14 जनवरी 2010

फेल हो चुका है बाजारीकरण का मॉडल

प्रोफेसर अरुण कुमार
 
वैश्वीकरण की शुरूआत हमारे देश में नब्बे के दशक से नहीं हुई है। यह प्रक्रिया हजारों साल से चल रही है, लेकिन शुरूआती दौर में वैश्वीकरण दोतरफा था। यानी हम दुनिया से लेते भी थे और दुनिया को देते भी थे। 1750 के बाद से यह एकतरफा होता रहा है। हम दूसरे देशों से ज्ञान और विचार तो प्राप्त करते हैं पर वैश्वीकरण की इस प्रक्रिया में हमारा योगदान नगण्य है। ज्ञान, आविष्कार और तकनीक में हम बुरी तरह से पिछड़ गये हैं। पाश्चात्य देशों की नकल करना ही हमारे यहां विकास का पर्याय बन गया है। जब 1947 में हमें आजादी मिली थी, तो उस वक्त भी समाज के समृद्ध तबके का नजरिया था कि पश्चिम के आधुनिकीकरण की गाड़ी बहुत तेजी से जा रही है, किसी भी तरह हम उसे पकड़ लें। इसके विपरीत, गांधी जी का सपना था कि हम अपना अलग रास्ता चुनें। पंडित नेहरू का रास्ता था- पश्चिम के आधुनिकीकरण की हम अंधाधुध नकल करें और विकास को ऊपर से नीचे की आ॓र पहुंचाएं। यानी बड़े-बड़े बांध, बड़े-बड़े संस्थान। इस एकतरफा विदेशीकरण में उन्होंने मिश्रित अर्थव्यवस्था का रास्ता चुना जिसके दोनों तत्व विदेशी थे।
पूंजीवादी मॉडल और समाजवादी मॉडल- दोनों ही पश्चिम से आये हैं। गांधी जी ने कहा था कि आत्मनिर्भर होते हुए हमें अपना विकास करना है, उसकी रफ्तार भले ही कम हो, पर करना हमें अपने तरीके से है। मगर देश को चलाने वालों ने अलग रास्ता चुना। उसी के कारण आज वित्तीय संकट से लेकर तमाम दूसरे संकट हमारे देश में हैं। ’60 के दशक में नक्सलवाद की समस्या आयी, तो ’70 के दशक में दूसरे तरह के असंतोष बढ़े। ’90 के दशक तक वह मॉडल पूरी तरह फेल हो गया। चीन जहां अपने आपको पूरी तरह 180 डिग्री मोड़कर बाजारवाद की गोद में जा बैठा, वहीं सोवियत संघ बिखर गया। इस घटनाक्रम के बाद हमने मिली-जुली अर्थव्यवस्था का मॉडल छोड़ दिया और पश्चिम के बाजारीकरण के मार्ग को पूरी तरह से अपना लिया।
अगर हम दो-चार हजार साल पीछे मुड़कर देखें तो बाजार उस वक्त भी था, लेकिन बाजारीकरण एक नयी चीज है। इसे पिछले 50 साल में हमने तेजी से पकड़ा और सन ’91 के बाद तो हम पूरी तरह इसकी जकड़ में आ गये। आज हमारे सारे सामाजिक ढांचों में भी बाजारीकरण की सोच घुस आयी है। जिस प्रकार पश्चिम में हर चीज को दौलत से तौल कर देखा जाता है कि वह फायदेमंद है या नुकसानदायक है, उसी तरह से हमने अपने हर सामाजिक और सामुदायिक संस्थान को बाजार के हिसाब से बदलना शुरू कर दिया। उदाहरणत: शिक्षा और चिकित्सा को हम आदरणीय व्यवसाय मानते थे, जिसका मूल्य नहीं आंका जा सकता। इसलिए हमारे समाज में शिक्षक और चिकित्सक का दर्जा काफी ऊपर था। बाजारीकरण के बाद लोगों की सोच बदल गयी है। चाहे छात्र हो या मरीज वे देखते हैं कि हम इतना खर्च कर रहे हैं तो हमें क्या मिल रहा है। शिक्षक सोचता है कि हमें तनख्वाह कम मिल रही है तो हम क्लास में क्यों पढ़ाएं, अपना ट्यूशन क्यों न पढ़ाएं। यानी हर किसी के दिमाग में बाजार घुस चुका है। आज हमने अपने समाज को बहुत बड़े पैमाने पर बदल दिया है। इसके कारण रंगीन टीवी, मोबाइल, कम्प्यूटर, नयी कारें आ गयीं, लेकिन क्या इसी को हम विकास मानेंगे? समाज के एक छोटे से हिस्से में समृद्धि तो आ गयी, लेकिन दूसरी चीजों में हम परेशानी के दौर से गुजर रहे हैं। पिछले बीस बरसों में यह असमानता जितनी बढ़ी है, उतनी पहले कभी नहीं थी और खासकर सन 2000 के बाद जब से विश्व बैंक का यह मॉडल लागू हुआ कि विकास किसी भी कीमत पर होना चाहिए, तो हमने विकास दर को तो बढ़ा दिया लेकिन देशवासियों में असमानता उतनी ही तेजी से बढ़ गयी। कॉरपोरेट सेक्टर का योगदान तो जीडीपी में बेतहाशा बढ़ गया, मगर कामगार वर्ग का योगदान दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा है। इसी वजह से हालिया वित्तीय संकट भी आया है।
पर्यावरण की जो कीमत हम चुका रहे हैं, उसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। शहर बेहद बुरी तरह प्रदूषित हो गये हैं। बच्चों तक को दमा होने लगा है और ऐसे मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। हम संसाधनों का जिस तरह निजीकरण कर रहे हैं और निजी हाथों द्वारा जिस प्रकार अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है उसके खतरनाक दुष्परिणाम से हम नजर चुरा रहे हैं। आज भी भारत बहुत गरीब देश है, क्योंकि हमारी प्रति व्यक्ति आय पश्चिम का 50वां हिस्सा है। यदि इतने कम उत्पादन स्तर पर ही हमारी नदियां इतनी प्रदूषित हो गयीं, हमारा वायुमंडल इतना प्रदूषित हो गया, तो हमें इस विकास को इस तरह परिभाषित करना ही पड़ेगा कि कार, मोबाइल, टीवी और शापिंग मॉल के होने से विकास हो गया?
जो नयी आर्थिक नीतियां हैं, उसके कारण जहां एक तरफ पर्यावरण का दम घुट रहा है; वहीं दूसरी तरफ गरीबों की आय पर बहुत बुरा असर हो रहा है। उदाहरणत: आ॓डीशा का नियमगिरि पर्वत जो स्थानीय निवासियों के लिए आजीविका का आधार होने के कारण देवतुल्य है, लेकिन सरकार को वहां का बॉक्साइट चाहिए। इस क्षेत्र की जमीन को सरकार खनन के लिए औने-पौने दामों पर निजी क्षेत्र को बेचती है जिसको स्थानीय लोगों के हितों से कोई लेना-देना नहीं और वह अंधाधुंध उत्खनन कर पहाड़ को ही खत्म करने पर तुला हुआ है। इससे यह स्वत:सिद्ध है कि मनुष्य की आस्था से इस बाजारवाद में कोई लेना-देना नहीं है।
इस दौर में सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक- सभी तरह के सरोकार गौण हैं। विकास भी चंद समृद्ध तबके तक ही सीमित रह जाता है। बाजारीकरण से समाज की आम धारणा खत्म हो गयी है, क्योंकि बाजार का मतलब है- चीजों का लेन-देन। चाहे वह सिगरेट हो या शराब हो या नशीले पदार्थ। बाजारीकरण के इस दौर में वैध-अवैध तरीकों से सभी हाजिर है। बाजार यह नहीं देखता कि ड्रग खरीदनेवाला छोटा बच्चा है, या बड़ा। उसके लिए पैसा ही महत्वपूर्ण है। यह बाजार एक तरफ जहां हाथ में सिगरेट थमाता है, तो सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि होती है, वहीं बीमार पड़ने पर इलाज करवाने से भी सकल ‘डॉलर वोट’ चलता है। ‘एक मनुष्य-एक वोट’ की नीति बाजार में नहीं चलती। जिसके पास जितना पैसा उसका उतना वोट, बाजार आखिरकार इसी सिद्धांत पर चलता है।’ संसद में सरकार कहती है कि हमने विश्व व्यापार संगठन से करार किया है इसलिए इस पर संसद में बहस नहीं हो सकती। इसमें बदलाव तभी संभव है, जब समाज की धारणा बदलेगी और समाज की धारणा बदलने में बुद्धिजीवी वर्ग का बहुत बड़ा योगदान होता है। लेकिन हमारे समाज का बुद्धिजीवी तबका अपना ज्ञान और दर्शन- दोनों पश्चिम से ही प्राप्त करता है। तो जब वहां बदलाव आएगा, तभी यहां भी बदलाव आ पाएगा क्योंकि हम अपनी धारणाओं को बहुत पहले ही पीछे छोड़ चुके हैं।
(शशि भूषण से बातचीत पर आधारित, राष्ट्रीय सहारा से साभार)

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