03 सितंबर 2011

एक फांसी



जार्ज आरवेल- अनुवाद: गुंजेश
यह बर्मा में बारिशों वाली सुबह थी। जेल की ऊंची दीवारों से, प्रकाश की एक बहुत पतली रेखा, टीन के पीली पन्नी जैसी, जेल में प्रवेश कर रही थी। हम दोहरे छड़ों वाले कैद खाने में, जो किसी जानवर के पिंजड़े जैसा था इंतज़ार कर रहे थे। हर एक कैदी के लिए 10*10 फिट की जगह थी जो तख्ते के एक बिस्तर, कंबल और पानी के घड़े के अलावा खाली ही था। जिनमें से कुछ में बादामी रंग वाले कैदी पालथी मारे, कंबल लपेटे बैठे थे। ये लोग अपराधी थे और इन्हें अगले एक दो हफ्तों में फांसी पर लटका दिया जाना था।
एक कैदी को उसके सेल से निकाला गया। मुंडे सिर और अस्थिर तरल आँखों वाला एक कमजोर छरहरा कैदी। उसकी मुछें घनी थीं, उसके शरीर के अनुपात में कुछ ज़्यादा ही घनी जो की किसी कामेडी सिनेमा के पात्र की तरह दिखती थी। छह लंबे चौड़े भारतीय पहरेदार उसे घेरे हुए थे और फांसी के लिए तैयार कर रहे थे। पहरेदारों में, दो के पास संगीनों वाली राइफलें थीं, जबकि बाँकी पहरेदार कैदी को हथकड़ी लगाए हुए थे। सिपाहियों ने कैदी को कस कर जकड़ रखा था मानो उन्हें यह डर था कि कैदी कभी भी छुट कर भाग सकता है। यह एक आदमी के ज़िंदा मछली को हाथों में पकड़ रखने जैसा था मानों पकड़ ढीली हुई नहीं कि मछली हाथ से गई। जबकि कैदी बहुत ही समर्पित भाव से तमाम गतिविधियों को चलने दे रहा था जैसे उसे पता ही न हो कि क्या होने वाला है।
आठ बजे का गजर बज चुका था, गजर की आवाज़ भिंगी हुई हवा के साथ जेल के हर एक बैरक में पहुँच चुकी थी। जेल अधीक्षक, जो की कैदियों से अलग खड़ा था और इस पूरी प्रक्रिया को सदम्भ संचालित कर रहा था, ने घंटे की तरफ सर उठाया। भूरे मुछों और कर्कश आवाज़ वाला जेल अधीक्षक फौज का डाक्टर रह चुका था। ‘भगवान के लिए जल्दी करो फ्रांसिस’- उसने उकताते हुए कहा, ‘इस समय तक कैदी को फांसी हो जानी चाहिए थी, तुमलोगों की तैयारी अभी तक पूरी नहीं हुई?’
जेल प्रधान फ्रांसिस ने हकलाते हुए कहा ‘यस सर यस सर, सब कुछ तैयार है जल्लाद प्रतीक्षा कर रहा है हम सज़ा को मुकम्मल कर सकते हैं’
‘अच्छा है जल्दी करो, जब तक फांसी नहीं हो जाती बाँकी कैदियों को सुबह का नाश्ता नहीं मिलेगा’।
हम फांसी को देखने के लिए तैयार थे। दोनों राइफल धारी पहरेदार कैदी के आजू-बाजू चल रहे थे जबकि दो पहरेदार पहले की ही तरह कैदी को कस कर जड़के हुए थे। मजिस्ट्रेट और बाँकी लोग उनके पीछे थे। हम दस गज ही चले होंगे कि अचानक, बिना किसी आदेश या पूर्वसूचना के, एकाएक सब कुछ थम गया। एक अशुभ घटना घट गई थी- ईश्वर जाने कहाँ से एक कुत्ता रास्ते में आ गया था। लगातार भौंकता हुआ वह कुत्ता इतने सारे लोगों को एक साथ देख कर उल्लासित हुआ जा रहा था। वह घने बालों वाला कुत्ता था। एक क्षण तो वह हमारे आस पास घूमता रहा और फिर इससे पहले की कोई उसे पकड़ पता वह कैदी की ओर लपका और उसके चेहरे को चूमने लगा। हर कोई अचंभित था। ‘इस नीच को यहाँ किसने आने दिया, कोई इसे बाहर करो’ जेल अधीक्षक ने झल्लाते हुए कहा।
छ्ह पहरेदारों के दल में से एक आगे बढ़ा और कुत्ते को पकड़ने की कोशिश करने लगा, पहरेदार के बर्ताव से लग रहा था की वह इसके लिए प्रशिक्षित नहीं किया गया है, जब तक वह कुत्ते तक पहुंचता कुत्ता उसकी पहुँच से निकल चुका था। एक युवा यूरेशियन जेलर ने जमीन से कुछ ढले उठाए और कुत्ते पर निशाना साधा पर कुत्ता उससे भी बच निकला और वापस हमारे बीच आ गया। उसके भौंकने की आवाज़ें हमारे कानों में गूंज रहीं थी। क़ैदी और उसे जकड़े हुए दो सिपाही यह सब कुछ ऐसे देख रहे थे मानो यह भी फांसी होने से पहले की कोई रस्म हो। किसी ने कुत्ते के गले में रुमाल का पट्टा डाल कर उसे पकड़ा और बाहर किया।
फांसी का तख़्ता हमसे चालीस गज़ की दूरी पर रहा होगा। मुझे तख़्ते की ओर बढ़ते क़ैदी के भूरे रंग की पीठ नज़र आ रही थी। बंधे हुए बाजुओं वाले उस क़ैदी की चाल में अनाड़ीपन तो था लेकिन वह काफी स्थिर लग रहा था, यह उस भारतीय की ठसक भरी चल थी जिसने कई दिनों से अपने ठेहुनों को सीधा नहीं क्या था। उसके पाँव भिंगी हुई बाजरी पर अपना निशान छोड़ रहे थे। और एक बार तो वह खुद ही रास्ते के कीचड़ से बचने के लिए थोड़ा बच कर चला था।
यह सब बहुत अनूठा था लेकिन तब तक जब तक मेरे दिमाग में यह ख्याल नहीं आया था कि एक स्वस्थ और सजग आदमी को मारने का क्या मतलब होता है। जब क़ैदी ने ख़ुद को कीचड़ से बचाया तो मेरा साक्षात्कार एक विडम्बना से हुआ। एक अच्छे खासे जवान मर्द को फांसी पर लटकाने का क्या तर्क है, क्या यह एक न्यायिक चूक नहीं है। आने वाले कुछ समयों में उसकी मृत्यु नहीं होनी थी, वह हमारी ही तरह ज़िंदा रहने वाला था। उसके शरीर के सभी हिस्से ठीक काम कर रहे थे। आँतें भोजन पचा रही थीं, नाख़ुन बढ़ रहे थे, रोम छिद्रों से पसीना निकाल रहा था कोशिकाएं अपनी गति से निर्मित हो रहीं थीं — सभी अंग अभी तक एक मूर्ख की भांति लगातार मेहनत कर रहे थे। समभवतः उसके नाख़ुन तब भी बढ़ते रहें जब वह फांसी के तख्ते पर चढ़ा होगा, और जब उसकी ज़िंदगी एक झटके के साथ सेकेंड के दसवें हिस्से में हवा में घुल जाएगी। उसकी आँखों ने पीले तख़्ते और सीमेंटी दीवारों को देखा, उसका मस्तिष्क अब भी काम कर रहा है वह पूर्वानुमान लगा सकता है समझ सकता है- वह कीचड़ से बच सकता है। हम लोग एक साथ देख, सुन और समझ रहे हैं, महसूस कर रहे हैं एक ही दुनिया के बारे में एक ही तरह से। और दो मिनट से भी कम समय में, एक झटके के साथ हमारे बीच का एक चला जाएगा- एक मस्तिष्क एक दुनिया कम हो जाएगी।
फांसी का तख़्ता जेल से अलग एक छोटी सी जगह में बना हुआ था जिसके चारो तरफ़ कांटे वाली झाड़ियाँ फैली हुई थीं। यह ईटों के एक त्रिविमीय शेड की तरह था जिसके बीच में लकड़ी का एक तख़्ता था ऊपर दो बिंबों और क्रॉस्बार कि सहायता से एक रस्सी टंगी हुई थी। सफ़ेद बालों वाला बूढ़ा जल्लाद जो जेल की वर्दी पहने हुए था अपने मशीन के पास इंतज़ार कर रहा था। हम जैसे ही तख़्ते के पास पहुंचे जल्लाद ने हमें दासों की तरह नमस्कार किया। फ्रांसिस के इशारे पर दो सिपाही, जो क़ैदी को अब पहले से भी ज़्यादा कस कर जकड़े हुए थे, क़ैदी को तख़्ते पर ले गए। जल्लाद ने क़ैदी के गले में फंदा डाल दिया।
हम तख़्त से चालीस गज़ की दूरी से सब कुछ देख रहे थे। जेल के कर्मचारी तख़्त के आस-पास एक गोल घेरा बना कर खड़े हो गये। और जब सब कुछ तैयार हो गया तब क़ैदी ने अपने ईश्वर को याद करना शुरू किया, वह बहुत तेज़ आवाज़ में बार बार राम! राम! राम! पुकार रहा था। उसकी आवाज़ में कोई जल्दबाजी नहीं थी और न ही वह किसी मदद के लिए कुहर रहा था। वह स्थिर और स्स्वर था उसकी आवाज़ घंटे के ध्वनि की तरह ठनकदार थी। सिर्फ कुत्ता ही रोते हुए उसकी आवाज़ को जबाब दे रहा था। जल्लाद ने उसके चहरे पर सूती कपड़े के बने नकाब को पहना दिया। लेकिन वह नकाब भी क़ैदी के आवाज़ को दबा नहीं पाई और राम! राम! राम! की ध्वनि गूँजती रही।
जल्लाद वापस अपने मशीन के पास आ गया था और उसने मशीन का लीवर पकड़ लिया। समय रीत रहा था। क़ैदी की स्थिर आवाज़ हरेक क्षण बिना लड़खड़ाये हम तक पहुँच रही थी- राम! राम! राम! जेल अधीक्षक सर झुकाये, अपनी छड़ी से धीरे धीरे जमीन को कुरेद रहा था शायद वह राम! राम! की आवृतियों को गिन रहा था, क़ैदी को एक खास गिनती तक इसकी इजाज़त मिली होगी- शायद पचास या सौ। सब के चहरे तनाव से रंगे हुए थे। भारतियों के चहरे खराब काफी की तरह भूरे पड़ गये। दो संगीने हवा में हल्के हल्के हिल रहीं थीं। हम नकाब से ढके उस चहरे को देख रहे थे जो, फांसी के फंदे पर टंगा हुआ था, उसकी आवाज़ हम सुन रहे थे- हर बार एक आवृति और जीवन का एक सकेंड और। ओह, इसे जल्दी लटका दो,खत्म करो इसे, इस असहनीय आवाज़ को बंद करो; हम सब के दिमाग में यही चल रहा था।
‘चलो!’ जेल अधीक्षक ने सउत्साह कहा, उसने अपना मन बना लिया था।
क्लिक की एक आवाज़ और फिर चारो तरफ़ मरघट की शांति। कैदी खत्म हो चुका था, फंदा अपने में ही उलझ गया था। कुत्ते को छोड़ दिया, वह भौंका और कंटीली झाड़ियों की तरफ भाग गया, वह हमारी तरफ डरी हुई निगाहों से देख रहा था। हम मृतक का परीक्षण करने फांसी के तख्ते के पास गये। उसके पंजे बिलकुल सीधे ज़मीन की तरफ झुके हुए थे और पूरा शरीर धीरे-धीरे दायें बाएँ घूम रहा था, मानो पत्थर की किसी मूर्ति को रस्सी पर लटका दिया गया हो।
जेल अधिकक्षक मृत शरीर के पास गया और अपनी छड़ी से मृत शरीर को कोंचा, रस्सी पर टंगी पत्थर की मूर्ति थोड़ा डोली। ‘यह ठीक है’ जेल अधीक्षक ने कहा। वहाँ से पीछे हटते हुए उसने एक गहरी सांस ली। अचानक ही उसके चेहरे की अस्थिरता गायब हो चुकी थी। उसने अपनी कलाई घड़ी में झाँका आठ बज कर आठ मिनट। ‘भगवान का शुक्र है सब कुछ समय पर ही निपट गया’।
सिपाहियों ने अपने राइफलों से संगीने निकाल ली और वहाँ से चले गये। कुत्ता जिसे शायद अपनी गलती का एहसास हो चुका था, उन्हीं सिपाहियों के पीछे निकल गया। हम भी वहाँ से निकल कर, अपराधियों के सेल से होते हुये जेल के बड़े से केन्द्रीय कक्ष में पहुँच चुके थे। दोषियों को पहरेदारों के आदेश पर नाश्ता मिलने लगा था। कैदी बेतरतीब तरीके से लंबी लाइनों में लगे हुए थे, हर एक के पास टीन का बना एक छोटा पैन था और दो पहरेदार बाल्टियों में चावल लेकर घूम रहे रहे थे। यहाँ सब कुछ सामान्य दिख रहा था, फांसी के बाद का यह एक सुखद माहौल था। हम सब एक राहत की साँसों से भरे हुए थे- आखिर काम हो गया था। कोई प्रशंसा के गीत गा रहा था, कोई यूं ही भाग रहा था, कोई बेढब तरीके से हस रहा था। कुल मिला कर सब खुश थे।
एक यूरेशियन लड़का मेरी बगल में खड़ा था और उस रास्ते को देख रहा था जिधर से हम आये थे, उसने एक परिचित मुस्कान के साथ कहा- ‘सर, आप जानते हैं हमारे दोस्त, (उसका इशारा मृतक कैदी की तरफ था), ने जब सुना की उसकी अर्जी खारिच कर दी, वह फर्श पर ऐसे गिर पड़ा मानो वह नशे में घूत्त हो- डर की वजह से। क्या आप नए सिगरेट केस से सिगरेट लेना पसंद करेंगे। नया खरीदा है 2 रुपये और आठ आने में, पारंपरिक यूरोपियन स्टाइल का’
कुछ लोग ज़ोर से हसे- किस बात पर! यह ठीक से कोई नहीं जनता कोई नहीं जनता था।
फ्रांसिस जेल अधीक्षक के साथ टहलते हुए चापलूसीयत भरी अदाओं से बोल रहा था –‘चलिये सर, सब कुछ अच्छे से निपट गया। एक ही झटके में कैदी खत्म हो गया। यह इतना आसान नहीं होता, मैं ऐसे कई मामलों को जनता हूँ जहां सज़ा मुकम्मल कराने के लिए डाक्टर को फांसी के तख्ते के नीचे जाना पड़ा, और कैदी के टांगों को खिचना पड़ा है। कितना अपमानजनक है यह’।
‘हाँ, यह बुरा है’- जेल अधीक्षक ने तड़पते हुए कहा।
‘सर, यह और भी मुश्किल हो जाता है जब कैदी प्रतिरोध कर रहा हो। मुझे याद है एक आदमी तो अपने सेल के सलाखों से ही चिपक गया था’। आपको मुझे शब्बाशी देनी चाहिए सर, ‘मुझे इसे भी कैदखाने से निकालने में छह लोग लगे, तीन-तीन लोग दोनों पैरों के लिए। हमने उससे कहा- दोस्त तुम ज़रा सोचो तुम हमें कितना कष्ट दे रहे हो’। लेकिन उसके कानों पर जू तक नहीं रेंगी। ‘वो बहुत शैतान था’।
मुझे एक ज़ोर की हसी आ गई। हर कोई हस रहा था। जेल अधीक्षक ने भी ठहाका लगाया और कहा –‘अच्छा होगा हम यह सब भूल कर एक-एक जाम लगाएँ’। फ्रांसिस ने तत्परता से कहा ‘मेरे कार में एक विस्की की बोतल पड़ी है, मैं ले कर आता हूँ’।
हम जेल के दोहरे दरवाजों से निकल बाहर सड़क पर आ गये थे। ‘तीन-तीन लोग दोनों पैरों के लिए’ अचानक ही बर्मा के एक मजिस्ट्रेट ने दुहराया, और हम बहुत ज़ोर से हस पड़े। हम फिर से हसने लगे थे। फिर हम सबने साथ बैठ कर जाम सजाया। मृत शरीर हमसे सौ गज की दूरी पर था।
(द हिन्दू और 1931 — © By permission of the Estate of the Late Sonia Brownell Orwell से साभार)

3 टिप्‍पणियां:

  1. जार्ज आरवेल के बारे mein kya kahan! गुंजेश ka अनुवाद khoob hai!

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  3. अनुवाद अच्छा होना या न होना मुद्दा नहीं है...अनुवाद के लिए जो चुना वो अच्छा है...ऑरवेल दूर के लेखक नहीं थे .. संभाव्य विसंगतियों पर उनका पूर्वानुमान और समझ बहुत सटीक और साफ़ थी... बहुत अच्छे गुंजेश ... यही उम्मीद है तुमसे मित्र..

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