18 जनवरी 2010

स्वास्थ्य पर घटे बाजार का प्रभुत्व

डॉ. ए.के. अरुण
 
न दिनों भारत ही नहीं, लगभग पूरी दुनिया गंभीर रोगों की चुनौतियों से जूझ रही है। प्रचलित पुराने रोगों के अलावा नये उभर रहे रोगों की जानलेवा किस्में बड़े पैमाने पर कहर बरपा रही हैं। इन रोगों के खात्मे के नाम पर चलाए जाने वाले सरकारी कार्यक्रमों की या तो दिशा बदल दी गई है या उनकी मियाद बढ़ा दी गई है। ‘सबके लिए स्वास्थ्य’ और ‘गरीबों के लिए स्वास्थ्य’ की जगह अब चुनिन्दा प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा (एस.पी.एच.सी.) ने ले ली है। पहले स्वास्थ्य का जिम्मा बहुत हद तक सरकार के पास था। अब इसे निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया गया है। निजी बीमा कम्पनियां एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियां इसके लिए धन उपलब्ध करा रही हैं। भारत में स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दे कभी आर्थिक सुधारों के केन्द्र में नहीं रहे हैं, बल्कि इन्हें तो सुधारों के मुख्य लक्ष्य, निवेश और विकास की राह में बाधक माना जाता है। हम देख रहे हैं कि 1991 के आर्थिक सुधारों का जन स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ रहा है।
भारत में अब भी संक्रामक रोगों से मरने वालों की संख्या बहुत अधिक है। टी.बी. संक्रमण की वार्षिक दर आज भी 1.5 फीसद से ज्यादा है। विश्व औसत से यह दर लगभग दोगुनी है। भारत में प्रत्येक वर्ष करीब 15 करोड़ टी.बी. रोगियों की पहचान होती है। इनमें से सालाना 3 लाख अकाल मनुष्य के शिकार होते हैं। यहां कुष्ट रोगियों की संख्या 10 लाख से भी ज्यादा है। यह दुनिया के कुल कुष्ट रोगियों की संख्या का एक तिहाई है। प्रत्येक वर्ष दस्त से ही मरने वाले बच्चों की संख्या लगभग 5 लाख है। पोलियो के उन्मूलन कार्यक्रम को ही देखें, तो 1995 से चल रहे इस कार्यक्रम पर काफी खर्च करने के बाद भी पोलियो से मुक्ति की घोषणा करने की स्थिति नहीं बनी है। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़े के अनुसार पोलियो उन्मूलन अभियान पर प्रत्येक वर्ष 1100 करोड़ रूपये खर्च होते हैं, लेकिन नीतिगत खामियों की वजह से पोलियो खत्म होने का नाम नहीं ले रहा।
एच.आई.वी./एड्स को लेकर भारत में चर्चित विवाद आंकड़ों, उसके नाम पर हो रहे खर्च और एड्स रोकथाम के सुझावों आदि को लेकर बना ही हुआ है। प्रत्येक वर्ष मलेरिया, डेंगू और कालाजार विकराल रूप धारण करता है। हजारों जानें जाती हैं लेकिन हम अपनी स्वास्थ्य सम्बन्धी सोच को जनपक्षीय नहीं बना पा रहे। मलेरिया 1947 में भारत में भयानक रूप में था। 7.5 करोड़ प्रभावित लोगों में आठ लाख लोग मौत के शिकार हुए थे। सन 1964 तक आते-आते यह नियंत्रित हो चला था, लेकिन अब फिर मलेरिया घातक रूप से फैल रहा है। इतना ही नहीं, मलेरिया की जानलेवा प्रजाति ‘फैल्सिफेरम मलेरिया’ के मामले बढ़ रहे हैं। कालाजार भी 1960 तक खत्म हो चुका था, लेकिन इधर कालाजार के मामले 77 हजार से बढ़ गए हैं और मौतों का आंकड़ा भी बढ़ा है।
भूमंडलीकरण के दौर में ये स्थितियां और विकट हुई हैं। आज देश में 13 से 20 करोड़ ऐसे लोग हैं, जो अपना इलाज पैसे देकर करा सकने की स्थिति में नहीं हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की 1995 की वार्षिक रिपोर्ट पर गौर करें। इस रिपोर्ट में अत्यधिक गरीबी के अन्तरराष्ट्रीय वर्गीकरण में एक रोग माना गया है। इसे जेड 59.5 का नाम दिया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि गरीबी तेजी से बढ़ रही है और इसके कारण विभिन्न देशों और एक ही देश के लोगों के बीच दूरी भी बढ़ती जा रही है। इससे स्वास्थ्य समस्याएं और गंभीर हुई हैं। एक आंकड़े के अनुसार भारत में 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों में प्रत्येक तीन में से दो बच्चे कुपोषित हैं। गिनती में यह संख्या सात करोड़ है। विश्व में 17 प्रतिशत कुपोषित बच्चों में से 40 प्रतिशत बच्चे तो भारतीय हैं। आर्थिक सुधारों का कमजोर वर्ग पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। सन 2000 के बाद भी 6 से 24 माह आयु के बच्चों और गर्भवती महिलाओं में कुपोषण की समस्या बढ़ी ही है। कुछ प्रमुख राज्यों (आंध्र प्रदेश, गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आ॓डीशा, पंजाब, राजस्थान) में नवजात शिशु मृत्यु दर भी बढ़ी है। भारत में मुक्त व्यापार व्यवस्था का लाभ उठा कर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने तीसरी दुनिया के देशों में असुरक्षित और पुरानी दवाओं, संक्रमित खाघ पदार्थों का अम्बार लगा दिया है। इस खेल में हमारी सरकार इनकी जूनियर पार्टनर बन गई है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को डब्ल्यूएचआ॓ और संयुक्त राष्ट्र द्वारा मान्यता मिलने से दूसरों के साथ मिलकर ये संस्थाएं न्यूनतम जोखिम उठाकर अपने निवेश का भरपूर लाभ ले रही हैं।
इस पृष्ठभूमि में आम लोगों की सेहत और लोगों के स्वास्थ्य के प्रति सरकार की जवाबदेही की बात बेमानी लगती है, लेकिन जनहित की बात करने वाले जनसमूह और वैकल्पिक धारा के जिम्मेदार लोगों, लोगों के संगठन के समक्ष स्थिति का ब्योरा रखकर एक व्यापक पहल और प्रक्रिया की उम्मीद करना जरूरी है। स्वास्थ्य, शिक्षा और सेवा के दूसरे क्षेत्रों पर कम्पनियों की बुरी नजर का दुष्परिणाम हर अमीर-गरीब को भुगतना होगा। समाजवाद को अप्रासंगिक मान चुका साम्राज्यवाद अब जब कभी लड़खड़ाने लगता है, तो लोग फिर समाजवाद की तरफ देखने लगते हैं। स्वास्थ्य जैसा जरूरी क्षेत्र सीधे जीवन से जुड़ा है, उस पर बाजार का प्रभुत्व कम हो, ऐसे प्रयास की जरूरत है।

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