05 दिसंबर 2010

संसदीय राजनीति एक नाटकघर है


दिलीप खान

टू जी घोटाले को लेकर चल रहे संसदीय गतिरोध पर प्रणब मुखर्जी ने यह टिप्पणी की कि भाजपा को भ्रष्टाचार पर बोलने का अधिकार नहीं है। उन्होंने तहलका कांड का उदाहरण देते हुए कहा कि उसमें भाजपा अध्यक्ष सीधे-सीधे कैमरे के सामने रिश्वत लेते हुए पकड़े गए थे. मुखर्जी के बोलने का कुल लब्बोलुआब यह है कि एक ऐसी पार्टी जो खुद कभी रिश्वत लेने के आरोप में राष्ट्रीय सुर्खियां बटोर चुकी है वह कैसे उसी मुद्दे पर दूसरी पार्टी को घेर सकती है? अगर इस बात को केंद्रीय भाव मानकर देश की संसद चले तो शायद किसी भी पार्टी के पास भ्रष्टाचार पर बोलने का अधिकार न हो और संसद में घोटाले का कोई मामला ही ना बने! कर्नाटक में भूमि आबंटन में हुई अनियमितता के प्रश्न पर विपक्षी जनता दल (से.) ने जब येदियुरप्पा सरकार को घेरा तो मामला राष्ट्रीय स्तर पर तूल पकड़ने लगा. राज्य में भाजपा के भीतर का भी एक धड़ा मौजूदा मुख्यमंत्री की ख़िलाफ़त करके नेतृत्व परिवर्तन पर ज़ोर दे रहा था. इन विरोधों के बीच जब उनके के इस्तीफ़े/बर्खास्तगी की मांग जोरों से चल रही थी, येदियुरप्पा ने आत्मविश्वास से लबरेज होकर कहा कि वे मुख्यमंत्री पद पर बने रहेंगे. येदियुरप्पा के आत्मविश्वास का स्रोत प्रणब मुखर्जी के सुझाए रास्ते से ही जाकर मिल जाता है.



जिगनी में दो एकड़ ज़मीन येदियुरप्पा के बेटे राघवेंद्र् और विजयेंद्र के नाम आबंटित की गई थी. विपक्षी दलों के विरोध प्रदर्शनों के बीच येदियुरप्पा ने कहा कि ये ज़मीन उसी तर्ज पर मेरे बेटों को आबंटित की गई है जैसे पूर्व काँग्रेस अध्यक्ष आर वी देशपांडे के बेटे प्रसाद देशपांडे, पूर्व जनता दल मुख्यमंत्री जे एच पटेल के बेटे महिमा पटेल और पूर्व मुख्यमंत्री एच डी कुमारास्वामी के भाई बालकृष्णा गौड़ा को आबंटित की गई थी. उनके कहने का भी मुख्य भाव यही था कि उन नेताओं से संबंद्ध पार्टी भूमि आबंटन के मुद्दे पर कैसे किसी को इतने अधिकार भाव से घेर सकती है? संसदीय राजनीति में एक ही सप्ताह में दो धुर विरोधी पार्टियां अपने बचाव में एक ही तर्क का सहारा लेती है और इस तर्क पर टिप्पणी करने के बजाए प्रत्येक दूसरी पार्टी यह उम्मीद बांधे खड़ी नज़र आती है कि वे भी किसी मौजूं समय पर इस अचूक तर्क का सहारा लेंगी. और इस तरह रस्सा-कस्सी का यह दिलचस्प खेल लंबा चलेगा.



येदियुरप्पा ने यह भी घोषणा की कि वे पिछले सोलह सालों में आबंटित ज़मीन की जांच करवाएंगे. इन अवधियों में ज़्यादातर उन्हीं दलों की सरकार सत्ता में रही है जो इस समय विपक्ष में बैठे हैं. विपक्षियों पर खेला गया यह ऐसा दांव था कि अचानक से पूरा परिदृश्य बदल गया. येदियुरप्पा मामले के अध्याय की लंबाई घट कर खात्मे के कगार पर पहुंचती दिखने लगी. कर्नाटक पिछले कई महीनों के उथल-पुथल के बीच थोड़ा स्थिर लगने लगा है.



घोटालों और भ्रष्टाचारों को लेकर संसदीय राजनीतिक दलों के तमाम विरोध प्रदर्शन की कवायद संसद और जंतर-मंतर सरीखे स्थाई विरोध अड्डे तक ही सीमित है. नजारा बेहद दिलचस्प था जब एक ही दिन दो अलग-अलग जगहों पर दो अलग-अलग पार्टियां एक ही विषय को लेकर धरने पर बैठी थी. नारा भी एक ही था कि वे पारदर्शिता की मांग कर रहे हैं. इन राजनीतिक दलों में इतना नैतिक साहस नहीं है कि वे इन मुद्दों को लेकर जनता के बीच जाए. इनका विरोध दिल्ली और विधानसभाओं तक ही सीमित है. अभी-अभी बिहार विधानसभा चुनाव में पटखनी खाने के बाद प्रेस काँफ़्रेंस में रामविलास पासवान कह रहे थे कि नीतिश सरकार पर कैग की रिपोर्ट से स्पष्ट हुई अनियमितताओं को वे जनता के बीच मुद्दा नहीं बना पाए. वे कह रहे थे कि बिहार में विकास का हौव्वा खड़ा किया गया, जिसके सहारे नीतिश ने सियासी कुर्सी हासिल की. कैग की रिपोर्ट से जाहिर हुई अनियमितता हज़ारों करोड़ रुपए की थी. लेकिन प्रश्न यही है कि विपक्षी दल इसे मुद्दा क्यों नहीं बना पाए? मुख्य विपक्षी दल राजद के नाम चारा घोटाले का एक बड़ा-सा बिल्ला चस्पां है. वे जानते हैं कि घोटाले का विरोध करने पर प्रति-प्रश्न के तौर पर उसके सामने उसी का गोटा फेंका जाएगा और उसके वजन से वे उबर नहीं पाएंगे.



हमारे सामने भ्रष्टाचार की एक अंतहीन परंपरा विकसित की जा रही है. राष्ट्रमंडल, आदर्श सोसाइटी, कर्नाटक, बिहार, टू जी स्पेक्ट्रम के मुद्दे कुछ महीनों में ही एक- दूसरे को ओवरलैप करते दिखते हैं. सबसे तात्कालिक कौन है यह स्पष्ट करना मुशिक्ल हो गया है. साथ ही, यह तय करना भी मुश्किल हो गया है कि आरोपी कौन है और आरोपित कौन? समय-स्थान के साथ आरोप का पद बदलता रहता है. संसद की चहारदीवारियों के भीतर भ्रष्टाचार की अनुगूंज में प्रत्येक राजनीतिक दलों के नेता लंबे-लंबे लबादा ओढ़ कर आते हैं और घोटाले के इस महानाटक में अपनी भूमिका को बेहद सफाई से निभाने का हर संभव प्रयत्न करते हैं. जनता इस नाटक का मज़बूर प्रतिबद्ध दर्शक है.


(लेखक स्वतंत्र पत्रकार है)

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