत्व के उभरने के संकेत दिए थे.
वास्तव में हमें एनजीओ की पड़ताल आत्मनिर्भरता, स्वावलंबन की राजनीति के विकास के संदर्भ में करनी होगी. किसी भी परिवर्तनगामी आंदोलन की कसौटी यह होती है कि उसके विकास और विस्तार को निर्देशित करने वाली ताकत किसके हाथों में है. जनता विदेशी वित्तीय मदद वाले आंदोलन में भी हो सकती है और अपने संसाधनों के बूते भी वह आंदोलन खड़ी कर सकती है लेकिन दोनों तरह के आंदोलनों की अपनी-अपनी फसल तैयार होती है. एनजीओ की राजनीति पर एक मुक्कमल बहस की जरूरत है लेकिन बहस को कई स्तरों पर घालमेल कर भटकाया जाता रहा है.
आंदोलनों में कैसे परजीविता की भावना बढ़ी है; इसका तो सहज अंदाजा लगाया जा सकता है. राजनीतिक कार्यकर्ता एनजीओ के वेतनभोगी कार्यकर्ता में तब्दील होता दिखाई देता है. सबसे बड़ी तो इस भावना का तेजी के साथ विस्तार का होना है कि राजनीति से पहले पैसे का जुगाड़ होना चाहिए. ऐसे में परिवर्तन क्या खाक हो सकता है?

07 अगस्त 2012

विपरीत मिजाज़ की ख़बरें नहीं चलेंगी

-दिलीप खान
मीडिया के समाजशास्त्र और राजनीति पर जब बात होती है तो विश्लेषण का नज़रिया तीन स्पष्ट भागों में बंट जाता है। पहला नज़रिया मीडिया के काम-काज के मौजूदा तरीके को बेहतरीन करार देता है। तर्क देने वालों का मानना होता है कि मीडिया पर आग्रह-पूर्वाग्रह के जो आरोप लगाए जाते हैं वो लगभग आधारहीन हैं। मीडिया को लेकर जो तस्वीर इनके भीतर होती है वो एडमंड बर्क द्वारा कथित लोकतंत्र के मज़बूत चौथे खंभे वाली होती है। दूसरे नज़रिए वाले लोग यह मानते हैं कि ख़बरों के चयन और प्रकाशन/प्रसारण के जरिए मीडिया एक ख़ास राजनीतिक विचारधारा को प्रश्रय देने के साथ-साथ एक विशेष क़िस्म का जनमत तैयार तो करता है, लेकिन यह किसी निर्धारित योजना के तहत हो रहा हो, ऐसा नहीं है। माध्यम की गति, पुष्टिकरण की सीमा, ख़बरों तक आसान पहुंच या फिर पत्रकारों की उन्मुखता जैसे कारणों को मीडिया के राजनीतिक और समाजशास्त्रीय असर का इंजन बताया जाता है। तीसरी श्रेणी के लोगों का मानना है कि मीडिया जिस तरह की वैचारिकी हमारे समाज में पैबस्त कर रहा है और जिस निश्चित ढब-ढांचे में समाज को आकार दे रहा है वो किसी लंबी और निर्धारित योजना का हिस्सा है। चूंकि दुनिया भर में मीडिया को नियंत्रित करने वाले लोगों का हित एक खास खूंटी के साथ नत्थी है इसलिए उस खूंटी को बचाने और उसे मज़बूत करने के उपक्रम के बतौर मीडिया काम करता है। सरोकार और आम जनता के सवाल को उसी हद तक तवज्जो दी जाती है जहां से उस ख़ास खूंटी को कमज़ोर करने का दायरा शुरू होता है। इस तीसरी श्रेणी के विचारकों पर पहली और दूसरी श्रेणी के विचारक यह आरोप लगाते हैं कि दरअसल ये लोग अकादमिक समाजशास्त्री या राजनीतिशास्त्री या जो कुछ भी होते हों, लेकिन होते हैं मूल रूप से अकादमिक। यानी सैद्धांतिक निरुपण तो दे देते हैं, लेकिन मीडिया की मौजूदा व्यवहारगत सीमाओं और काम-काज के सूक्ष्म तरीकों से वो नावाकिफ़ होते हैं।
जिन सूक्ष्म तरीकों की बात कही जाती है उसके कई रूप हैं, लेकिन विश्लेषण से जाहिर होता है कि आग्रह-पूर्वाग्रह की बहस में मीडिया जिस चलताऊ तरीके का इस्तेमाल करके इसे माध्यम की सीमा करार देता है, असल में वैसा है नहीं। मीडिया की जो गति है, खासकर टीवी चैनलों की, वह एक तरह से आपाधापी जैसी है। हर चैनल को दूसरे चैनलों से 10 सेकेंड पहले विजुअल्स चाहिए ताकि एक्सक्लूसिव की पट्टी चिपकाई जा सके। हालांकि एक्सक्लूसिव बैंड चलाने के लिए ऐसा नहीं है कि चैनल इस शर्त का पालन करते ही हों, चलाने को तो जब मर्जी तब चला सकते हैं और चलाते भी हैं, लेकिन विजुअल्स यदि 10 सेकेंड पहले आ जाए तो एंकर को सबसे पहले हमारे चैनल पर जैसे जुमले उछालने का शानदार मौका मिल जाता है। इस पूरी संरचना का रिपोर्टर के ऊपर भारी दबाव होता है। अगर ग़लती होती है तो चैनल यह तर्क देता है कि जल्दबाज़ी से हुई यह मानवीय भूल थी, गोया मिनट भर की देरी से ख़बर बासी हो जाती! जल्दबाज़ी के तर्क का इस्तेमाल सिर्फ रिपोर्टिंग तक सीमित नहीं है बल्कि पैनल में बुलाए जाने वाले लोगों के चयन में भी इसका सहारा लिया जाता है। खगोलीय घटनाओं पर हिंदी में वैज्ञानिक व्याख्या पेश करने वाले खगोलविद् नहीं मिलने की वजह से भविष्यवक्ताओं को बुलाने की बात कही जाती है। क्या हिंदी पट्टी में समाजशास्त्री या फिर वैज्ञानिक चेतना वाले लोगों की सचमुच कमी है कि उनकी जगह को ज्योतिषियों और भविष्यवक्ताओं से भरना पड़ता है? ज्योतिषियों वाले इस औचक शो पर सेट और ग्राफिक्स की जो तैयारी होती है वह जल्दबाज़ी वाले तर्क को सिरे से खारिज करती दिखती है।
टीवी मीडिया में कार्यक्रम बंद करने का आधार कम लोकप्रियता नहीं है। अगर कार्यक्रम बंद होते हैं तो इसकी कुछ ठोस आर्थिक और सामाजिक वजहे हैं। बीते कुछ दिनों में हिंदी समाचार चैनलों पर कुछ ऐसे कार्यक्रम बंद हुए जो न सिर्फ दर्शकों के बीच काफ़ी लोकप्रिय थे बल्कि उनकी टीआरपी भी अच्छी थी। उनमें से एक के बंद होने से क्षुब्ध दर्शकों ने तो इंटरनेट मीडिया पर मनुहार के साथ-साथ काफी नाराज़गी भी जाहिर की। कार्यक्रम बंद करने के लिए चैनल के पास सिर्फ एक ही कारण था कि जो रिपोर्टर हफ़्ते में आधे घंटे की सामग्री तैयार कर रहा है और जिसे दोहराने से भी हफ्ते में सिर्फ़ एक घंटे का ही एयर टाइम भर रहा है, उसके बदले रिपोर्टर से रोज़-रोज़ घंटे-दो घंटे की एंकरिंग कराई जाय। इस तरह चैनल एक मानव संसाधन से आधे घंटे की बजाय हफ्ते में कम से कम 7-10 घंटे की सामग्री तैयार करवा रहा है। कम लागत पर ज़्यादा उत्पादन। टीआरपी की वजह से बाज़ार में कोई कार्यक्रम टिकेगा यह ज़रूरी नहीं है। कई समाचार चैनल बीते कुछ महीनों से एक एंकर को चार से पांच घंटे तक ऑन एयर रख रहा है। एक ही एंकर क्रिकेट और बॉलीवुड पर भी बहस कर रहा/रही है और अगले घंटे चरमराती अर्थव्यवस्था पर भी। अंतहीन बहस का सिलसिला चलता रहता है। सार यह कि कम लागत पर ख़बरें तैयार की जा रही है। मीडिया में सामग्री चयन के वास्ते दूसरी श्रेणी के विचारक इसे मज़बूत तर्क के तौर पर पेश करते हैं।
अब इन दोनों तर्कों को पलटाने वाला एक उदाहरण लेते हैं। बीते दिनों दो-तीन ऐसी घटनाएं घटीं जो भारतीय मुस्लिम समुदाय से संबंधित थीं। पहला मामला था पुणे के जेल में आतंकवाद के आरोप में बंद क़तील सिद्दकी की जेल के भीतर की गई हत्या, दूसरे और तीसरे मामले के तहत क्रमश: सऊदी अरब से फसीह महमूद का अपहरण और एटीएस द्वारा उत्तर प्रदेश और बिहार से कुछ मुस्लिम नवयुवकों को हिरासत में लिया जाना शामिल है। ख़बरों को कितनी प्रमुखता दी गई और ख़बरों का नज़रिया क्या था यह एक अलग विषय है लेकिन अख़बारों और चैनलों में इन तीनों मामलों का ज़िक्र आया। घटना के बाद देश में कई हिस्सों में विरोध प्रदर्शन भी किए गए। उत्तर प्रदेश के सीतापुर में हज़ारों लोगों ने सम्मेलन किया, लेकिन दिल्ली में 15 से ज़्यादा संगठन ने इन घटनाओं के बारे में स्थिति स्पष्ट करने की मांग के साथ गृह मंत्री पी. चिदंबरम के घर के सामने शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया। पुलिस ने 50 से ज़्यादा लोगों को हिरासत में लेकर चाणक्यपुरी थाने में बंद कर दिया। एजेंसी को छोड़ दे, तो भी मामले को कवर करने लगभग 10 राष्ट्रीय-क्षेत्रीय चैनल पहुंचे थे। टीवी चैनलों के नजरिए से देखें तो हर रिपोर्टर ने कम से कम 3-4 घंटे वहां पर खर्च किए, लेकिन ज़्यादातर चैनलों पर ख़बर नहीं चली। मामले में सबकुछ था। गृहमंत्री के घर पर प्रदर्शन था, 50 से ज़्यादा लोग गिरफ़्तार हुए थे, रिपोर्टरों के पास फुटेज थी और रिपोर्टर ख़बर लिखने को तैयार थे, लेकिन कई रिपोर्टरों ने शिकायत की कि उनके चैनल ने वह ख़बर नहीं चलाई। जिन चैनलों ने यह ख़बर नहीं चलाई, उनमें से एक ने अपने बुलेटिन में यह दिखाया कि गर्मी की वजह से किस तरह चिड़ियाघर में जानवर पानी के गड्ढे तलाश रहे हैं। हर चैनल के पास इस तरह की सॉफ्ट स्टोरी थी। इसका मतलब चैनलों के पास उससे ज़्यादा महत्वपूर्ण ख़बरों का अंबार लगा हो, ऐसा नहीं था, बल्कि कुछ ऐसा ज़रूर था जिसके साथ सारे चैनल एक सूत्र में बंधे थे। 17 डॉक्टर और 19 पायलट प्रदर्शन करें तो ख़बर है, लेकिन गृहमंत्री के निवास के सामने 50-60 लोगों को इकट्ठे गिरफ़्तार किए जाएं, यह ख़बर नहीं है। इसे तय कौन करता है कि क्या ख़बर बनेगी, क्या नहीं। यदि चैनलों की मंशा कम लागत पर ज़्यादा ख़बरें दिखाने की है तो रिपोर्टर और कैमरापर्सन के जाने-आने से लेकर घंटों वहां टिके रहने की लागत क्यों नहीं वसूली गई? जाहिर है कुछ मामलों में जिस तरह टीआरपी से समझौता हो रहा है उसी तरह कुछ मामलों में लागत से भी हो रहा है। असल में ये मामले ही निर्णायक होते हैं। इस ख़बर को उन चैनलों ने प्रसारित होने से रोका जो अन्ना उभार के बाद से यूपीए के दो मंत्री, पी. चिदंबरम और कपिल सिब्बल पर हमले का हर संभव अवसर तलाशते रहे हैं। इन दोनों मंत्रियों को लेकर टीवी चैनलों और अख़बार-पत्रिकाओं में जिस तरह की स्टोरी हुई और जिस तरह इंटरनेट पर कार्टून बनाए गए, उनमें से कुछ को तो आपत्तिजनक तक कहा जा सकता है। लेकिन तमाम माकूल परिस्थितियों के बावजूद यदि विरोध प्रदर्शन वाली ख़बर नहीं चली, तो कुछ तो वजह होगी! एक सपाट समानता जो मीडिया में देखी जा रही है वह विरोध प्रदर्शन वाली ख़बरों का ब्लैकआउट है। एक अंग्रेज़ी अख़बार ने नया प्रचलन शुरू किया है, वह ऐसी ख़बरों की सिर्फ तस्वीर छाप देता है, स्टोरी नहीं करता।  
भारतीय मीडिया और समाज के ग़ैर-मुस्लिम समुदायों के भीतर मुसलमानों को लेकर जिस तरह की धारणा है वह अवचेतन तौर पर ही सही लेकिन बहुत सकारात्मक नहीं है। किसी पांच लोगों के साथ हुई बैठक-मुलाकात के बाद यदि किसी को चार का नाम याद रहता है और पांचवे को याद करते हुए वो कहता है कि एक कोई मुस्लिम नाम था, तो इसे किस रूप में लिया जाना चाहिए? क्या ग़ैर-मुस्लिम समुदाय को मुसलमानों का नाम याद करने में परेशानी होती है? क्या मुस्लिम इतने मिलनसार नहीं होते कि बैठक के दो घंटे बाद तक उनके नाम को याद रखा जा सके? नहीं, ऐसा कतई नहीं है। देश के कोने-कोने में लोग शाहरुख ख़ान, आमिर ख़ान, मो. अजहरुद्दीन, अबू सलेम, अजमल कसाब, अफ़जल गुरू और ओसामा-बिन-लादेन का नाम जानते हैं। लोग भी जानते हैं और मीडिया भी। आखिरकार मीडिया ने ही लोगों के दिमाग़ के भीतर इन नामों को पैबस्त कराया है वरना ओसामा-बिन-लादेन याद करने के मामले में दो-तीन अक्षर का छोटा नाम नहीं है। ठीक-ठाक साइज है इसकी। लोग याद रख सकते है, लेकिन जब देश में एक मुकम्मल समाज को ही अपवर्जित (एक्सक्लूड) कर दिया जाए तो इस तरह की मुश्किलें आम हो जाती है।
मीडिया में जिन ख़बरों का ब्लैकआउट होता है वो अपनी प्रकृति में ख़ास तरह की होती है-आर्थिक तौर पर मीडिया के मालिकाने ढांचे के विरुद्ध या फिर मीडिया में वर्चस्वशाली सामाजिक तबकों से उलट। प्रोपगैंडा के कई रूप हैं। आप किसी ख़बर को बार-बार दिखा रहे हैं यह सीधा तरीका है, लेकिन किसी ख़बर को आने से रोक रहे हैं यह एक तरह से अपनी प्रोपगैंडा सामग्री को मज़बूत करने के लिहाज से उठाया गया कदम है, ताकि पक्ष वाली सामग्री के ख़िलाफ़ चीज़ें समाज में न आ जाय। योजना किसी टेबल पर बैठकर बनाने की चीज़ नहीं है। खास वैचारिकी, राजनीति और समाजशास्त्र के लोगों द्वारा काम को अंजाम देने का तरीका एक-सा होता है, यह उस ख़ास राजनीति और वैचारिकी की योजना है। मीडिया में ख़बरों के चयन-प्रकाशन-प्रसारण में योजना का यही रूप काम करता है।

03 अगस्त 2012

मिस्टर शरद यादव दलित-आदिवासियों के संघर्ष को महदूद मत कीजिए

-    दिलीप खान

कांस्टीट्यूशन क्लब में जब अजीत जोगी अपनी बात लगभग ख़त्म कर चुके थे तो शरद यादव मंच पर पहुंचे। बीजापुर में लगभग महीने भर पहले हुए सैन्य जनसंहार की पृष्ठभूमि में आदिवासी समाज और भारतीय लोकतंत्र पर बात की जा रही थी। मंच पर जोगी के अलावा, डी राजा, बी डी शर्मा, हिमांशु कुमार और स्वामी अग्निवेश मौजूद थे। मेरे पहुंचने से पहले नंदनी सुंदर सहित कई और वक्ता अपनी बात रखने के बाद दर्शक दीर्घा में जगह ले चुके थे। जब मैं हॉल में दाख़िल हुआ तो छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की हत्या के मामले में पहली बार केंद्रीय सरकार से अलग नज़रिया अख़्तियार करने वाली छत्तीसगढ़ कांग्रेस पार्टी के अजीत जोगी बीजापुर का विवरण दे रहे थे। छत्तीसगढ़ के किसी कांग्रेसी का राजनीतिक बयान इस मामले में लगभग सबको पहले से मालूम था। अजीत जोगी ने मारे गए 17 लोगों का जीवनवृत्त पेश करते हुए कहा कि वे सारे के सारे ग़ैर-नक्सली थे और इसलिए निर्दोष थे। असल में छत्तीसगढ़ में माओवादियों के प्रति रणनीति में मुख्यमंत्री रमण सिंह और (पूर्व) केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम सहित प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के तालमेल के बाद छत्तीसगढ़ में विपक्षी कांग्रेस के पास कोई स्पेस नहीं बचता कि वो माओवाद या फिर आदिवासियों की हत्या पर सत्ताधारी भाजपा को घेर सके।
पहली बार कांग्रेस पार्टी में एक दरार दिखी थी और कोत्तागुड़ा-सारकेगुड़ा में मारे गए आदिवासियों को लेकर केंद्र में पार्टी के कई नेताओं के जश्नी रवैये से अलग राज्य कांग्रेस ने स्टैंड लिया। घटना पर खुशी जाहिर करने में गृहमंत्री पी चिदंबरम सबसे आगे थे, जिन्होंने बाद में राज्य कांग्रेस की फैक्ट फाइंडिंग टीम की रिपोर्ट के बाद कहा था कि अगर घटना में कोई निर्दोष भी मारा गया है तो, आई एम सॉरी! (चिदंबरम ने गेहूं के साथ घुन पिसने वाले अंदाज़ में ये बात कही थी।) यह घटना छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की यह एक तरह से मजबूरी के तौर पर उभरी कि वो आदिवासियों पर राज्य के दमन के विरोध में बयान देकर राजनीतिक बढ़त हासिल करे। अजीत जोगी ने सभागार में इस मसले की भर्त्सना करते हुए अपनी पार्टी और अपने मुख्यंत्रित्व को आदिवासियों के लिए शानदार करार देते हुए वो सब कहा जो एक संसदीय पार्टी के नेता से कोई अपेक्षा कर सकता है। श्रेय लूटने के लिए ही बनी चीज़ है इसे अजीत जोगी ने अपने भाषण में साबित किया।  
उनके बाद डी राजा को बोलना था, लेकिन शरद यादव ने कहा कि उन्हें जल्दी जाना है, इसलिए पहले उन्हें माइक दे दी गई। मेरे और शायद मेरे अलावा और भी कई लोगों की यही जिज्ञासा थी कि आख़िरकार शरद यादव इस मामले पर क्या राजनीतिक स्टैंड लेते हैं? क्या कमेंट करते हैं? इससे ठीक पहले आयोजक ने एक मांग पत्र भी पढ़कर सुनाया था। लेकिन शरद यादव इतिहास पर बोलने लगे, अच्छा बोल रहे थे, लेकिन विषय से दूर बोल रहे थे, सो जाहिर है श्रोताओं में फुसफुसाहट शुरू हुई कि ये गोल-मोल बात कर जाने के चक्कर में हैं। मुझे लगा भूमिका बांध रहे हैं और अब मुद्दे पर आएंगे, तब मुद्दे पर आएंगे। लेकिन, वो असल में आना ही नहीं चाह रहे थे। अलबत्ता बीच-बीच में यह जुमला ज़रूर उछाल रहे थे कि मेरी बात आप सबको बहुत चुभेगी, बहुत गड़ेगी। दलितों-आदिवासियों की नौकरी में भागीदारी, बेहतर जीवन-स्तर पर वो ऐसी बात कह रहे थे जिनसे मेरे अगल-बगल के लगभग सारे लोग सहमत थे, लेकिन मामला फिर वही था कि मुद्दे पर नहीं आ रहे थे। इस वजह से, बीच से दो-एक लोगों ने अनुरोध किया कि मुद्दे पर बोला जाए, तो शरद यादव ने उनमें से एक से पूछा, ‘तुम्हारी जाति क्या है?’ जिस अंदाज़ में शरद यादव ने पूछा वो चौंकाने वाला था। इसी मंच पर शरद यादव ने यह स्थापना दी कि दलितों पर बात करने का अधिकार सिर्फ़ दलितों को और आदिवासियों पर बात करने का अधिकार सिर्फ़ आदिवासियों को है। यह सब इतने अधिकारभाव के साथ शरद यादव कह रहे थे, गोया वो एक साथ दलित और आदिवासी दोनों हों!

लेकिन यह पहला वाकया नहीं था जब अस्मितावादी राजनीति में यह आग्रह मेरे सामने नमूदार हुआ। इससे पहले भी कई लोग इस स्थापना को दोहरा चुके हैं। हालिया उदाहरण के तौर पर ग्लैडसन डुंगडुंग के अभियान को लिया जा सकता है, जो उन्होंने बिनायक सेन के ख़िलाफ़ चलाया था। अस्मितावादी राजनीति के इस रुझान से किस तरह की तस्वीर उभर रही है? क्या सचमुच दमित अस्मिताओं के उत्थान के लिए ऐसे शुद्धतावादी रास्ते को चुना जाना चाहिए? क्या यह एक तरह का नस्लीय शुद्धतावाद नहीं है? जातीय वर्चस्व तोड़ने के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि दमित अस्मिताओं के हाथ में नेतृत्व की बागडोर हो, लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि वर्चस्वशाली तबके के ख़िलाफ़ लड़ाई में सैद्धांतिक तौर पर जो लोग दलितों-आदिवासियों के साथ हैं उनको सिरे से खारिज कर दिया जाए। जातीय बंधन को तोड़ने वाले (ग़ैर-दलित, ग़ैर-आदिवासी) व्यक्ति को अगर इस आधार पर खारिज किया जाता है कि वो जन्म के आधार पर संघर्षरत जनता से साम्यता नहीं रखता है इसलिए वो दी अदर हैं, तो यह उसी मनुवादी परंपरा की बिसात पर गढ़ा गया तर्क है। शरद यादव के तर्क को विस्तार दें तो अगर सड़क पर कोई पंडा किसी दलित को पीट रहा हो और बगल से कोई ग़ैर-दलित गुजर रहा हो, तो उसे पिट रहे व्यक्ति का साथ नहीं देना चाहिए, बल्कि इंतज़ार करना चाहिए कि कोई दलित नेता आएगा और पंडे के कोप से उस व्यक्ति को बचाएगा! यह एक आदर्श स्थिति होगी जब दलितों और आदिवासियों को उनके समुदाय के बीच के ही लोग नेतृत्व दें, लेकिन संसदीय राजनीति में नेतृत्व के ऐसे जितने उदाहरण दरपेश हुए हैं उनमें से ज़्यादातर अपने समाज से कटकर सिर्फ प्रतीक बनकर रह गए हैं। पी ए संगमा को अपने आदिवासियत की सिर्फ़ तब याद आती है जब राष्ट्रपति पद के लिए उनको समर्थन की दरकार होती है, लेकिन बीजापुर में आदिवासी के मरने पर वो बयान तक नहीं देते।
शरद यादव बार-बार श्रोताओं को यह इत्तला देते रहे कि यह सब ढोंग है, आपको कोई हक़ नहीं है ऐसी सभा करने का। लेकिन, बीच-बीच में यह भी बोलते जा रहे थे कि वो तो स्वामी जी (अग्निवेश) ने बुला लिया, इसलिए चले आए। [वरना नहीं आते।] ऐसा लग रहा था शरद यादव श्रोताओं को अपने और अग्निवेश के ऋण में डूबो देना चाहते हैं। यह सब कहकर यादव जी चल निकले। कविता श्रीवास्तव ने जाते-जाते पूछ मारा कि क्या बीजापुर मामले को वो संसद में उठाएंगे, तो शरद यादव ठसक भरी मसखरी में बोले, हां हां, मैं जानता हूं आप अच्छी लेडी हैं!