23 मार्च 2012

भगत सिंह को लेकर कुछ गैरवाजिब चिंताएं

सुधीर विद्यार्थी

1. भगत सिंह को अकादमिक चिंतन या बौद्धिक विमर्श की वस्तु न बनाया जाये। यह याद रखा जाना चाहिए कि प्रगतिशील और बुद्धिजीवियों के मध्य चर्चा का बिन्‍दु बनने से बहुत पहले भगतसिंह लोक के बीच नायकत्व हासिल कर चुके थे। उन पर सर्वाधिक लोकगीत रचे और गाये गये। मुझे खूब याद पड़ता है कि अपनी किशोरावस्था में गाँवों में मेलों और हाटों में पान की दुकानों पर आइने के दोनों तरफ और ट्रकों के दरवाजों पर भगतसिंह की हैट वाली तथा चन्द्रशेखर आजाद की मूँछ पर हाथ रखे फोटुएं हुआ करती थीं। शुरुआत में जनसंघ के लोगों ने भी उन्हें इंकलाब जिंदाबाद का नारा लगाते हुए बम फेंकने वाले एक बहादुर नौजवान, जो हँसते हुए फाँसी का फंदा चूमता है, के रूप में जिन्‍दा बनाये रखा। प्रगतिशीलों के विमर्श में तो वे बहुत देर से आये। जानना यह होगा कि भगतसिंह या आजाद की जगह लोक के मध्य है। वहीं से दूसरा भगतसिंह पैदा होगा, अकादमीशियनों के बीच से नहीं।


2. इस समय को पहचानिए कि जहाँ बिग बी के साथ भोजन करने की नीलामी दस लाख रुपये तक पहुँच रही हो, जिस समाज में मुन्नी बदनाम होती है तो फिल्म हिट हो जाती है यानी बदनाम होने में अब फायदा है सो इसे हम बदनाम युग की संज्ञा दे सकते हैं, कॉमनवेल्थ खेलों में जहाँ पग-पग पर हमें गुलाम होने का अहसास कराया जाता हो और हम गुलाम रहकर खुशी का अनुभव भी कर रहे हों; इसी कॉमनवेल्थ का तो कवि शंकर शैलेंद्र ने अपने मशहूर गीत ‘भगतसिंह से’ में विरोध किया था जिसमें कहा गया था- मत समझो पूजे जाओगे क्योंकि लड़े थे दुश्मन से/ रुत ऐसी है आँख लड़ी है अब दिल्ली की लंदन से। कामनवेल्थ कुटुंब देश का खींच रहा है मंतर से/प्रेम विभोर हुए नेतागण रस बरसा है अंबर से) तो ऐसे निकृष्ट संस्कृति विरोधी और इतिहास विरोधी समय में हमें बहुत सतर्क रहने की जरूरत है कि भगतसिंह को याद करने अर्थ केवल एक समारोह अथवा प्रदर्शनप्रियता में तब्दील होकर न रह जाये। मैं मानता हूँ कि भगतसिंह को सेमिनारों और जेएनयू मार्का विश्‍वविद्यालयी चर्चाओं से बाहर निकाल कर उन्हें जनता के मध्य ले जाने की पहल करने का उपयुक्त समय भी यही है।

3. मेरा निवेदन है कि भगतसिंह को कृपया देवत्व न सौंपें और न उन्हें क्रान्‍ति‍ का आदिपुरुष बनायें। भगतसिंह कोई व्यक्ति नहीं थे, अपितु उनके व्यक्तित्व में संपूर्ण भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का वैचारिक विकास बोल रहा है। सत्तर साल लम्‍बे क्रान्‍ति‍कारी आंदोलन ने भगतसिंह को पैदा किया। भगत सिंह उस आंदोलन को बौद्धिक नेतृत्व प्रदान करने वाले एक व्यक्ति ही थे। वे स्वयं विकास की प्रक्रिया में थे। कल्पना करिए कि यदि भगतसिंह की जेल में लिखीं चार पुस्तकें गायब न हो गई होतीं तब उनके चिंतन और बौद्धिक क्षमताओं का कितना बड़ा आयाम हमारे सम्मुख प्रकट हुआ होता। दूसरे यह कि आगे चलकर भारतीय क्रान्‍ति‍ के मार्ग पर उन्हें और भी बौद्धिक ऊँचाई हासिल करनी थी। पर इस सबको लेकर उनके मन में कोई गर्वोक्ति नहीं थी,बल्कि एक विनीत भाव से उन्होंने स्वयं सुखदेव को संबोधित करते हुए कहा था कि क्या तुम यह समझते हो कि क्रान्‍ति‍ का यह उद्यम मैंने और तुमने किया है। यह तो होना ही था। हम और तुम सिर्फ समय और परिस्थितियों की उपज हैं। हम न होते तो इसे कोई दूसरा करता। और कितना आत्मतोष था उस व्यक्ति के भीतर जिसने बलिदान से पूर्व यह भी कहा कि आज मैं जेल की चहारदीवारी के भीतर बैठकर खेतों, खलिहानों और सड़कों से इंकलाब जिंदाबाद का नारा सुनता हूँ तो लगता है कि मुझे अपनी जिन्‍दगी की कीमत मिल गई। ….और फिर साढ़े तेईस साल की इस छोटी सी जिन्‍दगी का इससे बड़ा मोल हो भी क्या सकता था।


4. आवश्यक तौर पर देखा यह भी जाना चाहिए कि भगतसिंह के साथ पूरी क्रान्‍ति‍कारी पार्टी थी। हम पार्टी और संपूर्ण आंदोलन को क्यों विस्मृत कर जाते हैं। हम यह क्यों नहीं याद रखते कि भगत सिंह के साथ चन्द्रशेखर आजाद का सर्वाधिक क्षमतावान और शौर्यमय नेतृत्व था। क्या भारतीय क्रान्‍ति‍कारी आंदोलन का मस्तिष्क कहे जाने वाले कामरेड भगवतीचरण वोहरा पार्टी के कम महत्वपूर्ण व्यक्ति थे जिन्होंने बम का दर्शन जैसा तर्कपूर्ण और बौद्धिक प्रत्युत्तर देने वाला पर्चा ही नहीं लिखा, बल्कि नौजवान भारत सभा और हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन के घोषणापत्र आदि उन्होंने लिपिबद्ध किये। हमने विजय कुमार सिन्हा, जिन्हें दल में अंतरराष्ट्रीय संपर्कों और प्रचार-प्रसार की बड़ी जिम्मेदारी सौंपी गई थी, को भी हमने भुलाने योग्य मान लिया। यह सच है कि हम विजय दा से भगतसिंह की एक फुललेन्थ की जीवनी की अपेक्षा कर रहे थे जो उनेक जीवित रहते पूरी नहीं हो पाई। पर मेरा यहाँ जोर देकर कहना यह है कि हमने बटुकेश्‍वर दत्त से लेकर सुशीला दीदी, धन्वंतरि, सुरेश चन्द्र भट्टाचार्य मास्टर रुद्रनारायण सिंह आदि सबको भुलाने देने में पूरी तरह निर्लज्जता का परिचय दिया। हमने इनमें से किसी की शताब्दी नहीं मनाई। यह सब स्वतंत्र भारत में जीवित रहे पर हमने इनमें से किसी क्रान्‍ति‍कारी की खैर खबर नहीं ली। क्या पूरी पार्टी और उसके सदस्यों के योगदान और अभियानों को विस्मृत करके अपनी समारोहप्रियताओं के चलते भगतसिंह को हम उस तरह का तो नहीं बना दे रहे हैं- उतना ऊँचा और विशाल, जिसकी तस्वीर को फिर अपने हाथों से छूना मुश्किल हो जाये हमारे लिए। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम अपनी आत्ममुग्धताओं में ही डूबे यह सब देख समझ ही न पा रहे हों। इससे भविष्य के क्रान्‍ति‍कारी संग्राम को बड़ा नुकसान होगा क्योंकि इतिहास के परिप्रेक्ष्य में संघर्ष की पूरी और सही तस्वीर को देख पाने में हम सर्वथा असमर्थ होंगे।

5. भगतसिंह के स्मरण के साथ एक खतरा यह भी है कि पिछले कुछेक वर्षों से हम देख रहे हैं कि उन्हें पगड़ी पहनाने का षड्यन्त्र बड़े पैमाने पर किया जाने लगा है। पर पंजाब के उस क्रान्‍ति‍कारी नौजवान का सिर इतना बड़ा हो गया कि अब उस पर कोई पगड़ी नहीं पहनाई जा सकती है। हम वैसा भ्रम भले ही थोड़ी देर को अपने भीतर पाल लें। यद्यपि शताब्दी वर्ष पर तो यह खुलेआम बहुत बेशर्मी के साथ संपन्न हुआ। देखा जाये तो हुआ पहले भी था जब मैं पंजाब के मुख्यमंत्री श्री दरबारा सिंह के आमंत्राण पर 1982 में चण्डीगढ़ में उनसे मिलने आया तो देखा कि उनके कार्यालय में भगतसिंह का जो चित्र लगा है उसमें उन्हें पगड़ी पहनाई गई है। अब विडंबना देखिए कि कोई आज उस पगड़ी को केसरिया रंग रहा है तो कोई लाल। इसमें आरएसएस से लेकर हमारे प्रगतिशील मित्र तक किसी तरह पीछे नहीं हैं। एक सर्वथा धर्मनिरपेक्ष क्रान्‍ति‍कारी शहीद को धर्म के खाँचे में फिट किये जाने की कोशिशों से सवधान रहना चाहिए। यहाँ अपनी बात कहने का हमारा अर्थ यह भी है कि सब भगतसिंह को अपने अपने रंग में रंगने का प्रयास कर रहे हैं। कोई कहता हे कि वे जिन्‍दा होते तो नक्सलवादी होते। उनके परिवार के ही एक सदस्य पिछले दिनों उन्हें आस्तिक साबित करने की असफल कोशिशें करते रहे। यह कह कर कि भगतसिंह की जेल नोटबुक में किसी के दो शेर लिखे हुए हैं जिनमें परवरदिगार जैसे शब्द आए हैं जो उनकी आस्तिकता को प्रमाणित करते हैं। सर्वाधिक तर्कहीन ऐसे वक्तव्यों की हमें निंदा ही नहीं, अपितु इसका विरोध करना चाहिए। यादविन्दर जी को भगतसिंह का लिखा ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’ जैसा आलेख आँखें खोल कर पढ़ लेना चाहिए। मैं यहाँ निसंकोच यह भी बताना चाहता हूँ कि दूसरे राजनीतिक दल भी बहुत निर्लज्ज तरीके से इस शहीद के हाथों में अपनी पार्टी का झण्‍डा पकड़ाने का काम करते रहे जो कामयाब नहीं हुआ। धार्मिक कट्टरता और पुनरुत्थानवाद के इस युग में भगत सिंह की वास्तविक धर्मनिरपेक्षता की बड़ी पैरोकारी की हम सबसे अधिक जरूरत महसूस करते हैं। लेकिन ऐसे में जब गाँधी और जिन्ना को भी डंके की चोट पर धर्मनिरपेक्ष बताया जा रहा हो, और भाजपा के अलंबरदार स्वयं को खालिस और दूसरों को छद्म धर्मनिरपेक्ष बताते हों तब वास्तविक धर्मनिरपेक्षता जो नास्तिकता के बिना सम्‍भव नहीं है, उसका झण्‍डा कौन उठाए? यह साफ तौर पर मान लिया जाना चाहिए कि धर्मनिरपेक्षता का अर्थ सर्वधर्मसमभाव कतई नहीं है जैसा कि हम बार-बार, अनेक बार प्रचारित करते और कहते हैं। यह हमारा सर्वथा बेईमानी भरा चिंतन है जिसका पर्दाफाश किया जाना चाहिए। विचार यह भी किया जाना चाहिए कि धर्मनिरपेक्षता आखिर कितनी तरह की? रघुपति राघव राजाराम जपने वाले गाँधी भी धर्म निरपेक्ष थे, मजहब के नाम पर मुस्लिम होमलैंड ले लेने वाले जिन्ना भी धर्मनिरपेक्ष थे और भगतसिंह भी। तब इनमें से कौन सही धर्मनिरपेक्ष है, और धर्मनिरपेक्षता आखिर है क्या बला?


6. इधर भगतसिंह को संसद का पक्षधर साबित करने के भी प्रयत्न हुए और हो रहे हैं। संसद में भगतसिंह का चित्र या मूर्ति लगवाने का क्या अर्थ है। जिस संसदीय चरित्र और उसकी कार्यवाहियों के विरोध में उन्होंने, दल के निर्णय के अनुसार पर्चा और बम फेंका, क्या आज उस संसद और उसके प्रतिनिधियों की चाल-ढाल और आचरण बदल कर लोकोन्मुखी और जनपक्षधर हो गया है। यदि नहीं तो क्यों भगतसिंह पर काम करने वाले उन पर पुस्तकें जारी करवाने के लिए किसी सांसद अथवा मंत्री की चिरौरी करते हुए दिखाई पड़ते हैं। क्या हम वर्तमान संसदीय व्यवस्था के पैरोकार या पक्षधर होकर भगतसिंह को याद कर सकते हैं। आखिर क्यों भगतसिंह की शहादत के 52 वर्षों बाद उनकी बहन अमर कौर को भारत की वर्तमान संसद के चरित्र और उसकी कार्यप्रणाली पर उँगली उठाते हुए वहाँ घुसकर पर्चे फेंकने पड़े, जिसमें उठाए सवालों पर हमें गौर करना चाहिए। पर इस मुक्त देश में पसरा ठंडापन देखिए कि किसी ने भी 8 अप्रैल 1983 को अमर कौर की आवाज में आवाज मिलाकर एक बार भी इंकलाब जिंदाबाद बुलंद नहीं किया, जबकि यह दर्ज रहेगा कि इसी गुलाम देश ने तब भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त के स्वर में अपना स्वर बखूबी मिला दिया। जानने योग्य यह भी है कि पिछले दिनों संसद में भगतसिंह की जो प्रतिमा लगी उसमें वे पगड़ी पहने हुए हैं और वहाँ उनके साथ बम फेंकने वाले उनके अभिन्न बटुकेश्‍वर दत्त नदारद हैं।

7. जरूरी है कि भगतसिंह को याद करने और उनकी पूजा या पूजा के नाटक में हम फर्क करें। आज सारे जनवादी और प्रगतिशील राजनीतिक व सांस्कृतिक सामाजिक संगठन भगतसिंह को याद कर रहे हैं। दक्षिणपंथी और मध्यमार्गी भी। यह चीजों को घालमेल करने की घिनौनी कोशिशें हैं ताकि असली भगतसिंह अपनी पहचान के साथ ही अपना क्रान्‍ति‍कारित्व भी खो बैठें। आखिर क्या कारण है कि भगतसिंह आज तक किसी राजनीतिक पार्टी के नायक नहीं बन पाए। यह सवाल बड़ा है कि आजाद की शहादत के बाद हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ को पुनर्जीवित करने के कितने और कैसे प्रयास हुए और वे कामयाब नहीं हुए तो क्यों? और क्यों आजादी के बाद कोई राजनीतिक दल हिसप्रस का झण्‍डा पकड़ने का साहस नहीं कर सका?

8. विचार यह करिए कि अब भावी इंकलाब का आधार क्या होगा। आजाद के नेतृत्व में भगतसिंह और दूसरे सारे युवा क्रान्‍ति‍कारी अधिकांशतः मध्यवर्ग से आए थे। आज पूँजीवादी व्यवस्था और बाजार के अनापशनाप विस्तार ने मध्यवर्ग को नागरिक से उपभोक्ता में तब्दील कर दिया है। नई पीढ़ी पूरी तरह कैरियर में डूबी है। उसके सपनों में अब देश और समाज नहीं है। वहाँ नितांत लिजलिजे व्यक्तिगत सपनों की कंटीली झाडि़याँ उग आई हैं। समाज टूट रहा है तो सामाजिक चिंताएं कहाँ जन्मेंगी। निम्न वर्ग जिन्‍दगी जीने की कशमकश में डूबा रह कर दो जून की रोटी मुहैया नहीं कर पा रहा है तो दूसरी ओर उच्च वर्ग क्रान्‍ति‍ क्यों चाहेगा? क्या अपने विरुद्ध? ऐसा तो सम्‍भव ही नहीं है। तब फिर क्रान्‍ति‍ का पौधा कहाँ पनपेगा और उसे कौन खाद-पानी देगा। यह बड़ा सवाल हमारे सामने मुँह बाये खड़ा हुआ है और हम हवा में मंचों पर क्रान्‍ति‍ की तलवारें भाँज रहे हैं। हम जो थोड़ा बहुत क्रान्‍ति‍ के नाम पर कुछ करने की गलतफहमियाँ पाल रहे हैं, क्या वह हमारा वास्तविक क्रान्‍ति‍कारी उद्यम है। कौन जानता है हमें। जिनके लिए क्रान्‍ति‍ करने का दावा हम करते रहे हैं, वे भी हमसे सर्वथा अपरिचित हैं। आप जेएनयू के किसी एअरकंडीशंड कमरे में तीसरी मंजिल पर बैठकर तेरह लोग क्रान्‍ति‍ की लफ्फाजी करेंगे तो देश की जनता आपको क्यों पहचानेगी। याद रखिए कि जेएनयू देश नहीं है। पूछिए इस मुल्क के लोगों से छोटे शहरों, कस्बों, देहातों में जाकर अथवा सड़क पर चलते किसी आम आदमी को थोड़ा रोककर इन बौद्धिक विमर्श करने वाले लोगों के बारे में पूछिए तो वह मुँह बिचकाएँगे। वे तो इनमें से किसी को भी जानते बूझते नहीं। तो आप कर लीजिए क्रान्‍ति‍। इस देश की साधारण जनता आपसे परिचित नहीं है। न आप उसके साथ खड़े हैं, न ही वह आपके साथ। ऐसे में क्या आप जनता के बिना क्रान्‍ति‍ करेंगे? लगता है कि इस देश में अब थोड़े से हवा हवाई लोग ही क्रान्‍ति‍ की कार्यवाही को संपन्न करने का ऐतिहासिक दायित्व पूरा कर लेंगे। जनता अब उनके लिए गैरजरूरी चीज बन गई है।

9. आज भाषा का मुद्दा सबसे बड़ा मुद्दा है। यह आजादी के सवाल से गहरे तक जुड़ा हुआ है। अपनी भाषा के बिना आप आजादी की कल्पना नहीं कर सकते। पर आज सब ओर गुलामी की भाषा सिर माथे और उसकी बुलंद जयजयकार। भाषा का मामला सिर्फ भाषा का नहीं होता, वह संस्कृति का भी होता है। भगतसिंह ने यों ही भाषा और लिपि की समस्या से रूबरू होते हुए अपनी भाषाओं की वकालत नहीं की थी। क्या हम अंग्रेजी के बिना एक कदम भी आगे नहीं चल सकते? भाषा आज सबसे अहम मुद्दा है। हम उस ओर से आँखें न मूंदें और न ही उसे दरकिनार करें। भाषा के बिना राष्ट्र अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सकता।


10. अब तीन अन्य गौर करने वाली बातों पर हम अपना पक्ष और चिंताएं प्रकट करेंगे। वह यह कि आज भी ईमानदारी से भगतसिंह को याद करने वालों को वर्तमान सत्ता और व्यवस्था उसी तरह तंग और प्रताडि़त करती है, जिस तरह साम्राज्यवादी हुकूमत किया करती थी। शंकर शैलेंद्र का ‘भगतसिंह से’ गीत गाने पर संस्कृतिकर्मियों पर यह कह कर प्रहार किया जाता है कि यह गीत 1948 में सरकार ने यह कह कर जब्त किया था कि यह लोकप्रिय चुनी हुई सरकार के विरुद्ध जनता के मन में घृणा पैदा करता है। मैं स्वयं जानना चाहता हूँ कि क्‍या शंकर शैलेंद्र के इस गीत पर से 1948 के बाद से अभी तक सरकारी पाबंदी हटी है अथवा नहीं। यदि ऐसा हुआ है तो कब? दूसरा यह कि कई वर्ष पहले पाकिस्तान की फौज हुसैनीवाला से भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव के स्मारकों को तोड़कर ले गई। हमने क्यों नहीं अब तक उन स्मारकों की वापसी की मांग पाकिस्तान सरकार से की। क्या वह हमारा राष्ट्रीय स्मारक नहीं था। और तीसरा विन्दु यह है कि कुछ वर्ष पहले उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में एक महोत्सव हुआ था, मेला लगा था। यह तब की बात है जब भगतसिंह पर एक साथ कई-कई फिल्में आई थीं यानी हमारे बॉलीवुड को भी क्रान्‍ति‍ करने का शौक चर्राया था। बाजार और बॉलीवुड में यदि भगतसिंह को बेचा जा सकता है तो इसमें हर्ज क्या है। बाजार हर चीज से मुनाफा कमाना चाहता है। पर मैं यहाँ फिल्मों में भगतसिंह को बेचने की बात नहीं कर रहा, न ही इस बात पर चिन्‍ता प्रकट कर रहा हूँ कि उन्होंने तुडुक तुडुक और बल्ले बल्ले करके भगतसिंह जैसे क्रान्‍ति‍कारी नायक को पर्दे पर नाचना दिखा दिया। मैं यहाँ बात कुछ दूसरी कहना चाहता हूँ। लखनऊ के उस मेले में एक रेस्त्रां बनाया गया था जिसका दरवाजा लाहौर जेल की तरह निर्मित किया गया। उसमें बैरों को वह ड्रेस पहनाई गई थी जिसे जेल के भीतर भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव ने पहना था। पानी जो वहाँ परोसा जा रहा था उसे काला पानी का नाम दिया गया था और घिनौनापन देखिए कि खाने के नाम पर स्वराज्य चिकन और काकोरी कबाब। यह हद से गुजर जाना है। लखनऊ एक प्रदेश की राजधानी है–सांस्कृतिक संगठनों और राजनीतिक दलों का केंद्रीय स्थान। पर सब कुछ कई दिनों तक उस जगह ठीक ठाक चलता रहा। कोई हलचल नहीं। कोई विरोध नहीं। क्या हम वास्तव में मर चुके हैं, क्या हमारे भीतर कोई राष्ट्रीय चेतना शेष नहीं है। क्या हमें अपने राष्ट्रीय नायकों और शहीदों का अपमान कतई विचलित नहीं करता। क्या इतिहास के सवाल हमारे लिए इतने बेमानी हो गए हैं कि वे हमारे भीतर कोई उद्वेलन पैदा नहीं करते। कुछ लोग थोड़े वर्षों से तीसरा स्वाधीनता आंदोलन नाम से एक संगठन चला रहे हैं। शहीदेआजम भगतसिंह के दस्तावेजों को सामने लाने लाने का सर्वाधिक महत्वपूर्ण काम करने वाले प्रो. जगमोहन सिंह जी भी उससे जुड़े हैं। पर इस संगठन के चिंतन के प्राथमिक बिन्‍दु पर गौर करिए कि आंदोलन चलाने से पहले ही उसने घोषित कर दिया कि इंडिया गेट को ध्वस्त कर वहाँ शहीदों की बड़ी मीनार बनाना है। क्या यही इस देश का तीसरा स्वतंत्राता युद्ध होगा। कल तक हम अपने बीच बचे रहे जिन्‍दा शहीदों को कोई सम्मान और आदर नहीं दे पाए, उनकी ओर आँख उठाकर भी हमने देखा नहीं, उन्हें ठंडी और गुमनाम मौत मर जाने दिया पर आज उनके ईंट पत्थर के बुत खड़े करने में हमारी गहरी दिलचस्पी है। भगतसिंह को याद करने वाले संगठन कितनी गलतफहमियों में जी रहे हैं यह देखने के लिये आँखों को ज्यादा फैलाने की आवश्यकता नहीं है। क्या यह भी गौर करने लायक सच्चाई और त्रासदी नहीं है कि वामपंथी और साम्यवादी आंदोलन ही नहीं भगतसिंह के अनुयायी कहे जाने वाले लोगों और संस्थाओं ने भी सैद्धांतिक मीनमेख और थोड़े विमर्शों में स्वयं को अधिक उलझा लिया है। उनके बीच निर्लज्ज किस्म की संकीणताएं भी विद्यमान हैं। भगतसिंह का नाम स्वयं को प्रतिष्ठित करने के लिए लिया जाना कतई ठीक नहीं।

(समकालीन तीसरी दुनि‍या/मार्च 2012 से साभार)

5 टिप्‍पणियां:

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