----मानेसर से लौटकर दिलीप खान
पिछले 14 दिनों से लगातार (लगातार को लगातार ही पढ़ें) चल रहे भाषणों के बीच जब एकरसता-सी आ रही थी तो सड़क के उस पार एक बस से ज़ोर-ज़ोर से आ रही क्रांतिकारी नारों की आवाज़ ने मज़दूरों में कौतूहल जगा दी. पहले बस से उतरते कुछ पैर नीचे दिखे, फिर दो-एक चेहरे और फिर 50 से ज़्यादा ऐसे चेहरे जिसे देखकर मज़दूरों ने किलकारी मारनी शुरू कर दी. उनके हाथ में तख़्तियां थीं जिनमें मज़दूरों के समर्थन वाले हर्फ़ लिखे थे. सड़क के इस पार अब यह साफ़ हो गया था कि जेएनयू से यह बस आई है और मज़दूरों के इस सवाल पर वे उनका साथ देने आए हैं. बहुत देर तक तालियां बजती रही. फिर छात्र-मज़दूर एकता ज़िदाबाद के नारे. डीयू और जामिया से भी छात्र-छात्राओं के कुछ समूह वहां मौजूद थे. नौजवान से दिखने वाले मज़दूरों के उत्साही नेता सोनू गुज्जर ने लोगों को संबोधित करते हुए कहा, ‘जिस आंदोलन में स्टूडेंट घुस जाए. समझो वो लड़ाई जीत ली गई.’ मानेसर और गुड़गांव के बाकी कंपनियों के मज़दूर यूनियनों से मिलने वाले समर्थन के बाद दिल्ली के विश्वविद्यालयों से आ रहे विद्यार्थियों ने सबके भीतर उत्साह और जीत की नई उमंग भर दी.
सफ़ेद और लाल रंग के पंडाल के नीचे पिछले 14 दिनों से जमा मज़दूरों के लिए दिन के मायने ख़त्म हो गए हैं. 15, 16 या 17 महज एक संख्या है और वे इन्हें जीत के रास्ते में आने वाले पड़ाव की तरह देख रहे हैं. आईएमटी मानेसर में 750 एकड़ में फैले मारुति-सुजुकी के प्लांट के गेट संख्या 2 के ठीक सामने मज़दूरों के जमावड़े के बीच आप जाएंगे तो यक़ीन मानिए आप अपनी उस दकियानूसी धारणा से मुक्त हो जाएंगे कि दिन गुजरने के साथ उत्साह में गिरावट आती है. कंपनियों और सत्ता प्रतिष्ठानों ने पिछले कुछ वर्षों में ‘इग्नोर’ करने को बड़े हथियार के तहत भांजा है. मारुति-सुजुकी भी उसी रास्ते मज़दूरों को हतोत्साहित करने की फिराक़ में है. प्रबंधन की तरफ़ से अब तक बातचीत की कोई पहल नहीं हुई है. लेकिन आईटीआई करने के बाद ऑटोमोबाइल कारखाना में नौकरी बजाने वाले सारे मज़दूर यह अच्छी तरह जानते हैं कि उन्हें ‘इग्नोर’ नहीं किया जा रहा. वे ब्रांड, विज्ञापन और मार्केटिंग के फंडे को समझते हैं. पिछले चार सालों से कंपनी में काम करने वाले अजय कहते हैं, ‘हां यह ज़रूर है कि वो (प्रबंधन) सीधे-सीधे हमसे बात करने अब तक नहीं आए हैं, लेकिन अख़बारों में वो लगातार अपना विज्ञापन बढ़ा रहे हैं. इससे यह साबित होता है कि उन पर दबाव है.’
अजय की बात को बीच में ही काटते हुए विजय कहते हैं, ‘ज़्यादातर मीडिया के जरिए ही हम कंपनी का पक्ष जान पाते हैं. दैनिक जागरण ने हमे बताया है कि सोमवार तक यदि हम लोगों ने प्रबंधन की मांग नहीं मानी तो स्थाई तौर पर हमें अंदर जाने से रोक दिया जाएगा.’ प्रबंधन की इन धमकियों से कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ रहा और मज़दूरों के बीच तक़रीबन एक तयशुदा सहमति है कि यदि उनकी मौजूदा एकता क़ायम रही तो प्रबंधन उनका कुछ नहीं कर सकता. वे यह जानते हैं कि मालिक सिर्फ़ पूंजी के बदौलत उत्पादन नहीं कर सकते. उत्पादन के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ मेहनत और मज़दूरी होती है और वो मज़दूरों के पास है.
अगर आप कई सारे अख़बारों में आ रही ख़बरों के सहारे मानेसर को समझने की कोशिश कर रहे हैं तो मानेसर को समझना छोड़ दीजिए. अख़बारों ने तो बड़े-बड़े अक्षरों में यह लिखा है कि मारूति-सुजुकी प्लांट में मज़दूरों का हड़ताल चल रहा है, लेकिन यह ख़बर पूरी तरह झूठी है. यहां कोई हड़ताल नहीं चल रहा. मज़दूर अपने लोकतांत्रिक शर्तों के साथ काम करने को तैयार हैं, लेकिन मारूति ने ख़ुद तालाबंदी कर रखी है. मारूति का कहना है कि ‘गुड कंडक्ट फॉर्म’ को जो-जो मज़दूर भरेगा वो अंदर आकर काम शुरू करें और जो नहीं भरेगा उनके लिए यह दरवाज़ा बंद है. मज़दूर प्राथमिक तौर पर इसी ‘गुड कंडक्ट फॉर्म’ के ख़िलाफ़ है और सड़क पर डटे हुए हैं.
इस ‘गुड कंडक्ट फॉर्म’ के साथ-साथ मारूति-सुजुकी मज़दूर आंदोलन की संक्षिप्त कहानी से पहले मज़दूरों के उन मांगों को आप देख लीजिए जिनको पूरी करवाने के लिए वो आधे महीने से कंपनी के सामने विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं और जिनको तोड़ने-मरोड़ने के लिए कंपनी मालिक से लेकर ज़िला प्रशासन और राज्य सरकार तक के सुर एक हैं. ये चार मांगें हैं.-
11. 1. मारुति सुजुकी इंप्लाइज यूनियन बहाल की जाए
2.22. निकाले गए मज़दूरों को वापस लिया जाए
3. 33. सभी चार्ज शीट वापस लिए जाए
4.44 ग़ैरक़ानूनी तालाबंदी ख़त्म की जाए
पहली मांग काफी पुरानी है और मौजूदा गतिरोध की सबसे मज़बूत वजह है. दूसरी, तीसरी और चौथी मांग कंपनी द्वारा पहली मांग को ध्वस्त करने के लिए की गई कार्रवाई से उपजी हुई है. जून में जब यूनियन बनाने के लिए मज़दूरों ने अपनी मांग शुरू की तो मारुति सुजुकी प्रबंधन के कान खड़े हो गए. प्रबंधन एक-एक मज़दूर को अलग-अलग बुलाकर अनुशासन के नाम पर नौकरी छीनने की धमकी देने लगा. मज़दूरों से प्रबंधन का कहना था कि वो पहले से मौजूद यूनियन को ही वास्तविक यूनियन माने. असल में प्रबंधन चालित एक यूनियन कंपनी में पहले से अस्तित्व में थी/है, जिसमें चुनिंदा मज़दूरों को शामिल किया गया था और वे मज़दूर नीतियों का कम और प्रबंधन की नीतियों का ज़्यादा प्रचार करते है. फ़िलवक़्त चल रहे आंदोलन के बारे में भी मलाई काट रहे ‘वास्तविक यूनियन’ से जुड़े नेताओं का मानना है कि कंपनी में “अनुशासनहीनता’ नहीं चल सकती.
रेवाड़ी के रहने वाले मज़दूर आनंद हमें बताते हैं, ‘उस वक़्त मज़दूरों से एक पेपर पर हस्ताक्षर करने कहा गया जिसमें यह लिखा था कि मज़दूरों की तरफ़ से किसी नई यूनियन की कोई मांग नहीं है और भविष्य में भी उनकी इस तरह की कोई मांग नहीं होगी.’ प्रबंधन के उस बाध्यकारी हस्ताक्षर अभियान के ख़िलाफ़ मारूति कामगारों ने मोर्चा खोल दिया. मज़दूरों ने सोनू गुज्जर को अपना नेता मानते हुए प्रबंधन की नीतियों का विरोध किया. परिणामस्वरूप कंपनी ने 11 लोगों को नौकरी से बाहर निकाल दिया. मज़दूरों के इस दमनकारी निष्काषण के विरोध में मज़दूरों ने बेहतरीन एकता का प्रमाण देते हुए हड़ताल पर जाने का फ़ैसला किया और 13 दिनों तक चली उस हड़ताल के बाद समझौता हुआ. सभी 11 लोगों को वापस लिया गया. कंपनी ने उस समय यह भरोसा दिलाया कि अब वो किसी मज़दूर को नहीं धमकाएगी और न ही किसी को बाहर का रास्ता दिखाएगी. ये सब जून की कहानी है. एक तरह से शुरुआती लड़ाई में मज़दूर जीत चुके थे, लेकिन सवाल जहां से शुरू हुआ था वह वहीं पर ठहरा हुआ था. सवाल था- मज़दूर हितों की वास्तविक लड़ाई लड़ने वाली यूनियन का निर्माण! जून की टकराहट का नतीजा यह हुआ कि अब तक मशीन से बनी जली-कच्ची रोटियों और पतली दाल पहले के मुकाबले कुछ बेहतर हुई. हालांकि जेएनयू के एक छात्र से मज़दूर दिनेश सेठी का कहना था, ‘आप विद्यार्थी लोग आज भी उस रोटी को ताकेंगे नहीं. आपके कॉलेज (विश्वविद्यालय) में उस तरह की रोटियां एक दिन भी बन जाए तो आप लोग ऐसी कैंटीन वाले को बाहर कर देंगे.’
यूनियन की मांग जारी रही और साथ में कंपनी प्रबंधन की तरफ से मिलने वाली धौंस भी. हमेशा की तरह एक दिन 7 बजे जब मज़दूर काम करने कंपनी पहुंचे तो कंपनी पूरी तरह बदली हुई दिख रही थी. भीतर-बाहर पुलिस और निजी सुरक्षा गार्ड से अटी हुई कंपनी. बाहर गेट पर एक फॉर्म के साथ तैनात सुरक्षा गार्ड- जो मज़दूरों को यह हिदायत दे रहा है कि जो इस “गुड कंडक्ट फॉर्म’ को भरेगा वही काम करने अंदर जाएगा. मज़दूरों ने वह फॉर्म भरने से इंकार कर दिया. बैठक हुई और सोनू गुज्जर के नेतृत्व में सबने यह फैसला किया कि न तो यूनियन की मांग छोड़ेंगे और न ही यह फॉर्म भरेंगे और न ही कंपनी छोड़ के जाएंगे. यशवंत प्रजापति कहते हैं, ‘वह फॉर्म मज़दूर हितों के साथ बड़ा धोखा है. उसमें कंपनी कहती है कि मज़दूर कोई कंपनी विरोधी काम नहीं करेगा. प्रबंधन के साथ सही आचरण रखेगा......हां सही आचरण क्या है यह कंपनी ही तय करेगी.’
मारुति सुज़ुकी इस तालाबंदी के लिए पहले से माहौल बना रही थी. कुछ दिन पहले से ही वह लगातार मज़दूरों को धमका रही थी कि वो जानबूझकर काम ठीक से नहीं कर रहे हैं और सुपरवाइजर उनके कामों में लगातार खोट निकाल रहे थे. मज़दूरों का दावा है कि कंपनी जान-बूझ कर मैटिरियल में कमी लाई और मज़दूरों पर यह आरोप लगाया कि वे सुस्त गति से और सोच-समझकर ख़राब उत्पादन कर रहे हैं. इसी को आधार बनाते हुए कंपनी धीरे-धीरे मज़दूरों को बाहर करने लगी. निकाले गए मज़दूरों की संख्या अब तक 57 हो गई है. तालाबंदी के बाद भी कंपनी द्वारा मज़दूरों का निकाला जाना जारी है.
प्रदर्शन स्थल पर जिला प्रशासन और लेबर कमीशन के लोग स्थिति का जायजा लेने आए, लेकिन उनकी पक्षधरता साफ़ थी. सोनू गुज्जर ने लेबर कमिश्नर के साथ हुई बातचीत का मजमून रखते हुए कहा कि उन्होंने निकाले गए 57 मज़दूरों को पहले बिल्कुल भूल जाने को कहा, लेकिन बाद में कहा कि छह माह बाद निकाले गए मज़दूरों को वापस लिए जाने पर विचार किया जाएगा. उन्होंने यह भी समझाइश दी कि यूनियन बनाकर क्या होगा, पहले से मौजूद यूनियन के बैनर तले ही वे अपनी मांगों को मज़बूती से रखे. सोनू गुज्जर के साथ बातचीत से पहले लेबर कमिश्नर को शायद यह तथ्य पता नहीं होगा कि बीते 16 जुलाई को पुरानी यूनियन का चुनाव हुआ था और 2500 मज़दूर संख्या वाली इस कंपनी में 20 से भी कम लोगों ने मतदान प्रक्रिया में हिस्सा लिया. प्रबंधन वाली यूनियन की असलियत ऊघर के सामने आ गई है.
राज्य सरकार को मारुति ने धमकाया है कि अगर समाधान उनके पक्ष में नहीं रहता है तो वे प्लांट को उठाकर गुजरात ले जाएंगे. मुख्यमंत्री हुड्डा साहब इस धमकी से घबराए हुए हैं. लेकिन, मारुति सुज़ुकी की पिछली कुछ घोषणाओं और कामों पर नज़र दौड़ाए तो यह साफ़ हो जाएगा कि उनकी धमकी में बहुत दम नहीं है. मारुति ने मानेसर में इस प्लांट के अलावा दो और नए प्लांट पर काम करना शुरू कर दिया है. कुछ दिन पहले तक गुड़गांव वाले प्लांट को भी वे मानेसर लाने की बात कह रहे थे. वह सिर्फ मज़दूर हड़ताल की वजह से गुजरात नहीं भाग सकती. यह दबाव बनाने का प्रोपगैंडा है. सोनू गुज्जर इस प्रचार की असलियत जानते हैं, ‘कंपनी कोई थाली नहीं है कि हाथ में उठाए और बस में सवार होकर गुजरात चल दिए. कंपनी कंपनी होती है.’
यूनियन बनाना लोकतांत्रिक अधिकार है, लेकिन मारुति के भीतर जो स्थिति थी उससे निजात पाने के लिए इसका गठन होना बहुत ज़रूरी हो चला था. चार्ली चैपलिन की ‘मॉडर्न टाइम्स’ जिसने देखी है वो कंपनी के भीतर काम करने के तरीके को बेहतर समझ पाएंगे. एक मज़दूर अपना पसीना पोछने के लिए हाथ उठाए तो चलती पट्टी के दो नट-वोल्ट कसने बच जाएंगे और उस दो-तीन सेकेंड की भरपाई में उसे तेजी से हाथ-पैर मारने होंगे. मारुति सुजुकी हर 45 सेकेंड में एक कार तैयार करती है. दिनभर में यहां 1200 कारें बनती हैं. मज़दूरों को दो बार चाय पीने के लिए 7-7 मिनट का वक़्त मिलता है, जिसमें उन्हें हेलमेट, गॉगल्स, दस्ताने और मशीनी औज़ार स्टोर में रखने भी होते हैं, फिर पंचिंग कार्ड के जरिए कैंटीन भी जाना होता है फिर कतार में खड़े होकर चाय भी लेनी होती है, पीनी भी होती है और फिर हेलमेट, गॉगल्स, दस्ताने और तमाम लाव-लश्कर से लैश होकर काम शुरू कर देना होता है. इसमे एक सेकेंड की भी देरी बर्दाश्त नहीं है. याद कीजिए कि ‘मॉडर्न टाइम्स’ में जब चार्ली को बीड़ी पीने की तलब होती है और वो छुपकर बीड़ी सुलगाता है तो सामने स्क्रीन पर उसका मैनेजर उसे रंगे हाथों पकड़ लेता है और ज़ोर से फटकारता है. बिल्कुल यही माहौल मारुति के भीतर भी है. लंच के लिए आधा घंटा दिया जाता है.
काम दो शिफ्ट में होता है. सुबह 7.30 से शाम 3.45 तक पहला शिफ्ट और शाम 3.45 से लेकर रात 12.30 तक दूसरा शिफ्ट. अगर मज़दूर 7.31 बजे सुबह पहुंचा तो उसका ‘हाफ डे’ लग जाएगा. रिसेप्शन पर बैठा व्यक्ति मज़दूरों को बताता है कि चूंकि पंचिंग कार्ड के जरिए अंदर आने और जाने का वक़्त नोट किया जाता है इसलिए एक सेकेंड की भी देरी होने पर कंप्यूटर उसे पकड़ लेता है और देरी से आने का खामियाजा मज़दूरों को भुगतना पड़ता है. कितनी मासूम दलील है! मशीन का अपने पक्ष में इस्तेमाल की इस बानगी के क्या कहने! एक दूसरा पक्ष सोचते हैं. पिछले कुछ महीनों की लड़ाई के बाद कंपनी में यह नियम बना कि मज़दूरों को ला रही बस में अगर देरी होती है तो उस देरी को ‘कन्सीडर’ नहीं किया जाएगा. बस लेट होने पर भी मज़दूर पंचिंग कार्ड के जरिए ही अंदर जाते हैं और कंप्यूटर में ही वो समय भी दर्ज होता है. कंप्यूटर इस देरी को नहीं पकड़ता? प्रबंधन की बेईमान व्याख्या की यह एक नज़ीर मात्र है. बस में होने वाली देरी का भी कंपनी खामियाजा वसूलती है, लेकिन भुक्तभोगी पहले शिफ्ट में काम कर रहे मज़दूर बनते हैं. अगर बस लेट हो गई तो पहले वाली शिफ्ट को उस समय तक काम करना पड़ेगा जब तक बस नहीं आ जाती और इसका कोई ओवरटाइम नहीं मिलेगा. ओवरटाइम सिर्फ तब मिलेगा जब बस आने के बाद भी मज़दूरों से कंपनी काम जारी रखे.
एक छुट्टी पर मज़दूरों के 1200 रुपए कट जाते हैं और तीन-चार छुट्टियों पर आधे महीने का पैसा. कोई सिक लिव नहीं. बीमार होने पर कुछ अस्पताल तय किए गए है सिर्फ उन्हीं में इलाज कराने के एवज में कुछ फ़ीसदी भुगतान किए जाते हैं. बाक़ी अस्पतालों में ईलाज पर कोई भुगतान नहीं होता. फिर अस्पताल बिल की गहरी जांच होती है कि बिल का पैसा कितना वास्तविक है कितना नहीं. मारुति को अगर लगे कि टायफाइड 1500 रुपए में ठीक हो सकता है तो डॉक्टरी चक्कर में 15,000 लुटाने के बावज़ूद मज़दूरों को 1500 रुपए का ही आधा या आधे से ज़्यादा पैसों का भुगतान किया जाएगा.
मज़दूरों को शुरुआती तीन साल प्रशिक्षण में गुजारने होते हैं और इस दौरान क्रमश: 7, 8 और 9 हज़ार का वेतन दिया जाता है. प्रशिक्षण ख़त्म होने पर वेतन 16,000 रुपए है. इसके बाद ही मज़दूरों को मतदान का अधिकार मिल पाता है. मौजूदा प्रतिरोध को हतोत्साहित करने के लिए मारुति ने यह दावा किया है कि यदि सोमवार तक सारे मज़दूर ‘गुड कंडक्ट फॉर्म’ भरने को तैयार नहीं होते तो सारे मज़दूरों को बर्खास्त कर दिया जाएगा और कंपनी नए मज़दूरों को बहाल करेगी. 2500 मज़दूरों में से अब तक सिर्फ 20-30 लोगों ने ही यह फॉर्म भरा है और अंदर जाने के हक़दार बने हैं. जाति-धर्म के आधार पर भी मज़दूरों को बांटने की कोशिश हो रही है. प्रबंधन के लोग ऐसे मज़दूरों की तलाश में रहते हैं जो समान जाति और धर्म वाले हों. उन्हें जाति का हवाला देकर पक्ष में करने की कोशिश भी हो रही है, लेकिन मज़दूरों ने नारा बुलंद किया है कि वे ऐसी हर कोशिश को नाकाम करेंगे. उनका मानना है कि उनकी एक ही जाति और धर्म है और वो है उनका मज़दूर होना. मारुति ने दावा किया है कि बीते 1 सितंबर को उसने कुछ नए लोगों के सहारे 80 कार बनाकर बाज़ार में उतारा है. मज़दूरों का मानना है कि अव्वल तो यह मुश्किल है कि बिना ट्रेंड मज़दूरों के सहारे कंपनी इतनी कारें बना लें. दूसरा अगर कंपनी ने रिस्क लेते हुए यह काम किया भी है तो सड़क पर वे गाड़ियां दुर्घटना की बारंबारता को और बढ़ाने में मदद करेगी क्योंकि सही गुणवत्ता को परख पाना नए लोगों के लिए टेढ़ी खीर है. सड़क दुर्घटना की गंभीरता को दिखाती एक रिपोर्ट का मैं ज़िक्र करना चाहूंगा जिसमें कहा गया है कि बीती सदी में सबसे ज़्यादा मौत ऑटोमोबाइल से होने वाली दुर्घटनाओं से हुई है (रिपोर्ट मिलने पर उपलब्ध कराउंगा).
इस समय मानेसर का यह पंडाल मज़दूर आंदोलन का सबसे गरम पंडाल है. यहां के मज़दूरों में ग़ज़ब की ऊर्जा है. जब नारे लगते हैं और सड़क के उस पार मारुति-सुजुकी के प्लांट की भीतरी दीवारों से टकराकर आवाज़ वापस लौटती है तो उस गूंज को सुनकर मज़दूर और ज़ोर का हुंकार भरते हैं. एक थकता है तो दूसरा माइक थाम लेता है. इस तरह दो शिफ्ट में लोग लगातार जमे रहते हैं. कंपनी की तरह यहां भी एटैंडेंस लगता है ताकि मज़दूरों को पता चल सके कि कितने लोग सक्रिय तौर पर उनके साथ हैं और कितने टूट रहे हैं और कितने दलाल बन रहे हैं, बिक रहे हैं. यहां सुबह 7 बजे से शाम 7 बजे तक एक शिफ्ट और शाम 7 से सुबह 7 तक दूसरी शिफ्ट में मज़दूर मोर्चा संभाले रहते हैं. यहां सोनू नाम के कई मज़दूर हैं. कम से कम तीन से तो मैं ही मिला. जो दूसरा सोनू है वह सोनू गुज्जर के भाषणों के बीच में लोगों के बीच जोश भरने के लिए जोरदार नारे लगाता रहता है. लगातार. बिना थके.
सोनू गुज्जर ने बताया है कि मानेसर और गुड़गांव के 40-50 कंपनियों की लीडरशिप ने इस आंदोलन को समर्थन दिया है और गुड़गांव चक्का जाम में वे उनके साथ आएंगे. कुछ सांसदों का भी उन्हें समर्थन हासिल है. सोनू ने कहा कि उन लोगों ने 14 दिनों तक गांधी बन कर देख लिया है, अब ज़रूरत पड़ेगी तो भगत सिंह भी बनेगे. मज़दूरों को उन्होंने याद दिलाया कि भगत सिंह को 23 साल की उम्र में फांसी हो गई थी और उनके यहां तक़रीबन सारे मज़दूर 23 वर्ष से ज़्यादा के हैं. इसलिए इतिहास को यदि दोहराना होगा तो दोहराएंगे. झुकेंगे नहीं.
सोनू गुज्जर ने मज़दूरों और मज़दूर हित में रहने वाले सभी लोगों से यह आह्वान किया है - लड़ाई शुरू हो चुकी है सभी सेनानी तैयार हो जाएं.
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