चन्द्रिका
शायद वहां मान्यताएं इतिहास से भी ज्यादा मजबूत हैं, वे ऐसी मान्यताएं हैं जिसने जीने और लड़ने की ललक पैदा की थी. ये सहज जिन्दगियों के लिए आसान रास्ते थे जिस पर चलकर वे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में उतर रहे थे. ऐसे अतीत में बीता हुआ इतिहास उनके लिए एक किस्सा है जिसे वे रोज दुहराते हैं और हर दुहराव के साथ यह थोड़ा बदल जाता है और हर बदलाव के साथ एक इतिहास टूट जाता है. आखिर इतिहास को दिनों और तारीखों में सजोने से क्या फ़ायदा. विस्मृतियां कई बार मनुष्य को मजबूत बनाती हैं जबकि स्मृतियां एक घायल इतिहास को लगातार ढोती रहती हैं. वे हर वक्त जिंदगी को कुरेदती है और कुढ़न पैदा करती हैं, कोई सीख देने के बजाय वे आतंकित करती हैं और एक डरावने स्वप्न की तरह गहरी नीदों में उतर आती हैं. विद्रोहों की कहानियों में जश्न और हताशा दोनों होती है पर विद्रोहों का रुख ही जश्न और हताशा में किसी एक के चेहरे को उभार देता है. रात दुहराती है अंधेरे को और अंधेरा पुत जाता है समय की पीठ पर, ठीक उसी अंधेरे के साथ नही बल्कि रात जाने कहां से हर रोज नया और इतना ढेर सारा अंधेरा लाती है. यहां घटनाएं एक कटे हुए पेड़ सरीखी हैं जिसमे से कई कोपलें निकल आई हैं ठीक पेड़ सरीखी पर जाने कितनी जिनकी पत्तियां, तने और आकार मिलते-जुलते लगते हैं. किसी एक घटना की कई-कई गाथाएं हैं हर बदली हुई आवाज एक नई गाथा पेश करती है. आसमान का रंग नीला है इसके अपने वैग्यानिक कारण हो सकते हैं पर यहां के लोगों के लिए इससे भी ज्यादा मौजू कारण यह हो सकता है कि ढेर सारे नील गायों ने आसमान पर अपनी पीठ रगड़ी है. ऐसे में विग्यान औंधे मुंह गिर पड़ता है. दण्डकारण्य के आदिवासियों के पास जंगल की कोई पुरानी आग है जिसकी रोशनी में वे एक नया स्वप्न देख रहे हैं. पर आंच है, आग है जिसमे वे झुलस भी रहे हैं.
सोड़ी दीपक का नाम कुछ और भी हो सकता है उन्हे अपनी उम्र तक का पता नही वे अपने उम्र का मापन आपकी आंखों पर छोड़ देते हैं. जिंदगी जीने का उम्र से कोई वास्ता हो सकता है क्या? शायद इसकी उन्हें जरूरत ही नहीं महसूस होती. क्योंकि वहां मौत उम्र और गुनाह पूंछ कर नहीं आती. अपनी जमीन पर जिंदा रहना ही उनका गुनाह हो सकता है, उनका गुनाह हो सकता है माओवादियों के सहयोग से बने तालाबों में मछली पकड़ना, उनका गुनाह हो सकता है कि अपने गांव मसले को फैसले में बदलना जो सब मिलजुल कर आपस में निबटा लेते हैं और वहां गुनाहों की लम्बी फेहरिस्त है, जहां आदिवासियों ने सरकार से अब उम्मीदें छोड़ दी हैं. सरकार से उम्मीदों के प्रबल दावेदार वे हैं जो इनकी जमीनों पर अपनी मशीने खड़ा करना चाहते हैं, जिनके लिए देश एक कच्चा माल है और देश का हर नागरिक संसाधन. शायद इस कच्चे माल को उन्हें खोदना है, पकाना है और राख की शक्ल में उसे फेंक देना है. लाल किले से १५ अगस्त को हर बार दुहराया जाने वाला प्रगति और विकास का कोई संदेस इन आदिवासियों के लिए नहीं होता. वे प्रधानमंत्री की जुबान में बस एक भयानक खतरे की तरह आते हैं और..... और एक दिन किसी नाले के किनारे उनकी लाश मिल सकती है या संभव है लाश भी न मिले. जिंदा पकड़े जाने पर वे उन छत्तीस वारदातों के दोषी हो सकते हैं जिन इलाकों को उन्होंने देखा तक नहीं. वे कई अनाम नामों के साथ महान गुनाहों की श्रेणी में शामिल हैं. यह नवम्बर २०१० के किसी घटना की स्मृति है जिसे सोडी दीपक साझा कर रहे हैं. इससे पहले की ढेर सारी स्मृतियां धुंधली पड़ चुकी हैं या शायद वे उसमे लौटना नहीं चाहते.
इस गांव की सबसे बुजुर्ग महिला बंजामी बुधरी के आंखों की रोशनी जा चुकी है, इसमे ७० साल का इतिहास था जिसे किसी कागज पर नहीं उतारा जा सका, जो अब बस जेहन में बचा है. उनके पास जंगलों में पूरे के पूरे गांव के टहलने के कई किस्से हैं. इसे पलायन नही कहा जा सकता, इन जंगलों में बसने वाले गांवों की जनसंख्या जब बढ़ जाती थी तो उनमे से कुछ घर उठकर थोड़ी दूर जाकर बस जाते थे. बंजामी ४० साल पहले गदरा, सुकमा के नजदीक किसी जगह से आकर आखिरी बार इस गांव में बसी थी और तब से यहां रह रही हैं. अब वे यहां से नहीं जाना चाहती, दो साल पहले उनका पोते की पुलिस ने हत्या कर दी है. वे बताती हैं कि वह तो बस पार्टी (माओवादी) वालों के साथ रहता था और सलवा-जुडुम के खिलाफ था.
दण्डकारण्य का एक बड़ा हिस्सा आज माओवादी आंदोलन के प्रभाव में है और राज्य का एक बड़ा तंत्र इसके चिंता के प्रभाव में. यहां माओवादी होना उतना ही सहज है जितना जंगल में पेड़ होना. सबके सब आदिवासी और सबके सब माओवादी. ये गांव मुरिया और कोया समुदाय का है जिसमे माओवादियों द्वारा नियुक्त एक अध्यापक तेलगू और हिन्दी दोनो जानता है. यहां कोई नहीं जानता कि वह कितना खतरनाक है, यह बात सिर्फ देश के प्रधान मंत्री को पता है जिसे वे बार-बार दुहराते रहते है.
इन सब बातों से अलग एक इतिहास है जो मिथक के साथ लगातार प्रभावी बना रहा है. पूर्ववर्ती विद्रोहों को इन मिथकों ने संबल दिया था. आदिवासियों का एक राजा जो कभी नहीं मारा गया.....विद्रोह का एक नायक जिसके शरीर पर आते ही बंदूक की गोलियां पानी में बदल जाती थी......आम की टहनियां जो गांवों में पहुंचते ही लड़ाई का आगाज कराती थी. ये अब मौखिक कहानी बन गये हैं, इससे अलग जिंदगी एकदम उलट गयी है. जबकि उनके गांव खाली कराये जा रहे हैं, उन्हें कैम्पों में ढकेला जा रहा है, उनके शिकार के लिए ग्रीन हंट चलाया जा रहा है और बंदूक की नालें उन पर तान दी गयी हैं. वे बंदूकें छीनकर उनकी नालें मोड़ना सीख चुके हैं. अब तक इन आदिवासियों को भारतीय राज्य सत्ता ने हमेशा एक ऐसे तत्व के रूप में देखा जो कभी किसी सत्ता के खांचे में फिट नहीं हो पाए. यह एक देशज असमानता का परिणाम था जहां हमेशा से इन पर साशन करने के ही बारे में सोचा गया और ये स्वसाशन के बारे मे सोचते रहे. विकास नाम की कोई चीज है जो इन तक कभी नहीं पहुंच पाई और जब भी वह इन तक आई इनके कई सारे विनाश को एक साथ लेकर. जिसमे उस संस्कृति का विनास, उस सामूहिकता का विनाश और उस जंगल का विनाश समाहित था, जहां वे अब तक जीते आ रहे थे. १९१० के भूमकाल और उसके पूर्व में हुए विद्रोहों ने हमेशा एक बाहरी व्यवस्था को थोपने की अस्वीकार्यता को प्रकट किया है. जब अंग्रेजों के खिलाफ जंग छिड़ी तो आदिवासी यह सोच कर गोलियां खाते रहे कि उनका नायक गुंडाधुर कभी नहीं मारा जाएगा और गोलियां पानी में बदल जाएंगी, पर गोलियां पानी में नहीं बदली. वे चली और कुछ चीखें उठी, कुछ उनके बीच से हमेशा के लिए जाने कहां चले गए और फिर कभी लौटे. भारतीय सत्ता से पहली बार ६० के दशक में शुरु हुए राजा भंजदेव के नेतृत्व में भी यही मान्यता रही कि राजा को मारा नहीं जा सकता और पुलिस की गोली पानी में बदल जाएगी. भंजदेव की हत्या के बाद उन्हें कई वर्षों तक यह यकीन नहीं हुआ कि वह मारा जा चुका है और उसके तकरीबन १६ अवतार हुए जो यह दावा करते रहे कि वे राजा भंजदेव हैं. अब जबकि ८० के दशक में माओवादियों ने यहां प्रवेश किया और धीरे-धीरे वे इनमे घुले मिले उन्होने आदिवासियों के सहयोग से उनका जो विकास किया, उन्हें जिस तरह की व्यवस्था मुहैया कराई शायद वह उनके समाज के अनुरूप थी, वे इसे अपने समाज की व्यवस्था के रूप में स्वीकार्य कर चुके हैं. वर्तमान में दण्डकारन्य इलाके में माओवादियों ने जो बड़ा फर्क लाया है वह यह है कि उन्होंने अधिकांस स्थानीय व्यवस्था को वहां की स्थानीय लोगों के साथ जोड़ दिया है और वे माओवादी पार्टी के और वहां की जनताना-सरकार के तमाम पदों पर स्थित हो गए हैं...........जारी
शायद वहां मान्यताएं इतिहास से भी ज्यादा मजबूत हैं, वे ऐसी मान्यताएं हैं जिसने जीने और लड़ने की ललक पैदा की थी. ये सहज जिन्दगियों के लिए आसान रास्ते थे जिस पर चलकर वे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में उतर रहे थे. ऐसे अतीत में बीता हुआ इतिहास उनके लिए एक किस्सा है जिसे वे रोज दुहराते हैं और हर दुहराव के साथ यह थोड़ा बदल जाता है और हर बदलाव के साथ एक इतिहास टूट जाता है. आखिर इतिहास को दिनों और तारीखों में सजोने से क्या फ़ायदा. विस्मृतियां कई बार मनुष्य को मजबूत बनाती हैं जबकि स्मृतियां एक घायल इतिहास को लगातार ढोती रहती हैं. वे हर वक्त जिंदगी को कुरेदती है और कुढ़न पैदा करती हैं, कोई सीख देने के बजाय वे आतंकित करती हैं और एक डरावने स्वप्न की तरह गहरी नीदों में उतर आती हैं. विद्रोहों की कहानियों में जश्न और हताशा दोनों होती है पर विद्रोहों का रुख ही जश्न और हताशा में किसी एक के चेहरे को उभार देता है. रात दुहराती है अंधेरे को और अंधेरा पुत जाता है समय की पीठ पर, ठीक उसी अंधेरे के साथ नही बल्कि रात जाने कहां से हर रोज नया और इतना ढेर सारा अंधेरा लाती है. यहां घटनाएं एक कटे हुए पेड़ सरीखी हैं जिसमे से कई कोपलें निकल आई हैं ठीक पेड़ सरीखी पर जाने कितनी जिनकी पत्तियां, तने और आकार मिलते-जुलते लगते हैं. किसी एक घटना की कई-कई गाथाएं हैं हर बदली हुई आवाज एक नई गाथा पेश करती है. आसमान का रंग नीला है इसके अपने वैग्यानिक कारण हो सकते हैं पर यहां के लोगों के लिए इससे भी ज्यादा मौजू कारण यह हो सकता है कि ढेर सारे नील गायों ने आसमान पर अपनी पीठ रगड़ी है. ऐसे में विग्यान औंधे मुंह गिर पड़ता है. दण्डकारण्य के आदिवासियों के पास जंगल की कोई पुरानी आग है जिसकी रोशनी में वे एक नया स्वप्न देख रहे हैं. पर आंच है, आग है जिसमे वे झुलस भी रहे हैं.
सोड़ी दीपक का नाम कुछ और भी हो सकता है उन्हे अपनी उम्र तक का पता नही वे अपने उम्र का मापन आपकी आंखों पर छोड़ देते हैं. जिंदगी जीने का उम्र से कोई वास्ता हो सकता है क्या? शायद इसकी उन्हें जरूरत ही नहीं महसूस होती. क्योंकि वहां मौत उम्र और गुनाह पूंछ कर नहीं आती. अपनी जमीन पर जिंदा रहना ही उनका गुनाह हो सकता है, उनका गुनाह हो सकता है माओवादियों के सहयोग से बने तालाबों में मछली पकड़ना, उनका गुनाह हो सकता है कि अपने गांव मसले को फैसले में बदलना जो सब मिलजुल कर आपस में निबटा लेते हैं और वहां गुनाहों की लम्बी फेहरिस्त है, जहां आदिवासियों ने सरकार से अब उम्मीदें छोड़ दी हैं. सरकार से उम्मीदों के प्रबल दावेदार वे हैं जो इनकी जमीनों पर अपनी मशीने खड़ा करना चाहते हैं, जिनके लिए देश एक कच्चा माल है और देश का हर नागरिक संसाधन. शायद इस कच्चे माल को उन्हें खोदना है, पकाना है और राख की शक्ल में उसे फेंक देना है. लाल किले से १५ अगस्त को हर बार दुहराया जाने वाला प्रगति और विकास का कोई संदेस इन आदिवासियों के लिए नहीं होता. वे प्रधानमंत्री की जुबान में बस एक भयानक खतरे की तरह आते हैं और..... और एक दिन किसी नाले के किनारे उनकी लाश मिल सकती है या संभव है लाश भी न मिले. जिंदा पकड़े जाने पर वे उन छत्तीस वारदातों के दोषी हो सकते हैं जिन इलाकों को उन्होंने देखा तक नहीं. वे कई अनाम नामों के साथ महान गुनाहों की श्रेणी में शामिल हैं. यह नवम्बर २०१० के किसी घटना की स्मृति है जिसे सोडी दीपक साझा कर रहे हैं. इससे पहले की ढेर सारी स्मृतियां धुंधली पड़ चुकी हैं या शायद वे उसमे लौटना नहीं चाहते.
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दण्डकारण्य का एक बड़ा हिस्सा आज माओवादी आंदोलन के प्रभाव में है और राज्य का एक बड़ा तंत्र इसके चिंता के प्रभाव में. यहां माओवादी होना उतना ही सहज है जितना जंगल में पेड़ होना. सबके सब आदिवासी और सबके सब माओवादी. ये गांव मुरिया और कोया समुदाय का है जिसमे माओवादियों द्वारा नियुक्त एक अध्यापक तेलगू और हिन्दी दोनो जानता है. यहां कोई नहीं जानता कि वह कितना खतरनाक है, यह बात सिर्फ देश के प्रधान मंत्री को पता है जिसे वे बार-बार दुहराते रहते है.
इन सब बातों से अलग एक इतिहास है जो मिथक के साथ लगातार प्रभावी बना रहा है. पूर्ववर्ती विद्रोहों को इन मिथकों ने संबल दिया था. आदिवासियों का एक राजा जो कभी नहीं मारा गया.....विद्रोह का एक नायक जिसके शरीर पर आते ही बंदूक की गोलियां पानी में बदल जाती थी......आम की टहनियां जो गांवों में पहुंचते ही लड़ाई का आगाज कराती थी. ये अब मौखिक कहानी बन गये हैं, इससे अलग जिंदगी एकदम उलट गयी है. जबकि उनके गांव खाली कराये जा रहे हैं, उन्हें कैम्पों में ढकेला जा रहा है, उनके शिकार के लिए ग्रीन हंट चलाया जा रहा है और बंदूक की नालें उन पर तान दी गयी हैं. वे बंदूकें छीनकर उनकी नालें मोड़ना सीख चुके हैं. अब तक इन आदिवासियों को भारतीय राज्य सत्ता ने हमेशा एक ऐसे तत्व के रूप में देखा जो कभी किसी सत्ता के खांचे में फिट नहीं हो पाए. यह एक देशज असमानता का परिणाम था जहां हमेशा से इन पर साशन करने के ही बारे में सोचा गया और ये स्वसाशन के बारे मे सोचते रहे. विकास नाम की कोई चीज है जो इन तक कभी नहीं पहुंच पाई और जब भी वह इन तक आई इनके कई सारे विनाश को एक साथ लेकर. जिसमे उस संस्कृति का विनास, उस सामूहिकता का विनाश और उस जंगल का विनाश समाहित था, जहां वे अब तक जीते आ रहे थे. १९१० के भूमकाल और उसके पूर्व में हुए विद्रोहों ने हमेशा एक बाहरी व्यवस्था को थोपने की अस्वीकार्यता को प्रकट किया है. जब अंग्रेजों के खिलाफ जंग छिड़ी तो आदिवासी यह सोच कर गोलियां खाते रहे कि उनका नायक गुंडाधुर कभी नहीं मारा जाएगा और गोलियां पानी में बदल जाएंगी, पर गोलियां पानी में नहीं बदली. वे चली और कुछ चीखें उठी, कुछ उनके बीच से हमेशा के लिए जाने कहां चले गए और फिर कभी लौटे. भारतीय सत्ता से पहली बार ६० के दशक में शुरु हुए राजा भंजदेव के नेतृत्व में भी यही मान्यता रही कि राजा को मारा नहीं जा सकता और पुलिस की गोली पानी में बदल जाएगी. भंजदेव की हत्या के बाद उन्हें कई वर्षों तक यह यकीन नहीं हुआ कि वह मारा जा चुका है और उसके तकरीबन १६ अवतार हुए जो यह दावा करते रहे कि वे राजा भंजदेव हैं. अब जबकि ८० के दशक में माओवादियों ने यहां प्रवेश किया और धीरे-धीरे वे इनमे घुले मिले उन्होने आदिवासियों के सहयोग से उनका जो विकास किया, उन्हें जिस तरह की व्यवस्था मुहैया कराई शायद वह उनके समाज के अनुरूप थी, वे इसे अपने समाज की व्यवस्था के रूप में स्वीकार्य कर चुके हैं. वर्तमान में दण्डकारन्य इलाके में माओवादियों ने जो बड़ा फर्क लाया है वह यह है कि उन्होंने अधिकांस स्थानीय व्यवस्था को वहां की स्थानीय लोगों के साथ जोड़ दिया है और वे माओवादी पार्टी के और वहां की जनताना-सरकार के तमाम पदों पर स्थित हो गए हैं...........जारी
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