वक्त की सलाख़ें
इतनी नाजुक नहीं होती कि घड़ी की मामूली सी सूईयां उन्हें तोड़ सकें. आज़ादी का खयाल
पराधीन समयों में और अधिक बलवती हो जाता है. वे सारी उत्कंठाएं ज्यादा उभर कर सामने
आती हैं जो मुक्त अवस्था में बेहद मामूली लगती हैं. किसी भी तरह की पराधीनता शायद प्रकृति
के खिलाफ एक कार्यवाही होती है. इतिहास का कलेंडर पलटते हुए किसी दिन पर उंगली रख कर
यह कहना मुश्किल है कि यह दिन आज़ादी का है. क्योंकि आज़ादी के मायने तारीखों में नहीं
बंधे होते. एक ऐसी महसूसियत जिसकी जरूरत समाज में हर वक्त बढ़ती रही है और इसी जरूरत
ने पुरानी सभ्यताओं को जीवाश्म के रूप में परिवर्तित करते हुए उस पर नयी सभ्यता खड़ी
की है.. इस एहसास को पाने की तलब ने कई बार आज़ादी के दायरे को बढ़ाया और समेटा है.
इसे पाने और व्यापक बनाने की इच्छा की निरंतरता को ही किसी समाज के विकासशील होने के
प्रमाण के रूप में देखा जा सकता है. यकीनन अगस्त १९४७ की कोई तारीख आज़ादी के उस एहसास
को नहीं भर सकती जो मूल्यों और विचारों के रूप में किताबों में दर्ज है और किताबें
हमारे जीवन की गतिशीलता में आज़ादी नहीं दे सकती. बहते पानी और हवा जैसी आज़ादी जहां
तिनके की रोकावट तक न हो.
इसे जीवन जीने के सर्वोत्तम मूल्य के तौर पर बचाना और हासिल करना होता है और मांगने से ज्यादा इसे छीनना पड़ता है. शायद यह एक आदर्श देश की संकल्पना होती है जब संविधान में निहित आज़ादी वहां के लोगों की जिंदगियों में उतर जाए, जब संविधान में लिखे हुए शब्द किसी देश की नशों में पिधल कर बहने लगें, जब देश का प्रथम नागरिक और अंतिम नागरिक आज़ादी को वैसे महसूस करे जैसे एक फल की मिठास को दोनों की जीभ. अलबत्ता १४ अगस्त १९४७ की सुबह और १६ अगस्त की सुबह में एक फर्क जरूर रहा होगा. उनके लिए भी जो देश की तत्कालीन राजनीति व संघर्ष में भागीदारी निभा रहे थे और उनके लिए भी जो देश में जीवन जीने के भागीदार बने हुए थे. एक मुल्क के बंटवारे की त्रासदी और एक उपनिवेष से मुक्ति का मिला जुला एहसास. जब कोई देश किसी दूसरे देश की गुलामी से मुक्त हो जाए और पड़ोसियों, रिश्तेदारों का देश निकाला सा हो जाए यह कुछ वैसा ही रहा होगा. यह गुलामी को साथ-साथ और आज़ादी को बिछुड़कर जीने का अनुभव रहा होगा.
इसे जीवन जीने के सर्वोत्तम मूल्य के तौर पर बचाना और हासिल करना होता है और मांगने से ज्यादा इसे छीनना पड़ता है. शायद यह एक आदर्श देश की संकल्पना होती है जब संविधान में निहित आज़ादी वहां के लोगों की जिंदगियों में उतर जाए, जब संविधान में लिखे हुए शब्द किसी देश की नशों में पिधल कर बहने लगें, जब देश का प्रथम नागरिक और अंतिम नागरिक आज़ादी को वैसे महसूस करे जैसे एक फल की मिठास को दोनों की जीभ. अलबत्ता १४ अगस्त १९४७ की सुबह और १६ अगस्त की सुबह में एक फर्क जरूर रहा होगा. उनके लिए भी जो देश की तत्कालीन राजनीति व संघर्ष में भागीदारी निभा रहे थे और उनके लिए भी जो देश में जीवन जीने के भागीदार बने हुए थे. एक मुल्क के बंटवारे की त्रासदी और एक उपनिवेष से मुक्ति का मिला जुला एहसास. जब कोई देश किसी दूसरे देश की गुलामी से मुक्त हो जाए और पड़ोसियों, रिश्तेदारों का देश निकाला सा हो जाए यह कुछ वैसा ही रहा होगा. यह गुलामी को साथ-साथ और आज़ादी को बिछुड़कर जीने का अनुभव रहा होगा.
हमने राष्ट्र
की आज़ादी से लेकर एक व्यक्ति की आज़ादी के बारे में सोचा कि दिल्ली में १५ अगस्त को
देश के प्रगति व विकास के गुणगान उन दूर दराज के गांवों तक जा पाते होंगे क्या? दूसरी
हरित क्रांति के आवाह्न पर शायद विदर्भ का किसान देर तक हंसता होगा या शायद चुप रहता
होगा या शायद... इतनी सारी तोपों की सलामियां और जहाजों की रंगीन धुएं की उड़ानों के
जश्न के वक्त छत्तीसगढ़ के दूर जंगलों में बैठा एक आदिवासी क्या सोचता है उस वक्त,
फिलवक्त कहना मुश्किल है, हर वर्ष और इस वर्ष भी. इस बरस तो वे सैन्य बलों द्वारा सामूहिक
हत्याओं का दंश झेल रहे हैं. फिर यह जो विकास की सड़क चली वह कहां रुक गयी उन पर कौन
चलता है. क्या नेहरु, गांधी या भगत सिंह का भारत किसी दीवाल पर टंगे मानचित्र में ही
टंगा रह गया. देश की पंक्ति में खड़ा आखिरी आदमी, उसे सुकून से सोने के लिए इन ६५ वर्षों
में ६५ रातें भी नहीं मिली. दिल्ली से इतनी दूर तक महज भूख और बीमारियां ही पहुंचती
हैं जिनका ज्यादातर इलाज मौत है. बासागुड़ा से लेकर सारंडा और लातेहार तक आर्थिक रूप
से कमजोर एक बड़ी आदिवासी आबादी है जिसके गांवों से सरकार को सार्वाधिक खतरा महसूस हो
रहा है और यह निर्धनतम लोगों का अमीरतम लोगों को खतरा है. एक वर्गीय खतरा जो १५ अगस्त
के बढ़ते वर्षों के साथ बढ़ता जा रहा है. यह बड़ी आबादी राज्य द्वारा अपराधी घोषित कर
दी गयी है. आखिर एक राष्ट्र की आज़ादी के क्या मायने हो सकते हैं. यह सवाल राष्ट्र
की अवधारणा को भी सोचने पर मजबूर करता है कि एक राष्ट्र के ही क्या मायने है. बगैर
जन के किसी राष्ट्र की परिकल्पना नहीं की जा सकती और जब जन बदहाल हो, और लगातार राष्ट्र
की सुरक्षा से असुरक्षित हो तो जश्न-ए-आज़ादी को कौन मना रहा है.
जब कोई राष्ट्र
किसी उपनिवेष से मुक्त होता है तो क्या इसे ही जन की आज़ादी के रूप में देखा जाना चाहिए.
आज़ादी का एक मायने यह भी हो सकता है पर व्यापक आज़ादी एक राष्ट्र में हर व्यक्ति को
मिलने वाली आज़ादी होती है. अंग्रेजी उपनिवेष से भारत की मुक्ति ने एक सम्प्रभु राष्ट्र
के निर्माण में मदद की पर देश के अंदर औपनिवेषिक मुक्ति के संघर्ष के दौरान कई तरह
की बहसे चल रही थी और विभिन्न दल अपने विचारों के साथ उभर रहे थे. औपनिवेषिक मुक्ति
के बाद जन शासन की जो प्रणालियां लागू होंनी थी उनको लेकर राजनेताओं में मतभेद थे.
६ दशकों बाद जन के लिए आज़ादी के प्रत्यक्षतः यही मायने बचे कि गोरे चेहरों की प्रताड़नाएं
भूरे चेहरों में शामिल हो गई कि अब अपने ही घर से उठकर कोई हुक्मरान बन गया और उन पर
हुक्म चलाने लगा पर हुक्मरानियों में कोई कमी न आई कि एक लम्बे वक्त का संघर्ष तीन
रंगों में सिमट गया. लिहाज़ा देश की राजनीतिक संरचना को एक दूसरे देश की कब्जेदारी
से मुक्ति मिलने के बाद भी व्यक्ति की आज़ादी का दायरा नहीं बढ़ा. लोकतंत्र के इस दायरे
को बढ़ाने के लिए देश में संविधान बनाये गये थे उसमे समानता और समता के लक्ष्य तो रखे
गये पर आज तक उसे पाना सम्भव न हुआ बल्कि खाईयां और भी बढ़ी. एक वक्त बीत जाने के बाद
७० के दशक में लोगों ने ४७ की आज़ादी को नकारते हुए एक अलग नारा भी दिया कि ''यह आज़ादी
झूठी है.'' संसदीय लोकतंत्र के तहत जिस ढांचे का विकास शुरु हुआ था शायद यही वह पहला
वक्त था जब से देश में लोकतांत्रीकरण की प्रक्रिया चालू होनी थी. यही वह वक्त था जब
देश में व्यक्ति के आज़ादी का दायरा बढ़ना शुरु होता. आज उन ६४ वर्ष से लगातार चल रहे
एक दिवसीय आज़ादी के जश्न और उससे लोगों को मिली आज़ादी की पड़ताल की जानी चाहिए.
वह जिसका स्वप्न कई जन नेताओं ने देखा था या फिर उसका जिसे वक्त के पहले ही भगत सिंह
देखते हुए कुर्बान हुए थे. भारतीय जन की आज़ादी किस मुकाम पर है और वह तमाम राष्ट्रीयताओं
को समेटे हुए इस मुल्क में कितना आज़ाद महसूस कर रहा है. समय के साथ मूल्यों में बदलाव
आते हैं और मूल्यों के मायने भी बदलते हैं. ४७ के पहले जो राष्ट्रीय भावनाएं प्रबल
हुई थी उनका विलोप बहुत कम ही वक्त में शुरु हो गया और आज देश के कई राज्य, राष्ट्र
असंतुष्ट हैं. आज़ादी का एक व्यापक आशय है जिसमे स्वक्षंदता से लेकर पराधीनता की स्वतंत्रता
और लोकतांत्रिक आज़ादी तक सिमटी हुई है. पराधीनता की स्थिति मे जो छूट मिलती है उसे
भी स्वतंत्रता के तौर पर देखा जा सकता है.
गांधी ने स्वतंत्रता के बाद व्यक्ति की आज़ादी के जो स्वप्न देखे थे उसका आधार पंक्ति के उस आखिरी आदमी के आज़ादी से था जो समाज में विभिन्न कारणों से पिछड़ा हुआ था यह एक ऐसा विचार था जो गैर बराबरी को पाटने और समानता आधारित समाज को बनाने की तरफ अग्रसर हो सकता था पर इस गैरबराबरी को पाटने के लिए जो माध्यम चुने गये जिस ढांचे का निर्माण किया गया उसने इसे और बढ़ाया. और सन ४७ के २७ वर्षों बाद जय प्रकाश नारायण को यह कहना पड़ा कि ''२७ वर्षों में जो कुछ हुआ वह उल्टा हुआ. गरीबी बढ़ती गयी और अमीरी भी और दोनों का फर्क भी बढ़ता गया.''
गांधी ने स्वतंत्रता के बाद व्यक्ति की आज़ादी के जो स्वप्न देखे थे उसका आधार पंक्ति के उस आखिरी आदमी के आज़ादी से था जो समाज में विभिन्न कारणों से पिछड़ा हुआ था यह एक ऐसा विचार था जो गैर बराबरी को पाटने और समानता आधारित समाज को बनाने की तरफ अग्रसर हो सकता था पर इस गैरबराबरी को पाटने के लिए जो माध्यम चुने गये जिस ढांचे का निर्माण किया गया उसने इसे और बढ़ाया. और सन ४७ के २७ वर्षों बाद जय प्रकाश नारायण को यह कहना पड़ा कि ''२७ वर्षों में जो कुछ हुआ वह उल्टा हुआ. गरीबी बढ़ती गयी और अमीरी भी और दोनों का फर्क भी बढ़ता गया.''
४७ के बाद का
देश उम्मीदों से भरा हुआ था उसके पास राष्ट्र के असीमित संसाधन थे और असीमित मुश्किलें
भी थी. संसाधनों का दोहन किस तौर पर किया जाय और यह मुश्किलें लगातार बढ़ती गयी क्योंकि
इसको लेकर जो नीतियां शुरुआती दौर से बननी शुरु हुई उससे धीरे-धीरे यह जाहिर होने लगा
कि यह आम जन मानस के हित में नही होगा. बावजूद इसके राज्य कल्याणकारी रुख अपनाता रहा
पर एक वक्त के बाद राज्य के संसाधनों को निजी हांथों में सौंपने की जब खुले आम घोषणा
की गयी तो उसके खिलाफ कोई व्यापक और संगठित प्रतिरोध उभर कर नहीं आया. आज देश की बृहद
समस्याएं इन नीतियों की ही उत्पाद हैं. एक तरफ देश के भंडार खाद्यानों से भरे हुए हैं
और दूसरी तरफ लोग भूख से भी मर रहे हैं. क्योंकि राज्य अपने कल्याणकारी उत्तरदायित्वों
को निर्वाह करने में अक्षम हो गया. इस लिहाज से देश की इतनी बड़ी आबादी के लिए जो वितरण
प्रणाली बनाई जानी चाहिए वह नहीं बनाई गयी. संविधान में निहित धर्मनिर्पेक्षता को लगातार
होते साम्प्रदायिक दंगे खारिज करते रहे और समय के साथ जिस साम्प्रदायिकता को कमजोर
होना था वह बढ़ती ग्यी. यह एक किस्म से संविधान को ही अमान्य घोषित करने जैसा था जब
साम्प्रदायिक पार्टियां अपने साम्प्रदायिक उद्घोषों के साथ देश के तमाम राज्यों व
केन्द्र की सत्ता में आई. क्योंकि समाज में एक वैज्ञानिक समझ विकसित करने के लिए राज्य
ने कोई ठोस कार्य योजना विकसित नहीं की. धर्मनिरपेक्षता को धार्मिक स्वतंत्रता के रूप
में देखा गया और ऐसे में बहुसंख्यकों ने धार्मिक आधार पर बाहुबली होने का परिचय कई
बार दिया और लगातार दे रहे हैं. यदि वैज्ञानिक चेतना को विकसित किया जाता और एक धर्म
विहीन राष्ट्र की कार्य योजना तैयार की जाती तो शायद यह राष्ट्र के लिए एक नई दिशा
प्रदान करता. जातीय गैर बराबरी को दूर करने के लिए जो भी उपक्रम अपनाए गए वे दमित जातियों
को आर्थिक मजबूती तो दे सके पर समाज में जातीय वर्चस्व के एहसास को बहुत कम ही खत्म
कर पाये. जातीयता के आधार लोगों की मानसिकताओं से जुड़े थे और उस मानसिकता को महज आर्थिक
मजबूती के आधार पर कमजोर नहीं किया जा सकता था उसके लिए वर्चस्वशाली जातियों के मनोविजान
को बदलना बेहद जरूरी था. देश के कई दमित समूहों के उत्थान को लेकर एक ऐसी प्रक्रिया
की शुरुआत की गयी जिसमे वे अपने मूल स्वरूप व संस्कृति को खो रहे हैं. आदिवासी समाज
का एक बड़ा तबका इसी का शिकार बना यह प्रकृति के साथ बेहद नजदीकी से रिश्ता बनाकर चलने
वाली जीवन शैली का प्रतीक था. मानव समाज के विकास की प्रक्रिया का वह अंश जो स्वभावतः
प्रकृति के साथ अपने को बदल रहा था और विकसित हो रहा था पर आधुनिकता के नाम पर उनकी
जिंदगियों में खलल डाला गया और उनके जंगलों से उन्हें विस्थापित करने के प्रयास किए
जाने लगे लिहाज़ा उसका रुख मानवीय स्वभाव के अनुरूप विद्रोही होता गया और आज राष्ट्र
उनके लिए और प्रधानमंत्री की भाषा में वे राष्ट्र के लिए खतरा बन गये.
वर्तमान समय में जिन आंदोलनों का उभार हुआ है वे किसी भी तरह के सामाजिक परिवर्तन के लिए नाकाफी हैं पर वे एक हद तक संसदीय लोकतंत्र की कुछ खामियों को कम जरूर कर सकते हैं. वे कम्पनियां जो बड़े-बड़े जंगलों का सफाया करवा रही हैं वही देश को हरा भरा बनाने का आवाह्न करती हुई हरे कपड़ों में युवाओं को देश में दौड़ा रही हैं जबकि यह सच्चाई है कि हरे कपड़ों में सायकिल यात्राओं से देश में कोई हरियाली नहीं आ सकती. जबकि पूरी दुनिया में आज़ादी और लोकतंत्र को लेकर आंदोलन चल रहे हैं और अरब जगत जन पर शासन की पुरातन व्यवस्था राजशाही के खिलाफ मुखरित हो चुका है. भारत संसदीय लोकतंत्र की उन खामियों से जूझ रहा है जिनका सम्पत्ति के केन्द्रीकरण के साथ सीधा रिश्ता बनता है. इसी रूप में भ्रष्टाचार एक अहम मुद्दे के तौर पर सामने उभारा जा रहा है और उसकी जड़ को लोगों की आंखों से ओझल किया जा रहा है. जिसको लेकर कई तरह के आंदोलन हाल के दिनों में देखने को मिल रहे हैं. चाहे वह अन्ना का लोकपाल बिल को लेकर चलाया गया आंदोलन हो या फिर बाबा रामदेव के द्वारा चलाया गया आंदोलन. ये आंदोलन मूल रूप में उस ढांचे पर कोई चोट नहीं कर रहे हैं जहां से भ्रष्टाचार की प्रवृत्तियां बलवती होती हैं बल्कि कई मायने में ये ये खुद उसी ढांचे में समाहित हो जाते हैं. इन्हें एक गैर राजनीतिक तौर पर जन समर्थन प्राप्त होता रहा और चंद हफ्तों में ये कमजोर भी पड़ गए. जबकि अपने आप में यह छलावा है कि कोई भी आंदोलन किसी भी तौर पर गैर राजनीतिक हों. देश का जन आज इस दुर्भाग्यपूर्ण दौर से गुजर रहा है जहां वह गैर राजनीति के नाम पर किए जाने वाले राजनीतिक अनुष्ठानों का भागीदार बन रहा है. दरअसल १९४७ के बाद ६५ वर्षों में संसदीय राजनीति से पैदा हुए विमोह ने लोगों को गैर राजनीतिक कार्यवाहियों की तरफ या गैर राजनीति के नाम पर होने वाले आंदोलनों की तरफ आकर्षित किया है. जबकि ऐसे आंदोलन के अंत को भी हम लगभग देख चुके हैं और यह समाहित हो चुका है. ऐसे में देश का भविष्य वहां होगा जहां जन का क्रोध एकत्रित हो रहा है, जहां लोग एक सूखते हुए पेड़ की जड़ में कुल्हाड़ियां चला रहे हैं. जहां वे ६५ साल की आज़ादी में अपने को लुटा महसूस करता हुआ एक नई तलाश में एकजुट हो रहे है. आज़ादी और लोकतंत्र के मायने वर्तमान में चल रहे उन्हीं आंदोलनों से उभर कर आयेंगे.
वर्तमान समय में जिन आंदोलनों का उभार हुआ है वे किसी भी तरह के सामाजिक परिवर्तन के लिए नाकाफी हैं पर वे एक हद तक संसदीय लोकतंत्र की कुछ खामियों को कम जरूर कर सकते हैं. वे कम्पनियां जो बड़े-बड़े जंगलों का सफाया करवा रही हैं वही देश को हरा भरा बनाने का आवाह्न करती हुई हरे कपड़ों में युवाओं को देश में दौड़ा रही हैं जबकि यह सच्चाई है कि हरे कपड़ों में सायकिल यात्राओं से देश में कोई हरियाली नहीं आ सकती. जबकि पूरी दुनिया में आज़ादी और लोकतंत्र को लेकर आंदोलन चल रहे हैं और अरब जगत जन पर शासन की पुरातन व्यवस्था राजशाही के खिलाफ मुखरित हो चुका है. भारत संसदीय लोकतंत्र की उन खामियों से जूझ रहा है जिनका सम्पत्ति के केन्द्रीकरण के साथ सीधा रिश्ता बनता है. इसी रूप में भ्रष्टाचार एक अहम मुद्दे के तौर पर सामने उभारा जा रहा है और उसकी जड़ को लोगों की आंखों से ओझल किया जा रहा है. जिसको लेकर कई तरह के आंदोलन हाल के दिनों में देखने को मिल रहे हैं. चाहे वह अन्ना का लोकपाल बिल को लेकर चलाया गया आंदोलन हो या फिर बाबा रामदेव के द्वारा चलाया गया आंदोलन. ये आंदोलन मूल रूप में उस ढांचे पर कोई चोट नहीं कर रहे हैं जहां से भ्रष्टाचार की प्रवृत्तियां बलवती होती हैं बल्कि कई मायने में ये ये खुद उसी ढांचे में समाहित हो जाते हैं. इन्हें एक गैर राजनीतिक तौर पर जन समर्थन प्राप्त होता रहा और चंद हफ्तों में ये कमजोर भी पड़ गए. जबकि अपने आप में यह छलावा है कि कोई भी आंदोलन किसी भी तौर पर गैर राजनीतिक हों. देश का जन आज इस दुर्भाग्यपूर्ण दौर से गुजर रहा है जहां वह गैर राजनीति के नाम पर किए जाने वाले राजनीतिक अनुष्ठानों का भागीदार बन रहा है. दरअसल १९४७ के बाद ६५ वर्षों में संसदीय राजनीति से पैदा हुए विमोह ने लोगों को गैर राजनीतिक कार्यवाहियों की तरफ या गैर राजनीति के नाम पर होने वाले आंदोलनों की तरफ आकर्षित किया है. जबकि ऐसे आंदोलन के अंत को भी हम लगभग देख चुके हैं और यह समाहित हो चुका है. ऐसे में देश का भविष्य वहां होगा जहां जन का क्रोध एकत्रित हो रहा है, जहां लोग एक सूखते हुए पेड़ की जड़ में कुल्हाड़ियां चला रहे हैं. जहां वे ६५ साल की आज़ादी में अपने को लुटा महसूस करता हुआ एक नई तलाश में एकजुट हो रहे है. आज़ादी और लोकतंत्र के मायने वर्तमान में चल रहे उन्हीं आंदोलनों से उभर कर आयेंगे.
दख़ल की दुनिया आर्काइव से.