27 नवंबर 2010

दलित उत्पीड़न में निरुत्तर प्रदेश

चन्द्रिका
अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पी.एल. पुनिया ने उत्तर प्रदेश में बढ़ रहे दलित उत्पीड़न के मामले पर जो चिंता जताई और राज्य सरकार पर दलित उत्पीड़न की अनदेखी के जो आरोप लगाये हैं वह अहम इसलिये हो जाते है कि मायावती के मुख्यमंत्री बनने का आधार, प्रदेश का यही वर्ग रहा है और बहुजन समाज पार्टी की पूरी सियासत इसी पर टिकी हुई है. राज्य के २१ प्रतिशत दलितों में से अधिकांस अपने उत्थान की आस्था मायावती सरकार से लगाये हुए हैं. जबकि अब यह समीकरण थोड़ा बदल गया है और सियासत करने के जिस फार्मूले को सोसल इंजीनियरिंग के नाम से प्रचारित किया गया वह उत्तर प्रदेश में इससे पहले तक काबिज बर्चस्वशाली सवर्ण वर्गों का सिस्टम में अपने पुर्जे फिर से फिट करने का अवसर देना था. सोसल इंजिनीयरिंग ने एक बार फिर से साबित किया कि इस व्यवस्था में विचारधारा और झंडे उतनी अहमियत नहीं रखते, अहमियत जगह और ताकत की है. बहुजन समाज पार्टी के नारे और उनके साथ विम्बित होते विचार भी बदलते गये. कांशीराम के समय जिस वर्ग को वह जूते मार कर ठीक करने की बात करती थी अब उन्ही को इंजीनियरों से ठीक करवा रही है.
पी.एल. पुनिया ने दलितों के उत्पीड़न से जुड़े कुछ तथ्य प्रस्तुत किये तो मायावती सरकार ने पी.एल. पुनिया के आरोपों को खारिज करते हुए भी कुछ तथ्य रखे. अनुसूचित जाति आयोग झूठा हो सकता है, तो राज्य सरकार भी झूठी हो सकती है और वे आंकड़े जो राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो द्वारा प्रस्तुत किये जाते हैं वे भी झूठे हो सकते है. इस संरचना में इन सबकी सम्भावनायें मौजूद हैं. बावजूद इसके राज्य सरकार को खुद के द्वारा एकत्रित किये हुए आंकड़ों में यकीन होना ही चाहिये जो हर साल बढ़ोत्तरी के साथ सामने आ रहे हैं. यदि दलित महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनायें ही देखी जायें तो २००६ में जहाँ २४० थी, वहीं २००७ में ३१८ और २००८ में ३७५ के आंकड़े के साथ बढ़ी हुई हैं. ये वे आंकड़े हैं जिन्हें दर्ज कर लिया गया है सम्भव है यह घटनाओं का न्यून प्रतिशत ही हो.
इसके पहले भी अनुसूचित जाति आयोग की सदस्य व उत्तरप्रदेश प्रभारी सत्या बहन यह जाहिर कर चुकी हैं कि दलित उत्पीड़न के मामले में उत्तर प्रदेश सबसे आगे है यहाँ तक कि बहुजन समाज पार्टी के नेताओं के ऊपर भी दलित महिलाओं के साथ बलात्कार के आरोप लगे हैं. सिर्फ दलित महिलाओं के साथ ही नहीं बल्कि दलित वर्ग के प्रति उत्पीड़न का जो स्वरूप था वह भी अपने पुराने रूप में ही मौजूद है इटावा में सफाईकर्मी राजेन्द्र बाल्मीक के सिर को मुड़वाकर चौराहा बनाना या फिर हमीरपुर के मझोली गाँव में ५ साल की दलित बच्ची के साथ बलात्कार किये जाने की घटनायें भले ही पुरानी पड़ गयी हों पर पुनिया के बयान से ठीक पहले ही आजमगढ़ के कुरहंस गाव में १८ अक्टूबर को संगीता नाम की एक दलित लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार राज्य सरकार द्वारा दी जाने वाली सफाई पर पानी जरूर डाल देती है. जबकि थाने में शिकायत दर्ज करने के लिये पीड़ित पक्ष को बड़ी मसक्कत से एक पूर्व आइ.पी.एस. आधिकारी से सिफारिस करवानी पड़ी. यह एक सच्चाई है कि मायावती के पास कोई ऐसा तरीका नहीं है जिससे ऐसी घटनायें तत्काल संज्ञान में आ सकें और शिकायत दर्ज करने या आरोपियों पर कार्यवाई करने में हस्तकक्षेप कर सकें जबकि जिले व थाने में बैठे जो अधिकारी हैं वे अपनी सवर्ण और महिला विरोधी मानसिकता के तहत ही काम करते हैं. बसपा की सरकार ने दलित समाज निश्चिततौर पर आर्थिक व सुविधाओं के लिहाज से कुछ मोहलतें जरूर दी हैं पर उसके दूसरे आयाम भी हैं जिसका बन्दोबस्त अभी तक नहीं किया जा सका है. अब तक सुविधाओं और दलितों के श्रम को भोगने वाला सवर्ण जब दलितों को उस तौर पर जीहुजूरी करता नहीं पाता जिस तौर पर वे कुछ वर्ष पहले किया करते थे, दलितों के घरों के ईंट और अपने दीवारों के रंग एक होता देखता है तो उसके पास दलितों को अपमानित करने का यही तरीका बचता है जिसमे वह महिलाओं के साथ दुस्कर्म करके सामाजिक रूप से दलित समाज को अवनत करता है.
भौतिक आधार पर राज्य के दलितों में जो उन्नति हुई है उसके बरक्स सरकार के पास कोई ऐसा कार्यक्रम होना चाहिये था जिससे वह समाज में जातीय भेद को कम कर सके. इस तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं बनाये गये जिससे इस संक्रमण काल को सवर्ण पचा सकें या फिर दलित चेतना इतनी प्रतिरोधी हो सके कि वह मौन या तंत्र के संस्थानों से अलग इन तत्वों से लड़ सके. बसपा. से यह सम्भव इसलिये भी नहीं हो सका क्योंकि वह दलित समाज को चेतनशील करना भी नहीं चाहती सिवाय इसके कि इस समाज के अंदर भी एक छोटा मध्यम वर्ग पनप आये. लिहाजा जब तक सांस्कृतिक तौर पर सामाजिक रूप से वर्चस्वशाली बने आये वर्ग के साथ संघर्ष नहीं किया जायेगा उत्पीड़न के स्वरूप बदलाव के साथ मौजूद रहेंगे. यह बसपा या संसद की संरचना से अलग हटकर ही सम्भव है जिसमे वोट की लालच किये बगैर सामाजिक परिवर्तन के लिये सांस्कृतिक आंदोलन चलाने पड़ेंगे.

14 नवंबर 2010

लवासा का सच


-दिलीप ख़ान

मुंबई और पुणे जैसे चमक-दमक वाले दो बड़े शहरों के बीच छोटी पहाड़ियों और जंगलों से घिरा एक बड़ा भूभाग है, जो प्राकृतिक और जैव विविधता के लिए मशहूर पश्चिमी घाट का हिस्सा है. इस क्षेत्रफल के बीच टुकड़ों में कई छोटे-छोटे गांव बसे हैं. इन्हें किसी शहरीकरण की नियोजित नीति के तहत नहीं बसाया गया हैं. मुंबई और पुणे के मानिंद इन गांवों का भी अपना एक लंबा इतिहास है. लेकिन, इनमें से कई गांव अब वहां के नक्शे से ग़ायब हो गए हैं. कई अपने अस्तित्व बचाने के लिए भीषण जद्दोजहद कर रहे हैं. ऐसे ही 25 गांवों को हटाकर इस इलाके में एक ’हिल सिटी’ लवासा बन रहा है. यदि सब कुछ ’ठीक’ रहा तो साल के अंत में इस परियोजना का पहला चरण बनकर तैयार हो जाएगा, जिसमें एक हज़ार बड़े अट्टालिकाओं और 500 अपार्टमेंट के साथ इसकी संपूर्ण रूप-रेखा की पहली झलकी प्रस्तुत की जाएगी. चार चरणों में इसे विकसित करने वाले मॉडल के अनुसार 2021 में यह अंतिम रूप से बनकर तैयार हो जाएगा. इस तरह इस परियोजना की परास दूरदर्शिता के मामले में विज़न 2020 से भी अधिक आगे तक जाती है!


लवासा परियोजना कोई देसी दिमाग की उपज नहीं हैं. हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी की इस परियोजना की मूल रूप-रेखा अमेरिका में खींची गई थी और इस परियोजना की सहूलियत और सफ़लता को परखने के लिए अमेरिका की ही एक सर्वे एजेंसी ए. सी. निल्सन को उत्तरदायित्व सौंपा गया. ध्यान देने वाली बात यह है कि ए सी निल्सन, वास्तव में एक मार्केटिंग रिसर्च फर्म है जो विभिन्न व्यवसायों और बाजार के मौजूदा व्यवहार की जानकारी देने के लिए प्रसिद्ध है. 100 वर्ग किमी में फैले इस पूरे इलाके को इस सर्वे फर्म ने संबंधित परियोजना शुरू करने के लिए उपयुक्त करार दिया. महाराष्ट्र सरकार ने आनन- फानन में इसके लिए बिल पास कर दिया, गोया किसी निज़ी व्यावसायिक कंपनी की मार्केटिंग के लिए लोगों को विस्थापित करने को सरकार बेचैन हो. बाद में इस बेचैनी का कारण अधिक स्पष्ट हुआ जब इसमें शामिल लोगों की जुगलबंदियां साफ़ दिखने लगी. राष्ट्रवादी काँग्रेस पार्टी की भागीदारी वाली सरकार निविदा के नियम-क़ायदों के कारण होने वाली देरी को कम करने के लिए इस व्यवस्था को ही लांघ गई. इस कंपनी के पंजीकरण के दो साल बाद सुप्रिया सुले को इसमें बारह फ़ीसदी शेयर का मालिकाना हक़ हासिल हुआ. इसमें सुप्रिया के पति की हिस्सेदारी अलग है. आरोप यह भी लग रहे हैं कि इसी एवज में कंपनी के पंजीकरण को मंजूरी दी गई थी. इस विवादास्पद बिल के मंजूरी के बाद राजनीतिक हलके में हल्के शोर के अलावा अब तक कोई ठोस दबाव भरा कदम नहीं उठाया गया है. ऐसे में स्थानीय जनता के पास क्या विकल्प बचता है?


परियोजना के सामने कई समस्याएं हैं और उनसे निपटने के लिए राज्य सरकार हरेक मंजूरी देने को तैयार दिखती है. मसलन, लवासा को जिस वारसगांव बांध के पानी के भरोसे विकसित किया जा रहा है, उसके पानी से पुणे के लोग अपनी दिनचर्या का निर्वाह करते हैं और पिछले कुछ वर्षों से पुणे खुद पानी की कमी का संकट झेल रहा है, फिर भी वारसगांव बांध के पानी को लवासा की ओर मोड़ने की अनुमति दे दी गई. लेकिन 11.5 टीएमसी क्षमता वाले इस पूरे वारसगांव के पानी से भी लवासा की ज़रूरत पूरी नहीं होने वाली थी, तो कृष्णा घाटी में बिना किसी ठोस पर्यावरणीय जांच के जल संग्रहण और नए बांध बनाने पर भी सरकार ने सहमति दे दी. यह सहमति जिस समय दी गई उस समय अजीत पवार महाराष्ट्र कृष्णा घाटी विकास निगम के अध्यक्ष थे. अजीत पवार रिश्ते में शरद पवार के भतीजे हैं और सुप्रिया सुले बेटी. इस तरह आपस में वे दोनों चचेरे भाई- बहन हैं. भाई-बहन की घरेलू सांठ-गांठ राजनीतिक फ़ैसले में परिवर्तित हो गई. महाराष्ट्र के राजनीतिक परिदृश्य में हालिया नेतृत्व परिवर्तन के बाद अजीत पवार अब प्रदेश के उपमुख्यमंत्री हो गए हैं. दिलचस्प यह है कि यह नेतृत्व परिवर्तन जिस तात्कालिक मुद्दे को संज्ञान में लेकर किया गया वह आदर्श सोसाइटी का मसला है, जिसमें कई पर्यावरणीय तथा वित्तीय अनियमितताओं के मामले उजागर हुए हैं. आदर्श सोसाइटी सैनिकों के लिए रिहाइशी मकानों की परियोजना है. लवासा भी बड़े अट्टालिकाओं और रिहाइशी मकानों की परियोजना है.



लवासा परियोजना को सफ़ल बनाने के लिए स्थानीय लोगों पर लगातार विस्थापन आरोपित किया गया है. उस पूरी पट्टी में लोग क्रमिक रूप से विस्थापित हो रहे हैं. 1974 में वारसगांव बांध बनाने के लिए जिस ज़मीन का अधिग्रहण किया गया था उसका एक हिस्सा अभी तक पड़ती पड़ा हुआ था, जिसे लवासा पर खरचा जा रहा है. देश में बांध परियोजनाओं के नाम पर अधिग्रहीत की गई ज़मीन की एक लंबी सूची है जिसे किसी दूसरे निज़ी कंपनियों को सौंप दिया गया. नर्मदा बचाओ आंदोलन के मुताबिक नर्मदा घाटी में अधिग्रहीत की गई ज़मीन का लगभग 40 फ़ीसदी पड़ती पड़ा है और उसके कुछ टुकड़ों को किराए पर निज़ी कंपनियों को सौंप दिया गया है. ’कल्याणकारी राज्य’ में स्थानीय जनता की रत्ती भर परवाह किए बग़ैर सरकार ने जिस तरह निज़ी कंपनियों को ज़मीन सौंपा है वह लोकतंत्र की नई परिभाषा गढ रहा है. लोगों को जबरन खाली करा कर ज़मीन अधिग्रहीत करने का एक नतीजा यह है कि पिछले 60 वर्षों में सिर्फ़ बांध के नाम पर 15 करोड़ से अधिक लोगों को देश के नक्शे के भीतर इधर-उधर खदेड़ा गया है.



इन विस्थापनों और अनियमितताओं को अपने भविष्यगत योजानाओं तले ढंकते हुए, योजनाकारों ने लवासा को लेकर बेहद सुनहरी तस्वीर खींच रखा है. यह सही मायनों में ग्लोबल होगी. यहां पर्यटक आएंगे तो डॉलर-यूरो की चरमराहट पहाड़ों में गूजेगी. यहां यूरोप के फुटबॉल क्लबों से लेकर दुनिया के विभिन्न हिस्सों से संबद्ध प्रबंधन विश्वविद्यालयों के शाखाएं खोली जाएगी. यह सच है. सच यह भी है कि यहां के रसोईघर से लेकर संडास तक को अंतरराष्ट्रीय स्तर का बनाया जा रहा है. ठीक कॉमनवेल्थ के खेल गांव की तरह. सच यह भी है कि यह वाकई स्वतंत्र भारत का पहला नियोजित हिल शहर है वैसे ही जैसे नागपुर का मिहान पहला कारगो और हवाई अड्डे का हब है. नागपुर की तरह यहाँ भी 25 गांवों को उजाड़ा गया और यह भी उतना ही बड़ा सच है.



(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और मीडिया शोधार्थी है.)



मो. - +91 9555045077


E-mail - dilipk.media@gmail.com





10 नवंबर 2010

उत्तराखंड में आयोजित "जनता पर युद्ध" के खिलाफ कन्वेंशन




उत्तराखंड (अल्मोड़ा)से हर्ष पाण्डेय द्वारा "जनता पर युद्ध" के खिलाफ कन्वेंशन की भेजी गयी इस लम्बी रिपोर्ट कों बिना काट-छाँट के यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।

विभिन्न संगठनों की ओर से आयोजित जनता पर युद्ध के खिलाफ कन्वेशन की शुरूआत करते हुए नैनीताल समाचार के सम्पादक राजीव लोचन साह ने सभी अतिथियों का परिचय कराया। अपने सम्बोधन में उन्होंने कहा कि यहा अघोषित आपातकाल की स्थिति बन गई है। जहां जुल्म के खिलाफ आवाज उठाना जुर्म बन गया है और शांतिपूर्वक आन्दोलन कर रहे आन्दोलनकारियों पर बर्बरता की जा रही है। इन्कलाबी मजदूर केन्द्र के खीमानन्द ने कहा कि प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर आदिवासियों को अपना दुश्मन मानकर सरकार उन पर युद्ध थोप रही है तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ मिलकर उन्हें उनके अधिकारों से बेदखल कर रही है। देश में जिस तरह से समाजवाद तथा कम्युनिस्ट शब्द को बदनाम कर दिया गया है उससे इसके पीछे का रचा जा रहा षडयन्त्र अब साफ हो रहा है। यह युद्ध केवल आदिवासी इलाकों की क्रान्तिकारी शक्तियों का ही दमन नहीं है अपितु यह पूरे भारत में काम कर रही क्रान्तिकारी शक्तियों का दमन है। इसके खिलाफ एकजुट होकर जन कार्यवाही करने की जरूरत है। जिस तरह से पूंजीवाद संकट की ओर जा रहा है उसका प्रतिवादी होना अपरिहार्य है। इस स्थिति में जनता का दमन बढ़ेगा। जिसके लिये हमें तैयार रहना होगा तथा जनवादी संगठनों, न्याय पसंद लोगों एवं वुद्धिजीवियों को इसका विरोध करना होगा। क्रांति मजदूर वर्ग के नेतृत्व मे होती है और हमें मजदूर वर्ग को संगठित करके देश में व्यवस्था परिवर्तन के संघर्ष को मुकाम तक पहुॅंचाना होगा। राजनैतिक बंदी रिहाई कमेटी के एड0 दीवान धपोला ने कहा कि ग्रीन हंट, सलवा जुडूम का विरोध करने वाले एवं जन सरोकारों से सम्बन्ध रखने वाले लोगांे के प्रति सरकार तथा विपक्ष जो कार्यवाही कर रहा है उसके खिलाफ यह कार्यक्रम एक आवश्यकता है। आज इस तरह के कन्वेन्शन द्वारा अगला रास्ता तैयार किया जाना अत्यन्त आवश्यक है। इस भूमिका को भी हम लोगांे ने ही निभाना है। आज के हालातों के अनुसार लोग इन परिस्थितियों से जी चुरा रहे हैं। वह पैसिव हो रहे हैं। माना की 60 साल का बुजुर्ग कुछ नहीं कर सकता लेकिन वह अन्याय के खिलाफ लड़ रही युवा पीढ़ी को मोरल सपोर्ट तो दे सकता है। हम अप्रत्यक्ष रूप से नई पीढ़ी की मदद कर सकते हैं। लेकिन नहीं। आज जो समाज के लिये काम करता है उसकी दुगर्ति उसके परिवार तथा उसके दोस्तों से ही शुरू हो जाती है। उत्तराखण्ड राज्य यहां की जनता ने बड़ी मेहनत से प्राप्त किया है। लेकिन विगत दस सालों में यहां पुलिस फोर्स की संख्या बढ़ी है आईएएस की संख्या बढ़ी है। बजट का अधिकांश भाग टीए डीए में ही जा रहा है। पहाड़ों में आईटीबीपी एसएएबी के मुख्यालय बन गये लेकिन जनता को मिलने वाली सुविधायें नहीं बढ़ी। कुछ साल पहले संघर्ष करने वाले लोग भी थे तथा उनके मददगार भी थे। लेकिन आज परिस्थितियां इसके विपरीत हैं। हमें यह सोचना चाहिये कि हम किस तरह से सोसिलिस्टों की मदद के लिये आगे आ सकते हैं। आरडीएफ के प्रदेश महासचिव केसर राना ने कहा कि आज समय जिस दौर में है उस दौर में पूरा भारत एक ज्वालामुखी पर बैठा है। देश मंे उत्पीड़न की सीमायें तेज हो रही है। कॉरपोरेट जगत जो चाह रहा है शासक वर्ग वही कर रहा है। छत्तीसगढ़ तथा झारखण्ड इसके जीते जागते उदाहरण हैं। इन इलाकों में वेदान्ता तथा पास्को जैसी कम्पनियों ने आदिवासियों का जीना दूभर कर दिया है। कमीशन पाने के लिये शासक वर्ग कॉरपोरेट जगत की सेवा कर रहा है। यह खनिज प्रदेशों में खास तौर से देखा जा सकता है। जो उनके खिलाफ बोल रहा है उसे देशद्रोही बताया जा रहा है। अभी कुछ दिनों पूर्व कश्मीर मुद्दे पर अरून्धती रॉय ने अपना वकत्व्य जारी किया और तमाम शासक वर्ग के आंखों की किरकिरी बन गई। जो लोग कश्मीर या माओवादियों के समर्थन में बोल रहे हैं उनका रास्ता जेलों की ओर जा रहा है। देश में बेरोजगारी, युवाओं के सवालों को अनदेखा किया जा रहा है। जो लोग बंगाल, छत्तीसगढ़ या झारखण्ड में लड़ रहे हैं उन्होंने लड़ाई को ही जारी नहीं बल्कि लड़ाई के पैमाने को भी बदला है। आज विचारों को भी सेंसर किया जा रहा है। यदि कोई मार्क्स, लेनिन, लोहिया, जेपी, माओ के विचारों को मानता है तो हर किसी को किसी भी विचार को मानने की आजादी होनी चाहिये।
उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी के गोविन्द लाल वर्मा ने कहा कि मैं तो यह समझता हूॅं कि इस देश की सत्ता गोरी चमड़ी की जगह काली चमड़ी वालों के हाथ में आ गई है। हमें केवल राजनैतिक आजादी मिली सामाजिक नहीं। तमाम लोग मताधिकार का प्रयोग करके शासन तो बनाते हैं लेकिन शासक नहीं हो पाते। वास्तव में सत्ताधारी वह हैं जो अपनी पत्नी को 10 करोड़ की कोठी उपहार में दे सकते हैं या अपने बच्चे के जन्मदिन पर हवाई जहाज खरीद सकते हैं। जिसके दिन में तड़पन आती है वहीं अपना आक्रोश प्रकट कर सकता है। जब जनता के हक हकूकों की बात कहो तो शासक वर्ग कुचलने के लिये आ जाता है। जिस बात के लिये मध्य भारत तथा उत्तर पूर्वी भारत के लोग लड़ रहे हैं वो दमन से और भी अधिक बढे़गा। सोमानाथ सांस्कृतिक संगठन के मोहन सनवाल ने अपनी बात को इस गीत के माध्यम से व्यक्त किया।

भारत देश में घुस गये रे बेईमान, नौजवानों जागो होनौजवानों जागो हो,
बुद्धिमानों जागो होभारत देश में घुस गये रे बेईमान, नौजवानों जागो
झारखण्ड और उड़ीसा, सीआरपीएफ दमन करे लूटती पुलिसा
घर-घर कर दिये तबाह नौजवानों जागो हो
देश में घुस गये रे बेईमान, नौजवान जागो
जंगल की जो बात करेगा, पुलिस फौज के हाथ मरेगा
जनता हो गई परेशान, नौजवान जागो हो
भारत देश में घुस गये रे बेईमान नौजवान जागो
रोजगार, खाना नहीं मिलता, घर घर जा जनता को लूटते
लूट मची है आज, नौजवान जागो हो
भारत देश में घुस गये रे जवान नौजवान जागो हो।
निर्दोषों को पकड़ ले जाते, मुठभेड़ बताकर खुद मार के आते
कुचक्र चलना है आज, नौजवान जागो हो
भारत देश में घुस गये रे बेईमान, नौजवान जागो हो।
खून ए जिगर से धरती के लालों, धरती को लाल बनाने वालों
ले लो लाल सलाम, नौजवान जागो हो
भारत देश में घुस गये रे बेईमान, नौजवान जागो हो।

परिवर्तनकामी छात्र संगठन के कमलेश ने कहा कि जनता के खिलाफ सरकार पिछले कई सालों से सरकार आदिवासी इलाकों में चला रही है। सरकार के लिये यह विकास के लिये आवश्यक कत्लेआम है। पूंजीपतियों को फर्क नहीं पड़ता कि उनके लिये कितना कत्लेआम हो रहा है। यह उनके लिये कोई अनोखी चीज नहीं है। हम लोगों को समझना होगा कि यह झारखण्ड, उड़ीसा या छत्तीसगढ़ नहीं बल्कि पूरे भारत की मेहनतकश जनता पर थोपा गया युद्ध है। सरकारों ने यह साफ कर दिया है कि वह अमेरिका में बैठे अपने रिश्तेदारों के लिये किसी भी हद तक जा सकते हैं। लेकिन इसका व्यापक प्रतिरोध नहीं हो रहा है। अगर इस बडे़ युद्ध को रोकना है तो श्रम को संगठित करना होगा। तभी हम विकास के उस मॉडल की ओर बढ़ पायेंगे जहां मजदूर विकास का प्रणेता होगा। रचनात्मक शिक्षक मण्डल की केन्द्रीय कार्यकारिणी के सदस्य डा0 कपिलेश भोज ने कहा कि आज हम जिस दौर में ऑपरेशन ग्रीन हंट की बात कर रहे हैं उसे हमें व्यापक पहलू के स्तर तक समझना होगा। उन्होंने कहा कि 1947 में सत्ता हस्तान्तरण के बाद लूट का नया आयोजन हुआ। हम 1947 को पूंजीवाद के नये चरण के रूप में देख सकते हैं। लेकिन दुनिया में कभी ऐसा नहीं हुआ है कि श्रमिकों के दमन का विकल्प न सोचा गया हो। सर्वप्रथम कार्लमार्क्स ने बताया कि पूंजीवाद का उपचार क्या है। दुनिया में कोई आदमी ऐसा नहीं है जो अच्छी जिन्दगी न चाहता हो लेकिन ऐसा नहीं होता। पूंजीवाद का जो विश्लेषण कार्लमार्क्स ने किया वह आपने आप में एक विज्ञान है। वो मुक्तिदायी सिद्धान्त है जो लेनिन ने रूस में और माओ ने चीन में लागू किया। हिन्दुस्तान का जो वर्ग तकलीफों से जूझ रहा है वो अपने अन्तरविरोधों से भी जूझ रहा है। हमें यह देखना होगा कि जनता की बात करने वाली क्या कोई पार्टी मजबूत हो रही है या नहीं। किसी भी देश में जब दमन या उत्पीड़न होता है तो शासक वर्ग जनता की चेतना को शून्य करने का काम करता है। वही हिन्दुस्तान का शासक वर्ग भी कर रहा है। वर्तमान शिक्षा का ढांचा विद्यार्थियों को व्यक्तिवादी तथा भयग्रस्त बना रहा है। नशाखोरी से युवा वर्ग को नशेड़ी बनाया जा रहा है। जहां भी बदलाव आता है सबसे पहले वहां के शिक्षक, विद्यार्थी तथा वुद्धिजीवी अग्रणी भूमिका में होते हैं। वरिष्ठ कवि नीलाभ ने कहा कि जिस तरह की घटनायें हो रही हैं उनमें शान्त रह पाना असम्भव है। उन्होंने कहा कि मैं देश नहीं जानता, मैं लगातार सोचता हूॅं की देश क्या है। चंडीदास ने कहा है कि अगर कोई सत्य है तो वह मानुष सत्य है। लेकिन आज मानव ही मानव का दमन कर रहा है। कोई भी जनता अपना हक चाहती है। जनता जिस तरह से जीना चाहती है वह उसका अधिकार है। कश्मीर की जनता यदि चाहती है कि वह अपने ढंग से जिये तो ये अधिकार उसे क्यों नहीं मिलता ये सोच के परेशानी होती है। क्या आप लोगों ने उत्तराखण्ड इसलिये बनाया कि बिल्डर यहां आकर इसे लूटें। क्या हमने हत्यायें करने वाले लोग तैयार करने के लिये उत्तराखण्ड बनाया। अभी हम 94 किमी0 की यात्रा करके यहां पहुॅंचे हैं तो हमने देखा की पहाड़ जगह जगह से टूट गया है। जनता पर युद्ध कबसे शुरू हुआ। बिरसा मुण्डा भी जनता के युद्ध में शामिल था, भगत सिंह भी जनता के लिये लड़ा। हमारी दोस्त अरून्धती रॉय कहती है कि जिनका विकास हो रहा है उनसे पूछो। अगर गौर से अपने चारों और दिखेगा तो आपको विस्थापन दिखेगा जो युद्ध की पहली निशानी है। पंजाब, बिहार में धरपकड़ शुरू हुई है अब यहां भी होगी। पूर्वाेत्तर में केरल की फौज, उड़ीसा में पंजाब की फौज तथा झारखण्ड में और कहीं की फौज भेजकर अपने को अपनों के खिलाफ लड़ाया जा रहा है। और यह क्या नाम रखे गये हैं।
चक्कर खनिजों का है झारखण्ड और आसपास के इलाकों में 4 ट्रिलियन बाक्साइट है। जिससे एक टन एल्यूमिनियम बनाने के लिये 1टन पानी, बेशुमार बिजली तथा बिजली के लिये बांध बनाने की आवश्यकता पडे़गी। जिससे बाद में हथियार बनायें जायेंगे। अब हमें तय करना है कि क्या हम सिर्फ हथियारों के लिये यह कीमत चुकायेंगे। भगवान ना करे कल अगर उत्तराखण्ड में भी कोई खनिज निकल आयेगा तो यहां भी यह सब शुरू हो जायेगा। पी चिदम्बरम गृह मंत्री बनने से पहले वेदान्ता का स्लीपिंग डायरेक्टर था। वो साल में केवल दो मीटिंग अटैण्ड करता था जिसके लिये उसे 28 लाख रूपये मिलते थे। गृहमंत्री बनने के बाद उसने इस्तीफा दे दिया। जो लोग सोचते हैं कि जनता को ज्यादा समय तक मूर्ख बनाया जा सकता है तो वे सबसे बडे़ मूर्ख हैं। पंजाब तथा देश के अन्य हरित क्रांति वाले राज्यों में किसानों ने आत्महत्यायें की हैं। चिदम्बरम तो यह भी कहता है कि देश की 85 प्रतिशत जनसंख्या शहरों में आ जाये। अब कोई तुक तर्क ताल नहीं रह गया है। मुझे याद है शराब माफियाओं का विरोध कर रहे पत्रकार उमेश डोबाल की हत्या हुई थी। लेकिन शराब माफिया आज भी सक्रिय है। इलाहाबाद की सामाजिक कार्यकर्ता सीमा काफी समय से रिमांड पर चल रही है। उसे हर 15 दिन की रिमांड समाप्त होने के बाद फिर रिमांड पर ले लिया जाता है। उसका पति विश्व विजय भी गिरफतार कर लिया गया। कॉमरेड आजाद, हेम पांडे की हत्या कर दी गई। इलाहाबाद में अब कोई सीमा का नाम नहीं लेता हो सकता है यहां भी कोई प्रशान्त राही का नाम न लेता हो। अब तो सरकार ने जनता के लिये आन्दोलन करने वालों के खिलाफ प्रचार भी शुरू कर दिया है। वे कहते हैं कि माओवादी हर साल 15 हजार करोड़ रूपये की वसूली कर रहे हैं। तमाम समाचार पत्रों के माध्यम से प्रचार किया जा रहा है। जो विद्रोह कर रहा है वह राजद्रोही बताया जा रहा है। मैं तो कहता हूॅं कि यह राजपत्रित आतंकवाद है। आपको एक वर्दी मिली है एक बंदूक मिली है और बस गोलियां बरसा रहे हैं। आज इंटरनेट से राई रत्ती जान सकते हैं। बीते दिनों होंडा कम्पनी के मजदूरों पर लाठीचार्ज हुआ। अब यह आग फूट रही है लेकिन मजदूर अभी एक सूत्र में नहीं हैं। मित्तल, जिंदल, टाटा सभी आपस में लड़ रहे हैं। लेकिन जब जनता की बात आती है तो ये सब एक हो जाते हैं। तो यह बहुत जरूरी है कि हम भी एक सूत्र में रहे। वो एक दो चार को मार सकते हैं। पचास सौ को बंद करा सकते हैं। लेकिन पूरे देश की आबादी को नहीं। इसलिये अब वे तरह तरह के हथकंडे अपना रहे हैं। युद्ध में सब होता है और यह युद्ध है। लोग अब यह बात जान रहे हैं। वो जानना चाहते हैं ऐसा कौन सा रास्ता है जिससे विकास का रास्ता निकल सकता है।उत्तराखण्ड वन पंचायत सरपंच संगठन के गोविन्द सिंह मेहरा ने अपनी बातों को अपने चुटीले अंदाज में कहते हुए कहा कि हमने लूटतंत्र को लोकतंत्र मान लिया है। सरकार कह रही है हम पानी बचाने के लिये गांव गांव में नदियों पर चैक डैम बना रहे हैं। उसे सरकार की उपलब्धि बताया जा रहा है लेकिन चैक डैम गांव वाले अपने अपने घराट चलाने के लिये कई वर्षाें से बना रहे हैं। सरकार ने हमारी जल संस्कृति को नल संस्कृति तथा वन संस्कृति को धन संस्कृति में बदल दिया है। पेड़ लगाने के नाम पर पैसे लिये जा रहे हैं। हमें यह देखना होगा कि हम इन 10 सालों में कहां पहुॅंच गये हैं। जिन खेतों में कभी गेंहूॅं, धान होते थे आज वो भूमि कंकरीट के जंगल से पटी चुकी है। जल, जंगल और जमीन से जनता के अधिकार समाप्त कर दिये गये हैं।क्रान्तिकारी लोक अधिकार संगठन के पीआर आर्या ने कहा कि भारत का पूंजीपति वर्ग जनता का दमन कर रहा है तथा जनता के लिये लड़ने वाले लोगों को राक्षस तथा अलगाववादी बताकर उन्हें भटका रहा है। अब देश के एक कोने से दूसरे कोने तक यह युद्ध फैल रहा है और पुलिस दमन लगातार बढ़ता जा रहा है। लेकिन हमें यह देखना है कि जो हो रहा है क्या जनता उसका प्रतिकार कर रही है। क्या हमारा नेतृत्व जनता को गोलबंद कर सकता है या नहीं। हम शासक वर्ग को तानाशाह कह सकते हैं गालियां दे सकते हैं लेकिन हमें अपनी कमजोरियां नहीं दिखती। हमारे देश में एक टोकरा भर के क्रान्तिकारी दल हैं लेकिन हम एक दूसरे की बात नहीं सुनते। यह टटपूंजियां संकीर्णता क्यों आती है। क्या यह किसी की निजी ठेकेदारी है। हमें सबसे पहले अपनी कमजोरियां तलाशनी चाहिये। शासक वर्ग इतना बदहवास हो गया है कि वह आन्दोलन कर रही जनता पर बर्बरतापूर्वक लाठीचार्ज करवा रहा है। लेकिन वह यह नहीं जानता कि वह अनजाने में जनता को लाठी उठाना सीखा रहा है। जवाहर लाल नेहरू तथा मनमोहन सिंह को खड़ा कर देखिये। दोनों का बौनापन आपको दिख जायेगा। हमारी देश के जो संचालन केन्द्र हैं व्यापारिक केन्द्र हैं वहां क्रान्तिकारी नहीं हैं। हमें इन केन्द्रों पर भी सक्रियता बढ़ानी होगी। एक सच्चे योद्धा और मेहनतकश के रूप में हमारी जिम्मेदारी क्या है। हमें जनता को एक सूत्र मंे पिरोना होगा। देश में 40 करोड़ मजदूर हैं। जिन्हें हमें एक सूत्र में पिरोना होगा। पंूजीपतियों ने पहला हमला मजदूर पर ही क्यों किया। क्यों कि वे जानते थे कि मजदूर वर्ग संगठित हो सकता है। मजदूरों के बाद दूसरा हमला किसानों पर हुआ। सिंगूर, कलिंगनगर में जनता लड़ रही है। जो नाभि क्षेत्र है जो संचालन केन्द्र हैं वहां हमारी पकड़ कमजोर है। हमें नये नये संचालन केन्द्रों पर अपनी पकड़ मजबूत बनानी होगी। क्यों कि क्रान्तिकारी बरगद की पूजा नहीं करता वह नये भ्रूण को सींचता है।राजनैतिक बंदी रिहाई कमेटी के पान सिंह ने कहा कि समाज के मजदूर वर्ग के बीच काम किये जाने कि जरूरत है। उड़ीसा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ में दमन किया जा रहा है लेकिन भ्रूण रूप में ही सही जनता की सत्ता का काम चल रहा है। उन्होंने दिखा दिया है कि जनता कभी याचक नहीं होती। लेकिन सरकार की इस भ्रूण को कुचलना चाहती है। उत्तराखण्ड में भी जब जब विकल्प की बात आई है दमन शुरू हुआ है। ग्रीन हंट के खिलाफ जनता की लड़ाई पूरे देश में चल रही है। राज्य में आपदा के समय जनता को देने के लिये जमीन नहीं है लेकिन टाटा, मित्तल को प्रदेश में उद्योग लगाने के लिये आमंत्रित किया जा रहा है। आरडीएफ के केन्द्रीय महासचिव राजकिशोर ने कहा कि आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक व्यवस्था यदि अन्यायपूर्ण है तो वह जनता पर युद्ध है। ब्रिटिशकाल से ही यह ढांचा ऐसा खड़ा किया गया है जो जनता पर युद्ध है। भूमण्डलीकरण उदारीकरण के फलस्वरूप शोषण का विस्तार हो रहा है। भूमि का विकेन्द्रीकरण से केन्द्रीकरण हुआ है। जनता का प्रतिरोध भी बढ़ रहा है। आज नक्सलबाड़ी का आन्दोलन 22 राज्यों में फैल गया है। जो आन्दोलन नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ वह माओवाद के रूप में फैल रहा है। जिसे विरोधी शक्तियां आतंकवाद, बलात्कारी कह कर प्रचारित कर रही हैं ताकि जनता उनसे घृणा करे। यह जनता पर मनोवैज्ञानिक हमला है। आज सैकड़ों लोगों को फांसी की सजा सुनाई जा रही है कई लोगों को बिना मुकदमे के गिरफतार किया जा रहा है। जहां पर प्रतिरोध हो रहा है वहां लोगों पर न्यायिक एवं कानूनी हमला किया जा रहा है। आज की तारीख में प्रतिवर्ष दो लाख महिलायें प्रसव के दौरान दम तोड़ देती हैं 5 लाख बच्चे प्रतिवर्ष कुपोषण का शिकार हो रहे हैं। हरित क्रांति का नारा देकर नाटक किया जा रहा है। आज हरित क्रांति वाले राज्यांे में ही किसान आत्महत्यायें कर रहे हैं। हजारों लोग बाढ, सूखे की चपेट में आने से मर रहे हैं। क्या आज किसी भी दफतर में बिना पैसे के काम होते हैं। चुनाव की राजनीति हो रही है। जनता का अधिकार तभी तक है जब तक वह वोट नहीं देती। नक्सलबाड़ी का आन्देालन तब शुरू हुआ जब किसान जमींदारों से भूमि प्राप्त करने के लिये लड़े। 1947 के बाद भी ब्रिटिश सामाजिक, आर्थिक, ढांचा हम पर थोपा गया। नक्सलबाड़ी में जमीन के लिये लड़ाई लड़ी गई। लेकिन आज सरकार फौज के द्वारा हमारी जमीन, जंगल, नदियां बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को सौंप रही है। उसके बाद हमारे खनिजों से माल तैयार कर हमें ही बेचा जा रहा है। सरकार कहती है हम विकास कर रहे हैं। लेकिन असल में माओवादी देश के इतिहास को समझते हैं। माओवादियों पर तोहमत लगाई जाती है कि ये हिंसा करते हैं। लेकिन वेा चाहते हैं उत्पादन प्रक्रिया बदली जाये। लेकिन कभी भी शासक वर्ग इस व्यवस्था को बदलने के लिय तैयार नहीं हुआ। अगर हम विदेशों को समृद्ध बनायेंगे तो खुद कंगाल हो जायेंगे। हम वो माल बना रहे हैं जो अमेरिका को पसंद है। सरकार खेत के विकास का साधन नहीं दे सकी और कहती है विकास कर रहे हैं। हमारा कभी भी स्वतंत्र और आर्थिक विकास नहीं हुआ है। उन्हांेने कहा कि संसदीय धारा में लाल झंडे वाले जो लेाग चले गये हैं वो कभी भी कम्यूनिस्ट नहीं कहलाये जायेंगे। लोकतंत्र का पालन फौज भेजकर नहीं किया जा सकता। किसान मजदूरों की शक्ति प्रबल शक्ति है। हमें शासक वर्ग के खिलाफ असहमति तथा असहमत लोगों को एकजुट करना होगा और विरोध की राजनीति को संगठित करना होगा। जनता को मनोवैज्ञानिक ढंग से गुमराह करने की साजिश के खिलाफ समानान्तर आन्दोलन चलाना होगा। अन्यायपूर्ण नीतियों और संसदीय लूट के खिलाफ अपनी ताकत को एक करना होगा। लालगढ़ के 1200 गांवों में जनता की कमेटी कायम है। वो लोग बैठकर सोचते हैं कि गांवों का विकास कैसे होगा। चाहे सड़क का प्रबंध करना है या स्कूल का प्रबंध करना है या चिकित्सालय का प्रबंध करना है। हमारे देश में खेत में काम करने वालों को अकुशल मजदूर कहा जाता है। आज देश में खेती का विकास नहीं हो रहा है। अगर हम देश का विकास करना चाहते हैं तो हमें उस विकास नीति को अपनाना होगा जो जनता का विकास करे। हमें संसदीय प्रणाली की लूट के खिलाफ एकता पैदा करनी होगी। तब जाकर हम जनता पर जो युद्ध चल रहा है उसे ध्वस्त कर सकते हैं। कन्वेन्शन के मुख्य वक्ता पूर्व आईएएस बीडी शर्मा ने कहा कि माओवाद का जो हव्वा फैलाया जा रहा है वह कुछ भी नहीं है। दरअसल बात वहां के प्राकृतिक संसाधनों को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को बेचने के लिये रचे जा रहे षडयन्त्र के खिलाफ आन्दोलित माओवादियों का दमन करने की है। बस्तर में आयरन इंडस्ट्री स्थापित करने के लिये मात्र 6 आदिवासी परिवारों को विस्थापित किया गया। जबकि वहां लाखों लोग निवास करते हैं। इसका कारण यह था कि वहां केवल 6 परिवारों के ही मतदाता पहचान पत्र बने थे। प्राकृतिक संसाधन पहले से ही जनता के थे तो इन पर सरकार का हक कैसे हो गया। जो गलती हिटलर ने की वहीं यहां की सरकार भी कर रही है। हिटलर ने अनेक युद्ध जीते पर सोवियत रूस से नहीं जीत सका। क्यों कि वहां उसकी लड़ाई समाज से थी। यहीं गलती यहां भी दोहराई जा रही है। छत्तीसगढ, झारखण्ड, बंगाल, उड़ीसा में सरकार समाज से लड़ रही है। राज्य की शक्ति कभी भी समाज की शक्ति पर हावी नहीं हो सकती। आदिवासी कभी भी अंग्रेजों के गुलाम नहीं रहे। आदिवासी क्षेत्रों में आजादी से पहले जनता का ही अधिकार था। अंग्रेजों के आगमन के बाद धीरे-धीरे राज्य ने उन पर नियंत्रण करने की कोशिश की। आदिवासी सदियों से अपने बारे में खुद तय करते आ रहे हैं। संविधान लागू होने का दिन आदिवासियों के लिये अंधेरी रात था। आदिवासी अपने झगड़े स्वयं निपटाते हैं। पुलिस तक बहुत कम मामले आते हैं। संविधान के लागू होने के बाद हमारे सभी अधिकार छिन लिये गये। मैं तो कहता हूॅं ग्रामीण भारत को जानबूझकर खत्म किया जा रहा है। यहां तक की मनरेगा में तक किसानों को अकुशल मजदूर बताया गया है। वरिष्ठ पत्रकार पीसी जोशी ने सारे वक्ताओं की बातों को विस्तार से रखा। उन्होंने कहा कि युवा पीढ़ी को सरकार द्वारा चलाये जा रहे दमन के खिलाफ आवाज उठानी होगी। हम सभी जनपक्षीय ताकतों को एक होना होगा। उत्तराखण्ड लोकवाहिनी के केन्द्रीय अध्यक्ष डा0 शमशेर सिंह बिष्ट ने कार्यक्रम का समापन करते हुए कहा कि जनता पर तरह तरह के जुल्म ढ़ाये जा रहे हैं। टिहरी बांध का पानी 832 मीटर तक बढ़ा दिया जाता है। यह भी जनता पर थोपा जा रहा एक युद्ध ही है। हमें इसे भी समझना होगा। हमने जनता को एकजुट करना होगा। क्यों कि चिपको आन्दोलन, नशा नहीं रोजगार दो आन्दोलन, वन आन्दोलन सहित सभी आन्दोलनों का नेतृत्व जनता ने किया किसी राजनैतिक दल ने नहीं। उन्होंने इस बात पर जोर देते हुए कहा कि माओवादी सबसे बडे़ देश भक्त हैं और अपनी जिन्दगी अपना कैरियर अपना परिवार को त्याग करते हुए जनता के बीच में जाकर उनका नेतृत्व कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि आज न्यायप्रिय एवं जनवाद पसन्द लोगों को एकमंच पर लाने की जरूरत है।

02 नवंबर 2010

छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा ज़िले में

दिलीप
छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा ज़िले में 40 से अधिक आदिवासियों के पेचिस और कुछ अन्य पेट संबंधी बीमारियों से मारे जाने की ख़बर है.
कुछ महीने पहले इसी ज़िले के तारमेटला नामक जगह पर पच्चीस से अधिक लोग गंदा पानी पीने से उपजी बीमारी का शिकार हुए थे.
गांव में चूंकि एक भी बोरवेल चालू स्थिति में नहीं था सो लोग जगह-जगह जमा हुए गंदा पानी पीकर अपनी प्यास बुझाते थे. दोनों मौकों पर पीड़ित लोगों ने बीमार होने के दो-तीन दिनों के अंदर ही दम तोड़ दिया. चूंकि ज़िले में डॉक्टर की संख्या देश में प्रति व्यक्ति डॉक्टर की उपलब्धता से बेहद कम है और जो डॉक्टर सरकारी अस्पतालों में इलाज करने के लिए मौजूद हैं वे सिर्फ़ शहरी इलाके में ही रहना चाहते हैं, इसलिए बीमार पड़ने पर लोगों को आयुर्वेदिक इलाज के अलावा कोई और मज़बूत विकल्प नज़र नहीं आया. आयुर्वेदिक इलाज तत्काल प्रभाव डालने में असमर्थ साबित हुईं और लोग कालकवलित हो गए. इस पूरी पट्टी में ग्रामीण क्षेत्र के स्वास्थ्य केंद्रों में से अधिकांश या तो जीर्ण-शीर्ण हैं या फ़िर बिना डॉक्टर के ही चल रहे हैं.

पानी जैसे बेहद बुनियादी ज़रूरत को लोगों तक पहुंचाने के बजाए सरकार छत्तीसगढ़ के दक्षिणी हिस्से में विकास के नाम पर बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए चार लेन की सड़क बनाने में और खनन फ़ैक्ट्रियॉ खोलने देने के लिए इन कंपनियों को ज़मीन उपलब्ध करवाने में मशगूल हैं. सरकार इस भूगोल में ’क्षेत्र का विकास’ चाहती है और यहां के लोगों के विकास को वह ’क्षेत्र के विकास’ में समाहित मान रही है. मसलन कारखाना खोलना प्राथमिक है क्योंकि कारखाने से ’क्षेत्र का विकास’ होगा और कारखाना खोलने में अगर कोई परेशानी हो रही है तो सरकार द्वितीयक तौर पर यह तर्क देगी कि इससे नज़दीक के लोगों को रोजगार मिलेगा और अंततः इससे स्थानीय लोगों का ही विकास होगा. यह अर्थशास्त्र के ’ट्रिकल डाऊन थ्येरी’ का छत्तीसगढ़ी प्रयोग है जिसमें कहा गया है कि विकास रिस-रिस कर लोगों तक पहुंच ही जाती है. इसे ऐसे समझा जा सकता है कि अर्थव्यवस्था में एक व्यक्ति के धनी होने से पूरी अर्थव्यवस्था का भला होना तय है, क्योंकि अगर कोई व्यक्ति अमीर होता है तो निश्चित तौर पर वह माली रखेगा, ड्राईवर रखेगा या सेक्रेटरी रखेगा. इस तरह विकास तो अंततः उस अमीर व्यक्ति के जरिए माली और ड्राईवर तक पहुंच ही गया. इसी तरह कारखाना लगने से लोग स्वतः ही विकसित हो जाएंगे. सरगुजा में लौह-अयस्क को पानी के जरिए जापान भेजने के क्रम में वहां का ’विकास’ इस तरह हो रहा है कि स्थानीय लोग पानी की भीषण समस्या की चपेट में आ गए हैं. पानी के ज़्यादातर स्रोत सूख गए हैं और लोग संकट में मज़बूर होकर गंदा पानी पीते हैं. इस प्रक्रिया में उपलब्ध कराए गए रोजगार और पानी के कारण लोगों की मौत की अगर एक साथ तुलना की जाए तो तस्वीर ज़्यादा साफ़ हो जाएगी कि विकास के नाम पर विकसित कौन हो रहा है? मनमोहनी अर्थव्यवस्था में जीडीपी का बढ़ना ही संपूर्ण विकास का परिचायक हो गया है. उदारीकरण के बाद यह प्रत्येक सरकार की नीति में शामिल रहा है कि विकास के नाम पर मोटे आंकड़े में लोगों को उलझा देना है. राजग सरकार में प्रति सप्ताह यह दर्शाया जाता था कि विदेशी मुद्रा भंडार में देश ने कितनी बढोत्तरी की और कितने नए भारतीय करोड़पति की नई सूची में शामिल हुए. इस समय विश्व स्वास्थ्य संगठन के हवाले से यह दावा किया जा रहा है कि देश में 88 फ़ीसदी लोगों को स्वच्छ पेय जल की सुविधा उपलब्ध है. क्या इस आंकड़े पर भरोसा किया जा सकता है जब राजधानी दिल्ली में स्वच्छ पेय जल के लिए आए दिन प्रदर्शन हो रहे हों और जब क्रमिक रूप से मुंबई के सभी इलाके में सप्ताह में एक दिन पानी बंद करने की नीति अपनाई जा रही हो? अगर सरकारी दावे को सच मान लिया जाए जो तस्वीर अधिक विद्रूप हो जाती है . इसका मतलब यह हुआ कि अनेक ऐसी जगह, जहां पानी के कारण लोगों के आए दिन मरने की ख़बर आती रहती है वह बाकी बचे बारह प्रतिशत के दायरे में आती है. और लगातार ऐसी ख़बर आने के बावजूद सरकार इन इलाकों में पेय जल की सुविधा उपलब्ध कराने के प्रति निर्मम रूप से उदासीन है. इस उदासीनता की क्या वजह हो सकती है?

हाल के वर्षों में कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लेकर छत्तीसगढ़ के इस भाग में माओवादियों के अलावा बड़ी संख्या में अन्य जनसंगठनों ने इसे स्थानीय लोगों के सामाजिक-सांस्कृतिक विकास के हिसाब से अनुपयुक्त दिया और इसका विरोध किया. इस विरोध को मास मीडिया के जरिए सत्ता तंत्र ने विकास विरोधी क़ौम की देश विरोधी हरक़त साबित करने का हरसंभव कोशिश की है. इस प्रचार को तथ्य के रूप में स्थापित करने की मुहिम लगातार जारी है कि माओवादियों के कारण ’अन्य आम लोगों’ का विकास बाधित हो रहा है और माओवादियों की नीति सरकार द्वारा शुरू किए गए किसी भी परियोजना को ध्वस्त करना हैं, इसलिए ’विकास’ वहाँ तक पहुँच नहीं पाता. इस दृष्टिकोण से उठने वाली बात को कि, स्थानीय लोगों की ज़रूरतों के हिसाब से सामाजिक-आर्थिक विकास नहीं होने से ही इस विचारधारा को अधिक विस्तार मिला है, बार-बार यह कह कर ढंकने का प्रयास किया जाता है कि सरकार वहां के लोगों को समाज की ’मुख्यधारा’ से जोड़ने की कोशिश कर रही है. ऐसे क्षेत्रों में अनेक ऑपरेशनों के जरिए माओवादियों के सफ़ाई का अभियान सेना ने चला रखा है. ऐसे ऑपरेशन में माओवादियों को घेरने और आत्मसमर्पण करने के लिए तमाम अमानवीय तरीकों का भी इस्तेमाल किया जाता है जिसमें सरकार का जोर नहीं चल पाता कि ऐसे किसी तरीके से ’आम लोग’ प्रभावित न हो. लालगढ़ में हुए सैन्य ऑपरेशन में इस आशय की ख़बर भी आई थी कि सीआरपीएफ़ के जवानों ने माओवादियों को कमज़ोर करने के लिए पीने के पानी को दूषित कर दिया और कई कुंओं में मलमूत्र तक त्याग कर पानी को ऐसा बना दिया गया कि वह पीने लायक न रह पाए. ऐसी स्थिति में सरकार क्या ऐसे लोगों को, जो माओवादी विचारधारा में यक़ीन नहीं रखते, लेकिन उस क्षेत्र में रहते हैं, स्वच्छ पानी उपलब्ध करवाई थी? तारमेटला में लोग साफ़ पानी नहीं मिलने के कारण मरते गए और सरकार सतर्क नहीं हुई. अब कुछ और लोग मरे हैं तो सरकार से क्या उम्मीद की जाए? जनस्वास्थ्य के प्रति सरकारी चिंता कितनी गंभीर है?
एक तरफ़ जहां यह बताया जा रहा है कि इस इलाके में डॉक्टर नहीं आना चाहते, वहीं आदिवासियों की चिकीत्सकीय सेवा के लिए छत्तीसगढ़ में लंबे समय से सक्रिय डॉ. बिनायक सेन को पुलिस ने माओवादी समर्थक बताकर दो साल तक जेल में बंद रखा. जनता दोनों तरफ़ से पिस रही है. साधारण तौर पर इस क्षेत्र में डॉक्टरों, सरकारी नुमाइंदों और कर्मचारियों के लिए नियमित काम पर न जाने के पक्ष में एक-सा रटा-रटाया जवाब होता है कि माओवादी उपद्रवियों से बचने के लिए वे ऐसा करते है. बचने का मतलब जान बचाने से है. लेकिन अभी तक आंकड़ों के हवाले से इस बात की पुष्टि नहीं हो पाई है कि माओवादी सिविल सरकारी कर्मचारियों और डॉक्टरों को जान से मारते हैं. सरकारी प्रचार तंत्र के जरिए सरकार जो बात लोगों के बीच स्थापित करना चाहती है, डॉक्टरों की ऐसी घोषणाओं से उसे बल मिलता है. अधिकांश मौकों पर समस्याओं पर बात करते समय सरकारी मशीनरी समस्याओं को आंकड़ों के रूप में प्रदर्शित करने की मांग करती है. व्यक्तियों के दुःख-दर्द को वह जीडीपी और आर्थिक वृद्धि दर के आंकड़ों तले दबाकर मानने से इंकार करती रहती है, लेकिन जब बस्तर और इर्द-गिर्द के क्षेत्रों में माओवादियों द्वारा किसी सिविल अधिकारियों के मारे जाने संबंधी आंकड़े प्रदर्शित करने को कहा जाता है तो राजकीय शासन तंत्र कुछ सरकारी कर्मचारियों की ऐसी बातों को ’लोकप्रिय जनभावना’ के तहत देखने का आग्रह इस भाव से करती है गोया आंकड़ा कोई तुच्छ चीज़ हो. इस तरह, डॉक्टरों और कर्मचारियों की बातें सरकारी बातों का नागरिक तर्जुमा बन कर सामने आती है. अब स्थिति ऐसी बनती है कि नागरिकों के अलग-अलग तबके स्थानीय विकास के मुद्दे पर पहले आपस में फ़ैसला कर लें कि आख़िरकार वास्तविक समस्या क्या है? नागरिकों के ऐसे समूह के विचार, जो राज्य के विचार से मेल खाते है, उसे वर्चस्वशाली और प्रमुख बनाकर पूरे समाज के सामने प्रस्तुत किया जाता है.
माओवादियों को कारण बताते हुए सरकार ने यह कहा है कि बस्तर के अधिकांश इलाकों में मौजूदा राउंड की जनगणना नहीं चलाई जा सकती. जनगणना नहीं होने से भूख और पानी से मरने वाले लोगों और कंपनियों के लिए विस्थापित होने वाले लोगों के वास्तविक संख्या की जानकारी भी ठीक-ठीक नहीं हो पाएगी. यह कई दस्तावेजों में दर्ज होने से बच जाएगी और सरकार का विकास काग़ज़ पर फ़र्राटा दौड़ेगा. ’सरकारी लोकतंत्र’ में विकास के लोकप्रिय सूचकांक को उन्नत करने के लिए मौजूदा राज्य सरकार ने अपने पड़ोसी राज्य से पर्यावरण और आदिवासी क्षेत्रों से संबंधित क़ानूनों के उल्लंघन के कारण भगाए गए कुख्यात खनन कंपनी वेदांता को लगभग उतने ही उदार होकर खनन करने की अनुमति प्रदान की है, जितने में उसे ओडिसा से भगाया गया था और जिसके बाद ओडिसा के मुख्यमंत्री का भाव कुछ ऐसा था कि उनके राज्य से स्वयं विकास देवता भाग रहे हो. पिछले दिनों मुख्यमंत्री रमण सिंह पर निशाना साधते हुए पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने वैसे ही सवाल उठाए जिसे आमतौर पर माओवादियों और जनसंगठनों के एरिया का माना जाता है. जोगी ने रमण सिंह पर यह आरोप लगाया कि वह राज्य में कोयला, लौह-अयस्क सहित अन्य खनिज पट्टों के आवंटन में अनियमितता बरत रहे हैं और वे आनन-फ़ानन में कंपनियों के साथ एमओयू साइन कर रहे हैं. जाहिर है ऐसे मुद्दों को उठाने वाले अनेक जनसंगठनों को अलग-अलग राज्यों ने ’विकास विरोधी’ नामक विशेषण दे रखा है. गुजरात में नरेंद्र मोदी ने अपने चुनाव भाषणों में कई बार यह दोहराया था कि लोगों को मेधा पाटेकर चाहिए या विकास? अभी-अभी महिला सशक्तिकरण और पंच-सरपंच सम्मेलन में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने नर्मदा बचाओ आंदोलन को विकास विरोधी करार दिया. क्या रमण सिंह कांग्रेस को विकास विरोधी के रूप में प्रचारित कर सकते हैं? जाहिर है संसदीय लोकतंत्र की बड़ी पार्टियां आपस में विरोध को उसी स्तर तक ले जाते हैं जहां तक वे बारी-बारी से सत्ता में आने से उसी काम को अंजाम दे सके जिसके लिए वे एक-दूसरे का विरोध कर रही थीं. नंगा तथ्य यह है कि छत्तीसगढ़ में पानी के कारण लोग उस समय मर रहे हैं जब देश में राष्ट्रकुल खेल के नाम पर पैसों का अश्लील प्रदर्शन किया जा रहा है और जब पानीपत से दिल्ली के लिए 45 मिनट में सुपरफास्ट रेलगाड़ी चलाए जाने की घोषणा हो रही है.
(लेखक पत्रकार हैं)संपर्क: दिलीप, प्रथम तल्ला, C/2 ,पीपल वाला मोहल्ला, बादली एक्सटेंशन, दिल्ली-42, मो. - +91 9555045077, E-mail - dilipk.media@gmail.com